Thursday, October 19, 2017

दीवाली , गरीबी , मेरा गाँव और बिरजू फुआ.




शेष नारायण सिंह


दीवाली के दिन जब मुझे अपने गाँव की याद आती है तो उसके साथ ही  बिरजू फुआ की याद आती है. दीवाली के दिन उनके घर खाना पंहुचाना मेरे बचपन का एक ज़रूरी काम हुआ करता था. बाद में मेरी छोटी बहन मुन्नी ने यह काम संभाल लिया. बिरजू फुआ के घर आस पड़ोस के कई घरों से खाना  जाता था. उनका पूरा नाम बृजराज कुंवर थासन पैंतीस के आस पास उनकी शादी उनके पिता जी ने बहुत ही शान शौकत से सरुआर में कर दिया था. सरुआर उस इलाके को कहते थे जो अयोध्या से सरयू नदी को पार करने के बाद पड़ता है. यह गोंडा जिले का लकड़मंडी के बाद का इलाका है. उसको सम्पन्नता का क्षेत्र माना जाता था. बिरजू फुआ के पिता जी गाँव के संपन्न ठाकुर साहेब थे वे उनकी इकलौती बेटी थीं, उन्होंने काफी मेहनत से  योग्य वर ढूंढ कर बेटी की शादी की थी. लेकिन ससुराल में उनकी बनी नहीं और वे नाराज़ होकर वापस अपने माता पिता के पास चली आयीं.  बाप ने बेटी को गले लगाया और वे यहीं रहने लगीं . लेकिन कुछ ही वर्षों के बाद उनके पिता जी की मृत्यु हो गयी . उसके बाद तो अकेली माँ को छोड़कर जाने के बारे में वे सोच भी नहीं सकती थीं. यहीं की हो कर रह गयीं. अगर पढी लिखी होतीं, अपने अधिकार के प्रति सजग होतीं तो बहुत फर्क  नहीं पड़ने वाला था लेकिन  अवध के ग्रामीण इलाकों में निरक्षर बेटी को उसके बाप के भाई भतीजे फालतू  की चीज़ समझते हैं. बेटी को ज़मीन में उसका हक देने को तैयार नहीं  होते .  उनके पिता जी की मृत्यु के बाद उनके खानदान वालों ने तिकड़म करके उनकी ज़मीन अपने नाम करवा लिया . थोड़ी बहुत ज़मीन उनकी विधवा यानी  बिरजू की माई  को मिली  .उसको भी  १९७४ में चकबंदी के दौरान हड़प लिया गया . अब संपत्ति के नाम पर उनके पास उनका पुराना घर बचा था जो गिरते पड़ते एक झोपडीनुमा हो गया था. मां बेटी अपनी झोपडी में रहती थीं.  जब तक ज़मीन थी तब तक किसी से हल बैल मांग कर कुछ पैदा हो जाता था लेकिन ज़मीन चली जाने के बाद उन्होंने  बकरियां पालीं, उनके यहाँ कई बकरियां होती थीं, उन दिनों बकरी पालने के लिए खेत होना ज़रूरी नहीं होता था. पेड़ की झलासी, जंगली पेड़ पौधों की पत्तियाँ आदि खाकर बकरियां पल जाती थीं. उन्हीं बकरियों का दूध  बेचकर उनका रोज़मर्रा का काम चलता था. बकरी के बच्चे बेचकर कपडे लत्ते ले लिए जाते थे.  
जब उनकी माई मर गयीं तो बिरजू फुआ पर वज्र टूट पड़ा. उसके साथ साथ ही बकरियां भी सब खत्म हो गयीं. हालांकि उस समय उनकी उम्र साठ साल से कम नहीं रही होगी लेकिन अपनी माई पर भावनात्मक रूप से पूरी तरह निर्भर थीं. माँ के जाने के बाद  उनको दिलासा देने वाली बड़ी बूढ़ी  महिलाओं ने समझाया कि परेशान मत होइए , गॉंव है, सब अपने ही तो हैं ,ज़िन्दगी की नाव पार  हो जायेगी .

उसके बाद से गाँव के परिवारों के सहारे ही उनकी ज़िंदगी कटने वाली थी.  हमारे गाँवों में साल भर किसी न किसी के यहाँ कोई न कोई प्रयोजन पड़ता ही रहता है. अपने सगे भतीजों के  यहाँ तो वे कभी नहीं गयीं लेकिन पड़ोस के कुछ परिवारों  ने उनको संभाल लिया . अपने घर में तो अन्न का कोई साधन नहीं था लेकिन उन्होंने मजदूरी नहीं की. ठाकुर की बेटी थीं ,मजदूरी कैसे करतीं. सामंती संस्कार कूट कूट कर भरे हुए थे  .लेकिन पड़ोस के  ठाकुरों के जिन घरों में उनसे इज़्ज़त से बात की जाती थी, उनके यहाँ  चली जाती थीं. जो भी काम हो रहा हो ,उसमें हाथ लगा देती थीं. घर की मालकिन समेत सभी फुआ, फुआ करते रहते थे. जो भी खाना घर में बना होता था , वे भी उसी में शामिल हो जाती थीं.  फिर अगले दिन किसी और के यहाँ . शादी ब्याह में मंगल गीत गाये जाते थे . ढोलक बिरजू फुआ के हाथ से ही  बजता था.   बाद की पीढ़ियों के कुछ लड़के लडकियां उनको झिड़क भी देते थे तो कुछ बोलती नहीं थीं. लेकिन उनके चेहरे पर दर्द का जो मजमून दर्ज होता था, वह  मैंने कई बार देखा है . उस इबारत का अर्थ मुझे अन्दर तक झकझोर देता था. लेकिन ऐसे बदतमीज बहुत कम थे जो उनकी गरीबी के कारण  उनको अपमानित करते थे . हर त्यौहार में उनके चाहने वाले परिवारों से चुपके से खाना उनकी झोपडी तक पंहुचता था. बचपन के सामंती संस्कार ऐसे थे कि परजा पवन का कोई आदमी या औरत अगर उनके घर त्यौहार के बाद आ जाए तो उसको भी कुछ खाने को देती थीं क्योंकि उनके यहाँ कई परिवारों से कुछ न कुछ आया  रहता था . उनके सबसे करीबी पड़ोसी और मेरे मित्र तेज  बहादुर सिंह उनको हमेशा " साहेब" कहकर ही संबोधित करते थे. अपने अंतिम दिनों में वे चल फिर सकने लायक भी नहीं रह गयी थीं लेकिन अपनी मृत्यु के बाद लावारिस नहीं रहीं . पड़ोस के परिवारों के लोगों ने वहीं पर उनका अंतिम संस्कार किया जहां जवार के राजा रंक फ़कीर सब जाते थे. ग्रामीण जीवन में अपनेपन के जो बुनियादी संस्कार भरे पड़े हैं, शायद महात्मा गांधी ने उनके महत्व को समझा था और इसीलिये आग्रह किया था कि आज़ादी के बाद देश के विकास का जो भी माडल अपनाया जाए उसमें गाँव की केंद्रीय भूमिका  होनी चाहिए, गाँव को ही विकास की इकाई माना जाना  चाहिए . लेकिन  जवाहरलाल नेहरू ने ब्लाक को विकास की इकई बनाया और ग्रामीण विकास की नौकरशाही का एक बहुत बड़ा नया ढांचा तैयार कर दिया .  सोचता हूँ कि अगर विकास का गांधीवादी मन्त्र माना गया होता तो आज हमारे गाँवों की वह दुर्दशा न  होती जो आज हो रही है.

1 comment:

  1. सबसे पहले आपको दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं।
    कमोबेश गांवों में आज भी यही रूडीवादी सोच है।
    लेकिन वो बचपन की गांव वाली दिवाली अब नहीं मिलती,लगता है कि जिंदगी की दौड़ भाग में कहीं बहुत पीछे छूट गई है।

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