Saturday, September 6, 2014

प्रधानमंत्री जी , नेहरू की राह पर चलकर ही सफलता हासिल होगी



शेष नारायण सिंह  

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जापान यात्रा को मीडिया बहुत ही सफल यात्रा के रूप में पेश कर रहा है . सरकार की तरफ से भी यही बताया जा रहा है . विदेश मंत्रालय में जो अफसर भर्ती होते हैं वे आई ए एस वालों से भी ज़्यादा काबिल  होते हैं और उनको इस काम में महारत हासिल होती है लेकिन सही बात यह है कि प्रधानमंत्री की जापान यात्रा को सफल किसी तरह से भी नहीं कहा जा सकता . जिस जापानी  निवेश को बार बार चर्चा का विषय बनाया जा रहा है वह तो भारत में आ ही रहा था. भारत में जापानी  निवेश  कोई नई बात नहीं है .वैसे भी जापान के  निवेशक पाकिस्तान और पश्चिम एशिया की  खतरनाक राजनीति के माहौल से बचकर भारत में कुछ  ऐसा निवेश करना चाहते हैं जिसमें सब कुछ तबाह होने का खतरा न हो . इस तरह से जापान को जो बेलगाम निवेश के मौके दिए गए हैं उसमें भारत से ज़्यादा जापान का हित है .
एक बात जो भारत के हित में हो सकती थी वह है भारत और जापान के बीच में गैरसैनिक परमाणु समझौता . इसकी चर्चा कहीं नहीं हो रही है .तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में 1998 में भारत ने राजस्थान के पोखरण क्षेत्र में परमाणु परीक्षण किया था . उसके बाद से जापान भारत से नाराज़ हो गया था. तब से ही भारत सरकार की कोशिश रही है  कारण परमाणु नीतियों को लेकर दोनों देशों में मतैक्य स्थापित हो जाए लेकिन वह अभी नहीं हो पाया है . असैन्य परमाणु करार और सैन्य  समझौते पर इस बार कोई एकमत नहीं बना पाया जिसका कि कहीं ज़िक्र नहीं हो रहा है . भारत की विदेशनीति और ऊर्जा नीति के प्रबंधकों को मालूम है कि अगर बिजली पैदा करने के लिए परमाणु ऊर्जा की की टेक्नालोजी जापान दे दे तो भारत का बिजली संकट बहुत हद तक ठीक किया जा सकता है .नरेंद्र मोदी को भारत में शुरू से ही एक ऐसे नेता के रूप में जाना जाता है जो जापान को बहुत महत्व देता है , गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने जापानी उद्योगों को महत्व दिया था. अब जापान जाकर तो उन्होंने वाराणसी को वहाँ के एक शहर की नकल पर बना देने का मंसूबा बना लिया है . यह सब मीडिया में चर्चा में रहने के लिए सही है लेकिन इस यात्रा को बहुत सफल बताने वालों को फिर से विचार करना चाहिए . यहाँ यह ध्यान देने की बात है कि जापान को सज़ा देने के उद्देश्य से जब अमरीका और ब्रिटेन से उसपर दबाव बनाया था तो भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने उसका विरोध किया था. आज भी जापान के विदेश नीति के प्रबंधक उसको याद रखते हैं .
भारत और जापान के संबंधों में जिन तीन लोगों को जापान कभी भी नहीं भुला सकता ,उनमें जवाहरलाल नेहरू , सुभाष चन्द्र बोस और जस्टिस राधाबिनोद पाल का नाम है . सुभाष चन्द्र बोस ने जापानियों के साथ दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान सहयोग किया था. जापान के प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में कहा कि जापान में जस्टिस राधाबिनोद पाल को सभी जानते हैं . ताज्जुब है कि एक ऐसे व्यक्ति के बारे में प्रधानमंत्री के सलाहकारों ने उनको कुछ नहीं बताया था  जो भारतीय है और जिसको जापान में सभी जानते हैं . जापान के कई प्रसिद्ध मठों में जिनके स्मारक बने हुए हैं और जो भारत-जापान संबंधों की सबसे मज़बूत कड़ी हैं .
राधाबिनोद पाल ने टोक्यो मुकदमों की सुनवाई के दौरान जज के रूप में काम किया था .१९४६ में दूसरे विश्वयुद्ध के बाद टोक्यो ट्रायल के लिए उनको भारत सरकार ने जज बनाकर भेजा था   उन्होंने वहाँ पर जो फैसला दिया उसी के आधार पर जापान को एक राष्ट्र के रूप में फिर से पहचान बनाने का मौक़ा लगा . अमरीका सहित विजेता देशों की इच्छा थी कि कानून का सहारा लेकर जापान को युद्ध अपराधों का दोषी साबित कर दिया जाए और उसकी तबाही को सुनिश्चित कर दिया जाय  लेकिन राधाबिनोद पाल ने इस फैसले में असहमति का नोट लगा दिए और जापान  बच गया . विजेता सहयोगी देशों में विश्वयुद्ध जीत लेने के  बाद युद्ध अपराधों की एक श्रेणी बनाई थी जिसमें हारे हुए देश का कोई पक्ष नहीं था. जस्टिस राधाबिनोद पाल ने कहा कि यह सही नहीं है . उन्होंने कहा कि युद्ध के दौरान जापान ने कुछ ऐसे काम  किये हैं जो मानवता के खिलाफ अपराध हैं लेकिन  अभियुक्त को अपनी बात कहने की आज़ादी दिए बिना न्याय नहीं हो सकता . उन्होंने उस ट्राईबुनल की वैधता पर ही सवालिया निशान लगा दिया . उन्होंने कहा कि अमरीका समेत विजेता देश बदले की भावना को सही ठहराने के लिए कानून का सहारा ले रहे हैं . इस तरह से न्याय तो  कभी नहीं हो सकता . उनके एक हज़ार से ज़्यादा पृष्ठों के  फैसले को अमरीका ने प्रतिबंधित कर दिया . ब्रिटेन में भी वे फैसले कभी नहीं छप सके लेकिन जापानी नेताओं ने बाद के वर्षों में इस फैसले को सभी अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इस्तेमाल किया और अपने राष्ट्र की इज्ज़त को बहाल करने की कोशिश की . अजीब बात है कि जापान के प्रधानमंत्री ने भारतीय प्रधानमंत्री को जस्टिस पाल के बारे में बताया जबकि जो भी भारतीय नेता जापान जाता है वह जस्टिस राधाबिनोद पाल का नाम ज़रूर लेता है . जापान के सम्राट ने जस्टिस पाल को अपने देश का सबसे बड़ा नागरिक सम्मान दिया  था और जापान के मौजूदा प्रधानमंत्री ने ही कोलकता जाकर  जस्टिस पाल के बेटे प्रणब कुमार पाल से मुलाकात की थी . जस्टिस पाल के दामाद देबी प्रसाद पाल भारत की पी वी नरसिम्हा राव की सरकार में वित्त राज्य मंत्री थे और डॉ मनमोहन सिंह के सहयोगी थे . लेकिन प्रधानमंत्री ने इस सबका ज़िक्र नहीं किया . ज़ाहिर है कि उनके लोगों ने उनको सही जानकारी समय पर नहीं दी थी .
भारत जापान संबंधों में जवाहरलाल नेहरू भी एक ऐसे व्यक्ति के रूप में याद किये जाते हैं जो जापानियों के दुर्दिन के साथी थे. दूसरे  विश्वयुद्ध के बाद जब जापान हार गया  तो अमरीका ने हर तरह से उसको अपमानित करने के मन बनाया . जस्टिस राधाबिनोद पाल ने न्याय के मैदान में सत्य की पक्षधरता दिखाकर जापानियों को  उपकृत किया तो राजनीति के मैदान में जवाहरलाल नेहरू का सहयोग जापान में सबसे अधिक याद किया जाता है, हुआ यह कि जापान को और नीचा दिखाने के लिए अमरीका ने १९५१ में  सान  फ्रांसिस्को पीस कान्फरेंस का आयोजन किया . जवाहरलाल ने साफ़ मना कर दिया कि भारत इस तथाकथित शान्ति सम्मेलन में शामिल नहीं होगा. उन्होंने कहा कि इस सम्मलेन का उद्देश्य जापान की संप्रभुता और राष्ट्रीय स्वतंत्रता पर लगाम लगाना है . और बाद में न्यायप्रिय दिखने के लिए जब जापान की संप्रभुता को अमरीका ने बख्श दिया तब जवाहरलाल नेहरू ने एक संप्रभु जापान राष्ट्र के साथ अलग से शान्ति समझौता किया और उसके बाद औपचारिक रूप से स्वतन्त्र संप्रभु जापान के साथ  अप्रैल १९५२ में  राजनयिक सम्बन्ध स्थापित किया .  दूसरे विश्व द्ध के खत्म होने के बाद जब कोई देश जापान के साथ खड़ा नहीं होना चाहता था , भारत ने उसको संप्रभु देश मानकर समझौता किया और बाद में सभी देशों की लाइन लग गयी . यह मान्यता भी जापान में आभार के साथ याद की जाती है .
बीजेपी वालों की नेहरू विरोधी राजनीति से मौजूदा सरकार के मंत्री इतने प्रभावित  हैं कि उनको नेहरू का वह योगदान भी नहीं याद रहता जिसकी  वजह से दुनिया भर के देशों में भारत की इज्ज़त होती है .लगता है नरेंद्र मोदी को भी उनके सलाहकार डर के मारे सही बात बताने के कतराते हैं . अब जब नरेंद्र मोदी ने  विदेश नीति के संचालन में जवाहरलाल नेहरू के तौर  तरीके का अनुसरण करना शुरू कर दिया है तो उनको विदेश नीति के नेहरू माडल से परहेज़ नहीं करना चाहिए . जवाहरलाल नेहरू ने भी विदेश नीति के संचालन में किसी विदेशमंत्री को साथ नहीं रखा , वे खुद ही विदेश मंत्रालय का काम देखते थे . मौजूदा सरकार में सुषमा स्वराज को विदेशमंत्री के रूप में तैनात तो कर  दिया है लेकिन विदेश यात्राओं में या विदेशनीति के संचालन में उनकी भूमिका कहीं नहीं नज़र आती .  संतोष की बात है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी जवाहरलाल नेहरू का अनुकरण इस मामले में कर रहे हैं . सही बात यह है कि किसी भी प्रधानमंत्री को देश के सबसे महान प्रधानमन्त्री  से  प्रेरणा लेते रहना चाहिए . यह देशहित में रहेगा . इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की बात करना तो ज्यादती होगी क्योंकि उन लोगों को गद्दी नेहरू  के वंशज होने की वजह से मिली थी लेकिन जवाहरलाल नेहरू ने तो १९४६ तक का जीवन संघर्ष में बिताया था , अंग्रेजों की जेलों में रहकर महात्मा गांधी की अगुवाई में देश की आज़ादी की लड़ाई लड़ी थी और आर्थिक आज़ादी की मज़बूत नींव डाली थी .

 विदेशनीति के अलावा मौजूदा प्रधानमंत्री अगर कश्मीर नीति के बारे में भी जवाहरलाल को ही  आदर्श मानें तो गलातियों की संभावना बहुत कम हो जायेगी . जैसे उन्होने अपनी पार्टी की बहुत सारी मान्यताओं को  तिलांजलि दी है अगर उसी तरह कश्मीर नीति के बारे में भी बीजेपी की पुरानी नीति को अलविदा कह दें तो उनकी राजनीतिक छवि को ताकत मिलेगी ..जो लोग नेहरू की नीति को कश्मीर के मामले में गलत मानते हैं उनको इतिहास की जानकारी बिल्कुल नहीं है.  कश्मीर आज भारत का हिस्सा इसलिए है कि सरदार पटेल और जवाहरलाल नेहरू ने मिलकर काम किया था. सितम्बर १९४७ में जब जम्मू-कश्मीर के राजा ने भारत में अपने राज्य के विलय के दस्तावेज़ पर दस्तखत किया था तो पूरा राज्य शेख अब्दुल्ला के साथ था . और जम्मू-कश्मीर का हर नागरिक भारत के साथ विलय का पक्षधर था . जिस जनमत संग्रह का आजकल विरोध किया  जाता है वह उन दिनों भारत के पक्ष में था. महात्मा गाँधी ,जवाहरलाल नेहरू सरदार पटेल और शेख अब्दुल्ला ने ही जोर दिया था कि राज्य की जनता की राय लेना ज़रूरी है लेकिन पाकिस्तान जनता की राय लेने के खिलाफ था . लेकिन जवाहरलाल नेहरू को पाकिस्तान की नीयत पर भरोसा नहीं था .उन्होंने अपनी चिंता का इज़हार इन शब्दों में किया."पाकिस्तान की रणनीति यह है कि अभी ज्यादा से ज्यादा घुसपैठ कर ली जाए और जब जाड़ों में कश्मीर अलग थलग पड़ जाए तो कोई बड़ी कार्रवाई की ." नेहरू ने सरदार पटेल को एक पत्र भी लिखा कि ऐसे हालात बन रहे हैं कि महाराजा के सामने और कोई विकल्प नहीं बचेगा और वह नेशनल कान्फरेन्स और शेख अब्दुल्ला से मदद मागेगा और भारत के साथ विलय कर लेगा.अगर ऐसा हो गया गया तो पाकिस्तान के लिए कश्मीर पर किसी तरह का हमला करना इसलिए मुश्किल हो जाएगा कि उसे सीधे भारत से मुकाबला करना पडेगा.अगर राजा ने इस सलाह को मान लिया होता तो कश्मीर समस्या का जन्म ही न होता..इस बीच जम्मू में साम्प्रदायिक दंगें भड़क उठे थे . बात अक्टूबर तक बहुत बिगड़ गयी और महात्मा गाँधी ने इस हालत के लिए महाराजा को व्यक्तिगत तौर पर ज़िम्मेदार ठहराया पाकिस्तान ने महाराजा पर दबाव बढाने के लिए लाहौर से आने वाली कपडेपेट्रोल और राशन की सप्लाई रोक दी. संचार व्यवस्था पाकिस्तान के पास स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट के बाद आ ही गयी थी. उसमें भी भारी अड़चन डाली गयी.. हालात तेज़ी से बिगड़ रहे थे और लगने लगा था कि अक्टूबर १९४६ में की गयी महात्मा गाँधी की भविष्यवाणी सच हो जायेगी. महात्मा ने कहा था कि अगर राजा अपनी ढुलमुल नीति से बाज़ नहीं आते तो कश्मीर का एक यूनिट के रूप में बचे रहना संदिग्ध हो जाएगा.  सच्ची बात यह  है कि कश्मीर को उस अक्टूबर में गुलाम होने से बचाया इस लिए जा सका कि घाटी के नेताओं ने फ़ौरन रियासत के विलय के बारे में फैसला ले लिया.
आज जापान से भारत के अच्छे संबंधों में जस्टिस राधोगोबिंद पाल और जवाहरलाल नेहरू का सबसे ज्यादा योगदान है . आज की सरकार उसी ढर्रे पर चल रही है . ज़रूरी है कि नेहरू को आजादी के  संघर्ष का हीरो  माना जाए और उनकी नीतियों को देशहित में प्रयोग किया जाए.


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