शेष नारायण सिंह
अभी एक दोस्त ने ऐलान किया है कि ‘ देश की राजनीति में अच्छे, ईमानदार, चरित्रवान, कर्
ऐशो आराम के शौकीन मौजूदा राजनेताओं की यह फौज भारतीय अर्थव्यवस्था के मनमोहनीकरण की देन है . जब मनमोहन सिंह ने पी वी नरसिम्हा राव के वित्तमंत्री के रूप में अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की कोशिश शुरू की तो उन्होंने पूंजीवादी अर्थशास्त्र की सबसे खतरनाक राजनीति की शुरुआत की जिसमें कल्याणकारी राज्य की भूमिका को केवल व्यापार को बढ़ावा देने वाली एजेंसी के रूप में पेश किया गया  . देश की अर्थव्यवस्था को उन्होंने उदारीकरण और भूमंडलीकरण की आग में झोंक दिया . मनमोहन सिंह ने आर्थिक उदारीकरण को उपचार के रूप में पेश किया और भारतीय अर्थव्यवस्था को विश्व बाज़ार के साथ जोड़ दिया। डॉ. मनमोहन सिंह ने आयात और निर्यात को भी सरल बनाया। और भारत को दुनिया के विकसित देशों का बाज़ार बना दिया .निजी पूंजी को उत्साहित करके सार्वजनिक उपक्रमों को हाशिए पर ला दिया . देखने में आया है कि डॉ मनमोहन सिंह के १९९२ के विख्यात बजट भाषण के बाद इस देश में जो घोटाले हुए हैं वे हज़ारों करोड के घोटाले हैं .इसके पहले घोटाले कम कीमत के हुआ करते थे . बोफर्स घोटाला बहुत बड़ा घोटाला माना जाता था लेकिन पिछले १५ वर्षों के घोटालों पर एक नज़र डाली जाए तो समझ में आ जाएगा कि ६५ करोड का बोफर्स घोटाला आधुनिक कलमाडीयों , राजाओं और येदुराप्पाओं के सामने बहुत मामूली हैसियत रखता है .इसका करण यह है कि  बहुत बड़ी संख्या में राजनीति में आर्थिक लाभ से प्रेरित लोग शामिल  हो गए हैं .यह लोग राजनीति को व्यापार समझते हैं और उसमें लाभ हानि के लिए किसी से भी समझौता कर लेते हैं . एक और बात समझ लेने की है कि दोनों ही बड़ी पार्टियों की अर्थनीति वही है , डॉ मनमोहन सिंह को बेशक बीजेपी वाले आजकल दिन रात कोस रहे हैं लेकिन जब उनकी पार्टी की सरकार बनी तो छः साल तक मनमोहन सिंह की ही आर्थिक नीतियां चलती रहीं . उन नीतियों को लागू करने के लिए अटल बिहारी वाजपेयी ने वित्त मंत्री के रूप में किसी पूर्व अफसर को लगा रखा था .
अभी हमने देखा कि बीजेपी और कांग्रेस में लोकसभा में तेलंगाना मुद्दे पर बड़ी अपनापे भरी एकता नज़र आयी . यह जो एकता दिखी है वह अकारण नहीं है . दोनों ही पार्टियां पूंजीवादी अर्थशास्त्र की राजनीति के लिए काम करती हैं और ऐसे बहुत सारे उदाहरण मिल जायेगें जहां कांग्रेस और बीजेपी में कोई फर्क नहीं हैं . अभी पिछले दिनों दिल्ली की विधानसभा में भी कांग्रेस और बीजेपी में ज़बरदस्त एकता देखी गयी . यह एकता सारी राजनीतिक तल्खी के बाद बनी रहती है. ऐसा माना जा रहा था कि अरविंद केजरीवाल नाम का व्यक्ति दोनों पार्टियों के जनविरोधी और पूंजीवाद समर्थक रुख को रोकने की कोशिश करेगा लेकिन उन्होंने इस उम्मीद को ध्वस्त कर दिया है . उन्होंने पूंजीपतियों की एक सभा में जाकर ऐलानियाँ कहा कि वे पूंजीवाद की राजनीति की पूरी पक्षधरता के साथ लगे हुए हैं . यानी वे भी आखीर में मनमोहन सिंह के अर्थशास्त्र को ही लागू करेगें . हाँ सत्ता हासिल करने के लिए वे दोनों ही राजनीतिक पार्टियों का विरोध करने का स्वांग ज़रूर कर रहे हैं .
राजनीति में सत्तर के दशक में ऐसे लोगों का आना बड़े पैमाने पर शुरू हुआ जो राजनीति को व्यापार समझते थे. इस तरह के लोगों की भर्ती स्व इंदिरा गांधी के छोटे पुत्र संजय गांधी ने मुख्य रूप से की थी. संजय गांधी ने दिल्ली की सीमा पर गुडगाँव में मारुति लिमिटेड नाम की एक फैक्ट्री लगाकार कारोबार शुरू किया था लेकिन बुरी तरह से असफल रहे. अटल बिहारी वाजपेयी, मधु लिमये , ज्योतिर्मय बसु , पीलू मोदी, जार्ज फर्नांडीज़ और हरि विष्णु कामथ के लोकसभा में दिए गए भाषणों से हमें मालूम हुआ कि संजय गाँधी को उद्योगपति बनाने के लिए बहुत से दलालों , चापलूसों और कांग्रेसी मुख्य मंत्रियों ने कोशिश की लेकिन संजय गाँधी उद्योग के क्षेत्र में बुरी तरह से फेल रहे . उसी दौर में दिल्ली के उस वक़्त के काकटेल सर्किट में सक्रिय लोगों ने उन्हें कमीशनखोरी के धंधे में लगा दिया . बाद में तो वे लगभग पूरी तरह से इन्हीं लोगों की सेवा में लगे रहे. शादी ब्याह भी हुआ और काम की तलाश में इंदिरा गाँधी के कुछ चेला टाइप अफसरों के सम्पर्क में आये और नेता बन गए. भारतीय राजनीति का सबसे काला अध्याय संजय गाँधी के साथ ही शुरू होता है. जब हर तरफ से फेल होकर संजय गाँधी ने राजनीति में शामिल होने की योजना बनाई तो बड़े बड़े मुख्यमंत्री उनके दास बन गए . नारायण दत्त तिवारी, बंसी लाल आदि ऐसे मुख्य मंत्री थे जिनकी ख्याति संजय गाँधी के चपरासी से भी बदतर थी. न्यायपालिका संजय गाँधी की मनमानी में आड़े आने लगी. संजय गाँधी ने अपनी माँ को समझा बुझाकर इमरजेंसी लगवा दी. इमरजेंसी के दौरान सत्ता की राजनीति का घोर पतन हुआ और संजय गांधी के चापलूस की सत्ता के मालिक बन बैठे . कांग्रेस पार्टी को १९७७ में हार का मुंह देखना पड़ा लेकिन सत्ता से बाहर रहकर संजय गांधी ने ऐसे लोगों को कांग्रेस का सदस्य बनाया जिनको राजनीति के उन आदर्शों से कोई लेना देना नहीं था  जो आज़ादी की लड़ाई की मूल भावना के रूप में जाने  जाते थे.  यही वर्ग १९८० में सत्ता में आ गया और जब मनमोहन सिंह ने अर्थव्यवस्था को विश्वबाजार के सामने पेश किया तो इस वर्ग के बहुत सारे नेता भाग्यविधाता बन  चुके थे. उन्हीं भाग्यविधाताओं ने आज देश  का यह हाल किया है और अपनी तरह के लोगों को ही राजनीति में  शामिल होने के लिए  प्रोत्साहित किया है .पिछले २० वर्षों की भारत की राजनीति ने यह साफ़ कर दिया है कि जब तक देशप्रेमी और आर्थिक भ्रष्टाचार के धुर विरोधी राजनीतिक पदों पर नहीं पंहुचते ,देश का कोई भला नहीं होने वाला है . इसी शून्य को भरने की कोशिश आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने की और जनता  ने उनको सर आँखों पर बिठाया लेकिन उद्योगपतियों की सभा में उन्होंने भी साफ़ कह दिया है कि वे पूंजीवादी राजनीति का समर्थक हैं . इसका मतलब यह हुआ कि वे चाकर पूंजी के लिए काम करेगें और उसी तरह से देश का भला करेगें  जैसा ईस्ट इंडिया कंपनी, ब्रिटिश साम्राज्य और १९७० के बाद की बाकी सत्ताधारी पार्टियों ने किया है . केवल महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू की राजनीतिक प्रमुखता  के दौर में देश के आम आदमी के हित की राजनीति हुई है बाकी तो चाकर पूंजी की सेवा ही चल रही है .
राजनीतिक दुर्दशा के इस माहौल में मेरे मित्र या उसके जैसे लोगों का चुनाव राजनीति में शामिल होने के बारे में सोचना एक महत्वपूर्ण राजनीतिक विकासक्रम है . आज यह देशहित में है कि ऐसे लोग सभी राजनीतिक पार्टियों में शामिल हों जिससे देश की राजनीति देश के साधारण आदमी की पक्षधरता के बुनियादी कर्त्तव्य का पालन कर सके ,कल्याणकारी राज्य की स्थापना हो सके, और राजनीति के रास्ते देश में फल फूल रहा आर्थिक भ्रष्टाचार खत्म किया जा सके .
 
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