शेष नारायण सिंह  
मुंबई के फुटपाथों पर भीख मांगने वाले बच्चों के लिए शुरू किये गए कोचिंग सेंटर अब वंचित तबकों के लोगों के  सपनों को संजोने के  महत्वपूर्ण केंद्र के रूप में विकसित हो रहे हैं . आशा किरण चैरिटेबल ट्रस्ट नाम के संगठन के प्रयास से  मुंबई के उपनगर अंधेरी और वर्सोवा के  इलाके में  सडकों के फुटपाथों पर  स्कूल चल रहे हैं जो हज़ारों रूपये देकर ट्यूशन करने वालों से बेहतर शिक्षा  उन बच्चों को दे रहे हैं जिनके लिए ट्यूशन क्या, स्कूल जाना भी एक सपने से कम नहीं था.  आशा किरण ट्रस्ट के इस अभियान को प्रो.शर्मा नाम के एक बुज़ुर्ग लीड कर रहे हैं . 
एयर फोर्स से रिटायर  होकर शर्माजी  ने मुंबई के चार बंगला इलाके को अपना ठिकाना बनाया. करीब १६ साल पहले की बात है उन्होंने देखा कि चार बंगला क्रासिंग के पास कुछ लोग भीख मांगने वाले  बच्चों को  खाना खिला रहे हैं .खिचडी घर नाम की संस्था के तत्वावधान में यह काम चल रहा था.  यह रोज़ का काम था. खाना वितरण के वक़्त वहां भीख मांगने वालों की भारी संख्या हो जाती थी .  चार विषयों के एम ए ,शर्माजी एयर फोर्स से आने के बाद ट्यूशन किया करते थे. खुद अविवाहित हैं इसलिए कोई जिम्मेवारी भी नहीं थी. ट्रस्ट वालों से उन्होंने कहा कि इस तरह से भिखारी को खाना देने से भीख मांगने के काम को प्रोत्साहन मिलता है . इस काम पर होने वाले खर्च का  समाज के विकास में कोई रचनात्मक योगदान नहीं है.शर्माजी ने उन दानी लोगों से कहा कि मैं इन बच्चों को पढ़ाऊंगा . उन्होंने विवेकानंद की उस बात का हवाला भी दिया जहां उन्होंने कहा था कि अगर प्यासा  कुएं के पास नहीं जा सकता तो ऐसे उपाय किये जाने चाहिए कि कुआं ही प्यासे के पास चला जाए. उन्होंने तर्क दिया कि शिक्षा ही समाज और राष्ट्र के विकास की  मुख्य धुरी है . इसी के आस पास सारी आर्थिक और सामाजिक गतिविधियां घूमती हैं . आशा किरण चैरिटेबल ट्रस्ट के ट्रस्टियों की समझ में बात आ गयी . उन्होंने शर्माजी को हरी झंडी दे दी और पूछा कि कब से आप पढ़ाना चाहेगें. उन्होंने कहा कि मैं अभी इसी वक़्त काम शुरू करना चाहता हूँ.शुरू में वे दो बच्चों को वहां लेकर बैठे . बाकी माता पिता अपने बच्चों को शिक्षा जैसी बेकार की चीज़ में समय बर्बाद करने के लिए भेजने को तैयार नहीं थे. ट्रस्ट के अध्यक्ष अग्रवाल साहेब और अन्य साथियों ने मिलकर आस पास की झुग्गी झोपडी इलाकों में जाकर अभियान चलाया . लेकिन बच्चों की कमी रही . १९९६ में एक अन्य ट्रस्टी नंदा कोटावाला ने  कहा कि जो बच्चे स्कूल आयेगें उन्हें पांच रूपया दिया जाएगा . संख्या तो बढ़ी लेकिन उस रूपये का दुरुपयोग होने लगा . बच्चे सुरती तमाखू खाने लगे. शर्माजी ने सुझाव दिया  कि नक़द नहीं सभी बच्चों को २०० ग्राम दूध दिया जाए जिसे या तो वे खुद पी लेगें या अपने घर ले जायेगें . दोनों  ही हालात में उस दूध का सही इस्तेमाल होगा. बहरहाल शुरुआती मुश्किलों के बाद आज यह प्रयास चल निकला है . इन सेंटरों को स्कूल के रूप में मान्यता नहीं मिली है इसलिए सभी बच्चों का आस पास के महानगरपालिका के स्कूलों में दाखिला करा दिया जाता है . जहां वे स्कूली पढाई करते हैं और महाराष्ट्र बोर्ड की परीक्षाओं में शामिल होते हैं . 
मुंबई के व्यस्त उपनगर अंधेरी की व्यस्त सडकों के फुटपाथों पर चटाई बिछाकर बैठे यह बच्चे उन वर्गों के लोगों के हैं जो आमतौर पर हिम्मत हार चुके होते हैं . सड़क पर ट्रैफिक  शोर लगातार सुनायी पड़ता रहता है लेकिन इन बच्चों की पढाई चलती  रहती है . वाकर के सहारे चलने वाले शर्माजी खुद भी कुछ  सेंटरों पर मौजूद रहते हैं . उनके साथ  एक  सुषमा मेहता भी मिलीं .  मुंबई के महंगे पोद्दार स्कूल में ३५ साल तक पढ़ाने के बाद वे इन बच्चों को मुफ्त में पढ़ाती हैं  . एक ब्रिगेडियर साहेब की पत्नी रेखा शर्मा भी जुडी  हैं जो अपना समय और ज्ञान इन बच्चों को मुफ्त में दे रही हैं. मिसेज़ मेहता और मिसेज़ शर्मा की तरह के करीब चालीस और लोग हैं जो समाज के संपन्न वर्ग के हैं लेकिन इन वंचित वर्ग के बच्चों के  लिए अपना समय और प्रयास लगा रहे हैं .   लेकिन सारा काम वालिटियरों के सहारे ही नहीं  चलता .हर  सेन्टर पर तीन घंटे पढाई होती है . इन सेन्टरों पर काम करने के लिए कुछ ऐसी लड़कियों को नौकरी पर भी रखा गया है जिनको तीन घंटे के काम के लिए उपयुक्त वेतन दिया जाता है .
शून्य से शुरू हुआ यह प्रयास आज मुंबई की शहरी ज़िंदगी में एक सार्थक हस्तक्षेप है . शुरुआती कोशिश के बाद जब  स्कूल ने कुछ गति पकड़ी तो एक सरदार जी आये और उन्होंने कहा कि जितने भी केले खरीदे जाते हों सब का भुगतान वे करेगें . ट्रस्ट ने कभी किसी  सरकारी संस्था या किसी नेता से कोई मदद नहीं ली है . अपने सहयोगियों के प्रयास से ही म्हाडा का फ़्लैट खरीदा गया था जो करीब १५ साल पहले १३ लाख रूपये का मिला था. आज उसकी कीमत डेढ़ करोड़ रूपये है . सेंटर को एक बस की ज़रुरत थी तो हिन्दुस्तान टाइम्स में काम करने वाले एक पत्रकार ने बिरला औद्योगिक परिवार से साढ़े छः  लाख रूपये दिलवा दिया .कुछ और लोगों के सहयोग से बस भी  खरीद ली गयी. आज ट्रस्ट का एक फ़्लैट भी है जहां सारा सामान रखा जाता है .
इन केन्द्रों से  पढ़कर जाने वाले बच्चे जीवन में बेहतर ज़िंदगी जीने और अपने आस पास के माहौल  को बदलने की कोशिश करते हैं . यहाँ से जाने वाली लड़कियां गरीब तो होती हैं लेकिन अपनी अगली पीढ़ियों को बेहतर ज़िंदगी देने की कोशिश करती  रहती हैं .शर्माजी  ने बताया कि उनके केन्द्रों से पढाई करने वाले कुछ पूर्व छात्र-छात्राएं यहाँ आते भी है  और अपने स्कूल से सम्बन्ध बनाए रखने में गर्व का अनुभव करते हैं .
 
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