शेष नारायण सिंह 
नयी दिल्ली ,३ जनवरी .. छत्तीसगढ़ पुलिस की साज़िश के शिकार  हुए डॉ बिनायक सेन की पत्नी, श्रीमती इलीना सेन  ने आज दिल्ली में कहा कि छत्तीस गढ़ की न्यायव्यवस्था से वे इतना ऊब गयी हैं कि मन कहता है कि किसी ऐसे देश में पनाह ले लें जहां मानवाधिकारों की कद्र की जाती हो .  उन्होंने कहा कि कुछ मुसलमानों की तरफ से उनको और उनके पति को लिखे गए पत्रों को पुलिस ने पाकिस्र्त्तान की आई  एस आई  द्वारा लिखे गए पत्र मान कर उनके खिलाफ फर्जी आरोप गढे . जबकि सच्चाई यह है कि वे पत्र उनके पास आई एस आई  ( इंडियन सोशल इंस्टीटयूट  ) के तरफ से भेजे गए थे जो दिल्ली में है और सामाजिक मुद्दों पर शोध का काम करवाता है . उनका कहना है कि हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की न्याय प्रियता पर उन्हें भरोसा है इसलिए अभी न्याय की गुहार करने वे ऊंची अदालतों में जायेगीं . प्रेस क्लब में  पत्रकारों से बात करते हुए उनके साथ मौजूद  सुप्रीम कोर्ट के नामी वकील , प्रशांत भूषण ने कहा कि  बिनायक सेन को आजीवन कारावास की सज़ा सुनाने वाला फैसला कानून पर  आधारित नहीं है . उसमें इवीडेंस एक्ट और संविधान का उन्ल्लंघन किया गया है . प्रशांत भूषण ने कहा कि जिस जज ने फैसला सुनाया है उसके खिलाफ हाई कोर्ट को अपने आप कार्रवाई करना चाहिए और नियमों के अनुसार उसे दण्डित किया जाना चाहिए . 
मानवाधिकार कार्यकर्ता और  छत्तीसगढ़ के नामी डाक्टर , बिनायक सेन को २१ दिसंबर को राय पुर की  एक अदालत ने देश द्रोह  का दोषी करार देकर आजीवन कारावास की सज़ा सुना दी थी . उसी  दिन से पूरे देश में   बिनायक सेन को दी गयी सज़ा के विरोध में प्रदर्शन हो रहे हैं . डॉ बिनायक सेन की पत्नी आज पहली बार दिल्ली आयीं और उन्होंने प्रेस के सामने अपनी बात रखी . उन्होंने कहा कि मुक़दमे के दौरान जिन दो पत्रों , ए-३१ और ए.३७ को आधार बनाकर उनके पति को देशद्रोह का दोषी करार दिया गया है उन पत्रों में ऐसा कुछ भी नहीं है . उनका आरोप है कि सरकार ने पहले दिन से ही तय कर लिया था कि उनके पति को दंड देना   है और उसी आधार पर उनके खिलाफ केस बनाया गया . उनका आरोप है कि राज्य सरकार ने डॉ बिनायक सेन के खिलाफ इसलिए भी केस बनाया कि राज्य में आतंक फैलाने के लिए सलवा जुडूम नाम की जिस सरकारी मिलिशिया का सरकार की कृपा से गठन किया गया था , डॉ बिनायक सेन ने उसका पुरजोर विरोध किया था . . . उन्होंने कहा कि उन्हें मालूम  है कि उन पर अदालत की अवमानना का आरोप लगाकर उन्हें भी दण्डित किया जा सकता है लेकिन उन्हें यह कहने में संकोच नहीं है कि निचली अदालत ने सबूत को नज़रंदाज़ करके अपना फैसला सुनाया  है . उन्होंने  जोर देकर कहा कि करीब तीन साल चले मुक़दमे  के दौरान पुलिस ने जो भी आरोप तैयार किया  था सब को बचाव पक्ष के वकीलों ने ध्वस्त कर दिया था लेकिन अदालत ने पुलिस की मर्ज़ी का फैसला सुनाया . उन्होंने  कहा कि बहुत सारे दोस्तों ने सलाह दी थी कि दरखास्त देकर मुक़दमे को छत्तीस गढ़ के बाहर ले जाओ लेकिन  उन्हें पूरी उम्मीद थी  कि पुलिस तो राज्य सरकार की गुलाम है लेकिन न्याय पालिका से उन्हें न्याय मिलेगा . आज उस बात के गलत साबित होने पर निराशा हो रही है .
सुप्रीम कोर्ट के वकील प्रशांत भूषण ने  कहा कि  रायपुर की जिला अदालत का फैसला अब्सर्ड है .  आई पी सी की जिस धारा को आधार बनाकर यह  फैसला किया गया है उसे सुप्रीम कोर्ट ने  केदार नाथ बनाम बिहार सरकार के केस  में  १९६२ में रद्द कार दिया था . सुप्रीम कोर्ट ने अपने १९६२ के आदेश में कहा था कि यह धारा आज़ादी के पहले की है . जब आजादी के बाद अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार मिल  गया है  तो इस धारा  का कोई मतलब नहीं है लेकिन जिला अदालत के जज ने सुप्रीम कोर्ट के इस महत्वपूर्ण नज़ीर को नज़र अंदाज़ किया जो कि उन्हें नहीं करना चाहिए था.
 
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