शेष नारायण सिंह  
बिहार और उसके  आस पास के इलाकों में माओ के नाम पर लूट खसोट और जाति वाद का झंडा बुलंद किये हुए लोग न तो क्रांतिकारी हैं और न ही किसी क्रांतिकारी पार्टी के सदस्य हैं . हम शुरू से ही कहते आ रहे हैं कि यह लोग  वास्तव समाज के उसी वर्ग के सदस्य हैं जो इन इलाकों  में राजनीति के  सहारे धन इकठ्ठा करना चाहता है . १९७७  के पहले इस तरह के गुंडे राजनीतिक पार्टियों की सेवा में रहते थे लेकिन कोई भी  नेता यह स्वीकार नहीं करता था  कि वह गुंडे पालता है . लेकिन १९७७ में कांग्रेस के नेता स्व संजय गाँधी ने  इस तरह के लोगों को लोक सभा और  विधान सभा चुनावों  के टिकट दे दिए और यह लोग माननीय हो गए. उसके बाद  जीत सकने की क्षमता के नाम पर अन्य पार्टियों ने भी इस तरह के लोगों को टिकट दे दिया. और लगभग सभी पार्टियों में समाज विरोधी तत्वों की बाढ़  आ गयी. अब बात बदल गयी है .पिछले १० वर्षों में मुख्य धारा की पार्टियों  में गुंडों की नयी भर्ती नहीं हो रही है . तो राजनीतिक रूप से सक्रिय लोगों को लूट  खसोट कर लिए नए चारागाह की तलाश की जा रही थी.. उधर दूसरी तरफ अति क्रांतिकारिता के मर्ज़ से पीड़ित  कुछ अति वामपंथी और संशोधनवादी कम्युनिस्ट नेता क्रान्ति के मुगालते में घूम रहे थे . दोनों का मेल हो गया और नेताओं को जुझारू कार्यकर्ता मिल गए जबकि  काम की तलाश में बिहार और उसके आस पास भटक रहे  ऊंची जाति  के गुंडों को राजनीतिक संगठन मिल गया जिसके नाम पर लूट पाट की जा सके. लेकिन जब माओवादियों को बहुत सारे लोग मिल गए तो उन्होंने भी भर्ती में सख्ती कर दी . ज़ाहिर बहुत सारे बाहुबली उनके साथ जाने में जो लोग नाकामयाब रह गए . ऐसे लोगों को  सलवा जुडूम के नाम पर सरकारी तंत्र ने गुंडई और वसूली का काम दे दिया . बस  यही है  तथाकतित माओवादियों का क्रांतिकारी एजेंडा और  और उनसे लड़ने का अभिनय कर रही सरकारों की सच्चाई .अब बात सबके सामने आ गयी है . अब दुनिया जानती है कि इन जंगलों में घूम रहे गैर आदिवासी जाति के नौजवान वास्तव में सामन्ती व्यवस्था को दूसरे तरीके से बरक़रार रखना चाहते हैं . विस्फोट में प्रकाशित विद्वान् लेखक पुष्यमित्र का  लेख इस सारे खेल की कलई खोल देता है .  उन्होंने लिखा है कि  बिहार के बंधक विवाद के दौरान जिस तरह ईसाई आदिवासी बीएमपी हवलदार लुकस टेटे की हत्या कर दी गई और अभय यादव , रूपेश सिन्हा और  एहसान खान को छोड़ दिया गया उसके कारण माओवादियों के बीच जड़ जमा चुका यह विवाद सतह पर आ चुका है. बहुत संभव है कि इस झगड़े के कारण आने वाले दिनों में बिहार और झारखंड में माओवादियों के बीच गैंगवार की स्थिति उत्पन्न  हो जाये.
लखीसराय के माओवादियों द्वारा बंधकों में से एक ईसाई आदिवासियों की हत्या किये जाने के कारण झारखंड के आदिवासी माओवादियों में गहरा गुस्सा है.  माओवादी जोनल कमांडर बीरबल मुर्मू ने लखीसराय के जोनल कमांडर अरविंद यादव के खिलाफ कार्रवाई की मांग करते हुए कहा है कि उसने जहां एक ओर एक आदिवासी पुलिस कर्मी की हत्या करा दी वहीं अपनी जाति के बंधक अभय यादव की जान जानबूझकर बख्श दी. मुर्मू का कहना है कि अगर हत्या ही करना था तो चारो बंधकों की हत्या करते, किसी एक को मारना और तीन को छोड़ देना एक गलत परंपरा को जन्म देता है.झारखंड के जिन इलाकों में माओवाद का गढ़ है वे आदिवासी बहुल हैं और स्थानीय लोगों के सहयोग और  संरक्षण  के कारण ही वे इस इलाके में कामयाब हैं. उनके  कैडर में भी आदिवासियों की संख्या ही अधिक है..अवैध खनन वाले इन्हीं इलाकों से उन्हें सर्वाधिक आय होती है. ऐसे में लुकास टेटे की हत्या उनके लिये आत्मघाती साबित होने वाली है. झारखंड के आदिवासियों के हाल के दिनों में माओवाद के खिलाफ जंग की लड़े जाने की भावना सामने आने लगी है. पिछले दिनों कई गांवों में आदिवासियों ने जातीय सभा बुलाकर माओवादियों के खिलाफ जंग छेड़ने का ऐलान किया है. ऐसे में निश्चित तौर पर टेटे की हत्या आग में धी का काम करने वाली है. आने वाले दिनों में अगर आदिवासी समुदाय अधिक संगठित होकर माओवादियों के खिलाफ जंग का ऐलान कर दे तो इसमें किसी को अचरज नहीं होना चाहिये.टेटे का हत्यारा पिंटो दा और उस हत्या का आदेश जारी करने वाला अरविंद यादव बिहार पुलिस की हिरासत में है. उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले दिनों में माओवाद के नाम पर सामंती खेल खेलने वालों को जनता के दरबार में जवाब देना पडेगा.
 
जब कोई आंदोलन गलत रास्ते पर जाता है तो पीछे मुड़ कर नहीं देखता। इस का अंत माओवादियों में विभाजन के अतिरिक्त कुछ हो नहीं सकता।
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