शेष नारायण सिंह 
( यह आलेख १५ अगस्त २०१० को राष्ट्रीय सहारा ( हिंदी ) में छप चुका है )
आज़ादी के 63 साल  बाद भी देश में आज़ादी  पूरी  तरह से नहीं आई है . शायद  इसीलिये आज़ादी का  जो  सपना   हमारे महानायकों ने  देखा था  वह पूरा नहीं  हो रहा है ..सबसे  मुश्किल  बात  यह है कि राज-काज  के फैसलों  से देश  की आधी  आबादी  को बाहर  रखा  जा  रहा   है ..अपने देश में आज भी महिलायें  मुख्य  धारा  से बाहर  हैं . असंवेदनशीलता की हद तो यह है कि जनगणना  में गृहिणी को अनुत्पादक काम में शामिल माना गया है और उन्हें भिखारियों की श्रेणी में रखने की कोशिश  की गयी . लेकिन  हल्ला  गुल्ला  होने के बाद  शायद यह मसला  तो दब  गया लेकिन  महिलाओं  को सत्ता  से बाहर  रखने  में अभी  तक  मर्दवादी  राजनीति  के  पैरोकार सफल हैं और उन्हें संसद  और विधान मंडलों में बराबर  का हक  नहीं दे  रहे  हैं . महिलाओं के ३३ प्रतिशत आरक्षण के लिए जो बिल  राज्य सभा में पास किया गया था ,उसे मानसून सत्र में  पेश करने की मंशा सरकारी तौर पर जतायी  गयी है . यानी इस  सत्र में  जो काम होना है उसमें महिला आरक्षण बिल भी है .. लेकिन राज्य सभा में बिल को पास करवाने के लिए कांग्रेस ने जो उत्साह दिखाया था वह ढीला पड़ चुका है .कांग्रेस और बी जे पी में ऐसे सांसदों की संख्या खासी बड़ी है जो मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद की  तरह सोचते हैं  . अजीब बात है कि मुलायम सिंह और लालू प्रसाद जिन डॉ राम मनोहर लोहिया को अपना आदर्श मानते हैं , वही डॉ लोहिया महिलाओं  को आरक्षण के पक्षधर थे.इसलिए बिल को पास करवाना आसान नहीं है लेकिन उसे इतिहास के डस्ट बिन में भी नहीं डाला जा सकता है  क्योंकि देश में जागरूक नागरिकों का एक बड़ा वर्ग चाहता है कि संसद और विधान सभाओं में महिलाओं को एक तिहाई सीटें दे दी जाएँ. इसके फायदे बहुत हैं लेकिन उन फायदों का यहाँ ज़िक्र करना बार बार कही गयी बातों को फिर से दोहराना माना जाएगा. यहाँ तो बस दीवाल पर लिखी इबारत को एक बार फिर से दोहरा देना है  कि अब महिलाओं के लिए विधान मंडलों और संसद में आरक्षण को रोक पाना राजनीतिक पार्टियों के लिए बहुत मुश्किल होगा . इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि लोक सभा और राज्य सभा में ऐसी पार्टियां बहुमत में हैं जो घोषित रूप से महिलाओं के आरक्षण के  पक्ष में हैं . उनको उनकी बात पूरी करने के लिए मजबूर करने के लिए बड़े पैमाने पर आन्दोलन चल रहा है . इसी आन्दोलन की एक कड़ी के रूप में  मानसून सत्र शुरू होने के बाद  नयी दिल्ली के जंतर मंतर पर बहुत बड़ी संख्या में महिलाओं का हुजूम आया और उसने साफ़ कह दिया कि सरकार और विपक्षी दलों को अब महिला आरक्षण बिल पास  कर देना चाहिए वरना बहुत देर हो जायेगी.  मानवधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे संगठन ,अनहद की ओर से आयोजित जंतर मंतर की रैली  से जो सन्देश निकला वह दूर तक जाएगा . इसी रैली में सिने कलाकार और सामाजिक अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाली नेता, शबाना आजमी भी मौजूद थीं . उन्होंने ऐलान किया कि अब इस  लड़ाई को  तब तक जारी रखा जाएगा जब तक  कि महिलायें बराबरी के अपने मकसद को हासिल नहीं कर लेतीं .शबाना इस रैली की मुख्य आकर्षण थीं . उन्होंने कहा कि यह लड़ाई केवल औरतों के बारे में नहीं है , यह इन्साफ की लड़ाई है .लेकिन यह समझ  लेना  ज़रूरी है कि ३३ फीसदी आरक्षण कोई जादू की छडी नहीं है कि यह हो जाने के बाद सारी समस्याओं का हल मिल जाएगा. यह तो औरतों का वह हक है जो  उन्हें बहुत पहले मिल जाना चाहिए था.  यह सच है कि जब महात्मा गांधी ने आज़ादी की लड़ाई लड़ी थी तो आवाहन किया था कि महिलाओं को उनका अधिकार दिया जाना चाहिए . लेकिन हुआ ठीक उसका उल्टा. आज आज़ादी के ६३ साल बाद भी संसद में केवल ८ फीसदी महिलायें हैं ज़रुरत इस बात की है कि महिलाओं को उनका वाजिब हक  दिया जाए .अगर ऐसा हुआ तो हमारा समाज एक बेहतर समाज होगा क्योंकि महिलायें समाज की बेहतरी  के लिए हमेशा काम करती हैं..उनको मालूम है कि यह लड़ाई मामूली नहीं है और तब तक चलती रहेगी जब तक कि लोकसभा में ३३ फीसदी आरक्षण के लिए बिल पास नहीं हो जाता .
 शबाना आज़मी का यह बयान कोरा भाषण नहीं है  क्योंकि अब तक का उनका रिकार्ड ऐसा रहा है कि वे  जो कहती हैं वही करती भी हैं . कान फिल्म समारोह में जाने के पहले जब उन्हें पता लगा कि मुंबई के एक इलाके के लोगों की झोपड़ियां उजाड़ी जा रही हैं तो शबाना आज़मी ने कान को टाल दिया और मुंबई में जाकर भूख हड़ताल पर बैठ गयीं. भयानक गर्मी और ज़मीन पर बैठ कर हड़ताल करती शबाना आज़मी का बी पी बढ़ गया. बीमार हो गयीं .सारे रिश्तेदार परेशान  हो  गए . लोगों ने सोचा कि उनके अब्बा से कहा  जाए तो वे शायद इस जिद्दी लड़की को समझा दें. उनके अब्बा , कैफ़ी आजमी बहुत बड़े शायर थे ,अपनी बेटी से बेपनाह मुहब्बत करते थे और शबाना के सबसे अच्छे दोस्त थे. लेकिन कैफ़ी आज़मी कम्युनिस्ट भी थे और उनका  टेलीग्राम आया . लिखा था," बेस्ट ऑफ़ लक  कॉमरेड."    शबाना की बुलंदी में उनके अति प्रगतिशील पिता  की सोच का बहुत ज्यादा योगदान है . हालांकि शबाना का दावा है कि उन्हें बचपन में राजनीति में कोई रूचि नहीं थी, वे अखबार भी नहीं पढ़ती थी. लेकिन सच्चाई यह है कि वे राजनीति में रहती थी. उनका बचपन  मुंबई के रेड फ्लैग हाल  में बीता  था. रेड  फ्लैग हाल  किसी एक इमारत का नाम नहीं है . वह  गरीब आदमी के लिए लड़ी गयी बाएं बाजू की लड़ाई का एक अहम मरकज़ है . आठ कमरों और एक बाथरूम वाले इस मकान में आठ परिवार रहते थे .  हर परिवार के पास एक एक कमरा था . और परिवार भी क्या थे . इतिहास की दिशा को तय किया है इन कमरों में रहने वाले परिवारों ने. शौकत कैफ़ी ने अपनी उस दौर की ज़िन्दगी को अपनी किताब में याद किया है . लिखती हैं ,' रेड फ्लैग हाल एक गुलदस्ते की तरह था जिसमें गुजरात से आये मणिबेन और अम्बू भाई , मराठवाडा से सावंत और शशि ,यू पी से कैफ़ी,सुल्ताना आपा ,सरदार भाई ,उनकी दो बहनें रबाब और सितारा ,मध्य प्रदेश से सुधीर जोशी , शोभा भाभी और हैदराबाद से मैं . रेड फ्लैग हाल में सब एक एक कमरे के घर में रहते थे. सबका बावर्चीखाना बालकनी में होता था . वहां सिर्फ एक बाथरूम था और एक ही लैट्रीन  लेकिन मैंने कभी किसी को बाथ रूम के लिए झगड़ते नहीं देखा."
इस तरह के माहौल से शबाना आजमी आई हैं . उनके बचपन की भी अजीब यादें हैं . संघर्ष करने में उनको मज़ा आता है . शायद ऐसा इसलिए कि रेड फ्लैग हाल के उनके बचपन में जब मजदूर संघर्ष करते थे तो शबाना के  माता पिता भी जुलूस में शामिल होते थे. बेटी साथ जाती थी. इसलिए  बचपन से ही वे नारे लगा रहे मजदूरों के कन्धों पर बैठी होती थी. चारों तरफ लाल झंडे और उसके बीच में  एक अबोध बच्ची. यह बच्ची जब बड़ी हुई तो उसे इन्साफ के खिलाफ खड़े होने की ट्रेनिंग नहीं  लेनी पड़ी. क्योंकि वह तो उन्हें  घुट्टी में ही पिलाया गया था. शबाना आजमी ने एक बार मुझे बताया था कि लाला झंडे देख कर उनको लगता था कि उन्हें उसी  के बीच होना चाहिए था क्योंकि वे तो बचपन से ही वहीं होती थीं .उन्हने दूर दूर तक फहर रहे लाल झंडों को देख कर लगता था ,जैसे कोई जश्न का माहौल हो. 
 ऐसे बहुत सारे मामले हैं जहां शबाना ने अपनी बात को मनवाया है . तो इस बार तो उनके साथ महिलाओं की बहुत बड़ी  संख्या है और देश की राजनीतिक आबादी के बहुत सारे लोग  महिला आरक्षण  के पक्ष में हैं. शबाना आज़मी एक ऐसी महिला कार्यकर्ता  हैं  जिन्हें  पुरुषों  से बेपनाह  प्यार  मिला  है . उनका आन्दोलन  पुरुष  विरोधी नहीं है. उनके अब्बा, कैफ़ी आजमी उन्हें जान से बढ़ कर मुहब्बत  करते  थे. शबाना को आम बहुत पसंद हैं .उनके बचपन में जब बहुत गरीबी थी तो  कैफ़ी अपनी  बेटी को आम बहुत  मुश्किल  से दे  पाते थे . लेकिन  जब उन्हें अपने गाँव में फिर से रहने  का मौक़ा मिला  तो उन्होंने शबाना के लिए आम का पूरा  एक बाग़ लगवा दिया . इसलिए शबाना का महिला अआरक्षण आन्दोलन  में शामिल होना न तो  इत्तिफाक है और नहीं किसी तरह की पुरुष विरोधी  मानसिकता . वे इन्साफ की लड़ाई  लड़ रही हैं . 
लगता है कि अब लड़ाई एक निर्णायक  मुकाम तक  पंहुच  चुकी  है . इस संघर्ष की एक अच्छाई  यह भी है कि इसमें अगुवाई  उन  महिलाओं  के हाथ में है जो  अपने क्षेत्र  में बुलंदियां  हासिल  कर चुकी  हैं , किसी नेता की बेटी या बहू नहीं हैं . उम्मीद है कि इसी  सत्र  में लोकसभा  महिला आरक्षण  को मंजूरी  दे  देगी और  हम  एक देश  के रूप  में गर्व  से सिर  ऊंचा  कर सकेगें
 
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