Wednesday, June 3, 2020

लॉकडाउन की घोषणा के बाद सबसे ज्यादा तकलीफ शहरी गरीबों को ही झेलनी पड़ी.



शेष नारायण सिंह

कोविद 19 के चलते होने वाली तबाही की बात सारी दुनिया में हो रही है लेकिन भारत में कोरोना जनित बीमारी के खतरों से भी बड़ा ख़तरा  उन मुसीबतज़दा लोगों पर आ पड़ा है जो अपना गाँव घर छोड़कर शहरों में दो पैसे कमाने के लिए  चले गए थे. ऐसा लगता है कि सरकार ने देश में सबकुछ बंद करने के पहले उनके बारे में बिलकुल नहीं सोचा . नतीजा सामने है . आज वे गरीब लोग अपने गाँव पंहुचने की कोशिश कर रहे हैं . आज इस देश में बड़े शहरों से अपने गाँव की तरफ भाग रहे लोगों की संख्या इतनी बड़ी है कि एक महीने के अन्दर आतंरिक विस्थापन का एक  रिकार्ड बन रहा है . इतने कम समय में इतनी बड़ी संख्या में लोग एक जगह से दूसरी जगह कभी नहीं गए हैं .सबसे तकलीफ देने वाली बात यह है कि किसी सरकार को उनकी परवाह ही नहीं है .उत्तर प्रदेश सरकार ने बड़े शहरों से भागकर आ रहे लोगों को अपने राज्य में ही रोज़गार देने की एक बड़ी योजना बनाई है, चार अफसरों की एक कमेटी बना दी गयी है जिसको जिम्मा दे दिया गया  है कि वे जो भी करना पड़े लेकिन मजदूरों को कहीं काम पर लगाया जाए. बाकी किसी भी राज्य सरकार की तरफ से कोई काम नहीं हो रहा है . रेल मंत्रालय का रवैया सबसे गैर ज़िम्मेदार पाया गया है . उनकी हज़ारों ट्रेनें खडी हैं सारे कर्मचारी मौजूद  हैं  जब सरकार ने यह कह दिया है कि मजदूरों को उनके गाँव पंहुचाना एक प्राथमिकता है तो वे किस बात का इंतज़ार कर रहे हैं .मुंबईसूरतअहमदाबद में भूखों मर रहे लोगों की अपने गाँव जाने की कोशिश के चलते उनके ऊपर पुलिस की लाठियां क्यों बरसाई जा रही हैं .
 अगर लॉक डाउन की घोषणा के पहले इन मजदूरों की  संभावित मुसीबतों को ध्यान में रख लिया गया होता और उनके लिए  ज़रूरी इंतजाम कर लिया होता तो स्थिति इतना न  बिगडती .  अगर प्रधानमंत्री ने लेबर चौक पर रोजाना इकठ्ठा होकर उन मजदूरों की संभावित तकलीफ का आकलन कर लिया होता तो उनकी घर वापसी की तैयारी भी हो गयी होती या शहरों में ही उनके लिए भोजन आदि की व्यवस्था कर ली गयी होती  . लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ . नतीजा यह हुआ कि गाँव घर छोड़कर  शहरों में दो जून की रोटी की तलाश में गए लोग वहां  रहकर   भूखों से मुकाबला करने के लिए अभिशप्त हो गए . घोषणा के दो दिन बाद गरीबों की सहायता के लिए  वित्त मंत्री ने हजारों करोड़ रूपये का ऐलान किया.. वित्त  मंत्री ने गुरुवार को  प्रधानमंत्री गरीब कल्याण स्कीम की घोषणा की। डायरेक्ट कैश ट्रांसफर होगा और खाद्य सुरक्षा के जरिए गरीबों की मदद की जाएगी। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने दावा किया कि प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के तहत किसी गरीब को भूखा नहीं रहने दिया जाएगा .लेकिन कहीं कुछ नहीं हुआ. लेकिन ऐसा कुछ भी नज़र नहीं आया.  उधर गृह मंत्रालय का हुकुम आ   गया कि जो जहां है उसको  वहीं रोक लिया जाय.  उत्तर प्रदेश सरकार ने केंद्र सरकार के इस आदेश की कोई परवाह नहीं की. उत्तर प्रदेश में  सड़क पर चल रहे लोगों को उनके घर पंहुचाने का काम जारी रहा . उधर राज्य सरकार ने यह भी योजना बना दी कि जो  लोग बाहर से आ रहे हैं उनको  अपने राज्य में ही काम दिया जाएगा . एक सच्चाई और गौर करने की है कि मार्च के आख़िरी हफ्ते और अप्रैल के पहले हफ्ते में जो लोग गाँव में गए थे उनमें से कोई भी कोरोना संक्रमित नहीं  है . लेकिन जब लॉक डाउन की दूसरी और तीसरी किस्तें घोषित की गयीं तो  संक्रमित लोगों का अपने  गाँव जाने का सिलसिला शुरू हुआ. इस बीच केंद्र सरकार अपने वफादार टीवी चैनलों के ज़रिये तबलीगी जमात वालों के हवाले से से सभी मुसलमानों को संदिग्ध बताने के प्रोजेक्ट पर काम करती रही. यह मंसूबा भी बहुत जल्दी ध्वस्त होने वाला था . बड़ी  बड़ी घोषणा की जाती रही . लाखों करोड़ रूपया कोरोना के नाम पर सरकारी खजाने से निकालने की योजना बन गयी लेकिन वह सारा धन कारपोरेट घरानों  के लिए ही था. बड़ी कंपनियों को राहत दी गयी , इस उम्मीद में कि जब उद्योगपति  अपना कारोबार चलाएगा तो  मजदूरों को भी कुछ मिलेगा. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. उल्टा हुआ यह कि  कोरोना के बहाने सरकार ने मजदूरों के सारे अधिकार छीन लिए गए  . किसानों की खस्ता हालत की परवाह नहीं की और इसी कोरोना के नाम पर ऐसे ऐसे फैसले कर लिए गए जिसके लिए आने वाली  नस्लें पछतायेंगी. खेती में ऐसे बदलाव कर दिए गए हैं कि सारी ज़मीन अब ठेके की खेती के रास्ते बड़े घराओं के हाथ में जाने का खतरा पैदा   हो गया है .
 सरकार की अदूरदर्शी सोच का नतीजा ही  है कि दुनिया के बाकी देशों  जहाँ कोरोना के मुकाबले में सारे संसाधन लगाए जा रहे हैं , हमारे यहाँ शहरों से गाँवों की तरफ भाग रहे लोगों की चर्चा चारों तरफ हो रही है . उत्तर प्रदेश में तो अब कोई पैदल नहीं चल रहा  है लेकिन सूरत, अहमदाबाद और मुंबई से लोग अभी भी उत्तर प्रदेश और  बिहार के अपने गाँवों की तरफ पैदल ही भागे जा रहे हैं. इस भयानक उत्तर भारत की गर्मी में जहाँ दस क़दम पैदल चलने पर भी तकलीफ होती  है , वहीं हज़ारों की संख्या में मजदूर पैदल ही अपने बच्चों के साथ , अपने सिर पर सामान लादे चले जा रहे हैं . इतनी गर्मी में कैन कहाँ जा रहा  है , किसी भी सरकारी एजेंसी को पता नहीं है .  सरकार की तरफ से आने वाले बयानों में उनका कहीं ज़िक्र नहीं है .
अपने एक  भाषण में प्रधानमंत्री ने  दावा किया था कि जीडीपी का  दस प्रतिशत धन कोरोना से लड़ने के खाते में  सरकार ने  पैकेज के रूप में दे दिया है . यानी जीडीपी में पहले से ही जो कमी होने वाली थी उसमें दस प्रतिशत की और कमी होना निश्चित है लेकिन  सरकार गैरज़रूरी खर्चों को कम करने की कोई बात नहीं कर रही है . अभी पिछले दिनों खबर आई थी कि  राष्ट्रपति रामनाथ कोविंदउप राष्ट्रपति वेंकैया नायडू और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यात्राओं के लिए 8,458 करोड़ रुपये की लागत से दो बोइंग विमान खरीदे जा रहे हैं .. ये विमान अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के एयरफोर्स वन की तरह जबरदस्त सुरक्षा से लैस होंगे.  सरकार नई संसद और सेन्ट्रल विस्ता के दफ्तरों की जगह पर नया दफ्तर   बनाने की अपनी गैरज़रूरी योजना पर भी अड़ी हुई है . सवाल यह है कि आज जब हर सरकारी बयान में यह दावा किया जा रहा है कि मौजूदा स्थिति युद्ध से भी ज़्यादा मुश्किल है तो उसके  लिए लोगों से पैसा लेकर इन  मदों में खर्च करने की ज़रूरत क्या है .इनका औचित्य क्या है ?
हालांकि शुरू में लोगों को शक था  कि सरकार ने जानकारों से समझे बूझे बिना ही इतना बड़ा फैसला ले लिया . उस फैसले के कारण बहुत सारी समस्याएं पैदा हो गयीं और उन समस्याओं का पूर्वानुमान किये बिना ही घोषणा  कर दी गयी. भारतीय उद्योगपतियों के संगठन सी आई आई के पूर्व अध्यक्ष नौशाद फ़ोर्ब्स ने एक बयान देकर कहा है कि सरकार के पास एक प्रस्ताव भेजा गया था जिसके तहत उद्योगों के बंद होने के बाद मजदूरों को वेतन दिए जाने का प्रस्ताव था लेकिन सरकार ने उसको मंज़ूर नहीं किया . आगर कर लिया होता तो इतने बड़े पैमाने पर पलायन न होता. एक सवाल जो चारों तरफ से पूछा जा रहा है , वह यह है कि लॉक डाउन घोषित करने के पहले केवल चार घंटे का नोटिस क्यों दिया गया . सवाल यह है कि लॉकडाउन की घोषणा के पहले रहस्य क्यों बनाकर क्यों रखा गया ? नोटबंदी के ऐलान के समय भी ऐसा ही हुआ था .उस समय का तर्क तो समझ में आता है क्योंकि अगर रहस्य न रखा गया तो  सरकार के अन्दर के  ही लोग नोट के जमाखोरों को खबर लीक कर  देते  तो उसका मकसद ही ख़त्म हो जाता . इस  बार रहस्य बनाये रखने का कहीं कोई औचित्य नहीं  है . नोटबंदी की मुसीबतों को तो मजदूरों के साथ ऊंचे लोगों ने भी झेला था लेकिन इस बार सबसे ज्यादा मुसीबत समाज के सबसे गरीब लोगों के  हिस्से ही आई .अगर थोडा समय दे दिया गया होता और यह बता दिया होता कि आने वाले एकाध दो महीने उद्योगों के बंद रहने की संभावना है तो लोगों ने उस हिसाब से अपनी योजना बना ली होती . लेकिन किसी भी सरकारी घोषणा को  टेलिविज़न का इवेंट बनाने की सरकार की जो प्रबल इच्छा रहती है ,उसी के कारण यह सारी परेशानी आई.
देश में मजदूरों के प्रवास के जानकार बहुत सारे विद्वान् हैं .  प्रधानमंत्री के अपने शहर अहमदाबाद के आई आई एम में चिन्मय तुम्बे प्रोफ़ेसर  हैं . उन्होंने इस विषय पर बहुत काम किया है लेकिन सरकार के किसी आदमी ने उनसे भी कोई बात नहीं की. जबकि चिन्मय तुम्बे की किताबों के सन्दर्भ दुनिया पर में दिए जाते हैं . उनकी किताब , इंडिया मूविंग : हिस्ट्री आफ माइग्रेशन "  देश के बाहर जाने  वाले और  अपने ही देश में  महानगरों में गाँव से शहर जानकर रोटी कमाने वाले मजदूरों के बारे में विस्तृत जानकारी  है. उस जानकारी का कहीं कोई इस्तेमाल नहीं किया  गया  . हर सरकारी आंकड़े में दर्ज है कि देश के औद्यगिक केन्द्रों में बहुत बड़ी संख्या में  कम विकसित राज्यों से आकर लाखों लोग मजदूरी करते  हैं. मुंबई, सूरत, भिवंडी, मुंबई,  बेंगलूरू, कोयम्बतूर, इचल करंजी, दिल्ली, गुरुग्राम, आदि शहरों में प्रवासी मजदूरों की भारी संख्या है लेकिन  सरकार ने उनके लिए कोई योजना नहीं बनाई ..
नतीजा यह है आज मुंबई, इंदौर , सूरत, अहमदबाद से लोग भाग भाग कर अपने गाँव जा रहे हैं . जो भी सवारी मिल रही है , वही ले  रहे हैं . बहुत सारी दुर्घटनाएं भी हो रही हैं . घर पंहुचने से पहले मर जाने वालों का भी रिकार्ड कहीं कहीं तो हा लेकिन सम्पूर्ण नहीं है . इसलिए सरकार की गैरजिम्मेदार तैयारी के चलते मजदूरों का एक बहुत बड़ा वर्ग अकल्पनीय तकलीफ से गुज़र  रहा है . आने वाला समय इस का भी हिसाब रखेगा.

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