Wednesday, June 3, 2020

काशी विद्यापीठ के वेबिनार में  मुख्य वक्ता के रूप में दिया गया भाषण  
शेष नारायण सिंह 

हिंदी पत्रकारिता :  सामयिक मुद्दे और प्रस्तुतीकरण . दिलचस्प विषय है . शुरुआत में ही बता दूं कि मैं पत्रकारिता को सामायिक मुद्दों का ही विज्ञान मानता हूँ. भूतकाल के मुद्दे इतिहास होते हैं और भविष्य के मुद्दे  ज्योतिष की  सीमा में आ जाते  हैं . इसलिए पत्रकारिता के मुद्दे तो सामयिक ही होने हैं . हाँ उनके  प्रस्तुतीकरण  पर भारी मतवैभिन्य  है. आजकल देखने में आया है कि पत्रकार अपने दृष्टिकोण को ही पत्रकारिता बताने लगे हैं . वह सम्पादकीय है और वह भी पत्रकारिता का एक ज़रूरी अंग है . लेकिन संपादकीय लेखन या प्रस्तुतीकरण में बहुत संभालना  पड़ता  है. ख़तरा यह रहता है कि कहीं पत्रकार के   दृष्टिकोण इतने पक्षपात पूर्ण न हो जाएँ कि वह किसी की जयजयकार  करता हुआ नज़र आने लगे .उससे बचना चाहिए . आज मैं कोशिश करूंगा कि पत्रकारिता का शुद्ध समाचार का जो प्रस्तुतीकरण का मुद्दा है उसी पर केन्द्रित रहूँ .
आज काशी विद्यापीठ के तत्वावाधान में इस कार्यक्रम का आयोजन किया गया है . मैं पत्रकारिता के प्रस्तुतीकरण के लिए कबीर साहेब और गोस्वामी तुलसीदास को हीरो मानकर चालता हूँ क्योंकि सत्य के प्रति उनकी प्रतिबद्धता हमेशा से ही अनुकरणीय  रही है , आशा की जानी चाहिए कि आगे भी  रहेगी . राजा शिवप्रसाद सिंह सितारे हिन्द का बनारस अखबार , जुगल किशोर शुक्ल का उदन्त मारतंड ,भारतेंदु हरिश्चंद्र के अखबार कवि  वचन सुधा, हरिश्चंद्र पत्रिका और बाल बोधिनी हिंदी , बालकृष्ण भट्ट का हिंदी प्रदीप , बद्री नारायण चौधरी ' प्रेमघन ' की आनंद कादम्बिनी,आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की सरस्वती और प्रेमचंद का हंस ब्रिटिश आधिपत्य के दौर की पत्रकारिता और साहित्य के ऐसे बुलंद उदहारण है जिनसे आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा लेते रहना चाहिए .
मैं  व्यक्तिगत रूप से कलकत्ता से तीन-चार साल तक छपे अखबार ‘मतवाला ‘ को आदर्श के रूप में मानना चाहूँगा. आचार्य शिवपूजन  सहाय, मुंशी नवजादिक लाल श्रीवास्तव , सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, बालकृष्ण भट्ट और पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र ‘ ने मतवाला के ज़रिये तो मानदंड स्थापित किये  थे, उनको आदर्श के रूप में मानेंगे तो कोई दिक्कत पेश नहीं आयेगी . महात्मा गांधी  और  गणेश शंकर विद्यार्थी  की पत्रकारिता तो हमारे लिए प्रकाश स्तम्भ की तरह हैं ही .
 यह सारे पत्रकार आज़ादी के पहले के  मिशन पत्रकारिता करने वाले लोग  हैं. आज़ादी के बाद  हमारे संविधान के संस्थापकों में प्रेस की आज़ादी को हमेशा ध्यान में रखा .इसीलिये प्रेस की आज़ादी की  व्यवस्था  संविधान में ही निहित कर दी गयी है . संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) में अभिव्यक्ति की स्वत्रंत्रता की व्यवस्था दी गयी हैप्रेस की आज़ादी उसी से निकलती  है . इस आज़ादी को सुप्रीम कोर्ट ने अपने बहुत से फैसलों में सही ठहराया है . १९५० के  बृज भूषण बनाम दिल्ली राज्य  और १९६२ के सकाळ पेपर्स  प्राइवेट लिमिटेड बनाम यूनियन आफ इण्डिया के फैसलों में  प्रेस की अभिव्यक्ति की आज़ादी को मौलिक अधिकार के  श्रेणी में रख दिया  गया है . प्रेस की यह आज़ादी निर्बाध ( अब्सोल्युट ) नहीं है . संविधान के मौलिक अधिकारों वाले अनुच्छेद 19(2) में ही उसकी सीमाएं तय कर दी गई हैं.  संविधान में लिखा है  कि  अभिव्यक्ति की आज़ादी के "अधिकार के प्रयोग पर भारत की प्रभुता और अखंडताराज्य की सुरक्षाविदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधोंलोक व्यवस्थाशिष्टाचार या सदाचार के हितों में अथवा न्यायालय-अवमानमानहानि या अपराध-उद्दीपन के संबंध में युक्तियुक्त निर्बंधन जहां तक कोई विद्यमान विधि अधिरोपित करती है वहां तक उसके प्रवर्तन पर प्रभाव नहीं डालेगी या वैसे निर्बंधन अधिरोपित करने वाली कोई विधि बनाने से राज्य को निवारित नहीं करेगी"  यानी प्रेस की आज़ादी तो मौलिक अधिकारों के तहत कुछ भी लिखने की आज़ादी  नहीं है .
लेकिन इसके साथ ही  और भी सवाल  उठ रहे  हैं  कि यदि किसी के लेखन से किसी को एतराज़ है और वह मानता है पत्रकार ने 19(2) का उन्लंघन किया  है तो क्या उसको मार डालना  सही है ? . इस तर्क की परिणति बहुत ही खतरनाक है और इसी तर्क से लोकशाही को ख़तरा  है . कर्नाटक की पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या के हवाले से बात को समझने की कोशिश की जायेगी . उनकी हत्या के बाद उनके पुराने लेखों का ज़िक्र किया गया जिसमें उन्होंने ऐसी बातें लिखी थीं जो एक वर्ग को स्वीकार नहीं थीं. सोशल मीडिया पर सक्रिय एक  वर्ग ने  चरित्र हनन का प्रयास भी किया .वे यह कहना चाह  रहे थे कि गौरी लंकेश की  हत्या करना एक ज़रूरी काम था और जो हुआ वह ठीक ही हुआ.  आज ज़रूरत इस बात की है कि इस तरह की प्रवृत्तियों की निंदा की जाये .निंदा हो भी  रही है.  गौरी लंकेश की हत्या के अगले ही दिन देश भर में पत्रकारों ने सभाएं कीं , जूलूस निकाले  , सरकारों से हत्या  जांच की मांग की और तय किया कि मीडिया को निडर रहना है . दिल्ली के  प्रेस क्लब में एक सभा का आयोजन हुआ जिसमें लगभग सभी बड़े पत्रकार शामिल हुए और गौरी लंकेश की ह्त्या करने वालों को फासिस्ट ताक़तों का प्रतिनिधि बताया. कोलकाता प्रेस क्लब के तत्वावधान में प्रेस क्लब से गांधी जी की मूर्ति तक एक जुलूस निकाला . मुंबई में सामाजिक कार्यकर्ता ,पत्रकारफिल्मकार ,अभिनेत्ता इकठ्ठा हुए और असहमत होने के अधिकार को लोकशाही का सबसे महत्वपूर्ण अधिकार बताया और  गौरी लंकेश की  हत्या को प्रेस की आज़ादी की हत्या बताया .
इस उदहारण में  बुनियादी बात यह है कि असुविधाजनक लेख लिखने के लिए अगर लोगों की हत्या को सही  ठहराया जाएगा तो बहुत ही मुश्किल होगी . लोकतंत्र के अस्तित्व पर ही  सवालिया निशान  लग जाएगा.  इस लोकतंत्र को बहुत ही मुश्किल से हासिल किया  गया है और उतनी ही मुश्किल इसको संवारा गया है . अगर मीडिया जनता को सही बातें और वैकल्पिक दृष्टिकोण नहीं पंहुचाएगा तो सत्ता पक्ष के  लिए भी मुश्किल होगी. इंदिरा  गांधी ने यह गलती १९७५ में की थी. इमरजेंसी में सेंसरशिप लगा दिया था . सरकार के खिलाफ कोई भी खबर नहीं छप सकती थी. टीवी और रेडियो पूरी तरह से सरकारी नियंत्रण में थे , उन के पास  तक  जा सकने वालों में सभी चापलूस होते थेउनकी जयजयकार करते रहते थे इसलिए उनको  सही ख़बरों का पता  ही नहीं लगता था . उनको  बता दिया गया कि देश में उनके पक्ष में बहुत भारी माहौल है और वे दुबारा भी बहुत ही आराम से चुनाव जीत जायेंगीं .  चुनाव करवा दिया और उनकी राजनीति में १९७७ जुड़ गया  .
विदेशी पत्रकारिता में आजकल पत्रकारिता की बुलंदी के नमूने के रूप में ट्रंप का ज़िक्र किया जा सकता है .

प्रेस की आज़ादी सत्ता पक्ष के लिए बहुत ज़रूरी है . सत्ताधारी जमातों को अगर वैकल्पिक दृष्टिकोण नहीं  मिलेंगे तो चापलूस नौकरशाह  और  स्वार्थी नेता  सच को ढांक कर राजा से उलटे सीधे  काम करवाते रहेंगें . भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को यह बात बहुत ही   अच्छी तरह  मालूम थी इसीलिए उन्होंने कहा था ," मैं पीत पत्रकारिता से नफरत करता हूँ , लेकिन आपके पीत पत्रकारिता करने के अधिकार की रक्षा के लिए हर संभव कोशिश करूंगा ".लोकतंत्र को अगर जनता के लिए उपयोगी बनाना है  तो सत्ताधारी जमातों  को निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारिता  को व्यावहारिकता के साथ लागू करने के उपाय करने होंगे .प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी से  यह उम्मीद तो की ही जानी चाहिए  कि वे वह गलतियाँ न करें जो इंदिरा गांधी  ने की थी. इंदिरा गांधी के भक्त और तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने प्रेस सेंसरशिप के दौरान नारा दिया था कि  ' इंदिरा इज इण्डिया ,इण्डिया इज  इंदिरा ,' इसी .तरह से जर्मनी के तानाशाह हिटलर के तानाशाह बनने के पहले उसके एक चापलूस रूडोल्फ हेस ने नारा दिया था कि  ,' जर्मनी इस हिटलर , हिटलर इज जर्मनी '.   रूडोल्फ हेस नाजी पार्टी में बड़े पद पर था .मौजूदा शासकों को इस तरह की प्रवृत्तियों से बच कर रहना चाहिए  क्योंकि मीडिया का चरित्र बहुत ही अजीब होता  है . जब इंदिरा गांधी बहुत सारे लोगों को जेलों में बंद कर रही थीं , जिसमें पत्रकार भी शामिल थे तो चापलूसों और पत्रकारों का एक वर्ग किसी को भी आर एस एस या कम्युनिस्ट  पार्टी का सदस्य  बताकर गिरफ्तार करवाने की फ़िराक में रहता था . उस दौर में भी बहुत सारे पत्रकारों ने आर्थिक लाभ के लिए सत्ता की चापलूसी में चारण शैली में पत्रकारिता की . वह ख़तरा आज भी बना हुआ है . चारण पत्रकारिता  सत्ताधारी पार्टियों  की सबसे  बड़ी दुश्मन है क्योंकि वह सत्य पर पर्दा डालती है और सरकारें गलत फैसला लेती हैं . ऐसे माहौल में सरकार की ज़िम्मेदारी बनती है कि वह मीडिया को निष्पक्ष और निडर बनाए रखने में योगदान करे  . चापलूस पत्रकारों से पिंड छुडाये . इसके संकेत दिखने लगे हैं . एक आफ द रिकार्ड बातचीत में बीजेपी के मीडिया से जुड़े एक नेता ने बताया कि जो पत्रकार टीवी पर हमारे पक्ष में नारे लगाते रहते है , वे हमारी पार्टी का बहुत नुक्सान करते हैं . भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेताओं में इस तरह की सोच एक  अच्छा संकेत है . सरकार को चाहिए कि पत्रकारों के सवाल पूछने के  अधिकार और आज़ादी को सुनिश्चित करे . साथ ही संविधान के अनुच्छेद १९(२) की सीमा में  रहते हुए कुछ भी लिखने की  आज़ादी और अधिकार को सरकारी तौर पर गारंटी की श्रेणी में ला दे . इससे निष्पक्ष पत्रकारिता का बहुत लाभ होगा.  ऐसी कोई व्यवस्था कर दी जाए जो सरकार की चापलूसी करने को  पत्रकारीय  कर्तव्य पर कलंक माने और इस तरह का काम करें वालों को हतोत्साहित करे.

पत्रकारिता का काम बहुत ही कठिन दौर  से  गुज़र रहा है .महानगरों से लेकर  दूर दराज़  के गाँवों में रहकर काम करने वालों की आर्थिक व्यवस्था बहुत सारे मामलों में चिंता का विषय है .यह ऐसा संकट है  जिसके कारण कई स्तर पर समझौते हो रहे हैं और सूचना के  निष्पक्ष  मूल्यांकन का काम बाधित हो रहा है . देश के कई बड़े अख़बार अपने कर्मचारियों  का आर्थिक शोषण करते हैं . उनसे पत्रकारिता से इतर काम करवाते हैं , मालिक लोग  निजी संपत्ति में वृद्धि के लिए अखबार और पत्रकार की छवि का इस्तेमाल करते  हैं.  अखबार मालिकों का यही वर्ग  है  जहां पिछले वर्षों मजीठिया की वेतन संबंधी सिफारिशों को बेअसर  करने के लिए तरह  तरह के  तिकड़म किये गए थे. सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की अवमानना  करने वाले यह अखबार पत्रकारों के शोषण के भी सबसे बड़े झंडाबरदार  हैं . यह मालिक लोग वेतन इतना कम देते  हैं कि दो जून की रोटी का भी इंतजाम न हो सके . और उम्मीद करते हैं कि छोटे शहरों में उनके कार्ड को लेकर पत्रकारिता करता पत्रकार उनके लिए विज्ञापन भी  जुटाए . नाम लेने के ज़रूरत नहीं है लेकिन दिल्ली में ही नज़र दौड़ाने पर इस तरह के अखबारों और टीवी चैनलों के बारे में जानकारी मिल जायेगी .एक संस्मरण के माध्यम से इस बात को रेखांकित करना उचित होगा. हमारे एक  स्वर्गीय मित्र को करीब बीस साल पहले एक अख़बार  के राजस्थान का ब्यूरो प्रमुख बना दिया गया .    कह दिया गया कि आप जल्द से जल्द  जयपुर जाकर काम शुरू कर दीजिये .  वे परेशान थे कि वेतन की कोई बात किये बिना कैसे  जयपुर चले जाएँ .  अगले दिन फिर वे मालिक- सम्पादक से मिले और  कहा कि पैसे की कोई बात नहीं हुई  थी इसलिए मैंने सोचा कि स्पष्ट बात कर लूं .  मालिक-सम्पादक ने   छूटते ही कहा कि ,आप से पैसे की क्या बात करना है . आप हमारे मित्र हैं , जाइए काम करिए और तरक्की करिए. संस्था को बस पचास हज़ार रूपये महीने भेज दिया करिएगा ,बाकी सब आपका .  दफ्तर का खर्च निकाल कर सब अपने पास रख लीजिये . पत्रकारिता की गरिमा को कम करने में इन बातों का  बहुत योगदान है .

लेकिन उम्मीद ख़त्म नहीं हुई है ,अभी  उम्मीद  बाकी है . सूचना क्रान्ति ने अपने देश में पाँव जमा लिया  है .भारत के सूचना टेक्नालोजी के जानकारों की पूरी दुनिया में हैसियत बन चुकी है .इसी सूचना क्रान्ति की कृपा से आज वेब पत्रकारिता सम्प्रेषण का ज़बरदस्त माध्यम बन चुकी  है . वेब मीडिया ने वर्तमान समाज में क्रान्ति की दस्तक दे दी है .अब लगभग सभी अखबारों और टीवी चैनलों के वेब  पोर्टल हैं  . लेकिन बहुत सारे  स्वतंत्र पत्रकारों ने भी इस दिशा में ज़बरदस्त तरीके से हस्तक्षेप कर दिया है . इन स्वतंत्र पत्रकारों के पास साधन बहुत कम हैं लेकिन यह हिम्मत नहीं हार रहे  हैं . उनको आधुनिक युग का अभिमन्यु कहा जा सकता  है . मीडिया के महाभारत में वेब पत्रकारिता के यह अभिमन्यु शहीद नहीं होंगें .हालांकि मूल महाभारत युद्ध में शासक वर्गों ने अभिमन्यु को घेर कर मारा था लेकिन मौजूदा समय में सूचना की क्रान्ति के युग का महाभारत चल रहा है .. जनपक्षधरता के इस यज्ञ में आज के यह वेब पत्रकार अपने काम के माहिर हैं और यह शासक वर्गों की १८ अक्षौहिणी सेनाओं का मुकाबला पूरे होशो हवास में कर रहे हैं . कल्पना कीजिये कि वेब के ज़रिये राडिया काण्ड का खुलासा न हुआ होता तो नीरा  राडिया की सत्ता की  दलाली की कथा के सभी खलनायक मस्ती में रहते और सरकारी समारोहों में मुख्य अतिथि बनते रहते और पद्मश्री आदि से सम्मानित होते रहते..लेकिन इन बहादुर वेब पत्रकारों ने टी वीप्रिंट और रेडियो की पत्रकारिता के संस्थानों को मजबूर कर दिया कि वे सच्चाई को जनता के सामने लाने के इनके प्रयास में इनके पीछे चलें और लीपापोती की पत्रकारिता से बचने की कोशिश करें ..

वास्तव में हम जिस दौर में रह रहे हैं वह पत्रकारिता के जनवादीकरण का युग है . इस जनवादीकरण को मूर्त रूप देने में सबसे बड़ा योगदान तो सूचना क्रान्ति का है क्योंकि अगर सूचना की क्रान्ति न हुई होती तो चाह कर भी कम खर्च में सच्चाई को आम आदमी तक  पंहुचाया नहीं जा सकता था . जो दूसरी बात हुई है वह यह कि अखबारों और टी वी चैनलों से आज़ाद हो कर काम करने वाले पत्रकारों की राजनीतिक और सामाजिक समझदारी बिकुल खरी है . इन्हें किसी कर डर नहीं है , यह सच को डंके की चोट पर सच कहने की तमीज रखते हैं और इनमें हिम्मत भी है ..कहने का मतलब यह नहीं है कि अखबारों में और टी वी चैनलों में ऐसे लोग नहीं है जो सच्चाई को समझते नहीं हैं . वहां  बहुत अच्छे पत्रकार  हैं और जब वे अपने मन की बात लिखते हैं तो वह सही  मायनों में पत्रकारिता होती है

मुझे उम्मीद नहीं थी कि अपने जीवन में सच को इस बुलंदी के साथ कह सकने वालों के दर्शन हो पायेगा जो कबीर साहेब की तरह अपनी बात को कहते हैं और किसी की परवाह नहीं करते लेकिन खुशी है कि आज के पत्रकार सोशल मीडिया के ज़रिये अपनी बात डंके की चोट कह रहे  हैं .  आज सूचना किसी साहूकार की मुहताज नहीं है . मीडिया के यह नए जनपक्षधर उसे आज वेब पत्रकारिता के ज़रिये सार्वजनिक डोमेन में डाल दे रहे हैं और बात दूर तलक जा रही है .मैंने जिस  राडिया काण्ड का ज़िक्र शुरू में किया था , वह पत्रकारिता के नाम पपर धंधा करने वालों को बेनकाब करने का एक बेहतरीन उदाहरण  है. राडिया ने जिस तरह का जाल फैला रखा था  वह हमारे राजनीतिक सामाजिक जीवन में घुन की तरह घुस चुका है .. ऐसे पता नहीं कितने मामले हैं जो दिल्ली के गलियारों में घूम रहे होंगें . जिस तरह से राडिया ने पूरी राजनीतिक बिरादरी को अपने लपेट में ले लिया वह कोई मामूली बात नहीं है . आज से करीब तीस साल पहले भी इसी तरह का  एक घोटाला हुआ था जिसे जैन हवाला काण्ड के नाम से जाना जाता है . उसमें सभी पार्टियों के नेता बे-ईमानी करते पकडे गए थे लेकिन कम्युनिस्ट उसमें नहीं थे . इस बार कम्युनिस्ट भी नहीं बचे हैं . . यानी जनता के हक को छीनने की जो शोषणवादी कोशिशें चल रही हैं उसमें राजनीतिक दल तो शामिल हैं . सबको मालूम है कि जब राजा की चोरी पकड़ी जाती है तो उसके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती हमने देखा है कि  जैन हवाला काण्ड दफन हो गया था . ऐसे मामले दफन होते  हैं तो हो जाएँ लेकिन सूचना पब्लिक डोमेन में आयेगी तो अपना काम करेगी ,जनमत बनायेगी .
वेब पत्रकारिता की ताकत बढ़ जाने के कारण मेरा विश्वास है कि आज पत्रकारीय का स्वर्ण युग है . बस इस क्रान्ति में शामिल हो जाने की ज़रूरत है . अपनी  नौकरी के साथ साथ सूचनाक्रांति के महारथी बनने का   विकल्प  आज के पत्रकार के पास है . और विकल्प उपलब्ध हो तो उससे बड़ी आज़ादी कोई नहीं होती ..


मुझे खुशी है कि आज मैं काशी के एक नामी संस्थान के मंच पर हूं. यहाँ रहते हुए मेरे दो महानायकों ने साधारण भाषा में आम आदमी को खबरदार किया . मैंने कबीर साहेब और संत तुलसीदास की नामाबरी को प्रणाम करना चाहता हूँ .  जब स्थापित सत्ता के खिलाफ गोस्वामी तुलसीदास ने मैदान लिया था तो धर्म के ठेकेदारों ने उनको काशी से भगा दिया था क्योंकि वे शासक वर्गों की भाषा में नहीं लिखते थे , वे आम आदमी की बोलचाल की भाषा की पक्षधरता करते थे . हमें मालूम है कि संत तुलसीदास को भगवान राम की अयोध्या से दुकानदार रामभक्तों ने भी भगाया था क्योंकि उस युग के एक महान नायक के जीवन और चरित को साधारण तरीके से आम आदमी तक पंहुचा रहे थे. पंडों की बिचौलिया तानाशाही को नुक्सान पंहुंचा रहे  थे.  आज वही संत तुलसीदास  भगवान राम और उनकी कथा के सबसे बड़े भक्त माने जाते हैं . तुलसीदास के काम को मैं क्रांतिकारी और जनजागरण की पत्रकारिता मानता हूँ . क्योंकि भारत के उस वक़्त के शासक अकबर के राज में उन्होंने  हर घर में राजा रामचंद्र की जय के नारे लगवा  दिए थे . अकबर के राज में चार बार अकाल पड़ा था, उसने तेरह बड़ी लड़ाइयाँ लड़ी थीं लेकिन उसके दरबार के चापलूस पत्रकारों ने प्रचारित कर  दिया कि वह तो बहुत महान  शासक था . लेकिन मैं अकबर को महान नहीं मानता . क्योंकि उसने  जनहित का कोई काम नहीं किया . इलाहबाद और आगरा  में किला बनवाया और अपनी जय बुलवाया . उससे बड़ा तो शेरशाह सूरी था जिसने अपने राज  में सड़कें आदि बनवाईं .

कुछ निजी अनुभवों की बात भी कर ली जाए तो ठीक रहेगा . जब  मैंने अखबारों में नौकरी शुरू की और जब ज़रा सीनियर लेवल पर पंहुचे तो  समझ में आया कि प्रेस की आजादी का क्या मतलब है . ऊपर से हिदायत आ जाती थी कि कुछ लोगों के खिलाफ खबर नहीं लिखना है . नीचे वालों को समझाया जाता था लेकिन तरीका ऐसा अपनाया जाता था कि उन्हें यह मुगालता बना रहे कि वे प्रेस की तथाकथित आज़ादी का लाभ उठा रहे हैं . जब टेलीविज़न में काम करने का अवसर मिला तो शुरुआती दौर दिलचस्प था .अपने देश में २४ घंटे की टी वी ख़बरों का वह शुरुआती दौर था . अखबार से आये मेरे जैसे व्यक्ति के लिए बहुत मजेदार स्थिति थी . जो खबर जहां हुई ,अगर उसकी बाईट और शाट हाथ आ गए तो उन्हें लगाकर सही बात रखने में मज़ा बहुत आता था. लेकिन छः महीने के अन्दर सिस्टम ने अपना रूतबा दिखा दिया . ऐसा माहौल बना दिया गया कि वही खबरें जाने लगीं जो संस्थान के हित में रहती थी. मैंने जिस न्यूज़ रूप की बात कर रहा हूँ, फिल्म पीपली लाइव के निर्माता अनुषा रिज़वी और महमूद फारूकी उन दिनों उसी न्यूज़ रूप में इस विकासमान व्यवस्था को देख रहे थे. पीपली लाइव की स्क्रिप्ट को उनके उस दौर के अनुभव से सीधे जोड़कर देखा जा सकता है . उसी संस्थान में बहुत सारे बहुत मामूली स्तर के लोगों को महान बनाने की कार्यशाला भी चल रही थी . और टेलिविज़न की चकाचौंध के शिकार ज़्यादातर लोगों को वही मीडियाकर लोग सर्वज्ञ बनाकर पेश कर दिए जा रहे थे .
आपका बहुत समय लिया लेकिन उम्मीद करता हूँ कि मेरी बातचीत से आज कुछ महत्वपूर्ण चर्चा होगी और आप के प्रयास से पत्रकारिता की भावी दशा दिशा को  कुछ नए रास्ते मिलेगें 


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