शेष नारायण सिंह
२०१८ में ३० नवम्बर को जी-20 का शिखर सम्मलेन अर्जेंटीना की राजधानी ब्यूनस आयर्स में हुआ था. उस सम्मेलन में एक नए तरह का ध्रुवीकरण हो रहा था . देशबंधु ने उस सम्मेलन के बाद देश की अवाम को आगाह किया था कि " कहीं हम अमरीका के फ्रंट मैन तो नहीं बन रहे हैं . " हमारा मानना है कि भारत को जवाहरलाल नेहरू की विदेशनीति को ही आगे बढ़ाना चाहिए क्योंकि अगर महाशक्तियों के आपसी हिसाब किताब के पचड़े में पड़े तो स्वतंत्र विदेशनीति की अवधारणा एक सपना हो जाएगा. दिसंबर के पहले हफ्ते में देशबंधु में प्रकाशित आलेख में इस बात की समीक्षा की गयी थी और अमरीका से बहुत करीबी दोस्ती बनाने के खतरों की विवेचना की गयी थी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बहुत आगे बढ़कर जापान, अमरीका और भारत को नई महाशक्ति के रूप में पेश किया और ऐसा माहौल बनाया कि अमरीका से दोस्ती के बाद भारत महाशक्ति वाली श्रेणी में आ जायेगा. लेकिन ऐसा नहीं है ,अमरीका जिससे भी दोस्ती का अभिनय करता है उसको वह इस्तेमाल ही करता है . आज चीन के पड़ोसी देशों में दक्षिण कोरिया और भारत के अलावा बाकी सब चीन के दोस्त हैं. आज हालात यह हैं की दुनिया को कोरोना वायरस को एक खूंखार आर्थिक और जैविक हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहा अमरीका भारत के लदाख में अपनी सेना की मौजूदगी का प्रचार कर रहा है और अमरीका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप मौक़ा देखकर भारत को अपनी छत्रछाया में लेने के लिए व्याकुल दिख रहे हैं. हम मानते हैं कि अमरीका कभी भी भारत के हित में काम नहीं करेगा . ऐसी हालत में देशबंधु की दिसंबर २०१८ में दी गयी चेतावनी पर एक बार फिर नज़र डालने की ज़रूरत है. प्रस्तुत हैं उस लेख के कुछ अंश :
" चीन के बढ़ते प्रभाव के मद्दे-नज़र अर्जन्टीना की राजधानी ब्यूनस आयर्स में एक अलग तरह की गुटबाजी बनती नज़र आयी . जापान , अमरीका और भारत के शासन प्रमुख गले मिले और लम्बी उम्र वाली दोस्ती की बुनियाद रखने का दावा किया . भारत के प्रधानमंत्री ,नरेंद्र मोदी ने इस त्रिगुट को जय ( JAI) नाम दे दिया जो तीनों देशों के नामों के पहले अक्षर को मिलाकर बनाया गया है. अमरीकी राष्ट्रपति ,डोनाल्ड ट्रंप, जापान के प्रधानमंत्री शिंजो एबे और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक नए ध्रुवीकरण की बुनियाद रखी. भारत के विदेश मंत्रालय ने बताया कि तीनों नेताओं ने आपसी हित के मुद्दों पर विचार विमर्श किया . अमरीका को प्रशांत और हिन्द महासागर के क्षेत्र में चीन से भारी चुनौती मिल रही है और उसकी इच्छा है कि यह त्रिगुट इस इलाके में चीन के लगातार बढ़ रहे प्रभाव पर लगाम लगाने का काम करे . तीनों नेताओं की मुलाक़ात के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि तीनों नेता बहुत अच्छे दोस्त हैं और तीनों अब विश्वशांति, सम्पन्नता और स्थिरता के लिए मिलकर काम करेंगे. डोनाल्ड ट्रंप बहुत खुश थे क्योंकि उनके हिसाब से भारत ,जापान और अमरीका के बीच इतने अच्छे सम्बन्ध कभी नहीं रहे और इस दोस्ती के बाद व्यापार बढेगा और सबसे अच्छा तो यह होगा कि फौजी साजो सामान की खूब बिक्री होगी. यानी आर्थिक मंदी की मात झेल रहे अमरीकी हथियार उद्योग को एक बाज़ार मुहैया हो जाएगा .तीनों देशों की मुलाक़ात का सन्दर्भ इसलिए और भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि चीन अब हिन्द-प्रशांत के क्षेत्र में बड़े पैमाने पर लाठी भांज रहा है और अमरीका सहित जापान और भारत के प्रभाव क्षेत्र लगातार सिकुड़ रहे हैं .
अमरीका को चीन के मुकाबले एशिया में किसी मज़बूत साथी की ज़रूरत है . एक ज़माना होता था जब कुछ देशों को छोड़कर एशिया के अधिकतर देश अमरीका के भक्त हुआ करते थे लेकिन अब सब कुछ बदल गया है . उसका सबसे भरोसेमंद देश, पाकिस्तान अब चीन की गोद में बैठा है . इसी तरह से दक्षिण कोरिया के अलावा हिन्द-चीन में भी कोई देश अब चीन के खिलाफ अमरीका का साथ देने के लिए तैयार नहीं है . मध्य एशिया के कई देशों में रूसी राष्ट्रपति पुतिन अमरीका को बेदखल कर चुके हैं . ऐसी स्थिति में अमरीका को भारत को अपना बहुत करीबी दोस्त बनाने की ज़रूरत थी . और अर्जेन्टीना की इस मुलाक़ात के बाद इस बात पर मुहर लग गयी है कि भारत अब चीन के खिलाफ अमरीका का फ्रंट मैन बन गया है . सवाल यह पैदा होता है कि अपनी स्वतंत्र विदेश नीति का पालन करने वाले भारत के लिए अमरीका चेला बनना कितना हानिकर होगा यह लाभकर होगा . इस विषय को समझना ज़रूरी है .
भारत के प्रधानमंत्री की अर्जेंटीना में हुई मीटिंग के बाद अपने देश ने वह ओहदा प्राप्त कर लिया जिसकी कोशिश भारतीय प्रशासन लंबे समय से कर रहा था. हम अमेरिका के रणनीतिक साझेदार तो पहले ही बन चुके थे .अब हम उसकी विदेश नीति को चीन के खिलाफ लागू करने के फ्रंट राष्ट्र बन गए हैं . यह साझेदारी क्या गुल खिला सकती है यह समझना दिलचस्प होगा . भारत अमरीका का राजनीतिक पार्टनर हो गया है इसलिए अब भारत वही करेगा जो अमेरिका चाहेगा. अमरीकी राष्ट्रपति ने बार-बार इस बात का ऐलान किया और तीनों ही नेताओं ने ही कहा कि अब उनकी दोस्ती का एक नया अध्याय शुरू हो रहा है। आतंकवाद की मुखालिफत, जलवायु परिवर्तन, कृषि और शिक्षा के क्षेत्र में नई पहल की बात तो डॉ मनमोहन सिंह ही कर गए थे अब फौजी साजो सामान की बात जिस तरीके से डोनाल्ड ट्रंप ने की है उससे साफ़ ज़ाहिर है अमरीकी हथियार उद्योग को भारत के रूप में एक बड़ा खरीदार मिल गया है .
पहले के ज़माने में भारत की लगातार शिकायत रहती थी कि अमरीका का रुख पाकिस्तान की तरफ सख्ती वाला नहीं रहता। लेकिन अब ऐसा नहीं है . पाकिस्तान बाकायदा चीन का मातहत देश बन चुका है और उसकी काट के लिए भारत के मौजूदा नेतृत्व ने अमरीका की शरण में जाना ठीक समझा . वक़्त ही बताएगा कि यह रणनीति कितनी कारगर साबित होती है . विदेशनीति के कर्ता धर्ताओं को सोचना चाहिए कि कहीं ऐसा तो नहीं कि भारत की वाहवाही करके अमरीकी कोशिश चल रही है कि भारत अपने आपको परमाणु अप्रसार संधि की मौजूदा भेदभावपूर्ण व्यवस्था के हवाले कर दे। जहां तक भारत की विदेशनीति के गुट निरपेक्ष स्वरूप की बात है उसको तो खत्म करने की कोशिश 1998 से ही शुरू हो गई थी जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने थे। उनके विदेश मंत्री जसवंत सिंह तो अमरीकी विदेश विभाग के मझोले दर्जे के अफसरों तक के सामने नतमस्तक रहते थे। डॉ मनमोहन सिंह के दौर में भी यही राग चलता रहा था .और अब तो लगता है कि भारत अपने को अमरीकी विदेशनीति के उस मुकाम पर लाकर पटक रहा है जहां कभी पाकिस्तान विराजता था.
अमरीका की हमेशा से ही कोशिश थी कि भारत को अपना सदाबहार पार्टनर बना लिया जाय। 1966 में जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनी थीं तो तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति लिंडन बी जानसन ने कोशिश की थी। बाद में रिचर्ड निक्सन ने भी भारत को अर्दब में लेने की कोशिश की थी। इंदिरा गांधी ने दोनों ही बार अमरीकी राष्ट्रपतियों को मना कर दिया था। उन दिनों हालांकि भारत एक गरीब मुल्क था लेकिन गुटनिरपेक्ष आंदोलन के संस्थापक के रूप में भारत की हैसियत कम नहीं थी। लेकिन वाजपेयी से वह उम्मीद नहीं की जा सकती थी, जो इंदिरा गांधी से की जाती थी। बहरहाल 1998 में शुरू हुई भारत की विदेश नीति की फिसलन अब पूरी हो चुकी है और भारत अमरीका का रणनीतिक पार्टनर बन चुका है। अमरीका का रणनीतिक पार्टनर बनना कोई खुशी की बात नहीं है। एक जमाने में पाकिस्तान भी यह मुकाम हासिल कर चुका है . कभी अमरीकी विदेश नीति के आकाओं की नज़र में पाकिस्तान की हैसियत एक कारिंदे की हुआ करती थी , उससे ज्यादा कुछ नहीं। इसलिए ताकतवर देश का रणनीतिक पार्टनर होना बहुत ही खतरनाक हो सकता है। और यह बात भारत को ज़रूर समझना चाहिए .
अब भारत भी राष्ट्रों की उस बिरादरी में शामिल हो गया है जिसमें ब्राजील, दक्षिण कोरिया, अर्जेंटीना, ब्रिटेन वगैरह आते हैं। इसका मतलब यह भी नहीं है कि कल से ही अमरीकी फौजें भारत में डेरा डालने लगेंगी। अमरीका की विदेश नीति अब एशिया या बाकी दुनिया में भारत को इस्तेमाल करने की योजना पर काम करना शुरू कर देगा और उसे अब भारत से अनुमति लेने की जरूरत नहीं पड़ेगी। भारत सरकार को चाहिए जब अमरीका के सामने समर्पण कर ही दिया है तो उसका पूरा फायदा उठाए। अमरीकी प्रभाव का इस्तेमाल करके भारत की विदेशनीति को चलाने वालों को चाहिए कि सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता की बात को फाइनल करे। बहुत दिनों तक अमरीकी हुक्मरान भारत और पाकिस्तान को बराबर मानकर काम करते रहे हैं। जब भी भारत और अमरीका के बीच कोई अच्छी बात होती थी तो पाकिस्तानी शासक भी लाइन में लग लेते थे। यहां तक कि जब भारत और पाकिस्तान के बीच परमाणु समझौता हुआ तो पाकिस्तान के उस वक्त के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ भी पूरी कोशिश करते पाए गए थे कि अमरीका उनके साथ भी वैसा ही समझौता कर ले। पाकिस्तानी विदेश नीति की बुनियाद में भी यही है कि वह अपने लोगों को यह बताता रहता है कि वह भारत से मजबूत देश है और उसे भी अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी में वही हैसियत हासिल है जो भारत की है। जबकि सच्चाई इससे बिल्कुल पलट है।
भारत एक विकासमान और विकसित देश है, विश्वमंच पर उसकी हैसियत रोज ब रोज बढ़ रही है ऐसी स्थिति में अमरीका की साजिश में फंसने से बचना चाहिए था . क्योंकि अगर हम अपने आप को पूरी तरह से अमरीका की चेलाही में डाल देंगें तो अमरीका हमको वह इज्ज़त नहीं देगा जो उसको देना चाहिए .क्योंकि दुनिया ने देखा है कि अमरीका अपने सहयोगियों को अपना अधीन देश ही मानने लगता है .अब हमारे लिए अमरीकी कूटनीतिक और रणनीतिक साझेदारी की बात एक सच्चाई है और उसके जो भी नतीजे होंगे वह भारत को भुगतने होंगे लेकिन कोशिश यह की जानी चाहिए कि भारत की एकता, अखण्डता और आत्मसम्मान को कोई ठेस न लगे। "
डेढ़ साल पहले दी गयी यह अखबारी चेतावनी पर सरकार को गौर करना चाहिए और डोनाल्ड ट्रंप को साफ़ समझा देना चाहिए कि चीन से जो भी विवाद है वे आपसी बातचीत से सुलझाए जायेंगे, अमरीका को उसमें दखल देने से बाज आना चाहिए .
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