Tuesday, April 21, 2020

कोरोना के संक्रमण को रोकने के लिए हुए लॉक डाउन में प्रवासी मजदूरों को नज़रंदाज़ किया गया .


शेष नारायण सिंह

पूरी दुनिया में आजकल  कोरोना वायरस का आतंक है . दुनिया   भर के देश अपने अपने तरीके से  एक भयानक महामारी का मुकाबला कर रहे  हैं .  संयुक्त राष्ट्र का बयान आया है कि वर्तमान कोरोना  युद्ध का असर दूसरे विश्वयुद्ध से भी ज़्यादा होगा  लेकिन दुनिया के ज्यादातर देश  कोरोना के खतरे को सम्हाल पाने में  गाफिल  पाए गए हैं . अगर सही समय पर ज़रूरी कदम उठा लिए गए होते तो शायद बात इतना न बिगडती जितना बिगड़ गयी है . कुछ नेता और सरकारें तो लगातार इस मामले में झूठ बोलते रहे . अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड  ट्रंप का मामला सबसे अजीब है. वे  बहुत दिनों तक यह मानने को ही तैयार नहीं थे  कि कोरोना से कोई गंभीर ख़तरा  है. अभी एक हफ्ता पहले  तक वे कोरोना की  वैक्सीन के शोध के गीत  गाते रहे थे  और दावा कर थे  रहे कि डेढ़ साल में कोरोना की वैक्सीन का विकास कर लिया जाएगा . जब उनको याद दिलाया गया कि अभी  तो युद्ध की अर्थवयवस्था के बारे में बात  करनी है .आपको इस संकट के इलाज और रोकथाम के फौरी  तरीकों पर ध्यान देना चाहिए वैक्सीन का  अभी कोई  महत्व नहीं है तब जाकर ज़मीन पर आये और कुछ वास्तविकता की बात करने लगे  . जबकि अमरीका  में  दिसम्बर २०१९ में ही कोरोना की खतरनाक संक्रामकता के बारे  में जानकारी थी . फरवरी के आख़िरी हफ्ते में अमरीका में कोरोना वायरस के मरीजों की जानकारी बड़े पैमाने पर अखबारों में  छपने लगी थी लेकिन राष्ट्रपति ट्रंप निश्चिन्त थे . फरवरी के  अंतिम सप्ताह में ही वे भारत आये थे और अपन स्वागत में उमड़ी भीड़ को देखकर गदगद हो रहे   थे. अब उन्होंने खुद ही यह घोषणा कर दिया  है कि इस बीमारी से अमरीका में करीब ढाई लाख लोगों के मरने का अनुमान  है तब उन्होंने कोरोना का मुकाबला एक  महायुद्ध की तरह करने का फैसला किया है.  मामला बहुत बिगड़ गया  है तब थोडा नार्मल तरीके से बातचीत शुरू किया है . इसी हफ्ते व्हाइट हाउस की मीडिया ब्रीफिंग में जब एक अमरीकी पत्रकार ने उनसे पूछा कि ,' आप लगातार झूठ बोलते रहे और आपके झूठ की  वजह से पूरे  देश को नुक्सान हो रहा  है ,लोग मर रहे हैं तो उनके पास कोई जवाब  नहीं था. ११  मार्च को विश्व स्वास्थ्य  संगठन ने कोरोना को भयानक महामारी (  Pandemic ) घोषित कर दिया था लेकिन अमरीकी राष्ट्रपपति उसके बाद भी  शेखी बघारते रहे कि उनके देश का कोई ख़ास नुकसान नहीं होगा .    लगभग यही हालत अपने देश की भी है . बहुत दिन तक भारत सरकार कोरोना को गंभीरता से लेने से इनकार करती रही .  ११ मार्च के दिन कोरोना को  खतरनाक महामारी  घोषित  किया  जा चुका लेकिन १३ मार्च को  भारत  सरकार की तरफ से बयान दिया गया कि अभी अपने देश में मेडिकल इमरजेंसी नहीं है . कोरोना से भारत  में कोई दिक्क़त नहीं है . दुनिया का कई देशों में इस बीमारी से आतंक फैला हुआ था लेकिन गृहमंत्रालय के  अधीन काम करने वाली  दिल्ली पुलिस ने १३ मार्च को  दिल्ली के  हज़रत निजामुद्दीन थाने  से सटी हुई एक मस्जिद में पूरी दुनिया से आये लोगों का एक सम्मलेन करने की अनुमति दी और  आयोजन होने  दिया . कहने का मतलब है कि भारत में कोरोना  को तब तक गंभीरता से नहीं लिया गया जबतक देश के कई राज्यों में कोरोना के मरीज़ मिलने लगे थे और इस वायरस के संक्रमण का ख़तरा सार्वजनिक डोमेन में आ चुका था.  कोरोना को ज़रूरी गंभीरता से लेने का संकेत देशवासियों को तब मिला जब प्रधानमंत्री ने देश को संबोधित करते हुए २२ मार्च को  दिन भर के जनता कर्फ्यू का ऐलान किया .  उसके बाद  कोरोना संकट को देश की जनता के सामने ख़तरा मानने का सिलसिला शुरू हुआ .उसी कड़ी में प्रधानमंत्री ने तीन हफ्ते के लॉक डाउन की घोषणा कर दी . रात को आठ बजे टेलिविज़न पर आये तो देश को बता दिया कि  उसी रात बारह बजे से देश में  लॉकडाउन लागू कर दिया जाएगा . यह तरीका सही भी है . संक्रमण की चेन तो तोड़ना ज़रूरी था  लेकिन उसके तुरंत देश   भर में अफरातफरी मच गयी . प्रधानमंत्री के उस सन्देश में यह कहीं भी नहीं बताया गया कि जो लोग रोज़ कमाते  खाते हैं उनके लिए क्या योजना  है. देश के महानगरों दिल्ली , मुबईपुणे,  सूरत आदि से प्रवासी   मजदूर  अपने गाँव की तरफ भागने लगे. इनमें से  ज़्यादातर पैदल ही जा रहे थे  क्योंकि बस ट्रेन आदि सब बंद कर दी गयी थीं . उसका नतीजा बहुत ही बुरा हुआ . उन मजदूरों  की मजबूरी का आलम यह था कि    पांच से से आठ सौ किलोमीटर की यात्रा पैदल ही करने का संकल्प  लेकर वे  अपने गाँव के लिये रवाना हो चुके थे लेकिन उसके लिए कोई तैयारी  नहीं थी .
अगर लॉक डाउन की घोषणा के पहले इन मजदूरों की  संभावित चिंता को ध्यान में रख लिया गया होता और उनके लिए  ज़रूरी इंतजाम कर लिया होता तो स्थिति इतना न  बिगडती .  अगर प्रधानमंत्री ने लेबर चौक पर रोजाना इकठ्ठा होकर उन मजदूरों की संभावित तकलीफ का आकलन कर लिया होता तो उनकी घर वापसी की तैयारी भी हो गयी होती या शहरों में ही उनके लिए भोजन आदि की व्यवस्था कर ली गयी होती  . लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ . नतीजा यह हुआ कि गाँव घर छोड़कर  शहरों में दो जून की रोटी की तलाश में गए लोग वहां  रहकर   भूखों से मुकाबला करने के लिए अभिशप्त हो गए . घोषणा के दो दिन बाद गरीबों की सहायता के लिए  वित्त मंत्री ने हजारों करोड़ रूपये का ऐलान किया.. वित्त  मंत्री ने गुरुवार को  प्रधानमंत्री गरीब कल्याण स्कीम की घोषणा की। डायरेक्ट कैश ट्रांसफर होगा और खाद्य सुरक्षा के जरिए गरीबों की मदद की जाएगी। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि अभी लॉकडाउन को 36 घंटे ही हुए हैं सरकार प्रभावितों और गरीबों की मदद के लिए काम कर रही है. सरकार ने दावा किया कि प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के तहत किसी गरीब को भूखा नहीं रहने दिया जाएगा लेकिन यह सब बातें उन लोगों के लिए हैं जो   लाभार्थी हैं जो लिखत पढ़त में  गरीब  हैं . उस समय तक पता नहीं था कि इस पैकेज में उन लोगों को भी शामिल किया गया है सडकों पर थे और पैदल अपने घर जा रहे थे . क्योंकि  कहीं भी  उनका नाम रिकार्ड में नहीं है . वैसे भी जिस सहायता  की घोषणा  सरकार ने की है  वह जीडीपी का एक प्रतिशत से भी कम है . जबकि अमरीका में सहायता  राशि दो ट्रिलियन  डॉलर की है .  सहायता  पैकेज के बारे में नैशनल इंस्टीट्यूट आफ पब्लिक फाइनेंस और पालिसी के निदेशक रथिन रॉय  कहना है कि अब वक़्त ऐसी अर्थव्यवस्था के संचालन है जो युद्धकाल में होती है . इसलिए इन छोटी मोटी सहायता राशि से कुछ नहीं होने वाला है. सरकारी खर्च को इस   कोरोना युद्ध को जीतने के लिए लगाना पडेगा .इसके लिए सभी श्रोतों से धन की व्यवस्था करनी पड़ेगी .

 ऐसी स्थिति में क्या सरकार उन खर्चों को रोकने के बारे में सोचेगी जिनका  फौरी तौर पर कोई इस्तेमाल नहीं है. के सरकार नई संसद और सेन्ट्रल विस्ता के दफ्तरों की जगह पर नया दफ्तर   बनाने की अपनी गैरज़रूरी योजना के लिए रिज़र्व किये गए धन से  पैसा निकाल कर युद्ध में लगाएगी . ?  
प्रवासी  मजदूरों के बारे में चिन्मय तुंबे  ने एक किताब लिखी है इंडिया मूविंग : हिस्ट्री आफ माइग्रेशन . इस किताब में देश के बाहर जाने  वाले और  अपने ही देश में  महानगरों में गाँव से शहर जानकर रोटी कमाने वाले मजदूरों के बारे में विस्तृत जानकारी  है . चिन्मय तुंबे का दावा  है कि दिल्ली और उसके आस पास के  नगरों में बहुत बड़ी संख्या में  प्रवासी मजदूर रहते हैं  . देश में दिल्ली में रहने वाले प्रवासी मजदूरों की संख्या बाकी  शहरों से बहुत ज्यादा है . इनमें बड़ी संख्या में पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के गाँवों से आने वाले मजदूर रहते हैं .. जो लोग निराश होकर दिल्ली से  पैदल ही अपने गाँव की और जा रहे थे उनमें लेबर चौक के मजदूरों की बड़ी संख्या है .
 जब  प्रधानमंत्री ने २२ मार्च की रात आठ बजे कहा कि आप अपने घर के अन्दर ही रहिये तो  इन लोगों की समझ में ही नहीं आया  होगा कि रहना कहाँ है . फुटपाथ ही उनका घर है  . या  किसी खुले मैदान में पडी हुयी कुछ झोपड़ियां ही  उन लोगों का ठिकाना होती हैं .  उनमें तो उनका सामान ही रखा जाता है . रहनासोनानहाना खाना तो वे खुले  में ही करते हैं . इनके अलावा ठेके पर काम करने वाले और कैजुअल मजदूर भी रोज़ाना के हिसाब से मजदूरी  पाते हैं .  इनकी संख्या देश के कुल कामगारों की  ८० से ९० प्रतिशत के बीच है . यह औपचारिक अर्थव्यवस्था का हिस्सा नहीं होते . २०१७-१८ के आर्थिक सर्वे के अनुसार देश की ८७ प्रतिशत  कम्पनियां अनौपचारिक क्षेत्र में हैं . जहाँ कैजुअल लेबर काम करते हैं ..यह  तो दिल्ली के आस पास इलाकों का हाल है .इसी तरह की परेशानी मुंबईपुणे ,  सूरत अहमदाबाद कोलकता आदि में भी होगा .

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