शेष नारायण सिंह
बलराज साहनी का जन्म १ मई १९१३ को रावलपिंडी में हुआ
था . उनका शुरुआती नाम युधिष्ठिर साहनी था जबकि उनसे छोटे भाई का नाम भीष्म साहनी
था. पंजाब के दो नामी कालेजों में से एक , गवर्नमेंट कालेज लाहौर से उन्होंने
तालीम पाई थी. शांतिनिकेतन में कुछ समय हिंदी शिक्षक भी रहे . शान्तिनिकेतन में उनका चुनाव गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर ने स्वयं किया था वहीं पर
उनकी मुलाक़ात महात्मा गांधी से हुई थी . उसी दौर में
आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी भी
शान्तिनिकेतन में हुआ करते थे . बाद में बलराज साहनी बीबीसी लंदन भी गए
जहां हिन्दुस्तानी सर्विस रेडियो के लिए काम किया .
बलराज
साहनी का ज़िक्र किये बिना बीसवीं सदी के जनवादी आन्दोलन के बारे में बात पूरी
नहीं की जा सकती है .बलराज साहनी ने इस देश को गरम हवा जैसी फिल्म दी .कहते हैं कि
एम एस सत्थ्यूके निर्देशन में बनी फिल्म ,गरम हवा में बंटवारे के दौर के असली
दर्द को जिस बारीकी से रेखांकित किया गया वह वस्तुवादी कलारूप का ऊंचे दर्जे का
उदाहरण है . बलराज साहनी को उनकी फिल्मों के कारण आमतौर पर एक ऐसे कलाकार के रूप
में जाना जाता है जिनका फिल्मों के बाहर की दुनिया से बहुत वास्ता नहीं था . लेकिन
यह बिलकुल अधूरी सच्चाई है . बलराज साहनी बेशक बहुत बड़े फिल्म अभिनेता थे लेकिन
एक बुद्धिजीवी के रूप में भी उनका स्तर बहुत ऊंचा है . बलराज साहनी ने जवाहरलाल
नेहरू विश्वविद्यालय का पहला कन्वोकेशन भाषण दिया था। बाद के वर्षों में
विश्वविद्यालय में दाखिला लेने वाले छात्रों को सीनियर छात्रों की ओर से उस भाषण
की साइक्लोस्टाइल कापी दी जाती थी . बलराज साहनी का वह भाषण शिक्षा की दुनिया में
संस्कृति के सकारात्मक हस्तक्षेप की मिसाल के रूप में देखा जाता है .
बलराज
साहनी की मौत के बाद महान पत्रकार , फिल्मकार और बुद्धिजीवी
ख्वाजा अहमद अब्बास ने उनकी याद में एक मज़मून लिखा था
.ख्वाजा साहेब ने लिखा था कि ," बलराज साहनी ने अपनी जिंदगी के बेहतरीन साल, भारतीय
रंगमंच तथा सिनेमा को घनघोर व्यापारिकता के दमघोंटू शिकंजे से बचाने के लिए और आम
जन के जीवन के साथ उनके मूल, जीवनदायी रिश्ते फिर से कायम
करने के लिए समर्पित किया था ."
बहुत से लोग
इस बात पर हैरानी जताते थे कि बलराज साहनी कितनी सहजता और आसानी से आम जन के बीच से विभिन्न
पात्रों को मंच पर या पर्दे पर प्रस्तुत कर देते थे . चाहे वह ' धरती के लाल ' का कंगाल हो गए किसान का बेटा हो या ' हम लोग ' का कुंठित तथा गुस्सैल नौजवान; चाहे वह ' दो बीघा जमीन ' का हाथ
रिक्शा खींचने वाला मजबूर इंसान हो या ' काबुलीवाला ' का मेवा बेचनेवाला पठान या फिल्म ' वक़्त ' के लाला
केदारनाथ का संपन्न जीवन और बाद में
मजदूरी करता मजबूर बाप हो या फिल्म ' सपन सुहाने ' का ट्रक ड्राइवर या इप्टा के नाटक "आखिरी शमा" में मिर्जा
गालिब का बौद्धिक रूपांतरण ही क्यों न हो। बलराज साहनी कोई यथार्थ से कटे हुए बुद्धिजीवी
या कलाकार नहीं थे। आम आदमी से उनका गहरा परिचय
स्वतंत्रता के लिए तथा सामाजिक न्याय के लिए जनता के संघर्षों में उनकी हिस्सेदारी
से आया था। उन्होंने जुलूसों में, जनसभाओं में तथा ट्रेड
यूनियन गतिविधियों में शामिल होकर और पुलिस की नृशंस लाठियों और गोलियां उगलती
बंदूकों का सामना करते हुए यह भागीदारी की थी। गोर्की की तरह अगर जिंदगी उनके लिए
एक विशाल विश्वविद्यालय थी, तो जेलों ने जीवन व जनता के इस
चिरंतन अध्येता, बलराज साहनी के लिए स्नातकोत्तर प्रशिक्षण
का काम किया था। यहाँ यह जानना भी दिलचस्प होगा कि बलराज साहनी की महान फिल्मों के यादगार गीत , मेरी ज़ोहराजबीं
, ऐ मेरे प्यारे वतन जैसे गानों को आवाज़
देने वाले बीसवीं सदी के महान गायक मन्ना डे का जन्मदिन भी पहली मई को ही पड़ता है .
इंडियन
पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन, जिसे इप्टा के नाम से ही ज्यादा जाना जाता है, का
जन्म दूसरे विश्व युद्ध तथा बंगाल के भीषण अकाल के बीच हुआ था और बलराज साहनी इसके
पहले कार्यकर्ताओं में से एक थे। लेखक की हैसियत से भी और एक निदेशक की हैसियत से
भी, उनका इप्टा के खजाने में शानदार योगदान रहा था। अभिनय तो उन्कहोंने दोस्तों के कहने से कर दिया
था . सब से बढक़र वह एक संगठनकर्ता थे। किसी भी मुकाम
पर इप्टा अपने नाटकों के जरिए जिस भी लक्ष्य के लिए अपना जोर लगा रहा होता था,
चाहे वह फासीविरोधी जनयुद्ध हो या नृशंस दंगों की पृष्ठभूमि में
हिंदू-मुस्लिम एकता का सवाल हो, वह चाहे अफ्रीकी जनगण की मुक्ति हो या फिर साम्राज्यवाद के खिलाफ वियतनाम का युद्ध
, बलराज साहनी हमेशा सभी के मन में उस लक्ष्य के प्रति
हार्दिकता व गहरी भावना जगाते थे। काबुलीवाला फिल्म
में बलराज साहनी ने जिस तरह से ऐ मेरे प्यारे वतन का सीन अभिनीत किया था वह आज भी
हर उस आदमी को अपने वतन की याद दिलाता है जो अपने घर से दूर है . हालांकि यह गाना
अफगानिस्तान छोड़कर आये एक मेवा बेचने वाले की टीस थी।
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