Tuesday, April 21, 2020

अपने गाँव में दिल्ली जैसी मेहनत करते तो आज यह दुर्दिन न देखना पड़ता



शेष नारायण सिंह


 दिल्ली के आसपास के शहरों में  कमाई के अवसर शून्य हो जाने के  बाद गाँव के तरफ पैदल जाने वालों का रेला इंसानियत को चुनौती दे रहा  है . इतनी लम्बी दूरी पैदल तय करने की योजना बनाना इस बात का साफ़ सबूत है कि दिल्ली में रहना असंभव हो गया है .  लकिन इसके पीछे शहरों की तरफ भगदड़ सबसे बड़ा कारण है . जो लोग जा रहे  हैं लागभग सब के  गाँव में उनकी अपनी ज़मीन  है जिसमें गुज़र बसर  हो सकता है . लेकिन वे शहर में बेहतर ज़िंदगी  के सपने देखकर यहाँ आये थे .   आज उनपर विपत्ति का  पहाड़ टूट पडा है . इसके सबसे बड़े  कारक हैं  गाँव  में  रहें वाले नौजवानों के मन  में पलने वाले फर्जी सपने .  मैंने इन सपनों के निर्माण की फर्जी प्रक्रिया को बहुत करीब से देखा है ,उत्तर प्रदेश के गाँवों में रहने वाले लड़कों के मन में शहरों की ज़िंदगी की एक तस्वीर रहती है . लेकिन सचाई कुछ अलग होती है . मेरे साथ भी ऐसा ही था . गाँव में  रहते हुए बड़े शहरों की ज़िंदगी के बारे में  सम्पन्नता की कल्पना हावी रहती है . मेरा यह सपना बहुत जल्दी टूट गया था  लेकिन सबको यह अवसर नहीं मिलता .मैं पहली जब दिल्ली आया तो दिमाग में एक पता बहुत साफ़ लिखा हुआ  था ---गली मैगजीन ,चूड़ी वालान, चावडी बाज़ार ,चांदनी चौक ,दिल्ली . मेरे गाँव के कुछ लोग यहाँ रहते थे . जब वे लोग गाँव जाते थे तो सबसे  बढ़िया धोती, बढ़िया कुर्ता, गले में महकता हुआ पाउडर लगा हुआ ,किसी की शादी में द्वारपूजा के लिए जब आते थे तो सबसे प्रभावशाली लगते थे . बिरला की बैंक यूनाइटेड कमर्शियल में काम करते थे . जब मई जून में गाँव आते थे तो लगता था कि उनके पास बहुत पैसा है . मैं सोचता था कि सम्पन्नता तो  दिल्ली में ही कमाने से आती  है . उसी दौर में जौनपुर अपने मामा के  गाँव गया  . वहां किसी पड़ोसी के कोई रिश्तेदार  भीखाभाई की चाल , अहमदाबाद में  रहते थे . उनके भी कपडे ,साबुन, सिगरेट वगैरह माहौल में खुशबू बिखेरते थे. १९६७ में अपनी बहन के यहाँ गया , . वहां कोई रिश्तेदार आये हुये थे , वे सलाबतपुरा ,बेगम बाड़ी सूरत में रहते थे . उनके  कपड़े बहुत ही साफ़ सुथरे होते थे .. महंगी घड़ी , कलम आदि उनके पास भी  होती थी . मन में कहीं बैठ गया कि सम्पन्नता इन्हीं शहरों में है . बंबई के बारे में ऐसे रूमानी ख़याल नहीं  थे क्योंकि मेरे  खानदान के मेरे पिताजी से उम्र में बड़े ठाकुर रामबक्स  सिंह  मुंबई में रहते थे , देना बैंक में काम करते थे और बंबई के बारे में बहुत रोमांटिक तस्वीर नहीं पेश करते थे. कहते थे कि पैसा  तो बंबई में मिलता है , महाजनी नौकरी में पगार इमानदारी से पूरी मिलती है लेकिन ज़िंदगी बहुत ही मुश्किल होती है . रहने और संडास जाने की बहुत तकलीफ होती है . यह है अवध के सुल्तानपुर जिले में  रहने वाले एक किशोरवय लड़के के बड़े होने की उम्र में दिमाग में पल रही सपनों की बुनियाद. मेरे यह सपने जल्दी टूट गए क्योंकि १९७१ में एक बीस साल के नौजवान ने  दिल्ली की पहली यात्रा की तो गली मैगजीन, चूड़ी वालान,  चावड़ी बाज़ार ,चांदनी चौक  जाने का मौक़ा मिला.  देखा तो वह तो एक बहुत ही गंदी गली थी. इतवार का दिन था .  मेरे गाँव के जो श्रीमानजी वहां रहते थे वे दूसरी मंजिल पर एक कोठरी में रहते थे .पटरे के जांघिया पहने बैठे थे, उनके  छोटे भाई नहीं दिखे . मैंने पूछा तो बताया कि अभी आ रहे हैं .पानी लेने गए हैं . मैं भी नीचे चला गया . एक सरकारी नल था , वहीं कई लोग पानी लेने के लिए लाइन में में लगे थे . बहरहाल जब वहां से लौटकर आया तो समझ में आ चुका था कि दिल्ली की  ज़िंदगी  कितनी मुश्किल  है . उन दोनों भाइयों के कपड़ों की तुलना में उनकी मलिन बस्ती की ज़िंदगी बार बार  यादों में घूमती रही . अहमदाबाद  या सूरत वालों के यहाँ तो कभी नहीं गया लेकिन समझ  में आ गया  कि गाँव आने की तैयारी में  परदेसिहा  ख़ास तौर से  कपडे खरीदता है . उसके पहले हाई स्कूल  के छात्र के रूप में फैजाबाद की मसोधा मिल में रहने वाले अपने ही खानदान के एक बुज़ुर्ग का घर देखने का अवसर मिल चुका था. वे  भी एक बहुत छोटे दडबे में रहते थे .
मैं तो  भाग्यशाली था , समझ में बात आ गयी लेकिन बहुत सारे लड़कों के दिमाग में यह  तस्वीर बनी रहती है. गाँव में मेहनत करते रोटी कमाने  को मुसीबत मानने वाले बाभन ठाकुर के लड़के महानगर में  जाना  चाहते हैं  और हाई स्कूल  या इंटर पास करके चले   आते हैं .  जिसके यहाँ आकर रहते हैं दो चार दिन बाद  ही वह कहने लगता है कि भाई अपनी खोराकी तो कमाओ और उनको किसी भी मजदूरी की लाइन में खड़े होना पड़ता है , किसी लेबर चौक पर खड़े होकर दिन की मजदूरी का इंतज़ार करना पड़ता है .और किसी तरह रोज़ की रोटी कमाने लगते हैं . जब  गाँव वापस जाते हैं तो किसी को सच्चाई नहीं बताते . सच्चाई यह है कि इतनी मेहनत करके दिल्ली में दो जून की रोटी कमाते हैं  अगर उतनी मेहनत अपने गाँव के खेत में करें तो ज़िंदगी बहुत ही ज्यादा खुशनुमा होगी लेकिन ऐसा वे नहीं करते . एकाध साल बाद अपनी पत्नी  को ले  आते हैं और महानगर की ज़िंदगी में किसी झुग्गी झोपडी में रहने वाला एक परिवार जुड़  जाता है . बाद में वही लोग पूर्वांचली वोट बैंक का हिस्सा बन जाते हैं . चुनाव के पहले कुछ मालिन बस्तियों  को पानी बिजली के कनेक्शन मिलते हैं और दिल्ली शहर में मकानमालिक बन जाते हैं . जब वे लोग गाँव जाते हैं तो सम्पन्नता की  मूर्ति  लगते हैं . उनकी जीवनशैली गाँव में एकदम अलग होती है लेकिन शहर में वे   किसी संगम विहार  किसी सोनिया विहार या किसी मंडावली में अपनी बस्ती के रेगुलर होने के इंतज़ार में उम्र बिता देते हैं .  गाँव में जाकर सच्चाई नहीं बताते . सच्चाई छुपाने का नतीजा होता  है शहर की तरफ अगली खेप आ जाती है . दो चार साल सडक या किसी नाली के किनारे ज़िंदगी बिताने के बाद  वे भी कहीं किसी प्रापर्टी माफिया के शिकार होते हैं और क़र्ज़ आदि लेकर पचीस से पचास गज के  बीच की ज़मीन किसी कच्ची कालोनी में खरीद कर घर बना लेते हैं .फिर वही  शहर  की गंदी बस्ती की ज़िंदगी ,  वहीं वोट बैंक , वही सपन्नता का ढोंग और वही नए लड़कों के दिल्ली आने का दुश्चक्र फिर खेला जाता है .   मैंने पिछले चालीस साल में  इस चक्र को कई बार खेले  जाते देखा है . गाँव में कई लोगों ने  जब अपने  बच्चों को मेरे साथ दिल्ली भेजने की  कोशिश की तो उनको यह सच्चाई बताया भी है लेकिन मानने  को तैयार नहीं होते और किसी रिश्तेदार के पास बच्चे को भेज देते हैं . वह  बच्चा भी  वापस जाकर अपने मातापिता से सच्चाई नहीं बताता . जब गाँव जाएगा तो लाल किले के सामने से सफ़ेद बेहतरीन कमीज़ . पैंट  और जूता खरीदकर संपन्न शक्ल बना लेगा .  हालंकि यहाँ दिल्ली के आस पास के इलाकों  में काम करते हुए उसे रोज़ कमाना और रोज़ खाना  ही नसीब होता है लेकिन अगली पीढ़ियों को उसके कपड़ों आदि से दिल्ली आने का न्योता मिलता रहता है .

 आज जो लड़के दिल्ली से पूरब जाने वाली सड़कों पर पांच सौ से एक हज़ार किलोमीटर की दूरी पैदल जाने का  मंसूबा बांधकर चल पड़े हैं , उनमें लगभग सभी वही हैं जो  दिल्ली के आसपास के  शहरों, नोयडा, ग्रेटर नोयडा, गाजियाबाद , फरीदाबाद , गुडगाँव  में दो चार साल पहले आये थे .  रोज़ कमाते थे , रोज़ खाते थे .लेकिन जब   महीने  भर के लिए रोज़ कमाने के अवसर बंद  हो गए तो यहाँ रहकर  भूखों मरने  से बचने के लिए अपने गाँव की और चल पड़े हैं .  गौर  करने की बात यह है कि पैदल जा रही भीड़ में  वही लोग हैं जिनकी जाति ऐसी  है जो गाँव में मनरेगा में मजदूरी नहीं कर सकते . लगभग  सभी तथाकथित ऊंची जाति के हैं .हालांकि यहाँ जो कमाई होती  है , मनरेगा में उससे ज्यादा मजदूरी  है  लेकिन  बाभन ठाकुर का  बेटा वहां शूद्र जातियों के साथ मजदूरी कैसे कर सकता है . अगर दिमाग में शहर में  रहकर गाँव में फर्जी प्रचार करने की लालसा को ख़त्म कर दिया गया होता तो आज जो भीड़ सडकों पर है वह न होती . लोग अपने घरों में होते और महानगर में अपनी मजदूरी नीलाम न कर रहे होते .
हज़ारों मील पैदल जाना तो शायद नहीं हो पाएगा , सरकार  उन लोगों को कभी न कभी गंतव्य तक पंहुचा देगी लेकिन अगर वे अपने  गाँव में रुककर ही जितनी मेहनत यहाँ दो जून की रोटी के लिए कर रहे थे उसका आधा भी करेंगे तो गाँव में इससे बेहतर ज़िंदगी जियेंगे और अपने पुरखों की ज़मीन का सम्मान करेंगे ,अपने बच्चों के लिए कुछ न कुछ छोड़कर जायेंगें. 

No comments:

Post a Comment