Thursday, April 30, 2020

महात्मा गांधी की ग्राम स्वराज की बात मानी गई तो आज मजदूरों की यह हाल न हुई होती .



शेष नारायण सिंह


देश के हर बड़े शहर में गाँवों से जाकर मजदूरी करने वालों की दुर्दशा को देखकर महात्मा गांधी के ग्राम स्वराज के सपने की तरफ बार बार ध्यान जा रहा  है . उन्होंने ने कहा था कि भारत के आज़ाद होने के बाद यहाँ ग्राम स्वराज   आयेगा . देश को विकसित करने के लिए गांव को विकास की इकाई बनाया जाएगा और गाँवों की सम्पन्नता ही देश की सम्पन्नता की यूनिट बनेगी . जवाहरलाल नेहरू गांधी जी की हर बात को मानते थे लेकिन पता नहीं क्यों उन्होंने गांधी के विकास के दर्शन की इस बुनियादी बात को लागू नहीं किया . उन्होंने सोवियत रूस में प्रचलित ब्लाक डेवेलपमेंट के माडल को अपनाया . और उसी को बुनियाद बनाकर ग्रामीण विकास के लिए सामुदायिक विकास की बहुत बड़ी योजना को लागू कर दिया . आज़ादी के बाद देश में आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए शुरू किये गए कार्यक्रमों में यह बहुत ही महत्वपूर्ण कार्यक्रम था . लेकिन यह असफल रहा ,अपने लक्ष्य को हासिल नहीं कर सका. इस कार्यक्रम को शुरू करते वक़्त लगभग हर मंच से सरकार ने यह दावा किया था कि कम्युनिटी डेवलपमेंट प्रोग्राम के ज़रिये महात्मा गांधी के सपनों के भारत को एक वास्तविकता में बदला जा सकता है. मौजूदा सरकार भी महात्मा  गांधी के नाम पर कई कार्यक्रम चला रही है .  यह देखना दिलचस्प होगा कि भारत के गाँवों को खुशहाल देखने के महात्मा गांधी के सपने को क्या इन कार्क्रमों से कोई लाभ हुआ  है .  इस संकट के दौर में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने गांधी के सपनों के भारत को एक आकार देने की कोशिश की है . उत्तर प्रदेश  के मुख्यमंत्री ने चार अफसरों की एक  कमेटी बनाई है जिनका ज़िम्मा है कि राज्य में इतने उद्योग लगवा दिए जाएँ कि जो लड़के मुंबईसूरतदिल्लीफरीदाबाद ,गुडगाँव, लुधियाना ,भिवंडी आदि शहरों से   वापस आये हैं उनको यहीं पर वही काम दे दिया जाए  जो वे वहां कर रहे थे . अगर यह योजना सफल हो गयी तो  ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों के पलायन को रोका जा सकेगा . यह माडल पूरे देश में नक़ल भी किया जा सकता है . चीन से अमरीका और यूरोप के देश अब कारोबार करने में संकोच करेंगे. जो चीन से मुंह फेरने वाले हैं उनको अगर भारत के यह ग्रामीण उद्योग अपनी तरफ खींच सकें तो कोरोना संकट के  बाद भारत को  बहुत लाभ मिलेगा . देश के आर्थिक विकास को इस माडल से गति मिल सकती है


भारत में २ अक्टूबर १९५२ के दिन जब कम्युनिटी डेवलपमेंट प्रोग्राम की शुरुआत की गयी तो सोचा गया था कि इसके रास्ते ही ग्रामीण भारत का समग्र विकास किया जाएगा.इस योजना में खेती,पशुपालन,लघु सिंचाई,सहकारिता,शिक्षा,ग्रामीण उद्योग अदि शामिल था जिसमें सुधार के बाद भारत में ग्रामीण जीवन की हालात में क्रांतिकारी परिवर्तन आ सकता था.कम्युनिटी डेवलपमेंट प्रोग्राम को लागू करने के लिए बाकायदा एक अमलातंत्र बनाया गया . जिला और ब्लाक स्तर पर सरकारी अधिकारी तैनात किये गए लेकिन कार्यक्रम से वह नहीं हासिल हो सका जो तय किया गया था. इस तरह महात्मा गांधी के सपनों के भारत के निर्माण के लिए सरकारी तौर पर जो पहली कोशिश की गयी थी वह भी बेकार साबित हुई . ठीक उसी तरह जिस तरह गांधीवादी दर्शन की हर कड़ी को अंधाधुंध औद्योगीकरण और पूंजी के केंद्रीकरण के सहारे तबाह किया गया .  ग्रामीण भारत में शहरीकरण के तरह तरह के प्रयोग हुए और जिसके कारण ही आज भारत उजड़े हुए गाँवों का एक देश है .

 जवाहरलाल नेहरू  के दिमाग में तो यह बात समा गयी थी कि भारत का ऐसा विकास होना चाहिये जिसके बाद भारत के गाँव भी शहर जैसे दिखने लगें . वे गाँवों में शहरों जैसी सुविधाओं को उपलब्ध कराने के चक्कर में थे .उन्होंने उसके लिए सोवियत रूस में चुने गए माडल को विकास का पैमाना बनाया . नतीजा यह  हुआ कि हम एक राष्ट्र के रूप में बड़े शहरों , मलिन बस्तियों और उजड़े गाँवों का देश बन गए . कम्युनिटी डेवलपमेंट प्रोग्राम को शुरू करने वालों ने सोचा था कि इस कार्यक्रम के लागू होने के बाद खेतोंघरों और सामूहिक रूप से गाँव में बदलाव आयेगा . कृषि उत्पादन और रहन सहन के स्तर  में बदलाव आयेगा . गाँव में रहने वाले पुरुष ,स्त्री और नौजवानों की सोच में बदलाव लाना भी कम्युनिटी डेवलपमेंट प्रोग्राम का एक उद्देश्य था लेकिन कहीं कुछ नहीं हुआ. सरकारी स्तर पर ग्रामीण विकास के लिए जो लोग तैनात किये गए उनके मन में सरकारी नौकरी का भाव ज्यादा था , इलाके या गांव के विकास को उन्होंने कभी प्राथमिकता नहीं दिया . ब्रिटिश ज़माने की नज़राने की परम्परा को इन सरकारी कर्मचारियों ने खूब विकसित किया. पंचायत स्तर पर कोई भी ग्रामीण लीडरशिप विकसित नहीं हो पायी. सच्चाई यह है कि ग्रामीण विकास का काम ऐसा है जिसमें नतीजे हासिल करने के लिए किया जाने वाला प्रयास ही सबसे अहम प्रक्रिया है . सरकारी बाबुओं ने उस प्रक्रिया को मार दिया .उसी प्रक्रिया के दौरान तो गाँव के स्तर पर सही अर्थों में लीडरशिप का विकास होता लेकिन सरकारी कर्मचारियों ने ग्रामीण लीडरशिप को पनपने ही नहीं दिया . .सामुदायिक विकास के बुनियादी सिद्धांत में ही लिखा है कि समुदाय के लोग अपने विकास के लिए खुद ही प्रयास करेगें .उस काम में लगे हुए सरकारी कर्मचारियों का रोल केवल ग्रामीण विकास के लिए माहौल बनाना भर था लेकिन वास्तव में ऐसा कहीं नहीं हुआ . उदाहरण महात्मा गाँधी के नाम पर शुरू किये गए मनरेगा कार्यक्रम की कहानी है . बड़े ऊंचे उद्देश्य के साथ शुरू किया गया यह कार्यक्रम आज ग्राम प्रधान से लेकर कलेक्टर तक को आर्थिक लाभ पंहुचाने का साधन बन कर रहा गया है .  इसलिए आज महात्मा गाँधी के भारत में  दर दर की ठोकर खा रहे मजदूरों की दुर्दशा के मद्दे-नज़र  उनके सपनों का भारत बनाने के लिए  सरकारों से आग्रह किया जाना चाहिए कि अंधाधुंध  शहरीकरण के चक्कर में कहीं हम अपने देश के गाँवों को तबाह न कर दें .बड़े शहरों में जाने से लोगों को  रोकने की कोशिश करें और उनके गाँव के आसपास की उनको काम दें .

आज़ादी की धर्मनिरपेक्ष विरासत की रक्षा करना देश की सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए .




शेष नारायण सिंह  


अमरीका की धार्मिक स्वतंत्रता वाली रिपोर्ट में फिर भारत को घेरने की कोशिश की गयी है .सी ए ए और मुसलमानों के प्रति हिंसा के हवाले से अमरीकी संस्था अमरीकी अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग की रिपोर्ट में एक बार फिर भारत को  दुनिया के असहिष्णु  देशों की कतार में खड़ा कर दिया गया है . भारत सरकार के विदेश मंत्रालय ने अमरीकी आयोग की रिपोर्ट का  विरोध किया और उसको पूर्वाग्रह से युक्त बताया है .अपनी रिपोर्ट में अमरीकी आयोग ने भारत को जिन देशों के साथ खड़ा   करने की बात की है वे सभी देश धार्मिक असहिष्णुता के लिए पूरी  दुनिया में बदनाम हैं. रिपोर्ट में शामिल देशों में म्यांमारचीनएरिट्रियाईरानउत्तर कोरियापाकिस्तानसऊदी अरबतजिकिस्तान तुर्कमेनिस्तान  नाईजीरियारूससीरिया और वियतनाम का नाम है . अब इसी सूची में अमरीका ने भारत का नाम भी जोड़ दिया है . विदेश मंत्रालय की तरफ से आये बयान में भारत ने कहा है  कि  'हम अमरीकी अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग की वार्षिक रिपोर्ट में भारत के खिलाफ टिप्पणियों को खारिज करते हैं। भारत के खिलाफ उसके ये पूर्वाग्रह वाले और पक्षपातपूर्ण बयान नए नहीं हैंलेकिन इस बार पर उसकी गलत बयानी नये स्तर पर पहुंच गई है।' आजकल भारत और अमरीका में जिस तरह का अपनापन का माहौल है उसके मद्दे-नज़र जानकारों को इमकान है कि भारत सरकार में इस रिपोर्ट को बहुत ही  गंभीरता से लिया जा रहा है .कुछ लोग यह भी कहते  सुने गए हैं कि अमरीकी आयोग की रिपोर्ट को ट्रंप प्रशासन  से खारिज करने को भी कहा जा सकता है .वरना इसके पहले जब इस तरह की रिपोर्टें आती थीं  तो  तत्कालीन भारत सरकारें परवाह नहीं करती थीं.  गुजरात में २००२ के दंगों के बाद आई अमरीकी अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग की रिपोर्ट में इसी तरह की बात की गयी थी लेकिन  भारत सरकार ने कोई खास तवज्जो नहीं दिया था . अमरीकी अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग की रिपोर्ट से विदेशनीति की दिशा में कोई खास बदलाव नहीं आता लेकिन  नागरिकता संशोधन  कानून के बाद देश भर में चले विरोध प्रदर्शनों को जिस तरह से अमरीकी और यूरोपीय मीडिया ने प्रमुखता दी थीउसकी रोशनी में इस रिपोर्ट  से दुनिया भर में भारत की धर्मनिरपेक्षता की संविधान द्वारा  गारंटी पर कुछ लोगों को सवाल उठाने का मौक़ा तो मिलता ही है . सरकार को कोशिश करनी चाहिए कि हमारी धर्मनिरपेक्षता की छवि को आंच न आने पाए . राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री देश के सभी सरकारी पदों पर आसीन होने वाले अधिकारी और कर्मचारी काम शुरू करने से पहले शपथ लेते हैं कि वे संविधान को अक्षुण्ण रखेंगे . धर्मनिरपेक्षता संविधान का एक बहुत ही महत्वपूर्ण  अंग  है . लिहाजा  प्रधानमंत्री सहित सभी  नेताओं मंत्रियों को धर्मनिरपेक्षता की रक्षा करनी चाहिए . प्रधानमंत्री अपने भाषणों में  सभी धर्मों के प्रति सम्मान की बात करते रहते हैं और अन्तराष्ट्रीय मंचों पर  भारत की धर्मनिरपेक्ष परम्पराओं का उनको लाभ भी खूब मिलता  है .  प्रधानमंत्री  बनने के बाद उन्होंने  हमेशा ही धर्मनिरपेक्षता की बात को आदर दिया है .
यह अलग बात है कि उनकी पार्टी और उसके कार्यकर्ता धर्मनिरपेक्षता की निंदा करते रहते  हैं . आर एस एस और भाजपा के नेताओं के दिमाग में कहीं से यह बात भरी रहती है  कि धर्मनिरपेक्षता कांग्रेस की विरासत है . लेकिन वह गलत हैं . धर्मनिरपेक्षता किसी  पार्टी की विरासत नहीं है . वह देश की विरासत है .इसी विचारधारा की बुनियाद पर इस देश की आज़ादी की लड़ाई लड़ी गयी थी. अंग्रेजों की सोच थी कि इस देश के हिन्दू और मुसलमान कभी एक साथ नहीं खड़े होंगें लेकिन जब १९२० का महात्मा गांधी का आन्दोलन शुरू हुआ तो हिन्दू और मुसलमान न केवल साथ साथ थे बल्कि मुसलमानों के लगभग सभी फिरके महात्मा गांधी के साथ हो गए थे . उसके बाद ही अंग्रेजों ने  दोनों धर्मो  में  गांधी विरोधी तबका तैयार किया और उसी हिसाब से राजनीतिक संगठन खड़े किये . लेकिन महात्मा गांधी के आन्दोलन का  स्थाई भाव सभी  धर्मों का साथ ही बना रहा और आजादी की लड़ाई उसी बुनियाद पर जीती गयी. जाते जाते अंग्रेजों ने अपने वफादार जिन्ना को पाकिस्तान तो बख्श दिया लेकिन भारत की एकता को तोड़ने में नाकाम रहे . धर्मनिरपेक्षता की विरोधी ताक़तों ने महात्मा गांधी  की  हत्या भी की . उनको शायद उम्मीद थी कि उसके बाद भारत में मुसलमानों के  विरोध की हवा चल पड़ेगी लेकिन  लेकिन देश की एकता बनी रही .
देश के लोगों की एकता को खंडित करने के जो सपने महात्मा गांधी की ह्त्या करने वालों ने पाल रखे थे वे काफी समय तक दफ़न रहे लेकिन पिछले कुछ समय से देखने में आ रहा है कि मुसलमानों को देशद्रोही साबित करने वाले लोगों के हौसले बहुत ही बढ़ गए हैं . इस हौसले को हवा देने में टीवी चैनलों में होने वाली बहसों का भी भारी योगदान है . इस कड़ी में नवीनतम मामले ऐसे सुनने में आ रहे हैं जो किसी भी सही सोच वाले इंसान  को चिंतित कर देगें. ख़बरें आ रही है कि बीजेपी के कुछ नेता अपने समर्थकों से अपील कर रहे हैं कि  मुसलमानों का  बहिष्कार करोउनकी दूकान से सामान आदि मत खरीदो. ऐसी ही एक अपील के बाद बीजेपी के आला नेतृत्व ने एकाध विधायक को नोटिस वगैरह भी  जारी किया है लेकिन उससे कोई फर्क पड़ता नज़र नहीं आता  क्योंकि पहले भी मुसलमानों के लिए नफरतभरी  भाषा का प्रयोग करने वाले बीजेपी नेताओं को नोटिस तो भेजा गया लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई. प्रधानमंत्री को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि देश की एकता के लिए सर्वधर्म समभाव और धर्मनिरपेक्ष  माहौल ज़रूरी  उनके पहले के सभी प्रधानमंत्री इस बात पर जोर देते रहे हैं . राष्ट्र की एकता के लिए ज़रूरी  सर्वधर्म   समभाव  की बात को प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने तो आगे बढाया  हीइस मिशन में  सरदार पटेल का योगदान  किसी से कम नहीं है .यह सच है कि जब तक कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्षता की  राजनीति को अपनी  बुनियादी सोच का हिस्सा बना कर  रखा तब तक कांग्रेस अजेय रही लेकिन जब साफ्ट हिंदुत्व की राजनीति को अपनाने की कोशिश की इमरजेंसी के दौरान  दिल्ली और अन्य इलाकों में मुसलमानों को चुन चुन कर मारा तो देश की जनता कांग्रेस के खिलाफ  खड़ी हो गयी और पार्टी  १९७७ का चुनाव हार गयी .  आज कांग्रेस के बहुत पिछड़ जाने में उसका धर्मनिरपेक्ष राजनीति से विमुख होना भी माना जाता है .

हमारे अपने देश में सेकुलर राजनीति का विरोध करने वाले और हिन्दुराष्ट्र की स्थापना का सपना देखें वालों को पाकिस्तान की धार्मिक राजनीति से हुई तबाही पर भी नज़र डाल लेनी चाहिए .पाकिस्तान की आज़ादी के वक़्त उसके संस्थापक मुहम्मद अली जिन्नाह ने  साफ़ ऐलान कर दिया था कि पाकिस्तान एक सेकुलर देश होगा .ऐसा शायद इसलिए था कि १९२० तक जिन्नाह मूल रूप से एक सेकुलर राजनीति का पैरोकार थे . उन्होंने १९२० के आंदोलन में खिलाफत के धार्मिक नारे के आधार पर मुसलमानों को साथ लेने का विरोध भी किया था लेकिन बाद में अंग्रेजों  की चाल में फंस गए और लियाकत अली ने उनको मुसलमानों का नेता बना दिया .नतीजा यह हुआ कि १९३६ से १९४७ तक हम मुहम्मद अली जिन्नाह को मुस्लिम लीग के नेता के रूप में देखते हैं जो कांग्रेस को हिंदुओं की पार्टी साबित करने के चक्कर में रहते थे . लेकिन  कांग्रेस का नेतृत्व महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू के पास था और उन्होंने कांग्रेस को किसी एक धर्म की पार्टी नहीं बनने दिया . लेकिन जब पाकिस्तान की स्थापना हो गयी तब जिन्नाह ने ऐलान किया कि हालांकि पाकिस्तान की स्थापना इस्लाम के अनुयायियों के नाम पर हुई है लेकिन वह एक सेकुलर देश बनेगा .अपने बहुचर्चित ११ अगस्त १९४७ के भाषण में पाकिस्तानी संविधान सभा के अध्यक्षता करते हुए जिन्नाह ने सभी पाकिस्तानियों से कहा कि ,” आप अब आज़ाद हैं . आप अपने मंदिरों में जाइए या अपनी मस्जिदों में जाइए . आप का धर्म या जाति कुछ भी हो उसका  पाकिस्तान के  राष्ट्र से कोई लेना देना नहीं है .अब हम सभी एक ही देश के स्वतन्त्र नागरिक हैं . ऐसे नागरिक , जो सभी एक दूसरे के बराबर हैं . इसी बात को उन्होंने फरवरी १९४८ में भी जोर देकर दोहराया . उन्होंने कहा कि कि, “ किसी भी हालत में पाकिस्तान  धार्मिक राज्य नहीं बनेगा . हमारे यहाँ बहुत सारे गैर मुस्लिम हैं –हिंदूईसाई और पारसी हैं लेकिन वे सभी पाकिस्तानी हैं . उनको भी वही अधिकार मिलेगें जो अन्य पाकिस्तानियों को और वे सब पाकिस्तान में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभायेगें .” लेकिन पाकिस्तान के  संस्थापक का यह सपना धरा का धरा रह गया और पाकिस्तान का पूरी तरह से इस्लामीकरण हो गया . पहले चुनाव के बाद ही  वहाँ बहुमतवादी राजनीति कायम हो चुकी थी और उसी में एक असफल राज्य के रूप में पाकिस्तान की बुनियाद पड़ चुकी थी. १९७१ आते आते तो  नमूने के लिए पाकिस्तानी संसद में एकाध हिंदू मिल जाता था  वर्ना पाकिस्तान पूरी तरह से इस्लामी राज्य बन चुका था. अलोकतांत्रिक  धार्मिक नेता राजकाज के हर क्षेत्र में हावी हो चुके थे.

इसलिए एक राष्ट्र के रूप में हमको भी चौकन्ना रहना पडेगा . बहुमतशाही के चक्कर में पड़ने से बचना होगा. अमरीकी अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग की औकात हमको धर्मनिरपेक्षता सिखाने की नहीं है लेकिन हमें  अपने संविधान के मूल्यों की रक्षा  करनी ही पड़ेगी. भारत में बहुमतवाद की राजनीति को स्थापित करने की कोशिश की को लगाम देना होगा .क्योंकि धार्मिक कट्टरता किसी भी राष्ट्र का धर्म नहीं बन सकती . जवाहरलाल नेहरू के युग तक तो किसी की हिम्मत नहीं पडी कि  धार्मिक समूहों का विरोध करे या पक्षपात करे लेकिन उनके जाने के बाद धार्मिक पहचान की राजनीति ने अपने देश में तेज़ी से रफ़्तार पकड़ी और आज राजनीतिक प्रचार में वोट हासिल करने के लिए धार्मिक पक्षधरता की बात करना राजनीति की प्रमुख धारा बन चुकी है।  इसको संभालना ज़रूरी है .

बलराज साहनी होते तो आज 107 साल के होते



शेष नारायण सिंह


बलराज साहनी का जन्म १ मई १९१३ को रावलपिंडी में हुआ था . उनका शुरुआती नाम युधिष्ठिर साहनी था जबकि उनसे छोटे भाई का नाम भीष्म साहनी था. पंजाब के दो नामी कालेजों में से एक , गवर्नमेंट कालेज लाहौर से उन्होंने तालीम पाई थी. शांतिनिकेतन में कुछ समय हिंदी  शिक्षक भी रहे . शान्तिनिकेतन में  उनका चुनाव गुरुदेव  रबीन्द्रनाथ टैगोर ने स्वयं किया था वहीं पर उनकी मुलाक़ात महात्मा गांधी से हुई थी .  उसी दौर में  आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी भी  शान्तिनिकेतन में हुआ करते थे . बाद में बलराज साहनी  बीबीसी लंदन भी गए  जहां हिन्दुस्तानी सर्विस रेडियो के लिए काम किया .


बलराज साहनी का ज़िक्र किये बिना बीसवीं सदी के जनवादी आन्दोलन के बारे में बात पूरी नहीं की जा सकती है .बलराज साहनी ने इस देश को गरम हवा जैसी फिल्म दी .कहते हैं कि एम एस सत्थ्यूके निर्देशन में बनी फिल्म ,गरम हवा में बंटवारे के दौर के असली दर्द को जिस बारीकी से रेखांकित किया गया वह वस्तुवादी कलारूप का ऊंचे दर्जे का उदाहरण है . बलराज साहनी को उनकी फिल्मों के कारण आमतौर पर एक ऐसे कलाकार के रूप में जाना जाता है जिनका फिल्मों के बाहर की दुनिया से बहुत वास्ता नहीं था . लेकिन यह बिलकुल अधूरी सच्चाई है . बलराज साहनी बेशक बहुत बड़े फिल्म अभिनेता थे लेकिन एक बुद्धिजीवी के रूप में भी उनका स्तर बहुत ऊंचा है . बलराज साहनी ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का पहला कन्वोकेशन भाषण दिया था। बाद के वर्षों में विश्वविद्यालय में दाखिला लेने वाले छात्रों को सीनियर छात्रों की ओर से उस भाषण की साइक्लोस्टाइल कापी दी जाती थी . बलराज साहनी का वह भाषण शिक्षा की दुनिया में संस्कृति के सकारात्मक हस्तक्षेप की मिसाल के रूप में देखा जाता है .

बलराज साहनी की मौत के बाद महान पत्रकार , फिल्मकार और बुद्धिजीवी  ख्वाजा अहमद अब्बास ने उनकी याद में एक मज़मून लिखा था .ख्वाजा साहेब ने लिखा था  कि ," बलराज साहनी ने अपनी जिंदगी के बेहतरीन साल, भारतीय रंगमंच तथा सिनेमा को घनघोर व्यापारिकता के दमघोंटू शिकंजे से बचाने के लिए और आम जन के जीवन के साथ उनके मूल, जीवनदायी रिश्ते फिर से कायम करने के लिए समर्पित किया था ."

बहुत से लोग इस बात पर हैरानी जताते थे कि बलराज साहनी  कितनी सहजता और आसानी से आम जन के बीच से विभिन्न पात्रों को मंच पर या पर्दे पर प्रस्तुत कर देते थे . चाहे वह ' धरती के लाल '  का कंगाल हो गए किसान का बेटा हो या '  हम लोग '  का कुंठित तथा गुस्सैल नौजवान; चाहे वह ' दो बीघा जमीन '  का हाथ रिक्शा खींचने वाला मजबूर इंसान हो या ' काबुलीवाला ' का मेवा बेचनेवाला पठान या फिल्म ' वक़्त ' के लाला केदारनाथ का संपन्न जीवन  और बाद में मजदूरी करता मजबूर बाप हो या फिल्म ' सपन सुहाने ' का ट्रक ड्राइवर या  इप्टा के नाटक "आखिरी शमा" में मिर्जा गालिब का बौद्धिक  रूपांतरण ही क्यों न हो।  बलराज साहनी कोई यथार्थ से कटे हुए बुद्धिजीवी या  कलाकार नहीं थे। आम आदमी से उनका गहरा परिचय स्वतंत्रता के लिए तथा सामाजिक न्याय के लिए जनता के संघर्षों में उनकी हिस्सेदारी से आया था। उन्होंने जुलूसों में, जनसभाओं में तथा ट्रेड यूनियन गतिविधियों में शामिल होकर और पुलिस की नृशंस लाठियों और गोलियां उगलती बंदूकों का सामना करते हुए यह भागीदारी की थी। गोर्की की तरह अगर जिंदगी उनके लिए एक विशाल विश्वविद्यालय थी, तो जेलों ने जीवन व जनता के इस चिरंतन अध्येता, बलराज साहनी के लिए स्नातकोत्तर प्रशिक्षण का काम किया था। यहाँ यह जानना भी दिलचस्प होगा कि बलराज साहनी  की महान फिल्मों के यादगार गीत , मेरी ज़ोहराजबीं  , ऐ मेरे प्यारे वतन जैसे गानों को आवाज़ देने वाले  बीसवीं सदी के महान गायक  मन्ना डे का जन्मदिन भी पहली मई को ही पड़ता है .

इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन, जिसे इप्टा के नाम से ही ज्यादा जाना जाता है, का जन्म दूसरे विश्व युद्ध तथा बंगाल के भीषण अकाल के बीच हुआ था और बलराज साहनी इसके पहले कार्यकर्ताओं में से एक थे। लेखक की हैसियत से भी और एक निदेशक की हैसियत से भी, उनका इप्टा के खजाने में शानदार योगदान रहा था। अभिनय तो उन्कहोंने दोस्तों के कहने से कर दिया था . सब से बढक़र वह एक संगठनकर्ता थे। किसी भी मुकाम पर इप्टा अपने नाटकों के जरिए जिस भी लक्ष्य के लिए अपना जोर लगा रहा होता था, चाहे वह फासीविरोधी जनयुद्ध हो या नृशंस दंगों की पृष्ठभूमि में हिंदू-मुस्लिम एकता का सवाल हो, वह चाहे  अफ्रीकी जनगण की मुक्ति हो या फिर साम्राज्यवाद के खिलाफ वियतनाम का युद्ध , बलराज साहनी हमेशा सभी के मन में उस लक्ष्य के प्रति हार्दिकता व गहरी भावना जगाते थे। काबुलीवाला  फिल्म में बलराज साहनी ने जिस तरह से ऐ मेरे प्यारे वतन का सीन अभिनीत किया था वह आज भी हर उस आदमी को अपने वतन की याद दिलाता है जो अपने घर से दूर है . हालांकि यह गाना अफगानिस्तान छोड़कर आये एक मेवा बेचने वाले की टीस थी।




Thursday, April 23, 2020

कोरोना के आतंक का मुकाबला करने में हुए कुप्रबंध का खामियाजा देश और समाज को भुगतना पडेगा



शेष नारायण सिंह

कोरोना के संकट की समाप्ति के  बाद बहुत कुछ बदलने जा रहा है . उद्योग व्यापार की दुनिया में तो सब कुछ बदल जाएगा. पिछले एक महीने से जो लोग लॉकडाउन के तहत तन्हाई में  रह रहे हैं  या अपने परिवार के साथ रह  रहे हैं उनकी खाने की आदतें तो निश्चित रूप से बदल रही  हैं. कम से कम में गुज़र करने की स्थिति पैदा हो चुकी है. यह लोगों की आदत भी बन सकती है । ऐसी संभावना जताई जा रही  है कि आज जिस तरह से रह रहे हैंउसी तरह से आगे भी रहने की आदतें उनकी जारी रहेंगी .अगर ऐसा हुआ तो  फालतू की  उपभोक्ता  वस्तुओं की मांग पर निश्चित रूप से भारी असर पडेगा . आज महंगे सौंदर्य प्रसाधन शहरी जीवन जीने की ललक गाँवों को शहर जैसा बनाकर विकास का दावा करने वालों को अपनी सोच पर फिर से विचार करना  पड़ रहा  है . भारत विशेषज्ञ प्रोफेसरों और चिंतकों की चिंता है कि कोविड-१९ के आतंक के ख़त्म होने के बाद किस तरह से उन औद्योगिक मजदूरों को शहरों में वापस बुलाया जाए और किस तरह से  उद्योगों को फिर से चालू किया जाय .वे मानकर चल रहे हैं कि लॉकडाउन के खतम होते ही सब कुछ पहले जैसा हो  जाएगा .  लॉकडाउन का स्विच ऑन होते ही सारे उद्योग उसी तरह से चलने लगेंगे . लेकिन सच्चाई इससे बहुत दूर है . सौन्दर्य प्रसाधनकार , मोटर साइकिल विज्ञापन के बल पर ग्रामीण  भारत में   ऐशोआराम की चीज़ों की ज़रूरत का फर्ज़ी निर्माण करने का माहौल बनाकर वहां उपभोक्ता वस्तुओं का नक़ली बाज़ार बनाकर देश की बड़ी आबादी  को उद्योगों में पैदा की गयी मैगी, ब्रेड बिस्कुट ,कुरकुरे आदि बेचने वाली बहुराष्ट्रीय  कंपनियों को मालूम  है कि गाँव में जो लोग इन चीज़ों के बिनाअपने खेत से उपजे हुए अनाजदाल सब्जी आदि से महीने से ज्यादा से  गुज़र कर रहे  हैं उपभोक्ता आचरण एक निश्चित स्वरुप ले रहा  है .  बड़ी कंपनियों में  बनाई गयी  खाने पीने की चीज़ों के बिना भी अभी ग्रामीण भारत में लोग आराम से रह रहे हैं . ज्यादातर किसान इस बात के लिए तैयार हो रहे हैं कि कम से कम में गुज़र किया जा सकता है . अभी अडतालीस साल पहले बंगलादेश की आज़ादी की लड़ाई में भारतीय सेना शामिल हुयी थी. तीन हफ्ते से कम समय तक वह लड़ाई  चली थी. कहीं कोई उद्योग बंद नहीं हुआ था.  सीमावर्ती इलाकों को छोड़कर देश में ज्यादातर  इलाकों में रहने वाले लोगों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी पर कोई प्रभाव नहीं  पड़ा था .लेकिन उस युद्ध का आर्थिक बोझ कई वर्षों तक देश क झेलना पड़ा था . उन दिनों दूर रहने वाले अपने सम्बन्धियों  के हाल चाल जानने का मुख्य साधन पोस्टकार्ड और अंतर्देशीय पत्र ही हुआ करते थे . बंगलादेश युद्ध के बाद सभी  पांच पैसे के सभी पोस्ट कार्डों और दस पैसे के अंतर्देशीय पत्रों पर दो पैसे  का अतिरिक्त टिकट लगने लगा था. यह व्यवस्था कई साल तक चली थी.इसके अलावा लगभग सभी टैक्सों पर बंगलादेश सरचार्ज लग गया था . नतीजा यह हुआ  था कि  महंगाई की एक लहर सी आ गयी थी. जो बाद तक चलती रही. बांग्लादेश सरचार्ज खतम होने के बाद भी हमेशा की तरह ताक़तवर हो चुके व्यापारी और उद्योगपति वर्ग ने कीमतें कम नहीं कीं.  युद्ध के बाद लगे टैक्स  आदि को ज्यों का त्यों  रखा  और सरकारी खजाने में जमा करने की जहमत न उठकार उसको चीजों की मूल कीमत में ही जोड़ दिया . १९६७ की हरित क्रान्ति की उपलब्धियों के बाद आई ग्रामीण भारत में  थोड़ी बहुत सम्पन्नता उसी बंगलादेश के दौरान  हुए युद्ध के खर्च में समा गयी थी.  
युद्ध के बाद हमेशा से ही आर्थिक और सामाजिक क्षेत्रों में परिवर्तन होता है . इंसानी व्यवहार में भी ज़बरदस्त बदलाव होता है . युद्ध के जो  पारंपरिक तरीके हैं उनमें हथियार चलते हैं जानें जाती हैं अर्थव्यवस्था चौपट होती है. उद्योगों का सारा ध्यान युद्ध के खिलाफ चल रहे राजकीय अभियान  में होता और सारे संसाधनों को युद्ध को समर्थन देने के  लिए लगा  दिया जाता है. युद्ध में घायल हुए लोगों की  देखभाल के लिए सभी  चिकित्सा सेवाएँ सिपाहियों या हमले की हिंसा से प्रभावित सामान्य लोगों के लिए लगा दी जाती हैं . आम तौर पर  देशों की बड़ी आबादी युद्ध से प्रभावित होती है . युद्ध के बाद सामान्य जीवन की बहाली में काफी समय लगता है . भारत ने १९६२,१९६५ और १९७१ में युद्ध को  करीब से देखा है . समकालीन इतिहास के प्रत्येक विद्यार्थी को मामूल है कि उन तीनों ही युद्धों के बाद भारत की आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था  के साथ साथ  राजनीतिक  आचरण में भी परिवर्तन आया था . लेकिन भारत में   हुए  यह युद्ध केवल  कुछ हफ़्तों तक चले थे और दूसरे विश्वयुद्ध की तुलना में बहुत छोटे थे . दूसरा  विश्वयुद्ध दुनिया के विभिन्न मोर्चों पर करीब छः साल तक  चला था . पेरिसलंदनवारसाओस्लोकोपेनहेगन जैसे शहर तबाह हो गए थे. उन युद्धों में हमलावर देश जर्मनी इटली और जापान की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से ज़मींदोज़ हो चुकी थी. उन शहरों और देशों को दुबारा पटरी पर आने में कई साल लगे थे . हारे हुए देशों को बहुत बड़ी कीमत चुकानी पडी थी.  ब्रिटेनफ्रांस , पुर्तगालस्पेन आदि का  एशिया और अफ्रीका के देशों में जमा हुआ वर्चस्व ख़त्म होने लगा था. इन साम्राज्यवादी देशों के उपनिवेशों में  आज़ादी की लड़ाइयाँ तेज़ हो गयी थीं. नतीजा यह हुआ  कि दूसरे विश्वयुद्ध के बाद भारत समेत बहुत सारे देशों को राजनीतिक आज़ादी मिली थी. हारे हुए जर्मनी और उसके  सहयोगी देशों के कब्जे वाले इलाकों को विजयी देशों ने आपस में बाँट लिया था . जितना दम्भी आजकल अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप है लगभग उतना ही बदतमीज उन दिनों ब्रिटेन का प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल हुआ करता था. ब्रिटेन उस दौर का दुनिया का सबसे ताक़तवर देश था लेकिन अपने देश समेत यूरोप के बहुत सारे देशों को हिटलर की युद्ध मशीनरी के हमले से बचाने के लिए चर्चिल को  सोवियत नेता स्टालिन का साथ मांगना पड़ा था और युद्ध के बाद  हुए जर्मनी के प्रभाव वाले इलाकों के  बँटवारे में सोवियत रूस को भी पूर्वी यूरोप के देशों का प्रभुत्व मिल गया था.
इसलिए मौजूदा कोरोना  संकट को भी युद्ध , बल्कि भयानक युद्ध की श्रेणी में ही रखा जाना चाहिए क्योंकि सामने से कोई दुश्मन  तोप बन्दूक लेकर हमला तो नहीं कर रहा है लेकिन अनिष्ट की आशंका युद्ध जैसी ही है और युद्ध की ही मानिन्द आर्थिक गतिविधियाँ बुरी तरह से प्रभावित हुयी  हैं . इसलिए युद्ध की विभीषिका और उसके बाद के नतीजों को उसी तरह से समझने की कोशिश की जायेगी तो  भावी संभावनाओं को समझने में आसानी होगी. इतिहास के पास पहले और दूसरे , दोनों ही विश्वयुद्धों के बाद की यूरोप की स्थिति को समझने के लिए महान दार्शनिकों के सन्दर्भ बिंदु उपलब्ध हैं . पहले विश्वयुद्ध के दौरान ही रूस के  जार के  आतंक से मुक्ति की महान , बोल्शेविक क्रान्ति जैसी घटना हुई थी . कामरेड लेनिन ने आने  वाली पीढ़ियों के राजनीतिक , सामाजिक, मानवीय और व्यक्तिगत संबंधों के  मार्क्सवाद पर आधारित   दर्शन को राजसता के सबसे महत्वपूर्ण अस्त्र को रूप में दुनिया को सौंप दिया था . अगले सत्तर वर्षों तक मार्क्सवाद की राजनीति ने दुनिया के सामूहिक आचरण को प्रभावित किया  था. यह वही दौर है जब स्पेनी इन्फ्लुएंजा ने भी दुनिया के सामने मौत का खौफ खड़ा कर दिया था .उसी दौर में फ्रैंज काफ्का के लेखन का शिखर भी देखा गया . हालांकि ४० साल की उम्र में ही उनकी मृत्यु हो  गयी लेकिन समाजवाद को  समझने में उनके समकालीन विद्वानों  ने तो उनको ज़रूरी महत्व नहीं दिया लेकिन बाद में उनको एक महान कहानीकार , साहित्यकार  और दार्शनिक के रूप में पहचाना गया .मानवीय  संवेदना  का जो काफ्का का तसव्वुर है  उसमें पहले युद्ध के पहले और बाद की रचनाओं  में कई जगह तो विरोधाभास भी देखे जा सकते हैं  . उनको समाजवादी भी कहा गया लेकिन उन्होंने मार्क्स के 'अलगाव की भावना वाले सिद्धांत ' की अलग व्याख्या करके एक नई बात कहने की कोशिश की . जिसकी  वजह से उनकी आलोचना भी हुई.  यह अलग बात है कि उनकी मौत के बहुत बाद उनको बहुत सम्मान के साथ देखा गया . डब्लू एच आडेन ने उनको बीसवीं  सदी का दांते कहा ,व्लादिमीर नाबकोव ने उनको पिछली  शताब्दी के महानतम लेखकों में शुमार किया . कहने का मतलब यह है कि ऐसी घटनाएं जिनसे जानमाल का ख़तरा दुनिया  भर के सामने आ जाता है , उन घटनाओं से आने वाला समय बहुत अधिक प्रभावित होता है .
 दूसरे विश्वयुद्ध के बाद फ्रांस पर हुए हमले के दो चश्मदीद  लेखकों की नजीर  पता  है. अलबर्ट कामू और ज्यां पॉल  सार्त्र और उनके समकालीनों के लेखन से साफ़ पता लग जाता है युद्ध के बाद हर क्षेत्र में भारी बदलाव होते हैं . एब्सर्ड और अस्तित्ववादी सोच ने दुनिया को बहुत प्रभावित किया है और उसमें कामू और उनके समकालीनों की समझ का बड़ा योगदान है . १९४५ के बाद पूरी दुनिया में साम्राज्यवाद से अलग होकर आजादी के लिए जो जद्दो-जेहद हुई है उसको उस दौर के साहित्य और रिपोर्टों से समझा जा सकता है . उन्होंने नीत्शे को भी कभी  माना लेकिन उनकी आलोचना भी की, अस्तित्ववाद को भी  माना लेकिन खुद ही स्वीकार किया कि उनकी किताब ' मिथ आफ सिसिफस  ' वास्तव में अस्तित्ववाद के बहुत से तत्वों की आलोचना भी है .
इस बार भी  कोरोना के खिलाफ हर देश में  अभियान चल  रहा है .हर देश में मौत का आतंक चारों तरफ फैला हुआ है . हालांकि यह भी सच है कि भारत जैसे देश में अभी मौत ने वः विकराल रूप नहीं लिया है लेकिन आशंका प्रबल है . दुनिया भर में क्या हो रहा  है , वह तो खबरों के ज़रिये सबको पता है लेकिन  भारत की राजधानी और उसके आसपास हो रहे मानवीय संकट को करीब से देखने समझने के बाद मुकम्मल तरीके से कहा जा सकता है कि हालात अच्छे नहीं हैं  . इस बात में दो राय नहीं है कि हमारे शासकों ने कोरोना की बीमारी के संभावित खतरे को सही तरीके से नहीं  आंका . सारे फैसले अफरातफरी में  लिए गए .इस बात को साबित करने के लिए एक ही उदाहरण काफी होगा.  ११ मार्च को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोरोना को भयानक महामारी घोषित कर दिया था लेकिन १३ मार्च को हमारी सरकार ने घोषणा की कि भारत में किसी तरह की मेडिकल इमरजेंसी नहीं है . उसके चार दिन बाद ही प्रधानमंत्री ने पूरे देश  को बताया कि देश भयानक  स्वास्थ्य संकट से गुज़र रहा है . फिर ताली बजाने और दिया जलाने वाले फैसले आये .  सत्ता के करीबी कुछ मूर्ख और अहमक लोगों ने   गाय के पेशाब और गोबर से इलाज की बात को भी चलाया . अजीब बात यह है कि किसी भी सरकारी उच्चाधिकारी ने इनके खिलाफ कोई कार्रवाई  नहीं की .   एकाएक लॉकडाउन की घोषणा कर दी गयी. ज़ाहिर है की बिगड़ चुके हालात में वही  रास्ता  सही था लेकिन अगर समय से ज़रूरी क़दम उठा लिए गए होते तो यह नौबत ही न आती . बहरहाल सरकार के बिना किसी तर्क के लिए गए फैसलों के चलते देश में आज चारों तरफ अफरातफरी का माहौल है . उद्योग धंधे चौपट हैं , छोटे व्यापारी सड़क पर आकर भीख मांगने  की आशंका से आतंकित हैं लेकिन इन फैसलों की अभी नहीं  आलोचना नहीं की जायेगी . इस संकट के ख़त्म होने के बाद उसकी विधिवत विवेचना होगी और लोगों की जिम्मेदारियां ठहराई जायेंगी. लेकिन एक बात तय है कि आर्थिक,  सामाजिक और मानवीय हर स्तर पर कोरोना के मुकाबले के तरीकों से उपजे कुप्रबंध के चलते भावी भारतीय समाज भी  बदलेगा  और राजनीति निश्चित रूप से बदलेगी . इसलिए देश के बुद्धिजीवियों को आने वाले समय की भयावहता का आकलन करना चाहिए और देश के  लोगों  को आगाह करना चहिये जैसे अपने अपने समय में काफ्का. कामू और सार्त्र ने  किया था . .

Tuesday, April 21, 2020

देश के सभी मुसलमानों को तबलीगी जमात से जोड़ना ग़लत है


शेष नारायण सिंह                                                                             
कोरोना वायरस के फैलने से दुनिया के कई मुल्कों में  हालात बहुत ही  चिंताजनक है . इस खतरनाक  बीमारी से केवल कुछ देश बचाव कर पाए हैं  सिंगापुर,   दक्षिण कोरिया जापान जैसे कुछ देशों में  वायरस के फैलने से पहले उसको काबू में कर लिया गया है  . लेकिन जिन देशों में सरकारें काबू करने में  सफल नहीं रही हैं वहां कोरोना के खलनायकों की तलाश  शुरू हो गयी है . अमरीका में स्वतंत्र मीडिया की ताक़त के कारण सच्चे खलनायक को देश ने पहचान लिया है  और अब  राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप कोरोना वायरस की महामारी के एक ख़ास खलनायक के रूप में पहचाने जा रहे हैं. विश्वविख्यात  दार्शनिक नोम चाम्सकी ने तो उनको असामाजिक जोकर ( Sociopathic Buffoon)  कह  दिया है . अब अमरीका सहित  सारी दुनिया में यह माना जाता है कि ट्रंप के ऊल जलूल बयानों के कारण अमरीका की हालत  ज्य़ादा बिगड़ी है .अमरीका में इस वायरस के कारण मरने वालों की संख्या आठ हज़ार के पार पंहुच  चुकी है . अगर सही समय पर ज़रूरी कदम उठा लिए गए होते तो शायद बात इतना न बिगडती . डोनाल्ड  ट्रंप बहुत दिनों तक यह मानने को ही तैयार नहीं थे  कि कोरोना से कोई गंभीर ख़तरा  है. अभी दो हफ्ते पहले  तक वे कोरोना की  वैक्सीन के शोध दावा कर थे  रहे कि डेढ़ साल में कोरोना की वैक्सीन का विकास कर लिया जाएगा . जब उनको याद दिलाया गया कि अभी  तो युद्ध जैसे हालात हैं और आपको उसके  बारे में चिंता  करनी है और कोरोना के  संकट के इलाज और रोकथाम के फौरी  तरीकों पर ध्यान देना चाहिए , वैक्सीन का  अभी कोई  महत्व नहीं है , तब जाकर ज़मीन पर आये और कुछ वास्तविकता की बात करने लगे  . इसके बावजूद कोई ख़ास सुधार नहीं हुआ है . आज ही उनका बयान आया है कि खेलकूद की गतिविधियाँ शुरू की जा सकती हैं .अमरीका  में  दिसम्बर २०१९ में ही कोरोना की खतरनाक संक्रामकता के बारे  में जानकारी थी . फरवरी के आख़िरी हफ्ते में  कोरोना वायरस के मरीजों की जानकारी बड़े पैमाने पर अखबारों में  छपने लगी थी लेकिन राष्ट्रपति ट्रंप निश्चिन्त थे . फरवरी के  अंतिम सप्ताह में ही वे भारत आये थे और अपने स्वागत में उमड़ी भीड़ को देखकर गदगद हो रहे   थे. अब जाकर उन्होंने स्वीकार किया  कि इस बीमारी से अमरीका में करीब ढाई लाख लोगों के मरने का अंदेशा है . इस सब के बाद उन्होंने कोरोना का मुकाबला एक  महायुद्ध की तरह करने का फैसला किया है.  मीडिया उनको हमेशा घेरता रहता  है लेकिन उनपर कोई  असर नहीं पड़ता .  व्हाइट हाउस की मीडिया ब्रीफिंग में जब एक अमरीकी पत्रकार ने उनसे पूछा कि ,' आप लगातार झूठ बोलते रहे और आपके झूठ की  वजह से पूरे  देश को नुक्सान हो रहा  है ,लोग मर रहे हैं ' उनके पास कोई जवाब  नहीं था.
 ११  मार्च को विश्व स्वास्थ्य  संगठन ने कोरोना को भयानक महामारी (  Pandemic ) घोषित कर दिया था लेकिन अमरीकी राष्ट्रपपति उसके बाद भी  शेखी बघारते रहे और दावा करते रहे कि उनके देश का कोई ख़ास नुकसान नहीं होगा .    लगभग यही हालत अपने देश की भी है . बहुत दिन तक भारत सरकार कोरोना को गंभीरता से लेने से इनकार करती रही .  ११ मार्च के दिन कोरोना को  खतरनाक महामारी  घोषित  किया  जा चुका लेकिन १३ मार्च को  भारत  सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय  की तरफ से बयान दिया गया कि अभी अपने देश में मेडिकल इमरजेंसी नहीं है . कोरोना वायरस से भारत  में कोई ख़ास परेशानी नहीं होगी . दुनिया के कई देशों में इस बीमारी से आतंक फैला हुआ था लेकिन गृहमंत्रालय के  अधीन काम करने वाली  दिल्ली पुलिस ने १३ मार्च को  दिल्ली के  हज़रत निजामुद्दीन थाने  से सटी हुई एक मस्जिद में  कोरोना प्रभावित देशों से आये लोगों का एक सम्मलेन करने की अनुमति दी और  आयोजन होने  दिया . यह तबलीगी जमात का कार्यक्रम था . तबलीगी जमात  एक धार्मिक संस्था है जो करीब सौ साल  से  सक्रिय  है. दिल्ली में निज़ामुद्दीन इलाक़े में उनका  मरक़ज़  है .तबलीगी जमात  मुसलमानों की बहुत बड़ी संस्था है. इनके मरक़ज़ों में  लोग आते जाते रहते हैं.जब कोरोना संक्रमण के पॉजिटिव मामले पाए जाने की खब़र फैली तब भी वहां इज्तेमा चली रही थी. इज्तेमा के दौरान हर राज्य से हज़ारों की संख्या में लोग आते हैं.
ऐसा लगता है कि मीडिया कोरोना  का खलनायक तलाशने की मुहिम में लगी हुई थी .  निज़ामुद्दीन में हुए तबलीगी जमात के  सम्मलेन को ही कोरोना के खलनायक के रूप में पेश  करने  का अवसर मिल गया . वह कोशिश जारी है .  सम्मलेन के आयोजकों का काम निश्चित रूप से  गैरजिम्मेदार  है. उनके बयानों के गैरजिम्मेदार   स्वरूप के कारण ही मीडिया को सभी मुसलमानों को लपेटने में आसानी हो रही है .मार्च के महीने में  राज्यों से लोग इज्तेमा के लिए आए थे. जिसमें कई विदेशी भी थे. कोरोना वायरस के संकट के दौरान तेलंगाना सरकार ने दावा किया कि उनके राज्य में पाए  गए मरीजों में कुछ ऐसे हैं जो दिल्ली में तबलीगी जमात के कार्यक्रम में  शामिल   हुए थे  . उसके बाद तो देश के टीवी चैनलों ने आसमान सर पर उठा लिया . तबलीगी जमात को ही देश में कोरोना वायरस के  प्रसार के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जाने लगा . नतीजा यह हुआ कि  जनमानस में यह बात भर दी गयी  कि सारे मुसलमान तबलीगी जमात के पक्ष में हैं और कोरोना के फैलाव के  लिए वही ज़िम्मेदार हैं .  चैनलों पर मचे हाहाकार में तबलीग़ी जमात का पक्ष रखने की जहमत तक नहीं उठायी गयी . बीबीसी ने उनके पक्ष को प्रमुखता से छापा . पत्रकारिता के बुनियादी सिद्धांतों में  सभी पक्षों की बात रखना शामिल है लेकिन अजीब दुर्भाग्य है कि टीवी पत्रकारिता में इस बात का ध्यान नहीं रखा जा रहा है . बीबीसी के अनुसार  तबलीग़ी जमात ने एक प्रेस नोट जारी किया  जिसके मुताबिक़ उनका कार्यक्रम साल भर पहले से तय कर लिया गया था . अधिकारियों से अनुमति ले ली गई थी . जब प्रधानमंत्री ने जनता कर्फ़्यू का एलान कियातब तबलीग़ी जमात ने अपने यहाँ चल रहे कार्यक्रम को  तुरंत रोक दिया था. पूर्ण लॉकडाउन के एलान के पहले भी कुछ राज्यों ने अपनी तरफ से ट्रेन और बस सेवाएं रोक दी थी. इस दौरान जहां के लोग वापस जा सकते थे उनको वापस भेजने का पूरा बंदोबस्त तबलीग़ी जमात प्रबंधन ने किया. इसके तुरंत बाद प्रधानमंत्री ने पूर्ण लॉकडाउन की घोषणा कर दी. जिसकी वजह से कई लोग वापस नहीं जा सके और वो वहीं मरक़ज़ में रह रहे थे.
यह बात सच है कि  तबलीगी जमात में शामिल लोगों में कोरोना के लक्षण पाए  जा रहे हैं .बीबीसी की ही एक खबर के मुताबिक मलेशिया में कुआलालंपुर की एक मस्जिद में 27 फ़रवरी से एक मार्च तक निजामुद्दीन जैसा ही आयोजन हुआ था. उस आयोजन में शामिल लोगों से दक्षिण-पूर्वी एशिया के कई देशों में कोरोना वायरस का संक्रमण फैला है .अल ज़जीरा की रिपोर्ट के मुताबिक़ मलोशिया में कोरोना संक्रमण के कुल जितने मामले पाए गए हैं उनमें से दो-तिहाई तबलीग़ी जमात के आयोजन का हिस्सा थे. ब्रुनेई में कुल 40 में से 38 लोग इसी मस्जिद के आयोजन में शामिल होने वाले कोरोना से संक्रमित पाए गए थे.सिंगापुरमंगोलिया समेत कई देशों में इस तबलीगी जमात  के आयोजन के लोगों से ही कोरोना फैला था. पाकिस्तान के डॉन अखबार के मुताबिक़ तबलीग़ी जमात के आयोजन में शामिल कई लोगों में उनके देश में भी कोरोना संक्रमण पाया गया . लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं है कि कोरोना के संक्रमण के लिए सारे मुसलमान ज़िम्मेदार हैं . जो भी चैनल इस तरह का माहौल बना रहे हैं वह गैरजिम्मेदार काम है .
तबलीगी जमात वाले मुसलमानों की  देवबंदी  विचारधारा के प्रचार में लगे  हुए हैं . देवबंदी लोग अपनी विचारधारा को दारुल उलूम देवबंद से लेते हैं . जमीअत उलेमा-ए- हिन्द उनका मुख्य संगठन  है . बताते हैं कि देश में मुसलमानों  की कुल आबादी का केवल 17 प्रतिशत हिस्सा  ही देवबंदी  मुसलमानों का है . मुसलमानों  के दो बड़े वर्ग बरेलवी और शिया लोगों का तबलीगी जमात से कोई मतलब नहीं है .  वहीं हज़रत निजामुद्दीन में  महान सूफी संत ,ख्वाजा निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह है जो चिश्तिया सिलसिले के  बहुत ही बड़े बुज़ुर्ग हैं . उनके सूफी मत को मानने वालों की भी देश में बहुत बड़ी संख्या है . वे भी तबलीगी जमात से कोई मतलब नहीं रखते हैं .  कहा तो यह भी  जाता है कि देवबंदियों का एक बड़ा वर्ग तबलीगी जमात का पक्ष सही नहीं मानता . एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में कुल मुसलमानों का केवल पांच प्रतिशत ही शुद्ध रूप से तबलीगी जमात वाले होंगे . ऐसी हालत में   देश के सभी मुसलमानों को   तबलीगी जमात से जोड़ना ठीक नहीं  है क्योंकि देश की मुस्लिम आबादी का 83 प्रतिशत हिस्सा तबलीगी जमात का विरोधी होता है .ऐसी हालत में सभी मुसलमानों को तबलीगी मुसलमानों का हमदर्द बताना ठीक नहीं है . सरकार के पास यह सारी जानकारी है.  इसलिए  सरकार को अपनी तरफ से इस बात को स्पष्ट कर देना चाहिए .

कोरोना के संक्रमण को रोकने के लिए हुए लॉक डाउन में प्रवासी मजदूरों को नज़रंदाज़ किया गया .


शेष नारायण सिंह

पूरी दुनिया में आजकल  कोरोना वायरस का आतंक है . दुनिया   भर के देश अपने अपने तरीके से  एक भयानक महामारी का मुकाबला कर रहे  हैं .  संयुक्त राष्ट्र का बयान आया है कि वर्तमान कोरोना  युद्ध का असर दूसरे विश्वयुद्ध से भी ज़्यादा होगा  लेकिन दुनिया के ज्यादातर देश  कोरोना के खतरे को सम्हाल पाने में  गाफिल  पाए गए हैं . अगर सही समय पर ज़रूरी कदम उठा लिए गए होते तो शायद बात इतना न बिगडती जितना बिगड़ गयी है . कुछ नेता और सरकारें तो लगातार इस मामले में झूठ बोलते रहे . अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड  ट्रंप का मामला सबसे अजीब है. वे  बहुत दिनों तक यह मानने को ही तैयार नहीं थे  कि कोरोना से कोई गंभीर ख़तरा  है. अभी एक हफ्ता पहले  तक वे कोरोना की  वैक्सीन के शोध के गीत  गाते रहे थे  और दावा कर थे  रहे कि डेढ़ साल में कोरोना की वैक्सीन का विकास कर लिया जाएगा . जब उनको याद दिलाया गया कि अभी  तो युद्ध की अर्थवयवस्था के बारे में बात  करनी है .आपको इस संकट के इलाज और रोकथाम के फौरी  तरीकों पर ध्यान देना चाहिए वैक्सीन का  अभी कोई  महत्व नहीं है तब जाकर ज़मीन पर आये और कुछ वास्तविकता की बात करने लगे  . जबकि अमरीका  में  दिसम्बर २०१९ में ही कोरोना की खतरनाक संक्रामकता के बारे  में जानकारी थी . फरवरी के आख़िरी हफ्ते में अमरीका में कोरोना वायरस के मरीजों की जानकारी बड़े पैमाने पर अखबारों में  छपने लगी थी लेकिन राष्ट्रपति ट्रंप निश्चिन्त थे . फरवरी के  अंतिम सप्ताह में ही वे भारत आये थे और अपन स्वागत में उमड़ी भीड़ को देखकर गदगद हो रहे   थे. अब उन्होंने खुद ही यह घोषणा कर दिया  है कि इस बीमारी से अमरीका में करीब ढाई लाख लोगों के मरने का अनुमान  है तब उन्होंने कोरोना का मुकाबला एक  महायुद्ध की तरह करने का फैसला किया है.  मामला बहुत बिगड़ गया  है तब थोडा नार्मल तरीके से बातचीत शुरू किया है . इसी हफ्ते व्हाइट हाउस की मीडिया ब्रीफिंग में जब एक अमरीकी पत्रकार ने उनसे पूछा कि ,' आप लगातार झूठ बोलते रहे और आपके झूठ की  वजह से पूरे  देश को नुक्सान हो रहा  है ,लोग मर रहे हैं तो उनके पास कोई जवाब  नहीं था. ११  मार्च को विश्व स्वास्थ्य  संगठन ने कोरोना को भयानक महामारी (  Pandemic ) घोषित कर दिया था लेकिन अमरीकी राष्ट्रपपति उसके बाद भी  शेखी बघारते रहे कि उनके देश का कोई ख़ास नुकसान नहीं होगा .    लगभग यही हालत अपने देश की भी है . बहुत दिन तक भारत सरकार कोरोना को गंभीरता से लेने से इनकार करती रही .  ११ मार्च के दिन कोरोना को  खतरनाक महामारी  घोषित  किया  जा चुका लेकिन १३ मार्च को  भारत  सरकार की तरफ से बयान दिया गया कि अभी अपने देश में मेडिकल इमरजेंसी नहीं है . कोरोना से भारत  में कोई दिक्क़त नहीं है . दुनिया का कई देशों में इस बीमारी से आतंक फैला हुआ था लेकिन गृहमंत्रालय के  अधीन काम करने वाली  दिल्ली पुलिस ने १३ मार्च को  दिल्ली के  हज़रत निजामुद्दीन थाने  से सटी हुई एक मस्जिद में पूरी दुनिया से आये लोगों का एक सम्मलेन करने की अनुमति दी और  आयोजन होने  दिया . कहने का मतलब है कि भारत में कोरोना  को तब तक गंभीरता से नहीं लिया गया जबतक देश के कई राज्यों में कोरोना के मरीज़ मिलने लगे थे और इस वायरस के संक्रमण का ख़तरा सार्वजनिक डोमेन में आ चुका था.  कोरोना को ज़रूरी गंभीरता से लेने का संकेत देशवासियों को तब मिला जब प्रधानमंत्री ने देश को संबोधित करते हुए २२ मार्च को  दिन भर के जनता कर्फ्यू का ऐलान किया .  उसके बाद  कोरोना संकट को देश की जनता के सामने ख़तरा मानने का सिलसिला शुरू हुआ .उसी कड़ी में प्रधानमंत्री ने तीन हफ्ते के लॉक डाउन की घोषणा कर दी . रात को आठ बजे टेलिविज़न पर आये तो देश को बता दिया कि  उसी रात बारह बजे से देश में  लॉकडाउन लागू कर दिया जाएगा . यह तरीका सही भी है . संक्रमण की चेन तो तोड़ना ज़रूरी था  लेकिन उसके तुरंत देश   भर में अफरातफरी मच गयी . प्रधानमंत्री के उस सन्देश में यह कहीं भी नहीं बताया गया कि जो लोग रोज़ कमाते  खाते हैं उनके लिए क्या योजना  है. देश के महानगरों दिल्ली , मुबईपुणे,  सूरत आदि से प्रवासी   मजदूर  अपने गाँव की तरफ भागने लगे. इनमें से  ज़्यादातर पैदल ही जा रहे थे  क्योंकि बस ट्रेन आदि सब बंद कर दी गयी थीं . उसका नतीजा बहुत ही बुरा हुआ . उन मजदूरों  की मजबूरी का आलम यह था कि    पांच से से आठ सौ किलोमीटर की यात्रा पैदल ही करने का संकल्प  लेकर वे  अपने गाँव के लिये रवाना हो चुके थे लेकिन उसके लिए कोई तैयारी  नहीं थी .
अगर लॉक डाउन की घोषणा के पहले इन मजदूरों की  संभावित चिंता को ध्यान में रख लिया गया होता और उनके लिए  ज़रूरी इंतजाम कर लिया होता तो स्थिति इतना न  बिगडती .  अगर प्रधानमंत्री ने लेबर चौक पर रोजाना इकठ्ठा होकर उन मजदूरों की संभावित तकलीफ का आकलन कर लिया होता तो उनकी घर वापसी की तैयारी भी हो गयी होती या शहरों में ही उनके लिए भोजन आदि की व्यवस्था कर ली गयी होती  . लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ . नतीजा यह हुआ कि गाँव घर छोड़कर  शहरों में दो जून की रोटी की तलाश में गए लोग वहां  रहकर   भूखों से मुकाबला करने के लिए अभिशप्त हो गए . घोषणा के दो दिन बाद गरीबों की सहायता के लिए  वित्त मंत्री ने हजारों करोड़ रूपये का ऐलान किया.. वित्त  मंत्री ने गुरुवार को  प्रधानमंत्री गरीब कल्याण स्कीम की घोषणा की। डायरेक्ट कैश ट्रांसफर होगा और खाद्य सुरक्षा के जरिए गरीबों की मदद की जाएगी। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि अभी लॉकडाउन को 36 घंटे ही हुए हैं सरकार प्रभावितों और गरीबों की मदद के लिए काम कर रही है. सरकार ने दावा किया कि प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के तहत किसी गरीब को भूखा नहीं रहने दिया जाएगा लेकिन यह सब बातें उन लोगों के लिए हैं जो   लाभार्थी हैं जो लिखत पढ़त में  गरीब  हैं . उस समय तक पता नहीं था कि इस पैकेज में उन लोगों को भी शामिल किया गया है सडकों पर थे और पैदल अपने घर जा रहे थे . क्योंकि  कहीं भी  उनका नाम रिकार्ड में नहीं है . वैसे भी जिस सहायता  की घोषणा  सरकार ने की है  वह जीडीपी का एक प्रतिशत से भी कम है . जबकि अमरीका में सहायता  राशि दो ट्रिलियन  डॉलर की है .  सहायता  पैकेज के बारे में नैशनल इंस्टीट्यूट आफ पब्लिक फाइनेंस और पालिसी के निदेशक रथिन रॉय  कहना है कि अब वक़्त ऐसी अर्थव्यवस्था के संचालन है जो युद्धकाल में होती है . इसलिए इन छोटी मोटी सहायता राशि से कुछ नहीं होने वाला है. सरकारी खर्च को इस   कोरोना युद्ध को जीतने के लिए लगाना पडेगा .इसके लिए सभी श्रोतों से धन की व्यवस्था करनी पड़ेगी .

 ऐसी स्थिति में क्या सरकार उन खर्चों को रोकने के बारे में सोचेगी जिनका  फौरी तौर पर कोई इस्तेमाल नहीं है. के सरकार नई संसद और सेन्ट्रल विस्ता के दफ्तरों की जगह पर नया दफ्तर   बनाने की अपनी गैरज़रूरी योजना के लिए रिज़र्व किये गए धन से  पैसा निकाल कर युद्ध में लगाएगी . ?  
प्रवासी  मजदूरों के बारे में चिन्मय तुंबे  ने एक किताब लिखी है इंडिया मूविंग : हिस्ट्री आफ माइग्रेशन . इस किताब में देश के बाहर जाने  वाले और  अपने ही देश में  महानगरों में गाँव से शहर जानकर रोटी कमाने वाले मजदूरों के बारे में विस्तृत जानकारी  है . चिन्मय तुंबे का दावा  है कि दिल्ली और उसके आस पास के  नगरों में बहुत बड़ी संख्या में  प्रवासी मजदूर रहते हैं  . देश में दिल्ली में रहने वाले प्रवासी मजदूरों की संख्या बाकी  शहरों से बहुत ज्यादा है . इनमें बड़ी संख्या में पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के गाँवों से आने वाले मजदूर रहते हैं .. जो लोग निराश होकर दिल्ली से  पैदल ही अपने गाँव की और जा रहे थे उनमें लेबर चौक के मजदूरों की बड़ी संख्या है .
 जब  प्रधानमंत्री ने २२ मार्च की रात आठ बजे कहा कि आप अपने घर के अन्दर ही रहिये तो  इन लोगों की समझ में ही नहीं आया  होगा कि रहना कहाँ है . फुटपाथ ही उनका घर है  . या  किसी खुले मैदान में पडी हुयी कुछ झोपड़ियां ही  उन लोगों का ठिकाना होती हैं .  उनमें तो उनका सामान ही रखा जाता है . रहनासोनानहाना खाना तो वे खुले  में ही करते हैं . इनके अलावा ठेके पर काम करने वाले और कैजुअल मजदूर भी रोज़ाना के हिसाब से मजदूरी  पाते हैं .  इनकी संख्या देश के कुल कामगारों की  ८० से ९० प्रतिशत के बीच है . यह औपचारिक अर्थव्यवस्था का हिस्सा नहीं होते . २०१७-१८ के आर्थिक सर्वे के अनुसार देश की ८७ प्रतिशत  कम्पनियां अनौपचारिक क्षेत्र में हैं . जहाँ कैजुअल लेबर काम करते हैं ..यह  तो दिल्ली के आस पास इलाकों का हाल है .इसी तरह की परेशानी मुंबईपुणे ,  सूरत अहमदाबाद कोलकता आदि में भी होगा .

अपने गाँव में दिल्ली जैसी मेहनत करते तो आज यह दुर्दिन न देखना पड़ता



शेष नारायण सिंह


 दिल्ली के आसपास के शहरों में  कमाई के अवसर शून्य हो जाने के  बाद गाँव के तरफ पैदल जाने वालों का रेला इंसानियत को चुनौती दे रहा  है . इतनी लम्बी दूरी पैदल तय करने की योजना बनाना इस बात का साफ़ सबूत है कि दिल्ली में रहना असंभव हो गया है .  लकिन इसके पीछे शहरों की तरफ भगदड़ सबसे बड़ा कारण है . जो लोग जा रहे  हैं लागभग सब के  गाँव में उनकी अपनी ज़मीन  है जिसमें गुज़र बसर  हो सकता है . लेकिन वे शहर में बेहतर ज़िंदगी  के सपने देखकर यहाँ आये थे .   आज उनपर विपत्ति का  पहाड़ टूट पडा है . इसके सबसे बड़े  कारक हैं  गाँव  में  रहें वाले नौजवानों के मन  में पलने वाले फर्जी सपने .  मैंने इन सपनों के निर्माण की फर्जी प्रक्रिया को बहुत करीब से देखा है ,उत्तर प्रदेश के गाँवों में रहने वाले लड़कों के मन में शहरों की ज़िंदगी की एक तस्वीर रहती है . लेकिन सचाई कुछ अलग होती है . मेरे साथ भी ऐसा ही था . गाँव में  रहते हुए बड़े शहरों की ज़िंदगी के बारे में  सम्पन्नता की कल्पना हावी रहती है . मेरा यह सपना बहुत जल्दी टूट गया था  लेकिन सबको यह अवसर नहीं मिलता .मैं पहली जब दिल्ली आया तो दिमाग में एक पता बहुत साफ़ लिखा हुआ  था ---गली मैगजीन ,चूड़ी वालान, चावडी बाज़ार ,चांदनी चौक ,दिल्ली . मेरे गाँव के कुछ लोग यहाँ रहते थे . जब वे लोग गाँव जाते थे तो सबसे  बढ़िया धोती, बढ़िया कुर्ता, गले में महकता हुआ पाउडर लगा हुआ ,किसी की शादी में द्वारपूजा के लिए जब आते थे तो सबसे प्रभावशाली लगते थे . बिरला की बैंक यूनाइटेड कमर्शियल में काम करते थे . जब मई जून में गाँव आते थे तो लगता था कि उनके पास बहुत पैसा है . मैं सोचता था कि सम्पन्नता तो  दिल्ली में ही कमाने से आती  है . उसी दौर में जौनपुर अपने मामा के  गाँव गया  . वहां किसी पड़ोसी के कोई रिश्तेदार  भीखाभाई की चाल , अहमदाबाद में  रहते थे . उनके भी कपडे ,साबुन, सिगरेट वगैरह माहौल में खुशबू बिखेरते थे. १९६७ में अपनी बहन के यहाँ गया , . वहां कोई रिश्तेदार आये हुये थे , वे सलाबतपुरा ,बेगम बाड़ी सूरत में रहते थे . उनके  कपड़े बहुत ही साफ़ सुथरे होते थे .. महंगी घड़ी , कलम आदि उनके पास भी  होती थी . मन में कहीं बैठ गया कि सम्पन्नता इन्हीं शहरों में है . बंबई के बारे में ऐसे रूमानी ख़याल नहीं  थे क्योंकि मेरे  खानदान के मेरे पिताजी से उम्र में बड़े ठाकुर रामबक्स  सिंह  मुंबई में रहते थे , देना बैंक में काम करते थे और बंबई के बारे में बहुत रोमांटिक तस्वीर नहीं पेश करते थे. कहते थे कि पैसा  तो बंबई में मिलता है , महाजनी नौकरी में पगार इमानदारी से पूरी मिलती है लेकिन ज़िंदगी बहुत ही मुश्किल होती है . रहने और संडास जाने की बहुत तकलीफ होती है . यह है अवध के सुल्तानपुर जिले में  रहने वाले एक किशोरवय लड़के के बड़े होने की उम्र में दिमाग में पल रही सपनों की बुनियाद. मेरे यह सपने जल्दी टूट गए क्योंकि १९७१ में एक बीस साल के नौजवान ने  दिल्ली की पहली यात्रा की तो गली मैगजीन, चूड़ी वालान,  चावड़ी बाज़ार ,चांदनी चौक  जाने का मौक़ा मिला.  देखा तो वह तो एक बहुत ही गंदी गली थी. इतवार का दिन था .  मेरे गाँव के जो श्रीमानजी वहां रहते थे वे दूसरी मंजिल पर एक कोठरी में रहते थे .पटरे के जांघिया पहने बैठे थे, उनके  छोटे भाई नहीं दिखे . मैंने पूछा तो बताया कि अभी आ रहे हैं .पानी लेने गए हैं . मैं भी नीचे चला गया . एक सरकारी नल था , वहीं कई लोग पानी लेने के लिए लाइन में में लगे थे . बहरहाल जब वहां से लौटकर आया तो समझ में आ चुका था कि दिल्ली की  ज़िंदगी  कितनी मुश्किल  है . उन दोनों भाइयों के कपड़ों की तुलना में उनकी मलिन बस्ती की ज़िंदगी बार बार  यादों में घूमती रही . अहमदाबाद  या सूरत वालों के यहाँ तो कभी नहीं गया लेकिन समझ  में आ गया  कि गाँव आने की तैयारी में  परदेसिहा  ख़ास तौर से  कपडे खरीदता है . उसके पहले हाई स्कूल  के छात्र के रूप में फैजाबाद की मसोधा मिल में रहने वाले अपने ही खानदान के एक बुज़ुर्ग का घर देखने का अवसर मिल चुका था. वे  भी एक बहुत छोटे दडबे में रहते थे .
मैं तो  भाग्यशाली था , समझ में बात आ गयी लेकिन बहुत सारे लड़कों के दिमाग में यह  तस्वीर बनी रहती है. गाँव में मेहनत करते रोटी कमाने  को मुसीबत मानने वाले बाभन ठाकुर के लड़के महानगर में  जाना  चाहते हैं  और हाई स्कूल  या इंटर पास करके चले   आते हैं .  जिसके यहाँ आकर रहते हैं दो चार दिन बाद  ही वह कहने लगता है कि भाई अपनी खोराकी तो कमाओ और उनको किसी भी मजदूरी की लाइन में खड़े होना पड़ता है , किसी लेबर चौक पर खड़े होकर दिन की मजदूरी का इंतज़ार करना पड़ता है .और किसी तरह रोज़ की रोटी कमाने लगते हैं . जब  गाँव वापस जाते हैं तो किसी को सच्चाई नहीं बताते . सच्चाई यह है कि इतनी मेहनत करके दिल्ली में दो जून की रोटी कमाते हैं  अगर उतनी मेहनत अपने गाँव के खेत में करें तो ज़िंदगी बहुत ही ज्यादा खुशनुमा होगी लेकिन ऐसा वे नहीं करते . एकाध साल बाद अपनी पत्नी  को ले  आते हैं और महानगर की ज़िंदगी में किसी झुग्गी झोपडी में रहने वाला एक परिवार जुड़  जाता है . बाद में वही लोग पूर्वांचली वोट बैंक का हिस्सा बन जाते हैं . चुनाव के पहले कुछ मालिन बस्तियों  को पानी बिजली के कनेक्शन मिलते हैं और दिल्ली शहर में मकानमालिक बन जाते हैं . जब वे लोग गाँव जाते हैं तो सम्पन्नता की  मूर्ति  लगते हैं . उनकी जीवनशैली गाँव में एकदम अलग होती है लेकिन शहर में वे   किसी संगम विहार  किसी सोनिया विहार या किसी मंडावली में अपनी बस्ती के रेगुलर होने के इंतज़ार में उम्र बिता देते हैं .  गाँव में जाकर सच्चाई नहीं बताते . सच्चाई छुपाने का नतीजा होता  है शहर की तरफ अगली खेप आ जाती है . दो चार साल सडक या किसी नाली के किनारे ज़िंदगी बिताने के बाद  वे भी कहीं किसी प्रापर्टी माफिया के शिकार होते हैं और क़र्ज़ आदि लेकर पचीस से पचास गज के  बीच की ज़मीन किसी कच्ची कालोनी में खरीद कर घर बना लेते हैं .फिर वही  शहर  की गंदी बस्ती की ज़िंदगी ,  वहीं वोट बैंक , वही सपन्नता का ढोंग और वही नए लड़कों के दिल्ली आने का दुश्चक्र फिर खेला जाता है .   मैंने पिछले चालीस साल में  इस चक्र को कई बार खेले  जाते देखा है . गाँव में कई लोगों ने  जब अपने  बच्चों को मेरे साथ दिल्ली भेजने की  कोशिश की तो उनको यह सच्चाई बताया भी है लेकिन मानने  को तैयार नहीं होते और किसी रिश्तेदार के पास बच्चे को भेज देते हैं . वह  बच्चा भी  वापस जाकर अपने मातापिता से सच्चाई नहीं बताता . जब गाँव जाएगा तो लाल किले के सामने से सफ़ेद बेहतरीन कमीज़ . पैंट  और जूता खरीदकर संपन्न शक्ल बना लेगा .  हालंकि यहाँ दिल्ली के आस पास के इलाकों  में काम करते हुए उसे रोज़ कमाना और रोज़ खाना  ही नसीब होता है लेकिन अगली पीढ़ियों को उसके कपड़ों आदि से दिल्ली आने का न्योता मिलता रहता है .

 आज जो लड़के दिल्ली से पूरब जाने वाली सड़कों पर पांच सौ से एक हज़ार किलोमीटर की दूरी पैदल जाने का  मंसूबा बांधकर चल पड़े हैं , उनमें लगभग सभी वही हैं जो  दिल्ली के आसपास के  शहरों, नोयडा, ग्रेटर नोयडा, गाजियाबाद , फरीदाबाद , गुडगाँव  में दो चार साल पहले आये थे .  रोज़ कमाते थे , रोज़ खाते थे .लेकिन जब   महीने  भर के लिए रोज़ कमाने के अवसर बंद  हो गए तो यहाँ रहकर  भूखों मरने  से बचने के लिए अपने गाँव की और चल पड़े हैं .  गौर  करने की बात यह है कि पैदल जा रही भीड़ में  वही लोग हैं जिनकी जाति ऐसी  है जो गाँव में मनरेगा में मजदूरी नहीं कर सकते . लगभग  सभी तथाकथित ऊंची जाति के हैं .हालांकि यहाँ जो कमाई होती  है , मनरेगा में उससे ज्यादा मजदूरी  है  लेकिन  बाभन ठाकुर का  बेटा वहां शूद्र जातियों के साथ मजदूरी कैसे कर सकता है . अगर दिमाग में शहर में  रहकर गाँव में फर्जी प्रचार करने की लालसा को ख़त्म कर दिया गया होता तो आज जो भीड़ सडकों पर है वह न होती . लोग अपने घरों में होते और महानगर में अपनी मजदूरी नीलाम न कर रहे होते .
हज़ारों मील पैदल जाना तो शायद नहीं हो पाएगा , सरकार  उन लोगों को कभी न कभी गंतव्य तक पंहुचा देगी लेकिन अगर वे अपने  गाँव में रुककर ही जितनी मेहनत यहाँ दो जून की रोटी के लिए कर रहे थे उसका आधा भी करेंगे तो गाँव में इससे बेहतर ज़िंदगी जियेंगे और अपने पुरखों की ज़मीन का सम्मान करेंगे ,अपने बच्चों के लिए कुछ न कुछ छोड़कर जायेंगें.