शेष नारायण सिंह
अपनी तरह की राजनीति के दर्शन के प्रणेता, अटल बिहारी वाजपेयी का जाना देश की कई पीढ़ियों के लिए कुछ गंवा देने की अनुभूति जैसा है। अटल जी मौत से कभी नहीं डर। जब बीमार हुए तो उन्होंने मौत को चुनौती देती हुई एक कविता भी लिखी। लिखते हैं: मौत की उम्र क्या है, दो पल भी नहीं। आज वह दो पल आ गया लेकिन उसके पहले खुद उनके ही शब्दों में, 'मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं। लौट कर आऊंगा, कूच से क्यों डरूं? आज भारतीय राजनीति का वह योद्धा कूच कर गया। जिस सत्ता परिवर्तन का सपना उन्होंने डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी और दीनदयाल उपाध्याय के साथ 1951 में देखा था, उस पर जीवन भर विश्वास किया।
एक बार उन्होंने दिल्ली के रायसीना रोड स्थित अपने आवास में भीष्म पितामह के चरित्र के बारे में बताया था. अटल जी ने बताया कि भीष्म पितामह को ऐसा वरदान प्राप्त था कि वे इच्छा मृत्यु थे। यानी वे अपने मरने का समय और स्थान तय कर सकते थे। भीष्म के जीवन के उस पक्ष से वे बहुत ही प्रभावित थे जब भीष्म को शरशैया पर महाभारत की राजनीतिक और सामरिक गतिविधियों के बीच में ही रहना पड़ा था।
अटल जी इस बात को बहुत ही तन्मयता से सुनाते थे कि भीष्म पितामह ने हस्तिनापुर की रक्षा की प्रतिज्ञा कर रखी थी, इसलिए उन्होंने अपनी इच्छा से मृत्यु का वरण तब तक नहीं किया जब तक कि महाभारत का युद्ध समाप्त नहीं हो गया और उनकी मर्जी का उनका बालक सत्ता पर स्थापित नहीं हो गया। लगता है कि उनको भी यह अनुमान था कि उनकी विचारधारा की सत्ता को देश में उनका कोई अनुयायी ही स्थापित करेगा, वे स्वयं नहीं कर सकेंगे। अब जब उनकी पार्टी की विचारधारा की सत्ता दिल्ली में स्थापित हो गई है, तो उन्होंने मृत्यु का स्वागत कर लिया।
अटल जी का सार्वजनिक जीवन 1939 से माना जाएगा जब उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाओं में जाना शुरू किया था। करीब अस्सी साल के सार्वजनिक जीवन में वे पत्रकार भी रहे और राजनेता भी।
भारतीय जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी मूल रूप से हिन्दू महासभा के नेता थे लेकिन महात्मा गांधी की हत्या के बाद, हिन्दू महासभा वालों ने जो रुख अपनाया उसके बाद उन्होंने पार्टी से दूरी बनाने का फैसला किया। वे धीरे-धीरे अपने आपको हिन्दू महासभा से दूर कर रहे थे। जवाहर लाल नेहरू के मंत्रिमंडल से इस्ती$फा देने के बाद हिन्दू हितों के संरक्षक के रूप में डॉ. मुखर्जी ने अपनी थाती बना ली थी।
भारतीय जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी मूल रूप से हिन्दू महासभा के नेता थे लेकिन महात्मा गांधी की हत्या के बाद, हिन्दू महासभा वालों ने जो रुख अपनाया उसके बाद उन्होंने पार्टी से दूरी बनाने का फैसला किया। वे धीरे-धीरे अपने आपको हिन्दू महासभा से दूर कर रहे थे। जवाहर लाल नेहरू के मंत्रिमंडल से इस्ती$फा देने के बाद हिन्दू हितों के संरक्षक के रूप में डॉ. मुखर्जी ने अपनी थाती बना ली थी।
दिल्ली के प्रचारक वसंतराव कृष्ण ओके और कश्मीर के नौजवान बलराज मधोक उनको एक नई राष्ट्रवादी पार्टी बनाने के लिए लगातार उकसा रहे थे। हालांकि इन लोगों को आरएसएस के आला नेताओं का समर्थन नहीं था लेकिन यह लोग जमे हुए थे। बहरहाल आरएसएस के सहयोग से पार्टी का गठन हुआ और सरसंघ चालक एमएस गोलवलकर ने डॉ. मुखर्जी को सहयोग देना शुरू किए। इसी प्रक्रिया में उन्होंने दीनदयाल उपाध्याय और अटल बिहारी वाजपेयी को डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ जनसंघ में काम करने के लिए तैनात किया। अटल बिहारी वाजपेयी का संसदीय राजनीति का जीवन आरएसएस के इसी फैसले के बाद शुरू हुआ। भारतीय जनसंघ के सचिव के रूप में उन्होंने 1955 से काम करना शुरू कर दिया था। इसके पहले वे डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ उनकी अंतिम राजनीतिक यात्रा में भी साथ-साथ थे जब वे जम्मू-कश्मीर में एक विधान, एक निशान की राजनीतिक मांग के लिए आमरण अनशन करने के लिए गए थे। अटल जी ने संसद का पहला चुनाव1957 में लड़ा।
1957 का चुनाव भारतीय जनसंघ की राजनीति के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है। उसी चुनाव में पार्टी ने अटल बिहारी वाजपेयी और भैरो सिंह शेखावत को संसदीय राजनीति में उतारा और बाद में पार्टी को ऊंचाई पर ले जाने में इन दोनों ही नेताओं ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई। शेखावत जी तो राजस्थान में चुनाव हार गए लेकिन अटल जी ने उत्तरप्रदेश की बलरामपुर सीट से जीतकर लोकसभा में अपनी मजबूत पहचान दर्ज की। प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू उनकी भाषण कला से बहुत प्रभावित थे।
अटल बिहारी वाजपेयी ने कई बार इस बात का उल्लेख किया है कि सदन की कार्यवाही के दौरान वे प्रधानमंत्री नेहरू पर हमला बोलते थे लेकिन नेहरू जी ने कभी भी बुरा नहीं माना, कभी कोई तल्खी नहीं पाली। शायद यही कारण था जब 1962 में लोकसभा चुनाव में सफल न होने के बाद पार्टी ने उनको राज्यसभा भेजने का संकल्प लिया लेकिन संख्या नहीं थी। लेकिन उत्तर प्रदेश की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस ने ज्यादा उम्मीदवार नहीं खड़े किये और अटल जी समेत सभी लोग निर्वाचित हो गए। 1967 में तो खैर वे लोकसभा में दूसरी बार चुन लिए गए।
1967 इस देश के राजनीतिक इतिहास में बहुत ही महत्वपूर्ण वर्ष माना जाता है। अटल जी के शब्दों में, 'आप ग्रैंड ट्रंक रोड से अमृतसर से कलकत्ता तक चले जाइए,आपको कांग्रेस के राज से गुजरने की नहीं पड़ेगी।' यानी 1967 के विधान सभा चुनावों के बाद उतर भारत के पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश ,मध्यप्रदेश ,बिहार और बंगाल में गैरकांग्रेसी सरकारें बन गई थीं। ज्यादातर राज्यों की सरकारों में जनसंघ के मंत्री शामिल थे। जनसंघ के नेताओं में ही सरकारों में शामिल होने को लेकर विवाद हो गया था। बलराज मधोक अपने को दीनदयाल उपाध्याय और अटल बिहारी वाजपेयी से बड़ा नेता मानते थे। वे उन सरकारों में शामिल होने का विरोध कर रहे थे जिनमें कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट मंत्री हों क्योंकि लेफ्ट के साथ उनकी राजनीतिक विचारधारा मेल नहीं खाती थी। अटल जी चाहते थे कि संविद सरकारों में शामिल होना है क्योंकि सरकार का अनुभव पार्टी के नेताओं को होता है और उसका फायदा पार्टी को होगा।
आखिर में आरएसएस के प्रमुख गोलवलकर ने अटल जी की बात को तरजीह दी और सरकारों में जनसंघ के मंत्री बने रहे। मधोक से अटल जी का एक मुकाबला1968 में दीनदयाल उपाध्याय की मृत्यु के बाद भी हुआ। बलराज मधोक खुद जनसंघ का अध्यक्ष बनना चाहते थे लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी को अध्यक्ष और सुन्दर सिंह भंडारी को महामंत्री बनाया गया। बलराज मधोक ने बार-बार कहा कि पार्टी में वामपंथी रुझान के लोग भारी पड़ रहे हैं लेकिन यह ऐसा समय था जब जनसंघ की राजनीति में अटल बिहारी वाजपेयी का युग आ चुका था।
अटल बिहारी वाजपेयी में सब को साथ लेकर चलने की प्रवृत्ति बहुत बड़ी थी। उन्होंने 1971 का चुनाव गैरकांग्रेसी विपक्ष के ग्रैंड अलायंस सहयोग से किया।
1977 में अटल जी विदेश मंत्री बने। पार्टी के सबसे बड़े नेता के रूप में उनको मान्यता मिल चुकी थी। नानाजी देशमुख ने सरकार में शामिल होने से इनकार कर दिया और संगठन के काम में लग गए। इस समय तक राष्ट्रीय राजनीति में लाल कृष्ण आडवानी का आगमन हो चुका था। वे भी मंत्री बने। अटल जी ने विदेश मंत्री के रूप में पड़ोसियों से दोस्ती की कूटनीति को मजबूती से लागू किया। पाकिस्तान से व्यापार के रिश्ते शुरू करवा दिया। 1971 में भारत के सहयोग से बंगलादेश की स्थापना का दर्द पाकिस्तानी जनमानस में छाया हुआ था लेकिन विदेशमंत्री के रूप में अटल जी ने पाकिस्तानी जनता को सीधे साधने की डिप्लोमेसी शुरू कर दी। पाकिस्तान में भारत के पान की बहुत मांग रहती थी। सरकार ने पान और बांस जैसे साधारण सामान का निर्यात शुरू कर दिया। पाकिस्तान से सम्बन्ध सामान्य होने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी।
अटल जी के राजनीतिक मतभेद वाले नेताओं से भी बहुत ही अच्छे संबंध थे। चंद्रशेखर जी उनको गुरु जी ही कहते थे। एक बार लोकसभा में प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हाराव ने कहा कि अटल जी को चंद्रशेखर गुरु कहते हैं, इसलिए मैं भी उनको गुरु ही कहता हूं। जवाहर लाल नेहरू की मृत्यु के बाद अटल जी ने जिस तरह से जवाहरलाल नेहरू को याद किया वह राजनीतिक शिष्टाचार का बुलंद मुकाम है। उन्होंने कहा था -
मृत्यु ध्रुव है। शरीर नश्वर है। कल, कंचन की जिस काया को हम चंदन की चिता पर चढ़ाकर आये, उसका नाश निश्चित था। लेकिन क्या यह था कि मौत इतनी चोरी छिपे आती? जब संगी-साथी सोये पड़े थे, जब पहरेदार बे$खबर थे, तब हमारे जीवन की एक अमूल्य निधि लुट गई। भारत माता, आज शोकमग्ना है- उसका सबसे लाड़ला राजकुमार खो गया। मानवता, आज खिन्नमना है - उसका पुजारी सो गया। शान्ति, आज अशान्त है - उसका रक्षक चला गया। दलितों का सहारा छूट गया। जन-जन की आंख का तारा टूट गया। यवनिका पात हो गया। विश्व के रंगमंच का प्रमुख अभिनेता अपना अन्तिम अभिनय दिखाकर अर्न्तध्यान हो गया।”
मृत्यु ध्रुव है। शरीर नश्वर है। कल, कंचन की जिस काया को हम चंदन की चिता पर चढ़ाकर आये, उसका नाश निश्चित था। लेकिन क्या यह था कि मौत इतनी चोरी छिपे आती? जब संगी-साथी सोये पड़े थे, जब पहरेदार बे$खबर थे, तब हमारे जीवन की एक अमूल्य निधि लुट गई। भारत माता, आज शोकमग्ना है- उसका सबसे लाड़ला राजकुमार खो गया। मानवता, आज खिन्नमना है - उसका पुजारी सो गया। शान्ति, आज अशान्त है - उसका रक्षक चला गया। दलितों का सहारा छूट गया। जन-जन की आंख का तारा टूट गया। यवनिका पात हो गया। विश्व के रंगमंच का प्रमुख अभिनेता अपना अन्तिम अभिनय दिखाकर अर्न्तध्यान हो गया।”
प्रधानमंत्री के रूप में उनको बहुत लोग जानते हैं . कमज़ोर बहुमत के साथ सरकार चलाने ,उसके बावजूद अपनी राजनीति को लागू करने और राजनीतिक एडजस्टमेंट की कला के माहिर राजनेता के रूप में भी उनको देश याद कैगा .लेकिन यह तय है कि उनकी मृत्यु के साथ आज एक ध्रुव तारा अस्त हो गया है।