Thursday, August 23, 2018

अटल जी राजनीतिक शिष्टाचार के शलाका पुरुष थे, उनका जाना एक युग का अंत है



शेष नारायण सिंह


अपनी तरह की राजनीति के दर्शन के प्रणेताअटल बिहारी वाजपेयी का जाना देश की कई पीढ़ियों के लिए कुछ गंवा देने की अनुभूति जैसा है। अटल जी मौत से कभी नहीं डर। जब बीमार हुए तो उन्होंने मौत को चुनौती देती हुई एक कविता भी लिखी। लिखते हैं: मौत की उम्र क्या हैदो पल भी नहीं। आज वह दो पल आ गया लेकिन उसके पहले खुद उनके ही शब्दों में, 'मैं जी भर जियामैं मन से मरूं। लौट कर आऊंगाकूच से क्यों डरूंआज भारतीय राजनीति का वह योद्धा कूच कर गया। जिस सत्ता परिवर्तन का सपना उन्होंने डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी और दीनदयाल उपाध्याय के साथ 1951 में देखा थाउस पर जीवन भर विश्वास किया।
एक बार उन्होंने दिल्ली के रायसीना रोड स्थित अपने आवास में भीष्म पितामह के चरित्र के बारे में बताया था. अटल जी ने बताया कि भीष्म पितामह को ऐसा वरदान प्राप्त था कि वे इच्छा मृत्यु थे। यानी वे अपने मरने का समय और स्थान तय कर सकते थे। भीष्म के जीवन के उस पक्ष से वे बहुत ही प्रभावित थे जब भीष्म को शरशैया पर महाभारत की राजनीतिक और सामरिक गतिविधियों के बीच में ही रहना पड़ा था।
अटल जी इस बात को बहुत ही तन्मयता से सुनाते थे कि भीष्म पितामह ने हस्तिनापुर की रक्षा की प्रतिज्ञा कर रखी थीइसलिए उन्होंने अपनी इच्छा से मृत्यु का वरण तब तक नहीं किया जब तक कि महाभारत का युद्ध समाप्त नहीं हो गया और उनकी मर्जी का उनका बालक सत्ता पर स्थापित नहीं हो गया। लगता है कि उनको भी यह अनुमान था कि उनकी विचारधारा की सत्ता को देश में उनका कोई अनुयायी ही स्थापित करेगावे स्वयं नहीं कर सकेंगे। अब जब उनकी पार्टी की विचारधारा की सत्ता दिल्ली में स्थापित हो गई हैतो उन्होंने मृत्यु का स्वागत कर लिया।
अटल जी का सार्वजनिक जीवन 1939 से माना जाएगा जब उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाओं में जाना शुरू किया था। करीब अस्सी साल के सार्वजनिक जीवन में वे पत्रकार भी रहे और राजनेता भी। 
भारतीय जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी  मूल रूप से हिन्दू महासभा के नेता थे लेकिन महात्मा गांधी की हत्या के बादहिन्दू महासभा वालों ने जो रुख अपनाया उसके बाद उन्होंने पार्टी से दूरी बनाने का फैसला किया। वे धीरे-धीरे अपने आपको हिन्दू महासभा से दूर कर रहे थे। जवाहर लाल नेहरू के मंत्रिमंडल से इस्ती$फा देने के बाद हिन्दू हितों के संरक्षक के रूप में डॉ. मुखर्जी ने अपनी थाती बना ली थी।
दिल्ली के प्रचारक वसंतराव कृष्ण ओके और  कश्मीर के नौजवान बलराज मधोक उनको एक नई राष्ट्रवादी पार्टी बनाने के लिए लगातार उकसा रहे थे। हालांकि इन लोगों को आरएसएस के आला नेताओं का  समर्थन नहीं था लेकिन यह लोग जमे हुए थे। बहरहाल आरएसएस के सहयोग से पार्टी का गठन हुआ और सरसंघ चालक एमएस गोलवलकर ने डॉ. मुखर्जी को सहयोग देना शुरू किए। इसी  प्रक्रिया में उन्होंने दीनदयाल उपाध्याय और अटल बिहारी वाजपेयी को डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ जनसंघ में काम करने के लिए तैनात किया। अटल बिहारी वाजपेयी का संसदीय राजनीति का जीवन आरएसएस के इसी फैसले के बाद शुरू हुआ। भारतीय जनसंघ के सचिव के रूप में उन्होंने 1955 से काम करना शुरू कर दिया था। इसके पहले वे डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ उनकी अंतिम राजनीतिक यात्रा में भी साथ-साथ थे जब वे जम्मू-कश्मीर में एक विधानएक निशान की राजनीतिक मांग के लिए आमरण अनशन करने के लिए गए थे। अटल जी ने संसद का पहला चुनाव1957 में लड़ा।
1957 का चुनाव भारतीय जनसंघ की राजनीति के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है। उसी चुनाव में पार्टी ने अटल बिहारी वाजपेयी और भैरो सिंह शेखावत को संसदीय राजनीति में उतारा और बाद में पार्टी को ऊंचाई पर  ले जाने में इन दोनों ही नेताओं ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई। शेखावत जी तो राजस्थान में चुनाव हार गए लेकिन अटल जी ने उत्तरप्रदेश की  बलरामपुर सीट से जीतकर  लोकसभा में अपनी मजबूत पहचान दर्ज की। प्रधानमंत्री  जवाहर लाल नेहरू उनकी भाषण कला से बहुत प्रभावित  थे।
अटल बिहारी वाजपेयी ने कई बार इस बात  का उल्लेख किया है कि सदन की कार्यवाही के दौरान वे  प्रधानमंत्री नेहरू पर हमला बोलते थे लेकिन नेहरू जी ने कभी भी बुरा नहीं मानाकभी कोई तल्खी नहीं पाली। शायद यही कारण था जब 1962 में लोकसभा चुनाव में सफल न होने के बाद पार्टी ने उनको राज्यसभा भेजने का संकल्प लिया लेकिन  संख्या नहीं थी। लेकिन उत्तर प्रदेश की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस ने ज्यादा उम्मीदवार नहीं खड़े किये और अटल जी समेत सभी लोग निर्वाचित हो गए। 1967 में तो खैर वे लोकसभा में दूसरी बार चुन लिए गए।
1967 इस देश के राजनीतिक इतिहास में बहुत ही महत्वपूर्ण वर्ष माना जाता है। अटल जी के शब्दों में, 'आप ग्रैंड ट्रंक रोड से अमृतसर से कलकत्ता तक चले जाइए,आपको कांग्रेस के राज से गुजरने की नहीं पड़ेगी।यानी 1967 के विधान सभा चुनावों के बाद उतर भारत के पंजाबहरियाणादिल्लीउत्तर प्रदेश ,मध्यप्रदेश ,बिहार और बंगाल में गैरकांग्रेसी सरकारें बन गई थीं। ज्यादातर राज्यों की सरकारों में जनसंघ के मंत्री शामिल थे। जनसंघ के नेताओं में ही सरकारों में शामिल होने को लेकर विवाद हो  गया था। बलराज मधोक अपने को दीनदयाल उपाध्याय और अटल बिहारी वाजपेयी से बड़ा नेता मानते थे। वे उन सरकारों में शामिल होने का विरोध कर रहे थे जिनमें कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट मंत्री हों क्योंकि लेफ्ट के साथ उनकी राजनीतिक विचारधारा मेल नहीं खाती थी।  अटल जी चाहते थे कि संविद सरकारों में  शामिल होना है क्योंकि सरकार का अनुभव पार्टी के नेताओं को होता है और उसका फायदा पार्टी को होगा।
आखिर में  आरएसएस के प्रमुख गोलवलकर ने अटल जी की बात को तरजीह दी और सरकारों में जनसंघ के मंत्री बने रहे। मधोक से अटल जी का एक मुकाबला1968 में दीनदयाल उपाध्याय की मृत्यु के बाद भी हुआ। बलराज मधोक खुद जनसंघ का अध्यक्ष बनना चाहते थे लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी को अध्यक्ष और सुन्दर सिंह भंडारी को  महामंत्री बनाया गया। बलराज मधोक ने बार-बार कहा कि पार्टी में वामपंथी रुझान के लोग भारी पड़ रहे हैं लेकिन यह ऐसा समय था जब जनसंघ की राजनीति में अटल बिहारी वाजपेयी का युग आ चुका था।
अटल बिहारी वाजपेयी में सब को साथ लेकर चलने की प्रवृत्ति बहुत बड़ी थी। उन्होंने 1971 का चुनाव गैरकांग्रेसी विपक्ष के ग्रैंड अलायंस सहयोग से किया।
1977 में अटल जी विदेश मंत्री बने। पार्टी के सबसे बड़े नेता के रूप में उनको मान्यता मिल चुकी थी। नानाजी देशमुख ने सरकार में शामिल होने से इनकार कर दिया और संगठन के काम में लग गए। इस समय तक राष्ट्रीय राजनीति में लाल कृष्ण आडवानी का आगमन हो चुका था। वे भी मंत्री बने। अटल जी ने विदेश मंत्री के रूप में पड़ोसियों से दोस्ती की कूटनीति को मजबूती से लागू किया। पाकिस्तान से व्यापार के रिश्ते शुरू करवा दिया। 1971 में भारत के सहयोग से  बंगलादेश की स्थापना का दर्द पाकिस्तानी जनमानस में छाया हुआ था  लेकिन विदेशमंत्री के रूप में अटल जी ने पाकिस्तानी जनता को सीधे साधने की डिप्लोमेसी शुरू कर दी। पाकिस्तान  में भारत के पान की बहुत मांग रहती थी।  सरकार ने पान और बांस जैसे साधारण सामान  का निर्यात शुरू कर दिया। पाकिस्तान से सम्बन्ध सामान्य  होने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी।
अटल जी के  राजनीतिक मतभेद वाले नेताओं से भी बहुत ही अच्छे संबंध थे। चंद्रशेखर जी उनको गुरु जी ही कहते थे। एक बार लोकसभा में  प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हाराव ने  कहा कि अटल जी को चंद्रशेखर गुरु कहते हैंइसलिए मैं भी उनको गुरु ही कहता हूं। जवाहर लाल नेहरू  की मृत्यु के बाद अटल जी ने जिस तरह से जवाहरलाल नेहरू को याद किया वह राजनीतिक शिष्टाचार का बुलंद मुकाम है। उन्होंने कहा था -
मृत्यु ध्रुव है। शरीर नश्वर है। कलकंचन की जिस काया को हम चंदन की चिता पर चढ़ाकर आयेउसका नाश निश्चित था। लेकिन क्या यह था कि मौत इतनी चोरी छिपे आतीजब संगी-साथी सोये पड़े थेजब पहरेदार बे$खबर थेतब हमारे जीवन की एक अमूल्य निधि लुट गई। भारत माताआज शोकमग्ना है- उसका सबसे लाड़ला राजकुमार खो गया। मानवताआज खिन्नमना है - उसका पुजारी सो गया। शान्तिआज अशान्त है - उसका रक्षक चला गया। दलितों का सहारा छूट गया। जन-जन की आंख का तारा टूट गया। यवनिका पात हो गया। विश्व के रंगमंच का प्रमुख अभिनेता अपना अन्तिम अभिनय दिखाकर अर्न्तध्यान हो गया।”
प्रधानमंत्री  के रूप में उनको  बहुत लोग जानते हैं . कमज़ोर बहुमत के साथ सरकार चलाने ,उसके बावजूद अपनी राजनीति को लागू करने और  राजनीतिक एडजस्टमेंट की कला के माहिर राजनेता के रूप में भी उनको देश याद कैगा .लेकिन  यह तय है कि उनकी मृत्यु के साथ आज एक ध्रुव तारा अस्त हो गया है।

Tuesday, August 14, 2018

क्या पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान फौज के चंगुल से निकल पायेगें या उसकी कठपुतली बनेंगे


शेष नारायण सिंह  

पाकिस्तान में क्रिकेटर इमरान खान  की सरकार से दुनिया के  अमन पसंद लोगों को बहुत उम्मीदें हैं . सारी दुनिया में लोग टकटकी लगाये बैठे हैं कि शायद इमरान खान कोई ऐसी पहल करें  जिससे इस खित्ते में शान्ति की बहाली हो सके. पाकिस्तान में शान्ति  और लोकतंत्र स्थापित होने का सबसे ज़्यादा फायदा पकिस्तान की अवाम को  होगा,पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था को होगा और पाकिस्तानी राष्ट्र को होगा. पाकिस्तान में शान्ति और लोकतंत्र की  स्थापना का अगर किसी बाहरी देश को फायदा होगा तो वह भारत है. भारत को बाकी देशों से ज़्यादा लाभ होगा . उसके कारण हैं साफ़ हैं . एक तो पाकिस्तान के पूरे समर्थन और उसकी साझीदारी से चल रहा आतंकवाद का खात्मा करने में दुनिया को मदद मिलेगी. भारत की एक बड़ी आबादी के बहुत सारे रिश्तेदार पाकिस्तान में रहते हैं शादी ब्याह के रिश्ते हैं और आपस में रिश्तेदारों की मुलाकातें कई कई साल नहीं हो पातीं . अगर अमन की स्थापना हुयी तो दोनों देशों में बंटे हुए परिवारों में आपसी मेल मुलाकातें भी बढेंगी . जब दोनों देशों के अवाम में आपसी सम्बन्ध बढ़ेगा ,आवाजाही होगी तो दोनों ही देशों की जनता के हितों  को ध्यान में रखकर सरकारें भी फैसले लेने के लिए मजबूर  होंगी.
सवाल यह है कि क्या इमरान खान पकिस्तान को शान्ति की राह पर ले जाना चाहेंगें . आम तौर पर माना जा रहा है कि पाकिस्तानी फौज ने इमरान खान को प्रधानमंत्री पद तक पंहुचाया है . यह जगजाहिर है कि पाकिस्तानी सेना भारत के साथ संबंधों को कभी भी ठीक नहीं करना चाहती इसलिए उसको आई एस आई या धार्मिक उन्मादियों के ज़रिये भारत में असंतोष की अंगीठी को जलाए रखना होता है . जिसका नतीजा यह होता  है कि पाकिस्तानी  फौज के अफसरों की तो चांदी रहती है उनको देश के संसाधनों को लूटने के अवसर मिलते रहते हैं लेकिन पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था तबाही की तरफ बढ़ती रहती है . ऐसे माहौल में इमरान खान से शान्ति की उम्मीद तो नहीं की जा सकती लेकिन उनको  पाकिस्तान के संथापक मुहमम्द अली जिन्नाह की विरासत  को तो याद दिलाया  ही जा सकता है . हालांकि पाकिस्तान हासिल करने के लिए जिन्नाह ने ब्रिटिश साम्राज्य की हर बात मानी लेकिन मूल रूप से जिन्नाह एक सेकुलर इन्सान थे . इस बात में दो राय नहीं है भारत की आज़ादी के प्रयासों में महात्मा गांधी के पहले जो भी काम हुआ उसमें जिन्नाह का नाम  प्रमुख है . वे उस दौर में आज़ादी की  मुहिम के सूत्रधारों में गिने जाते थे. कांग्रेस के संस्थापकों दादाभाई नौरोजी और फीरोज़ शाह मेहता के तो वे बहुत बड़े प्रशंसक थे , गोपाल कृष्ण गोखले का भी स्नेह मुहम्मद अली जिन्नाह को हासिल था. आज़ादी की लड़ाई  के बहुत शुरुआती वर्षों में ही उन्होंने कांग्रेस की धर्मनिरपेक्ष राजनीति की बुनियाद रख दी थी. जो महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू  के युग में इस देश की शासन पद्धति का आधार  बनी .  भारत के संविधान ने देश की सभी संस्थाओं में आज़ादी के लिए हुए   संघर्ष के इथास को स्थाई मुकाम दिया . संविधान ने यह सुनिचित किया कि देश एक सेकुलर लोकतांत्रिक देश बने .भारत एक सेकुलर देश बना भा . लेकिन  जिन्नाह ने  जिस देश की स्थापना की थी वहां तो धर्मनिरपेक्ष राजनीति पता नहीं कब की ख़त्म हो चुकी है .  इस बात में भी दो राय नहीं है कि पाकिस्तान में मध्यवर्ग का एक बड़ा हिस्सा सेकुलर है और वह भारत से दुश्मनी  को पाकिस्तान के विकास में सबसे  बडी बाधा मानता है .जिन्नाह को जब पाकिस्तान की संविधान सभा का सर्वसम्मति से अध्यक्ष चुना गया था तो उस पद  को स्वीकार करने के लिए उन्होंने जो भाषण दिया था , आम तौर पर माना जाता है कि वही भाषण पाकिस्तान की भविष्य की राजनीति का  आदर्श बनने वाला था . ११ अगस्त १९४७ का उनका भाषण इतिहास की एक अहम धरोहर है.नए जन्म ले रहे पाकिस्तान के राष्ट्र के भविष्य का नुस्खा उस भाषण में था  . लेकिन पाकिस्तानभारत और इस इलाके में रहने वाले लोगों  का दुर्भाग्य है कि उनके उस भाषण में कही गयी गयी हर बात को नए पाकिस्तान के शासकों ने तबाह कर दिया . अपने नए मुल्क के लोगों से मुखातिब  पाकिस्तान के संस्थापकमुहम्मद अली जिन्नाह ने उस  मशहूर भाषण में कहा कि , " अब आप आज़ाद हैं .पाकिस्तान में आप अपने मंदिरों ,अपनी मस्जिदों और अन्य पूजा के स्थलों पर जाने के लिए स्वतन्त्र हैं . आप का धर्म या जाति कुछ भी हो सकती है  लेकिन पाकिस्तान के नए राज्य का उस से कोई लेना देना नहीं हैं .. हम एक ऐसा देश शुरू करने जा रहे हैं  जिसमें धर्म या जाति के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा . हम यह मानते हैं कि हम सभी एक स्वतन्त्र देश के नागरिक हैं जिसमें हर नागरिक एक दूसरे के बराबर हैं . " इसी भाषण में जिन्नाह ने कहा था कि " हमें अपना आदर्श याद रखना चाहिए कि कुछ समय बाद पाकिस्तान में न कोई हिन्दू रहेगा ,न कोई मुसलमान  सभी लोग पाकिस्तान के स्वतन्त्र नागरिक के रूप में रहेगें  . हालांकि व्यक्तिगत रूप से सब अपने धर्म का अनुसरण करेगें लेकिन राष्ट्र के रूप में कोई धर्म नहीं रहेगा, "
इतिहास को पता है  कि जिन्नाह का वह सपना धूल में मिल चुका है . आज  पाकिस्तान में धार्मिक तंत्र हावी है .उनकी फौज भी पूरी तरह से धार्मिक कट्टरपंथियों की मर्जी से चलती है . पाकिस्तान की आजादी के करीब १५ साल बाद या यूं कहिये कि जनरल अयूब की हुकूमत के खात्मे के बाद  से ही पाकिस्तान में जिन्ना की विरासत को तोड़ने मरोड़ने का काम पूरी शिद्दत से चल रहा  है . उसमें सभी ने अपनी तरह से  योगदान किया है . अब जिन्नाह के  धर्म निरपेक्ष पाकिस्तान के सपने की कोई भी बात चर्चा में नहीं आने नहीं दी जाती  लागू करना तो अलग बात है . 
 सही बात यह है कि पाकिस्तान के शासक वर्ग ने पहले दिन से ही अपने संस्थापक की हर बात को नज़र अंदाज़  किया और कई मामलों में तो उल्टा किया. अगर उनके धर्मनिरपेक्ष पाकिस्तान के सपने को पूरा करने की कोशिश पाकिस्तान के शासकों ने की होती तो न आज तालिबान होता ,न हक्कानी होता , न जिया उल हक की सत्ता आती , न ही हुदूद का कानून बनता और न ही एक  गरीब देश की संपत्ति को पाकिस्तानी फौज के आला अफसर आतंकवादियों की मदद  के लिए इस्तेमाल कर पाते .आज पाकिस्तान उस  मुकाम पर खड़ा है जबकि  दुनिया के कई बड़े मुल्क उसको आतंकवादी राष्ट्र घोषित करने के फ़िराक में  हैं . पाकिस्तान के   नए वज़ीरे-आज़म के  सामने यही चुनौती है की के वे पाकिस्तान को  आतंकवाद के प्रायोजक देश के रूप में मिल रही पहचान से   बचा पायेगें .  यह ख़तरा पूरी तरह से है कि वे  फौज के हाथ में कठपुतली बन कर   रहेंगे और अपना कार्यकाल पूरा करके रिटायर जीवन बिताएंगे. पाकिस्तान के सामने आज चुनौतियां बहुत बड़ी हैं . इस बात पर नज़र रहेगी कि इमरान खान अपने देश  की जनता के हित की साधना  कैसे  करते हैं  .

दलित और पिछड़ों के वोट की पिच पर होगा २०१९ का फैसला,

  
शेष नारायण सिंह

 अगली लोकसभा के चुनाव में अब कुछ महीने रह गए हैं , या यह कहना ठीक होगा कि अब प्रचार शुरू हो गया है . जिस टीवी  चैनल में मैं कंसल्टेंट हूँ, उसकी तरफ से एक विशेष कार्यक्रम के तहत २०१९ के चुनाव का शंखनाद इसी हफ्ते कर दिया गया . कार्यक्रम में ऐसे बहुत लोग आये जो २०१८ में होने वाले राज्यसभा चुनावों और लोक सभा चुनाव २०१९ में अहम भूमिका निभाने वाले हैं. बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह खुद आये और पूरे आत्मविश्वास के साथ २०१९ में अपनी जीत की भविष्यवाणी की  .  मध्य प्रदेश और राजस्थान में कांग्रेसी राजनीति के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर, ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट आये , उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और राष्ट्रीय  अध्यक्ष अखिलेश यादव और मुख्यमंत्री  बनने से बाल बाल बचे नेता मनोज सिन्हा आये, बिहार से तेजस्वी यादव आये . यह सभी को मालूम है कि २०१८ के विधान सभा चुनावों के बाद २०१९ की बिसात बहुत ही निर्णायक तरीके से बिछ जायेगी .  यह भी तय है कि जिसके पक्ष में उत्तर प्रदेश ,बिहार ,मध्य प्रदेश और राजस्थान की हवा बहेगी ,केंद्र में सरकार उसी की होगी. इस सम्मलेन की ख़ास बात यह भी रही कि बिहार  की राजनीति में तेज़ी से उभर रहे राजनीतिक व्यक्तित्व ,तेजस्वी यादव को राष्ट्रीय स्तर पर आमने सामने देश के अत्यंत महत्वपूर्ण चैनल के पत्रकारों ने बहुत क़रीब से देखा और परखा , २०१७ में मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद जिस तरह से राजनीतिक धरातल पर के ज़बरदस्त नेता के रूप में अखिलेश यादव ने इंट्री ली है ,उसका एक बार फिर दिल्ली की मीडिया ने करीब से जायजा लिया .  ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट का आत्मविश्वास ज़बरदस्त था . अगर उनके आत्मविश्वास को संकेत माना जाए ,तो आने वाला समय  मध्य प्रदेश और राजस्थान में  बीजेपी के लिए  मुश्किल हो सकता है . हालांकि अमित शाह का जो भरोसा  था  वह देखने लायक था , उनको देख कर लगता ही नहीं था कि उनके  विपक्ष में खड़े लोग भी कोई राजनीतिक हैसियत रखते हैं . अमित शाह ने पिछले चार साल में इतने चुनावों में अपनी पार्टी की जीत का नेतृत्व किया  है कि उनकी कही गयी हर बात राजनीतिक हवाओं का संकेत देती नज़र आती है .उन्होंने साफ़ कहा कि कहीं कोई नहीं है मैदान में और लड़ाई केवल सांकेतिक  ही होने जा रही है .२०१८ के विधान सभा चुनावों में और २०१९ के लोक सभा चुनावों में कहीं कोई बदलाव नहीं आने वाला  है , बीजेपी की जीत सब जगह होगी. .
पत्रकारिता के काम में यह ट्रेनिंग दी जाती है कि नेताओं को बड़ी बड़ी बातें करने के लिए उत्साहित किया जाए ,उनको ऐसा लगे कि जो पत्रकार उनका  इंटरव्यू कर रहा है ,वह  उनकी हर बात का विश्वास कर रहा है . लेकिन सच्चाई में ऐसा नहीं होता .नेताओं की बात का महत्व केवल इतना है कि उनकी बातों से  विचार विमर्श के लिए कच्चे माल की सप्लाई मिलती है ,नेताओं की बातों का पूर्ण विश्वास कोई भी सम्माननीय पत्रकार नहीं करता . उनकी बातें राजनीतिक विश्लेषण का केवल इनपुट होती है ,इसके अलावा कुछ नहीं .राजनीतिक पत्रकार अपने फैसले  सारे माहौल को ध्यान में रखकर लेता है .उसको मालूम रहता है कि राजनीतिक जीत  के लिए सभी  राजनीतिक पार्टियां और नेता किसी और पिच पर   खेल रहे होते हैं  . एक सजग नागरिक को उस पिच तक ले जाना पत्रकार का धर्म  होता है .इस सन्दर्भ में राजनीतिक विश्लेषण करने वाली बिरादरी को मालूम है कि आगामी चुनावों में खेल की पिच कहीं और है ,  वह चुनावों में  पिछड़े और दलित वर्गों के वोटों को लक्ष्य करके खेली जायेगी . क्योंकि अगर फैसला गंगा नदी के इलाके में होना है तो वहां तो दलित और पिछड़े ही तय  करेंगे कि चुनावी नतीजों की हवा क्या मोड़ लेगी. इस इलाके में मायवती ,अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव जैसे नेताओं के समर्थक बहुत ही अहम भूमिका निभाने वाले हैं लेकिन यह भी तय है कि बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह चुनाव जीतने की कला के माहिर हैं . बीजेपी को भरोसा है कि अमित शाह  हर हाल में जीत दिलवाएंगें .
अमित शाह के नेतृत्व में जीत को सुनिश्चित करने के लिए सरकार ने भी अपना योगदान शुरू कर दिया है. अखिलेश यादव, मायावती और तेजस्वी यादव के प्रभाव से होने वाले संभावित  खतरे को रोकने के लिए सरकार ने संसद में दो महत्वपूर्ण बिल पास करवा लिया है .संसद में सोमवार को  दलितों और पिछड़ी जातियों के हित की बातों को ख़ास तौर पर चर्चा का विषय बनाया  गया . लोक सभा में केंद्रीय  मंत्री थावर चंद गहलौत ने अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति ( अत्याचार  निरोध) संशोधन बिल पेश किया . सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद पहले से ही  इस सम्बन्ध में बने कानून में कुछ कमजोरी आ गयी थी . सरकार ने इस बिल के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट के आदेश को प्रभावहीन बनाने का काम किया है .उधर  राज्य सभा में ओ बी सी से सम्बंधित आयोग को संवैधानिक संस्था का दर्ज़ा देने के सम्बन्ध में संविधान में संशोधन  की दिशा में अहम क़दम उठा लिया .
लोकसभा में सामजिक न्याय और अधिकारिता मंत्री थावरचंद गहलौत ने अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति ( अत्याचार  निरोध) संशोधन बिल पेश करते हुए कहा कि ," सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश  पर पुनर्विचार याचिका दाखिल की थी जिसमे माननीय उच्चतम न्यायालय ने अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति ( अत्याचार  निरोध) एक्ट १९८९ के  उन प्रावधानों को  खारिज कर दिया था  जिसके तहत  दलितों के ऊपर अत्याचार के मामले में तुरंत गिरफ्तारी की व्यवस्था थी. अभियुक्त की जमानत के लिये भी कानून बहुत सख्त थे और मुकामी पुलिस को अधिकार था कि वह जिसके खिलाफ एफ आई आर लिखा जाए  ,उसको  बिना किसी की  अनुमति लिए गिरफ्तार कर सकता था . सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में यह व्यवस्था बना दी थी कि अगर किसी के खिलाफ  दलित पर  अत्याचार की कोई शिकायत आती है तो   प्राथमिक जांच करके ही एफ आई आर दर्ज की जाए और  अगर अभियुक्त को गिरफ्तार करने की ज़रूरत हो तो वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक की मंजूरी लेकर ही गिरफ्तारी की जाए. सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के विरोध में कुछ दलित संगठनों ने २ अप्रैल को भारत  बंद का आवाहन भी किया था "
सुप्रीम कोर्ट ने इसी २० मार्च अपना आदेश  सुनाया था . दलित संगठन बहुत नाराज़ थे .. सरकार के ऊपर सुप्रीम कोर्ट के आदेश  का अवसर था कि  वह बीजेपी के मुख्य समर्थक सवर्णों को संतुष्ट कर सके .   सवर्ण जातियों में इस बात को लेकर बहुत चिंता थी कि कोई भी पुलिस वाला उनको दलित एक्ट में फनस आकर जेल भेज देता था . केन्द्रीय   मंत्री ने लोकसभा में  स्वीकार भी किया कि दलित एक्ट के तहत बहुत सारे फर्जी मामले भी दर्ज होते थे .  जैसा कि कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खरगे ने आरोप लगाया कि सरकार का  रुख   दलितों के खिलाफ था इसीलिये उन्होंने शुरू में कोशिश की थी कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश को ही कानूनी शक्ल दे दी जाए लेकिन  राजनीतिक दबाव के चलते उनको बात को संभालना पडा . यह बात सही लगती है  क्योंकि बीजेपी के कोई वोटर जिनमे सवर्ण  शामिल हैं दलित एक्ट का विरोध करते थे लेकिन बीजेपी की परेशानी यह अहि कि वह कई साल से  भीमराव आंबेडकर के नाम पर बहुत कुछ  राजनीतिक पूंजी  का  निवेश करती रही है. बीजेपी की कोशिश है कि मायावती के दलित जनसमर्थन को अपने पक्ष में करे लेकिन सुप्रीम  कोर्ट के इस आदेश के बाद दलितों की नाराज़गी बीजेपी से बढ़ रही थी. केंद्रीय मंत्रिमंडल में दलित मंत्री भी सरकार के खिलाफ बोलना शुरू कर चुके थे लिहाज़ा उनको यह संशोधन लाना पडा. हालांकि मंत्री थावरचंद गहलौत ने लोकसभा में स्वीकार किया कि अभी सरकार के एवाह अर्जी   सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है  माननीय कोर्ट से अपने आदेश को बादलने के लिए कहा  गया  है . सरकार को जल्दी करना पड़ा क्योंकि दलित संगठनों और  किसान संगठनों ने ९ अगस्त को भी आन्दोलन की योजना बनाई हुयी  है . बीजेपी की समझ में आ गया कि  सवर्णों के चक्कर में दलितों को नाराज़ करना ठीक नहीं है क्योंकि सवर्ण तो वैसे भी समर्थन बीजेपी को ही देंगे क्योंकि उनके सामने और कोई विकल्प नहीं है . उनकी मजबूरी को बीजेपी आलाकमान भी जानता है .

बीजेपी की २०१४ और उसके बाद की जीतों में  ओबीसी वोटों की बड़ी भूमिका थी . उस वर्ग को भी साधने के लिये प्रधानमंत्री समेत बीजेपी के सभी बड़े नेता हमेशा ही बयान देते  रहते थे .लगता  है कि इसी अभियान के तहत  राज्यसभा में सोमवार को पिछड़ी जातियों के  राष्ट्रीय आयोग को संवैधानिक दर्ज़ा देने संबंधी १२३ वां सविधान संशोधन विधेयक भी पारित हो गया . संविधान संशोधन के लिए ज़रूरी है कि सदन में मौजूद और वोट में भाग लेने  वाले सदस्यों का कम से कम दो तिहाई  संशोधन के पक्ष में  वोट करे . लेकिन यह  यह बिल राज्य सभा में सर्वसम्मति से पारित हो गया . पक्ष में १५६ वोट पड़े जबकि विपक्ष में किसी भी सदस्य ने वोट नहीं डाला . बीजेपी के  अध्यक्ष अमित शाह ने इस बिल के पास होने को ऐतिहासिक  बताया और प्रसन्नता जताई . इस बिल के पास हो जाने के बाद अब पिछड़ा वर्ग आयोग को भी वही दर्ज़ा मिल जाएगा तो अनुसूचित जातियों के आयोग को मिला हुआ है .
संसद में सरकार ने अपने आपको दलितों और पिछड़ों के पक्षधर के रूप में ज़बरदस्त तरीके से प्रस्तुत कर दिया है . यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या इन  कानूनों के  बनने  के बाद उत्तर प्रदेश के दलित मायावती के खिलाफ  वोट  करेंगे . या यह कि क्या उत्तर प्रदेश के पिछड़े लोग अखिलेश यादव के खिलाफ वोट करेंगे , क्या तेजस्वी यादव के बढ़ते प्रभाव को इन सारे  तरीकों से कम किया जा सकेगा .कुछ भी हो देश एक बहुत ही दिलचस्प चुनाव की दिशा में शंखनाद कर चुका है .

Thursday, August 9, 2018

नौ अगस्त २०१८ को लिखा गया एक नोट फेसबुक पर

आज भारत छोड़ो आन्दोलन प्रस्ताव के 76 साल हो गए .भारत छोड़ो आन्दोलन ने देश की आजादी को सुनिश्चित किया था. महात्मा गांधी इसके नेता थे. आठ अगस्त १९४२ के दिन इस आन्दोलन का प्रस्ताव जवाहरलाल नेहरू ने लिखा था और उन्होंने ही कांग्रेस के विचार के लिए प्रस्तावित किया था. प्रस्ताव की शब्दावली निम्नलिखित है ,":
'"The committee, therefore, resolves to sanction for the vindication of India's inalienable right to freedom and independence, the starting of a mass struggle on non-violent lines on the widest possible scale, so that the country might utilise all the non-violent strength it has gathered during the last 22 years of peaceful struggle...they [the people] must remember that non-violence is the basis of the movement."
इस प्रस्ताव का देश भर में स्वागत हुआ था लेकिन मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा ,राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ , कम्युनिस्ट पार्टी और देसी राजाओं ने विरोध किया था .

दलाई लामा का गैर ज़िम्मेदार बयान

शेष नारायण सिंह 

आज अखबारों दलाई लामा का एक बयान छपा है . फरमाते हैं कि अगर नेहरू ने जिन्ना को प्रधानमंत्री बनने दिया होता तो देश का बँटवारा नहीं होता. दलाई लामा इस देश में एक शरणार्थी हैं .जिस देश ने उनको शरण दी है उसके आतंरिक मामलों के बारे में उनको गैर ज़िम्मेदार बयान नहीं देना चाहिए . समझ में नहीं आ रहा है कि उनका जिन्ना प्रेम क्यों जागा है .
मुहम्मद अली जिन्ना को प्रधानमंत्री क्या ,देश उनको कोई भी ज़िम्मेदारी देने को तैयार नहीं था. जिन्ना के डाइरेक्ट एक्शन के आवाहन के बाद ही बंगाल और पंजाब में खून खराबा शुरू हुआ था . इस तरह से जिन्ना के सर पर १९४७ में मारे गए दस लाख लोगों के खून का ज़िम्मा है. दुनिया के हर समझदार आदमी को मालूम था कि जिन्ना ने अगर डाइरेक्ट एक्शन की कॉल न दी होती तो इतने बड़े पैमाने पर दंगे न होते. जवाहरलाल ही नहीं पूरी कांग्रेस और पूरा देश जिन्ना को कोई ज़िम्मेदारी देने को तैयार नहीं था. जब सरदार पटेल के प्रस्ताव पर जवाहरलाल नेहरू को अंतरिम सरकार का प्रमुख नियुक्त किया गया तो जिन्ना पगलाय गए . उन्होंने उल जलूल हरकतें करना शुरू कर दिया . डाइरेक्ट एक्शन का आवाहन उसी तरह का कृत्य है. अंतरिम सरकार में उनके ख़ास चेला , लियाक़त अली को वित्त सदस्य बनाया गया था, आर्थिक मंजूरी के सारे पावर उनके पास थे . उन्होंने अंतरिम सरकार के हर काम में अडंगा लगया . उनको वायसराय का समर्थन था इसलिए यह सारी हरकतें कर रहे थे . पंजाब बाउंड्री फ़ोर्स के गठन तक में उन्होंने मुसीबतें पेश की. नतीजा यह हुआ कि शरणार्थियों की सुरक्षा में भारी बाधा आई . जिन्ना हर हाल में मुसीबत खड़ी करना चाहते थे . इसलिए सरदार पटेल समेत भारत का कोई भी जिन्ना को प्रधानमंत्री बनाने को तैयार नहीं था. ठीक ही हुआ क्योंकि बंटवारे के बाद जिस देश का ज़िम्मा जिन्ना और लियाक़त अली ने संभाला ,उसका हाल आज दुनिया देख रही है . पकिस्तान एक " फेल्ड स्टेट" है . अगर जिन्ना-लियाक़त की टोली को ज़िम्मा दिया गया होता , तो हमारा भी हाल बहुत अच्छा न होता. दलाई लामा कहते हैं कि गांधी जी जिन्ना को प्रधानमंत्री बनाना चाहते थे. यह अर्धसत्य है . महात्मा जी ने केवल इतना कहा था कि इस आदमी के खूंखार मंसूबों को रोकने के लिए इसको कुछ काम से लगा देना चाहिए लेकिन सरदार को वह भी मंज़ूर नहीं था. दलाई लामा से गुजारिश है कि वे अर्धसत्य का सहारा लेकर इस देश के महापुरुषों के सम्मान को नीचा दिखाने की कोशिश करने से बाज आयें .
एक बात और ,जवाहरलाल नेहरू ने जीवन में जो थोड़ी बहुत गलतियाँ की हैं ,उनमे दलाई लामा को भारत में शरण देना शामिल हैं .अगर इन श्रीमान जी को नेहरू ने शरण न दी होती तो चीन से सामान्य सम्बन्ध बनाने की जो कोशिश आज की जा रही है , उसकी ज़रूरत ही नहीं पड़ती क्योंकि जवाहरलाल ने तो १९५४-५५ में हिंदी-चीनी भाई भाई का कार्यक्रम चला दिया था . चीन हमारा दोस्त था . वह सम्बन्ध दलाई लामा को शरण देने के कारण ही बिगड़ा .उसी बिगाड़ के कारण भारत-चीन युद्ध हुआ और हमारी उस वक़्त की कमज़ोर अर्थव्यवस्था का भारी नुक्सान हुआ. आज भी चीन से हमारे रिश्ते इनके कारण ही खराब हैं . चीन ने पाकिस्तान से हाथ मिला लिया है और हमारी सरहदों पर सुरक्षा बलों को ज्यादा चौकस रहना पड़ता है . इस सब के बाद जब आज यह दलाई लामा जी ,चबा चबा कर ज्ञान बघारते हैं तो कष्ट होता है .

इलाहाबाद में लड़कियों पर पुलिस लाठी चार्ज पर मेरी टिप्पणी

  
श्वेता यादव, नेहा यादव, ऋचा सिंह ,पूजा शुक्ला आज के नाम हैं. इन्हीं विश्वविद्यालयों में हमारे समय में देवब्रत मजुमदार, मार्कंडेय सिंह , चंचल, सत्यपाल मलिक, आरिफ मुहम्मद खान ,अतुल अंजान, मोहन सिंह, बृज भूषण तिवारी ,जनेश्वर मिश्र के नाम लिए जाते थे . मुझे लगता है कि यथास्थितिवादी शक्तियां चाहे जितना कोशिश करें, लड़कियों को रोका नहीं जा सकता . हां एक फर्क ज़रूर पड़ा है --पहले जब राजनेताओं का विरोध होता था तो नेता लोग उन छात्र नेताओं से ज़बान से बात करते थे लेकिन अब सब कुछ बदल गया है .अब नेता नहीं सत्ता बात करती है और ज़बान से नहीं लाठी गोली से.
यानी पिछले चालीस साल में बहुत कुछ बदल गया है . छात्र राजनीति की बाग़ अब महिलाओं के पास है ,देश की सियासत की कयादत अब लड़कियों के पास आने वाली है . इस नई सुबह का इंतज़ार किया जाएगा . नेहरू-लोहिया-जयप्रकाश की विरोध संस्कृति की मशाल अब इन्हीं बहादुर लड़कियों के हाथ में हैं. मुझे भरोसा है कि हमारा मुस्तकबिल रोशन रहेगा .( २९ जुलाई,२०१८ )

असम में घुसपैठियों से जुडी राजनीति के ऊँट के करवट पर देश की नज़र



शेष नारायण सिंह



असम में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर के  मुद्दे से जुड़ा माहौल बहुत ज़्यादा गरमा गया है .  असम में घुसपैठियों और विदेशी नागरिकों के सवाल पर ज़बरदस्त राजनीति शुरू हो गयी है . नैशनल राष्ट्रीय रजिस्टर का दूसरा और आखिरी ड्राफ्ट जारी कर दिया गया है.. 3.29 करोड़ लोगों ने नागरिक रजिस्टर में नाम डलवाने की दरखास्त दी थी .इन आवेदकों में से 2.90 करोड़ आवेदक ही सही  पाए गए हैं. 40 लाख आवेदकों का नाम फाइनल ड्राफ्ट में नहीं है . असम में एनआरसी का पहला ड्राफ्ट पिछले साल दिसंबर में जारी हुआ था. पहले ड्राफ्ट में 3.29 करोड़ आवेदकों में से 1.9 करोड़ लोगों के नाम शामिल किए गए थे.इस बार यह संख्या बढ़ गयी है .जिन चालीस लाख लोगों को इस सूची में जगह नहीं मिली है. इन्हीं चालीस लाख लोगों को लेकर राजनीति शुरू हो गयी है . सोमवार को लिस्ट के  प्रकशित होने के  बाद यह मुद्दा लोकसभा में असम की गैर भाजपा पार्टियों ने उठाया . जिसका कांग्रेस , लेफ्ट फ्रंट और तृणमूल कांग्रेस ने समर्थन किया . गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने जवाब दिया कि असम में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर  का काम सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में चल रहा  है और इसमें केंद्र सरकार की कोई भूमिका नहीं है . सुप्रीम कोर्ट के आदेश को लागू करने औरे उसके निर्देश में काम करने से ज़्यादा सरकार  का रोल नहीं है . लेकिन विपक्ष को  गृहमंत्री के जवाब से संतोष नहीं हुआ और लोकसभा से वाक आउट कर गए .
मंगलवार को मामला राज्यसभा में भी बहस के लिए उठाया  गया . जब बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह अपनी बात कहने उठे तो उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर  का बनाया जाना राजीव गांधी के समय में हुए असम समझौते का नतीजा है. उन्होंने कहा  कि आज ३३ साल  हो गए और कांग्रेस के लोग अपनी  ही पार्टी की सरकार के समझौते को लागू नहीं कर पाए. इसके बाद हल्ला गुल्ला शुरू हो गया और अमित शाह अपनी बात पूरी नहीं कर पाए .एनआरसी के मुद्दे पर राज्यसभा में कांग्रेस को अर्दब में लेने के बाद अमित शाह ने प्रेस कांफ्रेंस की.  उन्होंने प्रेस से  कहा कि सदन की गरिमा के लिए यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि मैं सदन का सदस्य होते हुए  भी वहां अपनी बात नहीं रख पाया. मुझे सदन में बोलने नहीं दिया गया इसलिए मैंने यह प्रेस कांफ्रेंस की. उन्होंने कहा कि मेरे बयान के दौरान सदन में हंगामा हुआ और मुझे बोलने नहीं दिया गया. एनआर सी के बारे में सफाई देते हुए उन्होंने  दावा किया कि किसी भी भारतीय नागरिक का नाम नहीं कटेगा. लेकिन जो विदेशी होगा उसको भारत के नागरिक के रूप में मान्यता नहीं दी जायेगी .उन्होंने कहा कि 40 लाख का आंकड़ा अंतिम नहीं है. भारतीय नागरिक होने का सबूत नहीं पेश करने के बाद ही एनआरसी से नाम कटा है. अभी जिन लोगों के नाम रजिस्टर में नहीं हैं  उनको मौअक दिया जाएगा कि वे अपनी नागरिकता सिद्ध करें. उसके बाद यह संख्या चालीस लाख से से भी  कम हो जायेगी, अमित शाह की शिकायत है कि विपक्ष की पार्टियां बीजेपी की छवि खराब करने की कोशिश कर रही हैं.  कांग्रेस वोटबैंक की राजनीति कर  रही है और बेमतलब के सवाल उठा रही हैजबकि एनआरसी की शुरुआत ही कांग्रेस ने की थी. .कांग्रेस असम समझौते को तीस साल में लागू नहीं कर पाई .अब इसको हम लागू कर रहे हैं .
विपक्ष का आरोप है कि राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर के बहाने बीजेपी असम के मुस्लिम नागरिकों के वोट देने का अधिकार छीन  रही है जबकि बीजेपी का कहना  है कि जिन लोगों का नाम राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर में  नहीं  है और वे असम में रह रहे हैं ,वे बंगलादेशी घुसपैठिये हैं. बीजेपी को उम्मीद है कि असम से बंगलादेशी  घुसपैठियों के नाम  पर मुसलमानों को देश निकाला देने की उनकी तरकीब से बाकी देश में भी हिन्दू उनकी तरफ आ  जाएगा . और बाकी पार्टियों को हिन्दू विरोधी के रूप में साबित करने का मौक़ा मिलेगा. असम एनआरसी मुद्दे पर  पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी बहुत ही  आर पार की बात करना शुरू कर दिया है  उन्होंने दावा किया है कि अगर सरकार अपने अड़ियल रुख पर कायम रही तो सिविल वॉर की नौबत आ सकती  है .  चेतावनी देते हुए ममता बनर्जी ने कहा कि बंगाली ही नहीं अल्पसंख्यकों,हिंदुओं और बिहारियों को भी एनआरसी से बाहर रखा गया है. 40 लाख से ज्यादा लोगो जिन्होंने सत्ताधारी पार्टी के लिए वोट किया था आज उन्हें अपने ही देश में रिफ्यूजी बना दिया गया है. ममता ने कहा, 'वे लोग देश को बांटने की कोशिश कर रहे हैं. यह जारी रहा तो देश में खून की नदियां बहेंगीदेश में सिविल वॉर शुरू हो जाएगा.'

इस बात में दो राय नहीं है कि एन आर सी बनाने में गड़बड़ी तो हुयी  है . दिल्ली के एक नामी अखबार ने बहुत सारे ऐसे लोगों के नाम और फोटो छापा है जो नैशनल नागरिक रजिस्टर में नाम नहीं पा सके हैं जबकि उनके सगे भाई बहन शामिल कर लिए  गए हैं . ऐसे लोगों में बहुत सारे हिन्दुओं के नाम हैं.  लिहाजा यह आरोप सही नहीं साबित होता कि नैशनल नागरिक रजिस्टर से केवल मुसलमानों को  बाहर रखा गया  है क्योंकि ऐसे बहुत सारे हिन्दू हैं जो नैशनल नागरिक रजिस्टर में नाम लिखाने में नाकामयाब रहे हैं .  अफसरों की तरफ से यह दलील दी जा रही है कि जो लोग अपना सबूत नहीं जमा कर पाए उनको बाहर कर दिया गया है . यह कोई बात नहीं हुयी . अगर कोई व्यक्ति  सबूत नहीं जमा कर  पाया तो उसको देश की नागरिकता से बेदखल करना नौकरशाही के तानाशाही रुख का सबूत है और अफसरों की यह नाकामी पूरी प्रक्रिया पर सवालिया  निशान लगा देती है .  सरकार का यह फ़र्ज़ है कि इतने गंभीर मुद्दे पर अफसरों की नाकामी के चलते  असम में अराजकता की स्थिति न पैदा होने दें . 

एन आर सी के मुद्दे पर सरकार विदेशनीति के मामले में भी बड़ा  ख़तरा मोल ले रही है . आम तौर पर माना जाता है कि असम में बंगलादेशी घुसपैठियों का आतंक है और उनको ही बाहर करने के लिए नैशनल नागरिक रजिस्टर की बात की गयी है  लेकिन  बांग्लादेश सरकार ने एनआरसी से बाहर किए गए लोगों को बांग्लादेशी मानने से इनकार कर दिया है. बांग्लादेश सरकार ने कहा है कि जिनके नाम एनआरसी से गायब हैं वे भारत में अवैध घुसपैठिये हो सकते हैं लेकिन बांग्लादेश के नागरिक नहीं हैं. इस बयान में एनआरसी मुद्दे को भारत का आंतरिक मामला बताया गया है .  बीजेपी के छोटे नेता और ऊंची आवाज़ में बोलकर अपने को मीडिया के सामने लाने की  कोशिश करने वाले कुछ नेता मामले को और बिगाड़ रहे हैं . मंगलवार को संसद भवन के परिसर में इस मुद्दे पर खासी गहमा गहमी देखी गए. केंद्र सरकार के एक राज्यमंत्री , अश्विनी कुमार चौबे और कांग्रेस के प्रदीप बंद्योपाध्याय में जोर जोर से बहस होने लगी
और मीडया के लोग तमाशा देखने लगे . 

नैशनल नागरिक रजिस्टर  एक बहुत ही ज़रूरी दस्तावेज़ है और उस पर बहुत सारी  जिंदगियों का भविष्य निर्भर रहेगा. इसलिए उसमें किसी हल्की बात को जगह देने की ज़रूरत बिलकुल नहीं है . नैशनल नागरिक रजिस्टर का दूसरा और अंतिम ड्राफ्ट प्रकाशित होने के बाद जो हंगामा शुरू हुआ उसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को आदेश दे दिया है कि इस ड्राफ्ट के आधार पर आगे की कोई कार्यवाही शुरू न की जाए यानी अब उस पर फिलहाल कोई काम नहीं  होने जा रहा है .लेकिन ऐसा लगता है कि २०१४  में किये गए चुनावी वायदों को पूरा  करने में विफल रही बीजेपी कुछ ऐसे मुद्दे उठाना चाहती है जिससे २०१९ में भी चुनावी जीत हासिल की जा सके. अपनी प्रेस वार्ता में अमित शाह ने जो बातें  कहीं उससे साफ़ लगता है  कि बीजेपी नैशनल नागरिक रजिस्टर और असम में घुसपैठियों के मुद्दे पर कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस  को तो घेरना चाहती ही है ,पूरे विपक्ष को इसी मुद्दे पर घेरकर राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति लापरवाह बताने  का  प्रयास भी कर रही है .

इस सारी गहमागहमी के बीच  राजीव गांधी की  निगरानी में हुए असम समझौते  को पर भी एक नज़र  डाल लेना उपयोगी होगा . असम समझौते का सबसे ज़रूरी बिंदु था कि  असम में विदेशियों की समस्या का हल निकाला जाए. समझौते में लिखा है कि जो लोग असम में १ जनवरी १९६६ के पहले आ गए थे उनको नागरिक मान लिया  जाएगा .जो १ जनवरी १९६६ के बाद और  २४ मार्च १९७१ के पहले असम में आये उनको  दस साल तक वोट देने के  अधिकार से वंचित कर दिया जाएगा .उनके मामलों को फारेनर्स एक्ट,१९४६ और फारेनर्स आर्डर १९६४ के तहत निपटाया जाएगा . समझौते में व्यवस्था है कि जो विदेशी २५ मार्च १९७१ के बाद  असम में आये हैं उनकी पहचान लगातार की जाती रहेगी और उनको  देश से बाहर निकाले जाने की  प्रक्रिया चलती रहेगी .  और उनको किसी भी कीमत पर  भारत का नागरिक नहीं माना जाएगा .असम समझौता एक बहुत बड़े आन्दोलन के बाद किया गया था. इसी मुद्दे पर हुए आन्दोलन में प्रफुल  महंत और भृगु फुकन जैसे नेता जन्मे, असम गण परिषद् की सरकार बनी और असम की  राजनीति हमेशा के लिए एक नई दिशा में चल पडी . 
 आज जब २०१९ का चुनाव सर पर  है तो इस मुद्दे को राजनीतिक रंग देकर सभी राजनीतिक पार्टियां चुनावी लाभ की जुगत  में हैं . यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या २०१९ के लोकसभा चुनाव के  बाद भी इस मुद्दे को इतना  ही गरम रखा  जाएगा कि किसी भावी चुनाव का  इंतजार किया जाएगा .