शेष नारायण सिंह
अयोध्या की बाबरी मस्जिद के विध्वंस के पचीस साल पूरे हो चुके हैं . इस बीच अपने देश में बहुत कुछ बदल गया है . आज़ादी के बाद जिस तरह की राजनीति शुरू हुई थी वह अब नहीं है . जिस संविधान की बुनियाद पर भारत पूरी दुनिया में इज्ज़त का हकदार है ,उसको बदल देने की बात शुरू हो गयी है . मुसलमान को हर तरह से निशाने पर लिया जा रहा है. उनके दीनी मामलों में ऐसे लोग चर्चा कर रहे हैं जिनको धर्म की कोई जानकारी नहीं है. इस बीच छः दिसंबर १९९२ को अयोध्या में हुए विनाश के हर पहलू पर नए सिरे से बहस हो रही है . वहां की ज़मीन का जो विवाद चल रहा था उस पर इलाहाबाद हाई कोर्ट का विवादित फैसला सुप्रीम कोर्ट अपील में है . सुप्रीम कोर्ट ने इसी हफ्ते साफ़ कह दिया है कि केस में धार्मिक आस्था नहीं , उपलब्ध सबूत के आधार पर फैसला लिया जाएगा . सबूत तो सुन्नी वक्फ बोर्ड के दावे को ही सही ठहराते हैं क्योंकि विश्व हिन्दू परिषद और उसके सहयोगी संगठन तो आस्था के नाम पर राजनीतिक और कानूनी अभियान चला रहे हैं . आर एस एस और बीजेपी के नेता अक्सर दावा करते पाए जाते हैं कि आस्था के सवाल पूरी तरह से कानून की सीमा के बाहर होते हैं . सुप्रीम कोर्ट में माननीय जज की टिप्पणी के बाद यह तय है कि वहां आस्था पर आधारित कोई भी फैसला नहीं किया जाएगा . मुक़दमा ज़मीन के मालिकाना हक से सम्बंधित है ,इसलिए फैसला भी वही होगा .
बाबरी मस्जिद की तबाही का आपराधिक मामला अलग से चल रहा है . उसमें भी फैसला आना है , जो पता नहीं कब आयेगा . ज़मीन की मिलकियत के मूल पक्षकार , हाशिम अंसारी की मृत्यु हो चुकी है , निर्मोही अखाडा में भी अब नए लोग आ चुके हैं . सच्ची बात यह है कि बाबरी मस्जिद को विवाद में लाने की आर एस एस की जो मूल योजना थी वह परवान चढ़ चुकी है. आज केंद्र सहित अधिकतर राज्यों में आर एस एस के राजनीतिक संगठन ,बीजेपी की सरकार है. यह सरकारें धार्मिक ध्रुवीकरण की राजनीति का नतीजा हैं . यह कारनामा एक दिन में नहीं हासिल किया गया है . १९८४ में बीजेपी को लोकसभा में केवल दो सीटें मिली थीं . उसके बाद तय हो गया कि आगे की राजनीति में हिन्दू भावनाओं को एकमुश्त करके ही चुनाव मैदान में बीजेपी को जाना पडेगा .अटल बिहारी वाजपेयी के गांधियन समाजवाद से सीटें बढ़ने वाली नहीं है . दुनिया जानती है कि उसके बाद आर एस एस ने बाबरी मस्जिद के मुद्दे को हवा दी. कुछ गैर ज़िम्मेदार मुसलमान उनके हाथों में खेलने लगे.. बीजेपी के बड़े नेता लाल कृष्ण आडवानी ने सोमनाथ से अयोध्या तक की रथ यात्रा की. गाँव गाँव से नौजवानों को भगवान राम के नाम पर इकट्ठा किया गया और माहौल पूरी तरह से साम्प्रदायिक बना दिया गया. उधर बाबरी मस्जिद के नाम पर मुनाफा कमा रहे कुछ गैर ज़िम्मेदार मुसलमानों ने वही किया जिस से आर एस एस को फायदा हुआ. हद तो तब हो गयी जब मुसलमानों के नाम पर सियासत कर रहे लोगों ने २६ जनवरी के बहिष्कार की घोषणा कर दी. बी जे पी को इस से बढ़िया गिफ्ट दिया ही नहीं जा सकता था. उन लोगों ने इन गैर ज़िम्मेदार मुसलमानों के काम को पूरे मुस्लिम समाज के मत्थे मढ़ने की कोशिश की . बाबरी मस्जिद के नाम पर हिन्दू-मुसलमान के बीच बहुत बड़ी खाई बनाने की कोशिश की गयी और उसमें आर एस एस को बड़ी सफलता मिली. अब तो टीवी की बहस में भावनाओं को भड़का लिया जाता है लेकिन ख़बरों के चौबीस घंटे के टीवी के शुरू होने के पहले धार्मिक ध्रुवीकरण करवाने के लिए दंगे करवाए जाते थे. दंगे अभी भी होते हैं और उनका उद्देश्य हमेशा की तरह राजनीतिक होता है .बस फर्क यह पड़ा है कि पहले अफवाह फैलाकर बाकी देश में उनकी चर्चा होती थी. अब टीवी के डिबेट के जारिए की जाती है .इन दंगों को रोका जाना चाहिए . दंगों को रोकने के लिए ज़रूरी यह है कि लोगों को जानकारी दी जाए कि दंगें होते कैसे हैं . जिन लोगों ने भीष्म साहनी की किताब तमस पढी है या उस पर बना सीरियल देखा है . उन्हें मालूम है १९४७ के बंटवारे के पहले किस तरह से एक गरीब आदमी को पैसा देकर मस्जिद में सूअर फेंकवाया गया था. भीष्म जी ने बताया था कि वह एक सच्ची घटना पर आधारित कहानी थी. या १९८० के मुरादाबाद दंगों की योजना बनाने वालों ने ईद की नमाज़ के वक़्त मस्जिद में सूअर हांक दिया था . दंगा करवाने वाले इसी तरह के काम कर सकते हैं . हो सकता है कि कुछ नए तरीके भी ईजाद करें . कोशिश की जानी चाहिए कि मुसलमान इस तरह के किसी भी भड़काऊ काम को नज़र अंदाज़ करें . क्योंक दंगों में सबसे ज्यादा नुकसान मुसलमान का ही होता है . जहां तक फायदे की बात है वह बी जे पी का होगा क्योंकि साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के बाद वोटों की खेती लहलहाती है .इस लिए दंगों को रोकने की किसी भी योजना को नाकाम करना आज की सबसे बड़ी प्राथमिकता होनी चाहिए .
धार्मिक ध्रुवीकरण का सबसे ज़्यादा नुकसान मुसलमानों को ही होता है . बाबरी मस्जिद की तबाही के बाद बहुत सारे दंगे कराये गए . लेकिन अभी तक कानून की तरफ से सज़ा किसी को नहीं मिली .संविधान में पूजा स्थल को नुकसान पहुंचाने को अपराध माना गया है और भारतीय दंड संहिता में इस अपराध की सजा है। अदालत में मुकदमा चलता है लेकिन अपराधियों को माकूल सजा कभी नहीं मिलती . बाबरी मस्जिद के नाम पर राजनीति करने वालों ने बहुत सारे ऐसे अपराध किए हैं जिनकी सजा इंसानी अदालतें नहीं दे सकतीं। बाबरी मस्जिद को ढहाने वालों ने परवरदिगार की शान में गुस्ताखी की है, उसके बंदों की भावनाओं को ठेस पहुंचाई है। आर.एस.एस. से जुड़े जिन लोगों ने बाबरी मस्जिद को शहीद करने की साजिश रची, उनको न तो इतिहास कभी माफ करेगा और न ही राम उन्हें माफी देंगे।देश की हिंदू जनता की भावनाओं को भड़काने के लिए आडवानी और उनके साथियों ने भगवान राम के नाम का इस्तेमाल किया। उन्हीं राम का जो सनातनधर्मी हिंदुओं के आराध्य देव हैं जिन्होंने कहा है कि 'पर पीड़ा सम नहिं अधमाई। यानी दूसरे को तकलीफ देने से नीच कोई काम नहीं होता। राम के नाम पर रथ यात्रा निकालकर सीधे सादे हिंदू जनमानस को गुमराह करने का जो काम आडवाणी ने किया था जिसकी वजह से देश दंगों की आग में झोंक दिया गया था उसकी सजा आडवाणी को अब मिल चुकी है। प्रधानमंत्री बनने के अपने सपने को पूरा करने के उद्देश्य से आडवाणी ने पिछले तीस वर्षों में जो दुश्मनी का माहौल बनाया उसका उनको राजनीतिक लाभ नहीं मिला . प्रधानमंत्री पद का सपना एक खौफनाक ख्वाब बन गया है।वे प्रधानमंत्री तो नहीं ही बन सके,उनका नाम अब किसी को अपमानित करने के मुहावरे की तरह इस्तेमाल होता है .
बाबरी मस्जिद के नाम पर मुसलमानों की सियासत करने वालों का भी कहीं अता पता
नहीं है . बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के ज्यादातर नेता आज गुमनामी की जिंदगी बिता रहे हैं हालांकि उन्होंने सियासी बुलंदी हासिल करने के लिए एक ऐतिहासिक मस्जिद के इर्द-गिर्द अपने तिकड़म का ताना बना बुना था। मुसलमानों के स्वयंभू नेता बनने के चक्कर में इन तथाकथित नेताओं ने उन हिंदुओं को भी नाराज करने की कोशिश की थी जो मुसलमानों के दोस्त हैं। शुक्र है उस पाक परवरदिगार का जिसने इस देश के धर्मनिरपेक्ष हिंदुओं को यह तौफीक दी कि वे आर.एस.एस. के चक्कर में नहीं फंसे वरना इन लोगों ने तो कोई कसर नहीं छोड़ी थी। सच्चाई यह है कि बाबरी मस्जिद अयोध्या में चार सौ साल से मौजूद थी, लेकिन उसके नाम पर सियासत का सिलसिला 1948 से शुरू हुआ जो मस्जिद की शहादत के बाद भी जारी है। इस सियासत का सबसे ज्यादा नुकसान मुसलमानों को हुआ है . देश की राजनीति में पहली बार ऐसा हुआ है कि सत्ताधारी पार्टी मुसलमानों के विरोध को राजनीतिक अभियान की बुनियाद बनाकर चुनाव जीत रही है . इसलिए मुसलमानों के असली नेताओं को सामने आना पडेगा और देश की सियासत में हाशिये पर धकेले जा रही कौम को एकजुट करके सामाजिक,आर्थिक और राजनीतिक तरक्की की राह को आसान करना पडेगा .अगर संविधान बदलने में आर एस एस को सफलता मिली तो मुसलमानों का सबसे ज्यादा नुक्सान होगा
नहीं है . बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के ज्यादातर नेता आज गुमनामी की जिंदगी बिता रहे हैं हालांकि उन्होंने सियासी बुलंदी हासिल करने के लिए एक ऐतिहासिक मस्जिद के इर्द-गिर्द अपने तिकड़म का ताना बना बुना था। मुसलमानों के स्वयंभू नेता बनने के चक्कर में इन तथाकथित नेताओं ने उन हिंदुओं को भी नाराज करने की कोशिश की थी जो मुसलमानों के दोस्त हैं। शुक्र है उस पाक परवरदिगार का जिसने इस देश के धर्मनिरपेक्ष हिंदुओं को यह तौफीक दी कि वे आर.एस.एस. के चक्कर में नहीं फंसे वरना इन लोगों ने तो कोई कसर नहीं छोड़ी थी। सच्चाई यह है कि बाबरी मस्जिद अयोध्या में चार सौ साल से मौजूद थी, लेकिन उसके नाम पर सियासत का सिलसिला 1948 से शुरू हुआ जो मस्जिद की शहादत के बाद भी जारी है। इस सियासत का सबसे ज्यादा नुकसान मुसलमानों को हुआ है . देश की राजनीति में पहली बार ऐसा हुआ है कि सत्ताधारी पार्टी मुसलमानों के विरोध को राजनीतिक अभियान की बुनियाद बनाकर चुनाव जीत रही है . इसलिए मुसलमानों के असली नेताओं को सामने आना पडेगा और देश की सियासत में हाशिये पर धकेले जा रही कौम को एकजुट करके सामाजिक,आर्थिक और राजनीतिक तरक्की की राह को आसान करना पडेगा .अगर संविधान बदलने में आर एस एस को सफलता मिली तो मुसलमानों का सबसे ज्यादा नुक्सान होगा
No comments:
Post a Comment