शेष नारायण सिंह
कांग्रेस का एक और अधिवेशन समाप्त हो गया . अध्यक्ष के रूप में राहुल गांधी का यह पहला अधिवेशन था .उनके परिवार में कांग्रेस का अध्यक्ष होने की परम्परा रही है . आज से करीब एक सौ साल पहले उनके पूर्वज मोतीलाल नेहरू को १९१९ में अमृतसर में हुए कांग्रेस अधिवेशन में अध्यक्ष बनाया गया था . वह भारतीय राजनीति का बहुत ही महत्वपूर्ण दौर है . महात्मा गांधी का भारतीय राजनीति में आगमन हो चुका था. उन दिनों कभी कभी साल में दो बार कांग्रेस का अधिवेशन होता था .मसलन १९१८ और १९२० में कांग्रेस का सत्र दो बार बुलाया गया . १९२९ औत १९३० में जवाहरलाल नेहरू लगातार कांग्रेस के अध्यक्ष बनाए गए थे. इसी अधिवेशन में पूर्ण स्वराज और दांडी मार्च के फैसले लिए गए थे.
लेकिन तब से अब तक यमुना में बहुत पानी बह चुका है. गांधी-नेहरू-पटेल की कांग्रेस का पूरा कायाकल्प हो चुका है. जब १९६९ में कांग्रेस में पहली टूट हुयी थी,तो इंदिरा गांधी के युग की शुरुआत हो गयी थी. उसके बाद तो उन्होंने कांग्रेस को अपने नाम से ही चलाया . इंदिरा कांग्रेस बनने तक कांग्रेस अध्यक्ष बनना बहुत बड़ी बात मानी जाती थी. इंदिरा जी के बाद तो उनकी मर्जी का कोई नेता या उनके परिवार का कोई सदस्य कांग्रेस अध्यक्ष बनता रहा. कांग्रेस का मौजूदा अधिवेशन भी करीब आठ साल बाद बुलाया गया है . राहुल गांधी अध्यक्ष बन गए और उन्होने ज़ोरदार भाषण दिया . लोग उम्मीद कर रहे हैं कि उनका कार्यकर्ता इसके बाद बहुत उत्साहित होगा . उत्साहित होगा भी ,जहाँ कांग्रेस एक मज़बूत राजनीतिक पार्टी के रूप में पहचानी जाती है लेकिन कई राज्यों में तो कांग्रेस बहुत ही कमज़ोर राजनीतिक दल के रूप में पहचानी जाती है . इसलिए उन राज्यों में कांग्रेस कार्यकर्ता उत्साहित कहाँ होगा . इन राज्यों में कांग्रेस कार्यकर्ता हर गली मोहल्ले में मौजूद ही नहीं है . उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों से तो कांग्रेस कार्यकर्ता गायब ही है .पूर्वोत्तर भारत में कभी हर राज्य में कांग्रेस की सरकार हुआ करती थी लेकिन अब एकाध राज्य के अलावा कहीं नहीं है .आन्ध्र प्रदेश और तेलंगाना में भी कांग्रेस हाशिये पर है .इसलिए राहुल गांधी वाली कांग्रेस वर्तमान सत्ताधारी पार्टी ,बीजेपी को चुनौती नहीं दे सकती है . लेकिन अजीब बात है कि राहुल गांधी अभी भी भावी प्रधानमंत्री के रूप में आचरण करते पाए जाते हैं. यही नहीं बीजेपी भी उनको मुख्य विपक्षी मानकर कांग्रेस को ही लक्ष्य बनाकर हमला कर रही है . हालांकि यह भी सच है कि राहुल गांधी के भाषणों में आजकल बीजेपी को प्रभावशाली तरीके से निशाना बनाया जाता है . बीजेपी सरकार के चार साल के कामकाज पर जब राहुल गांधी हिसाब मांगते हैं तो सरकारी पार्टी में चिंता साफ देखी जा सकती है .कांग्रेस अधिवेशन में उठाये गये उनके सवालों का जवाब देना बीजेपी के लिए बहुत ही मुश्किल पड़ रहा है. अक्सर देखा गया है कि राहुल गांधी के सवालों का जवाब देने के लिए कई कई मंत्रियों को उतारा जाता है और मीडिया में बाकायदा अभियान चलाया जाता है लेकिन महंगाई, हर साल दो करोड़ नौकरियाँ , राफेल सौदा आदि ऐसे सवाल हैं जिनपर बीजेपी किंकर्तव्यविमूढ़ नज़र आ रही है . इस सब के बावजूद भी यह तय है कि राहुल गांधी की कांग्रेस सत्ताधारी बीजेपी को राष्ट्रीय स्तर पर चुनौती नहीं दे सकती .
इसका मतलब यह कतई नहीं है कि बीजेपी को २०१९ में चुनौती नहीं मिलेगी . २७२ का लक्ष्य हासिल करने के लिए पार्टी को उत्तर प्रदेश ,बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र आदि ज़्यादा एम पी भेजने वाले राज्यों में कठिन मेहनत करनी पड़ेगी . लेकिन फूलपुर और गोरखपुर उपचुनावों एक बाद जो संकेत मिल रहे हैं, वह भारतीय जनता पार्टी के लिए बहुत ही चिंताजनक हैं. गोरखपुर में बीजेपी का उम्मीदवार नहीं हारा है , वहां शुद्ध रूप से राज्य का मुख्यमंत्री हारा है. बीजेपी उम्मीदवार का तो नाम भी बहुत कम लोगों को मालूम था . फूलपुर में भी हारने वाला कोई कार्यकर्ता या छुटभैया नेता नहीं , राज्य का उपमुख्यमंत्री है. दोनों ही उपचुनावों में सत्ताधारी पार्टी की सारी ताक़त लगी हुयी थी. संकेत साफ़ है कि अगर समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी एक साथ मिलकर चुनाव लड़ेगें तो उत्तर प्रदेश से बीजेपी के उतने सांसद नहीं जीतेंगें जितने २०१९ में जीते थे. . एक बात और सच है कि इन दोनों ही चुनावों में कांग्रेस की औकात रेखांकित हो गयी है . यह तय है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की चुनावी हैसियत नगण्य है. जिस फारमूले से यह दोनों उपचुनाव विपक्ष ने जीता है , अगर वही तरीका २०१९ में भी अपना लिया गया तो बीजेपी के लिए अपनी मौजूदा ७३ सीटों की संख्या तक पंहुचना मुश्किल होगा. समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने अगर सीटों का तालमेल कर लिया तो उत्तर प्रदेश में बीजेपी को बड़ा घाटा हो सकता है . यही हाल बिहार का भी है . बिहार में भी बीजेपी को कांग्रेस से कोई चुनौती नहीं मिलने वाली है . कांग्रेस की वहां भी स्थिति उत्तर प्रदेश जैसी ही है . लालू यादव के जेल में होने के बाद हुए उपचुनावों में उनकी पार्टी ने जिस तरह से अपनी सीटें बरक़रार रखा है ,उससे साफ है कि नीतीश कुमार को तोड़कर बीजेपी राज्य सरकार में शामिल तो भले ही हो गयी हो लेकिन २०१९ में यह साथ बहुत फायदा नहीं पंहुचाने वाला है . ओडीशा में भी बीजेपी का मुकाबला वहाँ के लोकप्रिय मुख्यमंत्री नवीन पटनायक से होगा . वहां कांग्रेस को मुख्य विपक्षी दल के रूप में चुनाव लड़ना पडेगा .ज़ाहिर है , वहां से भारतीय जनता पार्टी को बहुत उम्मीद रखना अति आशावाद ही माना जाएगा . कर्णाटक में बीजेपी ने पूर्व मुख्यमंत्री येदुरप्पा को कमान सौंपी है लेकिन वहां भी राजनीतिक खेल बहुत उलझ गया है . उन्होंने पिछले चुनावों में बीजेपी से अलग होकर चुनाव लड़ा था और भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवारों को हराने में योगदान किया था . इसी वजह से उनके प्रति बीजेपी के कार्यकर्ताओं में खासी नाराज़गी है . येदुरप्पा पर आरोप लग रहे हैं कि वे उन बीजेपी कार्यकर्ताओं को टिकट आदि में ज्यादा महत्व दे सकते हैं जो उनके साथ बीजेपी छोड़कर चले गए थे और येदुरप्पा की जेबी पार्टी से चुनाव लड़ गए थे .उनके मुकाबले कांग्रेस के सिद्दरमैया हैं जो चुनावी गणित के उस्ताद हैं . ताज़ा जानकारी यह है कि उन्होंने बीजेपी के सबसे मज़बूत वोट बैंक लिंगायत समुदाय को अपने पक्ष में करने के लिए ज़बरदस्त शतरंजी चाल चल दी है . लिंगायत उनके साथ आते हैं कि नहीं ,यह तो वक़्त ही बताएगा लेकिन यह तय है कुछ न कुछ उठापटक तो होगी ही और बीजेपी की मुश्किलें बढेंगी . अभी तक कर्णाटक में बी एस येदुरप्पा लिंगायतों के सबसे बड़े राजनीतिक नेता हैं. माना जाता है कि लिंगायतों के चक्कर में ही बीजेपी आलाकमान ने उनको दोबारा पार्टी में लाकर मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार बना दिया था . येदुरप्पा आजकल बहुत ही चिंतित व्यक्ति हैं . लिंगायतों की बहुत पुरानी मांग को ऐन चुनाव के पहले मुद्दा बनाकर सिद्दरमैया ने उनकी मुश्किलें बहुत बढ़ा दी हैं. बीजेपी की कर्णाटक में संभावित जीत के लिए पार्टी को लिंगायतों का एक मुश्त वोट मिलना चाहिए लेकिन सिद्दरमैया ने लिंगायतों को अल्पसंख्यक धर्म बनाने के पासा फेंककर खेल को जटिल बना दिया है .
लिंगायत धर्म के मानने वाले अपने धर्म को विकसित और वैज्ञानिक धर्म कहते हैं . पारंपरिक हिंदू धर्म में वर्णाश्रम धर्म की व्यवस्था है . जिसमें उंच नीच का भाव समाहित है . ब्राह्मण , क्षत्रिय ,वैश्य और शूद्र में बंटा हिन्दू समाज एक नहीं रह गया था . इस समाज व्यवस्था में लिंगायतों के बारहवीं सदी के ऋषि बसवेश्वर ने बदल दिया और वर्गीकरण की व्यवस्था को हटा दिया। उनके अनुयायियों को ही लिंगायत मना जाता है . इस तरह जातियों की राजनीति के ज़रिये सिद्दरमैया करनाटक में कांग्रेस की जीत सुनिश्चित करना चाहते हैं . अगर ऐसा हुआ तो कर्नाटक से भी बीजेपी को मुश्किल का सामना करना पड़ सकता है .करनाटक के अलावा बीजेपी को मध्य प्रदेश, राजस्थान ,पंजाब , महा राष्ट्र ,गुजरात और कश्मीर में कांग्रेस से चुनौती मिल सकती है. जबकि उत्तर प्रदेश ,बिहार, आंध्र प्रदेश ,तेलंगाना, में क्षेत् रीय पार्टियां बीजेपी को दिल्ली की सत्ता तक पंहुचने से रोकने की कोशिश करेंगीं.इसलिए यह साफ़ तरीके से कहा जा सकता है कि २०१९ में बीजेपी के खिलाफ कांग्रेस की भूमिका एक राष्ट्रीय दल की नहीं क्षेत्रीय दल की होगी. हालांकि राहुल गांधी अभी भी अपने चेलों को मुख्य भूमिका देने के चक्कर में रहते देखे जा रहे हैं लेकिन अब सोनिया गांधी ने रणनीतिक दखल देनी शुरू कर दिया है और इस बात का अंदाज़ लगने लगा है कि सत्ताधारी पार्टी को अलग अलग इलाकों में अलग अलग पार्टियों और अलग तरीकों से चुनौती मिलने वाली है . कुछ भी हो फूलपुर और गोरखपुर उपचुनावों ने २०१९ के लिए राजनीतिक विमर्श की दिशा बदल दी है . और अब दिल्ली में विपक्ष की राजनीति के पुरोधा यह बात मंद मंद ही सही लेकिन कहने लगे हैं कि अलग अलग राज्यों में वहां की मज़बूत पार्टियां बीजेपी को घेरेंगी और सत्ता की तिकड़मबाज़ी नतीजे आने के बाद होगी . पी वी नरसिंह राव के प्रधानमंत्रित्व में कांग्रेस की चुनावी हार के बाद जिस तरह से देवेगौड़ा जैसे नेता को प्रधानमंत्री बाण दिया गया था , उस संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता . जहां तक नरेंद्र मोदी की बात है ,कांग्रेस के कमज़ोर और सिमट जाने के बाद यह लगभग तय है कि उनको पूरे भारत में कोई एक नेता चुनौती नहीं दे सकता .