Wednesday, July 5, 2017

दास्तान-ए-पाकिस्तान : अमरीका से गिरा ,चीन पर अंटका



शेष नारायण सिंह  
प्रधानमंत्री नरेंद्र  मोदी की ताज़ा अमरीका यात्रा को भारत में आम तौर पर एक ऐसी यात्रा के रूप में देखा जा रहा है  जिसके बाद अमरीकी अर्थव्यवस्था को तो तो फायदा हुआ  है लेकिन भारत को उम्मीद से बहुत कम मिला है .  लेकिन सरहद के पर पाकिस्तान में उनकी यात्रा से पाकिस्तानी नीति निर्धारकों में घबडाहट है .व्हाइट हाउस में मोदी-ट्रंप मुलाक़ात के दौरान जिस तरह से  प्रधानमंत्री ने अमरीकी राष्ट्रपति को गले लगाया उसके बाद पाकिस्तानी विदेश नीति के हलकों में खासी चिंता देखी जा रही है . हिजबुल मुजाहिदीन के मुखिया सैयद सलाहुद्दीन को  अंतर राष्ट्रीय आतंकी घोषित किये जाने से भी पाकिस्तान को परेशानी हो रही है क्योंकि वहां सलाहुद्दीन को सरकारी तबकों में इज्ज़त की निगाह से देखा जाता है . पूर्व राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ तो उसको पीर साहेब कहते थे .भारत और अमरीका की बढ़ती दोस्ती का एक नतीजा यह भी है कि अब  पाकिस्तान लगभग पूरी तरह से चीन की  भारत नीति का एक पुर्जा होता जा रहा है . जिस तरह से  पहले ज़माने में वह दक्षिण एशिया में अमरीकी  विदेश नीति के लक्ष्यों को पूरा करने  का मुख्य एजेंट हुआ करता था  ,उतनी ही वफादारी से अब पाकिस्तान चीन की हित साधना का यंत्र बन गया है . साथ ही  पाकिस्तान में इस बात पर भी चिंता जताई जा रही है कि अमरीका अब भारत की तरफ  ज़्यादा खिंच रहा है . जिसका भावार्थ यह  है कि अब वह पाकिस्तान  से पहले से अधिक दूरी बना लेगा. जो पाकिस्तान अपने अस्तित्व में आने के साथ से ही  अमरीका का बहुत ही प्रिय देश रहा हो और  भारत  के खिलाफ अमरीका से  मदद भी लेता रहा हो उसको भारत का दोस्त बनते देख पाकिस्तान सरकार में चिंता बढ़ रही है  और वह मीडिया के ज़रिये साफ़ नज़र आ  रही है और पाकिस्तान की राजनीति पैर नज़र रखने वाले किसी भी व्यक्ति को बिलकुल साफ़ तौर पर दिख रही  है ..
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमरीका यात्रा और उसके बाद जारी हुए संयुक्त बयान के बाद स्पष्ट हो गया है कि   राष्ट्रपति ट्रंप भारत-पाक संबंधों के मामले में भारतीय  पक्ष को महत्व दे रहे हैं . पिछले सत्तर वर्षों में पाकिस्तानी हुक्मरान ने ऐसा माहौल बना रखा है कि जैसे कश्मीर पर पाकिस्तान का अधिकार स्थापित करना ही पाकिस्तानी राजनीति का प्रमुख आधार हो . उनके इस अभियान में अमरीका की  मदद भी मिलती रही है . लेकिन पिछले कुछ वर्षों से अमरीका की भारत से  दोस्ती बढना शुरू हो गयी है  और जब  मोदी-ट्रंप बातचीत के बाद तस्वीर  सामने आयी तो ऐसा लगने लगा कि अब अमरीका   क्षेत्रीय आतंकवाद के मुद्दे पर भारत की बात को ज़्यादा सही मान रहा है .
पाकिस्तान की सरकार की वह उम्मीद भी अब ख़त्म हो गयी है जिसके तहत वह अपने लोगों को यह बताता रहता था  कि कश्मीर के मामले में  अमरीका बिचौलिए की भूमिका निभाएगा . यहाँ  तक कि जब अमरीका ने पाकिस्तानी  कश्मीर नीति के ख़ास हिस्सा बन चुके ,सैयद सलाहुद्दीन को अंतर राष्ट्रीय आतंकी घोषित किया तो कुछ पाकिस्तानी पत्रकारों ने कहना शुरू कर दिया कि इसी बहाने अमरीका  भारत और कश्मीर के बीच सुलह कराने के लिए बिचौलिया बनना चाहता है. लेकिन  वक़्त बीत रहा है और  तस्वीर और ज्यादा साफ़ होती जा रही  है . पाकिस्तानी अखबारों में अब अमरीका की बात बहुत ही साफ़ शब्दों  में छपने लगी है . अमरीकी विदेश विभाग के प्रवक्ता  का वह बयान भी प्रमुखता से छपा है जिसमें कहा गया  है कि  "  कश्मीर पर किसी भी बातचीत की रफ़्तार स्कोप और उसका चरित्र दोनों  ही पक्षों को तय करना है लेकिन हम ( अमरीका ) हर उस सकारात्मक क़दम का समर्थन करते हैं जो दोनों पक्ष अच्छे रिश्ते बनाने की दिशा में बढाते हैं " . यह बयान पाकिस्तानी पत्रकारों के सवाल के उस सवाल के जवाब में मिला है जो उन्होंने अमरीकी प्रवक्ता से पूछा था . ज़ाहिर है कि अमरीका या  किसी भी देश  को कश्मीर मामले में दखल देने  के लिए तैयार करने की पाकिस्तानी कोशिश को ज़बरदस्त झटका  एक बार फिर लग गया   है और दुनिया भर में भारत  के  दृष्टिकोण को ही मान्यता मिल रही है क्योंकि भारत मानता  है कि कश्मीर समस्या  के हल के लिए किसी की भी मध्यस्थता को स्वीकार नहीं किया जा सकता है . हालांकि शिमला समझौते में पाकिस्तान ने भी माना था कि आपसी बातचीत से ही द्विपक्षीय  समस्याओं का हल निकला जाएगा लेकिन उसके बाद से उसकी सभी   सरकारों ने शिमला समझौते का उल्लंघन किया  है .
अमरीका के भारत की तरफ झुक जाने का नतीजा  है कि पाकिस्तानी सरकार अब चीन पर पूरी तरह से निर्भर होती जा रही है . विदेश नीति का  बहुत पुराना मंडल सिद्धांत है  कि दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है.  पाकिस्तान की मौजूदा विदेश नीति भारत और चीन के बीच कथित दुश्मनी की बुनियाद पर ही टिकी है . शायद इसीलिये चीन के विदेश मंत्री के स्वागत के मौके पर पाकिस्तान के विदेशी मामलों के मुख्य सलाहकार सरताज अज़ीज़ ने कहा कि " पाकिस्तान का चीन  से जो सम्बन्ध  है वह हमारी विदेशनीति का मुख्य स्तम्भ है ." उनके इस बयान के बाद अमरीकी मीडिया ने इस बात को मुकम्मल तरीके से घोषित कर दिया है  कि एशिया में पाकिस्तान की नीतियों में बहुत बड़ा बदलाव  आ चुका है .
अब पाकिस्तान के नेता  चीन की हर बात मानने के लिए अभिशप्त नज़र आते हैं लेकिन उनको  भारत के खिलाफ अपने अभियान में चीन से बहुत उम्मीद नहीं करना चाहिए .इसलिए पाकिस्तानी हुक्मरान ,खासकर फौज को वह बेवकूफी नहीं करनी चाहिए जो१९६५ में जनरल अयूब ने की थी . १९६५ के भारत-पाकिस्तान युद्ध के पहले उनको लगता था कि जब वे भारत पर हमला कर देगें तो चीन भी भारत पर हमला कर देगा क्योंकि तीन साल पहले ही भारत और चीन केबीच सीमा पर संघर्ष हो चुका था. जनरल को उम्मीद थी कि उसके बाद  भारत कश्मीर उन्हें दे देगा. ऐसा कुछ भी नहीं हुआ और पाकिस्तानी फौज़ लगभग तबाह हो गयी. भारत के खिलाफ किसी भी देश से मदद मिलने की उम्मीद करना पाकिस्तानी फौज की बहुत बड़ी भूल होगी. लेकिन सच्चाई यह है कि पाकिस्तानी फौज़ के सन इकहत्तर की लड़ाई के हारे हुए अफसर बदले की आग में जल रहे हैं वहां की तथाकथित सिविलियन सरकार पूरी तरह से फौज के सामने नतमस्तक है . कश्मीर में आई एस आई ने हालात को बहुत खराब कर दिया है .  हालांकि यह भी सच है कि चीन अपने व्यापारिक हितों के लिए  पाकिस्तान का इस्स्तेमाल कर रहा  है . हिन्द महासागर में अपनी सीधी पंहुंच बनाना चीन का  हमेशा से सपना रहा है और अब पाकिस्तान ने  पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के रास्ते ,अपने कब्जे वाले बलोचिस्तान तक सड़क बनाने और समुद्र पर बंदरगाह बनाने की अनुमति दे कर उसका वह सपना पूरा कर   दिया  है . जानकार बताते हैं कि अब पाकिस्तान के लिए चीन से पिंड छुड़ाना बहुत मुश्किल होगा क्योंकि पश्चिम एशिया और हिन्द महासागर क्षेत्र में में चीनी मंसूबों को पूरा करने के लिए इस बंदरगाह का बहुत ही अधिक महत्व है .
चीन की तरफ इस्लामाबाद की बढ़ती मुहब्बत से किसी को कोई ताज्जुब नहीं हो रहा  है. पाकिस्तान सरकार में कई महीनों से इस बात की चिंता बढ़ रही थी कि अमरीका कहीं उसको आतंक का प्रायोजक देश न घोषित कर दे क्योंकि अफगानिस्तान  की तरफ से इस तरह की मांग लगातार उठ रही है . इस डर का कारण यह है कि अफगानिस्तान में मौजूद अमरीकी सेना के बड़े अफसर ,  पाकिस्तान में रूचि लेने वाले अमरीकी नेता और अफगान सरकार इस बात को जोर देकर कहते रहे हैं कि पाकिस्तान सरकार की  ओर से  अफगानिस्तान विरोधी आतंकवादियों को बढ़ावा दिया जा रहा  है  और उनको पाकिस्तान के अन्दर मौजूद आतंकी कैम्पों में ट्रेनिंग भी दी जा रही है.
इस बात में दो राय नहीं है कि पाकिस्तान  सरकार  अब चीन की विदेश नीति  में एक महत्वपूर्ण भूमिका रखती है . प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति ट्रंप की मुलाक़ात से जो दोस्ती के संकेत निकल रहे थे उससे  पाकिस्तानी   हुकूमत में  जो  चिंता थी उसको कम करके पेश करने की लगातार कोशिश चल रही  है . चीन के विदेशमंत्री की  पाकिस्तान यात्रा और उनकी सेवा में पूरी सरकार का लग जाना  भारत-अमरीका  दोस्ती  के असर से मुक्त होने की कोशिश भी है .  पाकिस्तानी विदेश विभाग ने साफ़ कहा है कि अगर अमरीका भारत से दोस्ती बढाता  है तो दक्षिण एशिया में शान्ति की कोशिशों को नुक्सान होगा .. पाकिस्तान इस बात से बहुत  नाराज़  है कि नरेंद्र मोदी और दोंल्ड ट्रंप ने  क्षेत्रीय आतंकवाद पर काबू करने की बात पर जोर दिया . दक्षिण एशिया में  क्षेत्रीय आतंकवाद को पाकिस्तानी  संरक्षण में  पल रहे आतंकवाद को ही कहा जाता है . पाकिस्तान में यह भी माना जा रहा है कि सलाहुद्दीन को आतंकी घोषित करना  भी भारत को खुश करने के लिए किया जा रहा है . पाकिस्तान के आतंरिक   मालों के मंत्री  चौधरी निसार अली खान ने कहा है कि संयुक्त राज्य ने " भारत की ज़बान बोलना शुरू कर दिया है ." पाकिस्तान ने अपनी नाराजगी को अमरीकी अधिकारियों के सामने जता भी दिया है . उसको शिकायत है कि १९६० से अब तक अमरीका ने भारत पर हुए हर आक्रमण में पाकिस्तानी सेना की मदद की है लेकिन इस  बार उसने भारत को ड्रोन और अन्य हाथियार दे दिया है जो हर हाल में पाकिस्तान के  खिलाफ ही इस्तेमाल होगा.
पाकिस्तानी अखबारों में इस बात पर भी चिंता  जताई जा रही है कि पाकिस्तान आर्थिक  मामलों में चीन पर बहुत ही अधिक निर्भर होता जा रहा है और उससे बहुत जयादा उम्मीदें पाल रखी  हैं . जबकि चीन पाकिस्तान में केवल लाभकारी  पूंजी निवेश कर रहा है और विश्व में अपने को ताक़तवर दिखाने के लिए पाकिस्तान की भौगोलिक स्थिति   का फायदा ले रहा है . अफगानिस्तान में पाकिस्तान की हनक को  बढ़ाने की पाकिस्तानी फौज की कोशिश को चीन कोई तवज्जो नहीं दे रहा है  . कुल मिलाकर  कभी अमरीका का कारिन्दा रहा पाकिस्तान अब चीन की तरफ बहुत तेज़ी से बढ़ रहा है लेकिन उसको वहां भी कोई महत्व नहीं  मिल रहा है जबकि  अमरीका अब भारत का करीबी होता जा रहा है .

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