शेष नारायण सिंह
नीम की चर्चा होते ही पता नहीं क्या होता है कि मैं अपने गांव पंहुंच जाता हूँ. बचपन की पहली यादें ही नीम से जुडी हुयी हैं . मेरे गाँव में नीम एक देवी के रूप में स्थापित हैं, गाँव के पूरब में अमिलिया तर वाले बाबू साहेब की ज़मीन में जो नीम का पेड़ है ,वही काली माई का स्थान है . गाँव के बाकी नीम के पेड़ बस पेड़ हैं . लेकिन उन पेड़ों में भी मेरे बचपन की बहुत सारी मीठी यादें हैं . मेरे दरवाज़े पर जो नीम का पेड़ था , वह गाँव की बहुत सारी गतिविधियों का केंद्र था . सन २००० के सावन में जब बहुत तेज़ बारिश हो रही थी, तो चिर्री पड़ी , लोग बताते हैं कि पूरे गाँव में अजोर हो गया था , बहुत तेज़ आवाज़ आई थी और सुबह जब लोगों ने देखा तो मेरे दरवाज़े की नीम का एक ठासा टूट कर नीचे गिर गया था. मेरे बाबू वहीं पास में बने मड़हे में रात में सो रहे थे. उस आवाज़ को सबसे क़रीब से उन्होंने ही सुना था. कान फाड़ देने वाली आवाज़ थी वह . चिर्री वाले हादसे के बाद नीम का पेड़ सूखने लगा था. अजीब इत्तिफाक है कि उसके बाद ही मेरे बाबू की जिजीविषा भी कम होने लगी थी. फरवरी आते आते नीम के पेड सूख गया . और उसी २००१ की फरवरी में बाबू भी चले गए थे . जहां वह नीम का पेड़ था , उसी जगह के आस पास मेरे भाई ने नीम के तीन पेड़ लगा दिए है , यह नीम भी तेज़ी से बड़े हो रहे हैं .
इस नीम के पेड़ की मेरे गाँव के सामाजिक जीवन में बहुत महत्व है .इसी पेड़ के नीचे मैंने और मेरे अज़ीज़ दोस्त बाबू बद्दू सिंह ने शरारतें सीखीं और उनका अभ्यास भी किया . जाड़ों में धूप सबसे पहले इसी पेड़ के नीचे बैठ कर सेंकी जाती थी. पड़ोस के कई बुज़ुर्ग वहां मिल जाते थे . टिबिल साहेब और पौदरिहा बाबा तो धूप निकलते ही आ जाते थे. बाकी लोग भी आते जाते रहते थे. मेरे बाबू के काका थे यह दोनों लोग . बहुत आदरणीय इंसान थे. हुक्का भर भर के नीम के पेड़ के नीचे पंहुचाया जाता रहता था. घर के तपता में आग जलती रहती थी. इन दोनों ही बुजुर्गों का असली नाम कुछ और था लेकिन सभी इनको इसी नाम से जानते थे. टिबिल साहेब कभी उत्तर प्रदेश पुलिस में कांस्टेबिल रहे थे , १९४४ में रिटायर हो गए थे , और मेरे पहले की पीढी भी उनको इसी नाम से जानती थी. पौदरिहा का नाम इस लिए पड़ा था कि वे गाँव से किसी की बरात में गए थे तो इनारे की पौदर के पास ही खटिया डाल कर वहीं सो गए थे . किसी घराती ने उनको पौदरिहा कह दिया और जब बरात लौटी तो भाइयों ने उनका यही नाम कर दिया . इन्हीं मानिंद बुजुर्गों की छाया में हमने शिष्टाचार की बुनियादी बातें सीखीं थीं.
मेरी नीम की मज़बूत डाल पर ही सावन में झूला पड़ता था. रात में गाँव की लडकियां और बहुएं उस पर झूलती थीं और कजरी गाती थीं. मानसून के समय चारों तरफ झींगुर की आवाज़ के बीच में ऊपर नीचे जाते झूले पर बैठी हुयी कजरी गाती मेरे गाँव की लडकियां हम लोगों को किसी भी महान संगीतकार से कम नहीं लगती थीं. जब १९६२ में मेरे गाँव में स्कूल खुला तो सरकारी बिल्डिंग बनने के पहले इसी नीम के पेड़ के नीचे ही शुरुआती कक्षाएं चली थीं. धोपाप जाने वाले नहवनिया लोग जेठ की दशमी को थक कर इसी नीम के नीचे आराम करते थे. उन दिनों सड़क कच्ची थी और ज़्यादातर लोग धोपाप पैदल ही जाते थे .
मेरे गाँव में सबके घर के आस पास नीम के पेड़ हैं और किसी भी बीमारी में उसकी पत्तियां , बीज, तेल , खली आदि का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर होता था लेकिन आब नहीं होता. निमकौड़ी बीनने और बटोर कर रखने का रिवाज ही खत्म हो गया है . लेकिन नीम के पेड़ के प्रति श्रद्धा कम नहीं हो रही है .
एक दिलचस्प वाकया है . मेरे बचपन में मुझसे छः साल बड़ी मेरी बहिन ने घर के ठीक सामने नीम का एक पौधा लगा दिया था. उसका विचार था कि जब भाइयों की दुलहिन आयेगी तब तक नीम का पौधा पेड़ बन जाएगा और उसी पर उसकी भौजाइयां झूला डालकर झूलेंगी. अब वह पेड़ बड़ा हो गया है , बहुत ही घना और शानदार . बहिन के भाइयों की दुलहिनें जब आई थीं तो पेड़ बहुत छोटा था . झूला नहीं पड़ सका . अब उनकी भौजाइयों के बेटों की दुलहिनें आ गयी हैं लेकिन अब गाँव में लड़कियों का झूला झूलने की परम्परा ही ख़त्म हो गयी है .इस साल मेरे छोटे भाई ने ऐलान कर दिया कि बहिन वाले नीम के पेड़ से घर को ख़तरा है ,लिहाज़ा उसको कटवा दिया जाएगा . हम लोगों ने कुछ बताया नहीं लेकिन बहुत तकलीफ हुयी . हम चार भाई बहनों के बच्चों को हमारी तकलीफ का अंदाज़ लग गया और उन लोगों ने ऐसी रणनीति बनाई कि नीम का पेड़ बच गया .जब नीम के उस पेड़ पर हमले का खतरा मंडरा रहा था तब मुझे अंदाज़ लगा कि मैं नीम से कितना मुहब्बत करता हूँ .
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