शेष नारायण सिंह
पाकिस्तान में आतंकवाद पूरी दुनिया में चर्चा का विषय बना हुआ है . यूरोप में हुए आतंकी हमलों में ज्यादातर के सूत्र पाकिस्तान से जुड़े हुए होते हैं . इस हफ्ते पाकिस्तान और आतंक के हवाले से दो बड़ी घटनाएं हुईं . एक तो अमरीका ने पाकिस्तान से चलने वाले आतंकवादी संगठन , हिजबुल मुजाहिदीन के मुखिया सैयद सलाहुद्दीन को अंतरराष्ट्रीय आतंकी घोषित कर दिया. अपने मुल्क में इसके बाद बड़ी खुशियाँ मनाई जा रही हैं . लेकिन इसमें बहुत खुश होने की बात नहीं है क्योंकि यह भी संभव है कि अमरीका इसी बहाने कश्मीर के मामले में बिचौलिया बनने के अपने सपने को साकार करने की कोशिश करना चाह रहा हो . इस अनुमान का आधार यह है कि सैयद सलाहुद्दीन पाकिस्तान में अमरीकी प्रशासन का बहुत ही लाड़ला रह चुका है . अमरीकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के दबाव में तत्कालीन पाकिस्तानी राष्ट्रपति जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने एक बार सलाहुद्दीन को भारत के खिलाफ आतंकी हमले बंद करने के लिए तैयार भी कर लिया था . वैसे भी सलाहुद्दीन को अंतरराष्ट्रीय आतंकी घोषित करके अमरीका ने केवल भारत को लालीपाप ही थमाया है . इस घोषणा का मतलब यह है कि अब सलाहुद्दीन अमरीका की यात्रा नहीं कर सकता और अमरीका में कोई बैंक अकाउंट या कोई अन्य संपत्ति नहीं रख सकता . अगर ऐसी कोई संपत्ति वहां होगी तो वह ज़ब्त कर ली जायेगी . पाकिस्तान और कश्मीर में रूचि रकने वाले सभी लोगों को मालूम है कि सलाहुद्दीन का आतंक का धंधा अमरीकी की मदद के बिना भी चलता रहेगा .
दूसरी घटना यह है कि चीन पाकिस्तान के साथ एक बार फिर खड़ा हो गया है .. एक सरकारी बयान में चीन की तरफ से कहा गया है कि ' चीन का विचार है कि आतंकवाद के खिलाफ सहयोग को बढाया जाना चाहिए . अंतरराष्ट्रीय बिरादरी को इस सम्बन्ध में पाकिस्तान की कोशिशों को मान्यता देना चाहिए और उसको समर्थन करना चाहिए. चीन मानता है कि अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के खिलाफ चल रहे युद्ध में पकिस्तान अगले दस्ते में खडा है और इस दिशा में प्रयास कर रहा है '. चीन के बयान का लुब्बो लुबाब यह है कि पाकिस्तान आतंकवाद का समर्थक नहीं बल्कि वह आतंकवाद से पीड़ित है.
चीन का यह बयान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के साझा बयान के बाद या यों कहें कि उसको बेअसर करने के लिए आया है . साझा बयान में कहा गया था कि ' आतंकवाद को ख़त्म करना हमारी ( भारत और अमरीका की ) सबसे बड़ी प्राथमिकता है . हमने आतंकवाद , अतिवाद और बुनियादी धार्मिक ध्रुवीकरण के बारे में बात की . हमारे सहयोग का प्रमुख उद्देश्य आतंकवाद से युद्ध , आतंकियों के सुरक्षित ठिकानों और आतंकी अभयारण्यों को ख़त्म करना भी है .' यह संयुक्त बयान आतंकवाद और पाकिस्तान को जोड़ता हुआ दिखता है . ज़ाहिर है अब अमरीका भी पाकिस्तान में पल रहे आतंकवाद का शिकार है , वरना एक दौर वह भी था जब पाकिस्तान में आतंकवाद को पालना अमरीकी विदेश नीति का हिस्सा हुआ करता था और पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति जिया उल हक १९८० के दशक में आतंकवाद को हवा देने के अमरीकी प्रोजक्ट के मुख्य एजेंट हुआ करते थे .
आतंकवाद को पाकिस्तान में सरकारी नीति के रूप में इस्तेमाल करने के सिलसिला १९८० के दशक में फौजी तानाशाह और चीफ मार्शल लॉ प्रशासक ज़नरल जिया उल हक ने शुरू किया था. उसने आतंकियों की एक बड़ी फौज बनाई थी जो अमरीकी पैसे से तैयार की गयी थी . अमरीका को अफगानिस्तान में मौजूद रूसी सैनकों से लड़ाई के लिए बन्दे चाहिए थे . पाकिस्तान ने अपनी सेना की शाखा आई एस आई के ज़रिये बड़ी संख्या में पाकिस्तानी बेरोजगार नौजवानों को ट्रेनिंग दे कर अफगानिस्तान में भेज दिया था . जब अफगानिस्तान में अमरीका की रूचि नहीं रही तो पाकिस्तान की आई एस आई ने इनको ही भारत में आतंक फैलाने के लिए लगा दिया . सोवियत रूस के विघटन के बाद आतंकवादियों की यह फौज कश्मीर में लग गयी . सलाहुद्दीन उसी दौर की पैदाइश है .कश्मीर में युसूफ शाह नाम से चुनाव लड़कर हारने के बाद वह पाकिस्तान चला गया था और वहां उसको अफगान आतंकी गुलबुद्दीन हिकमतयार ने ट्रेनिंग दी थी. हिकमतयार अल कायदा वाले ओसामा बिन लादेन का ख़ास आदमी हुआ करता था. शुरू में इसका संगठन जमाते इस्लामी का सहयोगी हुआ करता था लेकिन बाद में सलाहुद्दीन ने अपना स्वतंत्र संगठन बना लिया.
चीन के ताज़ा बयान को अगर इस पृष्ठभूमि में देखा जाए तो बात समझ में आती है क्योंकि आज पाकिस्तान में भी खूब आतंकी हमले हो रहे हैं . लेकिन यह भी सच है कि जब अमरीका की मदद से पाकिस्तानी तानाशाह, जिया उल हक आतंकवाद को अपनी सरकार की नीति के रूप में विकसित कर रहे थे , तभी दुनिया भर के समझदार लोगों ने उन्हें चेतावनी दी थी. लेकिन उन्होंने किसी की नहीं सुनी . जनरल जिया ने धार्मिक उन्मादियों और फौज के जिद्दी जनरलों की सलाह से देश के बेकार फिर रहे नौजवानों की एक जमात बनायी थी जिसकी मदद से उन्होंने अफगानिस्तान और भारत में आतंकवाद की खेती की थी .उसी खेती का ज़हर आज पाकिस्तान के अस्तित्व पर सवालिया निशान बन कर खडा हो गया है.. अमरीका की सुरक्षा पर भी उसी आतंकवाद का साया मंडरा रहा है जिसके तामझाम को अमरीका ने ही पाकिस्तानी हुक्मरानों की मदद से स्थापित किया गया था . दुनिया जानती है कि अमरीका का सबसे बड़ा दुश्मन, अल कायदा , अमरीकी पैसे से ही बनाया गया था और उसके संस्थापक ओसामा बिन लादेन अमरीका के ख़ास चेला हुआ करते थे .आज बात बदल गयी है . आज अमरीका में पाकिस्तान को आतंक के मुख्य क्षेत्र के रूप में पहचाना जाता है . जो अमरीका कभी पाकिस्तानी आतंकवाद का फाइनेंसर हुआ करता था वही आज उसके एक सरगना को अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी घोषित कर चुका है .और भारत सरकार के प्रधानमंत्री को यह बताने की कोशिश कर रहा है कि वह कश्मीर के मामले में भारत का सहयोगी बनने को तैयार है .
अब कश्मीर का मसला बहुत जटिल हो गया है . पाकिस्तान कभी नहीं चाहेगा कि वहां की समस्या हल हो. कश्मीर के मसले को जिंदा रखना पाकिस्तानी शासकों की मजबूरी है क्योंकि १९४८ में जब जिनाह की सरपरस्ती में कश्मीर पर कबायली हमला हुआ था उसके बाद से ही भारत के प्रति नफरत के पाकिस्तानी अभियान में कश्मीर विवाद का भारी योगदान रहा है अगर पाकिस्तान के हुक्मरान उसको ही ख़त्म कर देंगें तो उनके लिए बहुत मुश्किल हो जायेगी.
पाकिस्तान की एक देश में स्थापना ही एक तिकड़म का परिणाम है. वहां की एक बड़ी आबादी के रिश्तेदार और आधा परिवार भारत में है .उनकी सांस्कृतिक जड़ें भारत में हैं लेकिन धर्म के आधार पर बने पाकिस्तान में रहने को अभिशप्त हैं . शुरू से ही पाकिस्तानी शासकों ने धर्म के सहारे अवाम को इकठ्ठा रखने की कोशिश की . अब उनको पता चल गया है कि ऐसा सोचना उनकी बहुत बड़ी गलती थी. जब भी धर्म को राज काज में दखल देने की आज़ादी दी जायेगी राष्ट्र का वही हाल होगा जो आज पाकिस्तान का हो रहा है .इसलिए धर्म और गाय के नाम पर चल रहे खूनी खेल की अनदेखी करने वाले भारतीय नेताओं को भी सावधान होने की ज़रूरत है क्योंकि जब अर्धशिक्षित और लोकतंत्र से अनभिज्ञ धार्मिक नेता राजसत्ता को अपने इशारे पर नचाने लगते हैं तो वही होता है जो पाकिस्तान का हाल हो रहा है. धर्म को राजकाज का मुख्य आधार बनाकर चलने वालों में १९८९ के बाद के इरान को भी देखा जा सकता है . ईरान जो कभी आधुनिकता की दौड़ में बहुत आगे हुआ करता था , धार्मिक कठमुल्लों की ताक़त बढ़ने के बाद आज दुनिया में अलग थलग पड़ गया है .
आजकल पाकिस्तान की दोस्ती चीन से बहुत ज़्यादा है लेकिन अभी कुछ वर्ष पहले तक पाकिस्तान में रहने वाला आम आदमी अमरीकी और साउदी अरब की खैरात पर जिंदा था. उन दिनों पाकिस्तान पर अमरीका की ख़ास मेहरबानी हुआ करती थी. आज अमरीकी दोस्ती का हाथ भारत की तरफ बढ़ चुका है और चीन के बढ़ते क़दम को रोकने के लिए अमरीका भारत से अच्छे सम्बन्ध बनाने की फ़िराक में है .आज पाकिस्तान पूरी तरह से अस्थिरता के कगार पर खड़ा है . कभी भारत और बाद में अफगानिस्तान के खिलाफ आतंकवादियों की जमातें तैयार करने वाला पाकिस्तान आज अपनी एकता को बनाये रखने के लिए संघर्ष कर रहा है . अमरीका से दोस्ती और धार्मिक उन्माद को राजनीति की मुख्य धारा में लाकर पाकिस्तान का यह हाल हुआ है . भारत को भी समकालीन इतिहास के इस पक्ष पर नज़र रखनी चाहिए कि कहीं अपने महान देश की हालत अपने शासकों की अदूरदर्शिता के कारण पाकिस्तान जैसी न हो जाए. पाकिस्तान को अमरीका ने इस इलाके में अपने प्रभाव को बनाए रखने के लिये इस्तेमाल किया था , कहीं भारत उसी जाल में न फंस जाए. पाकिस्तान जिस तरह से अपने ही बनाए दलदल में फंस चुका है.और उस दलदल से निकलना पाकिस्तान के अब बहुत मुश्किल है . उसकी मजबूरी का फायदा अब चीन उठा रहा है . पाकिस्तान में चीन भारी विनिवेश कर रहा है . ज़ाहिर है वह पाकिस्तान को उसी तरह की कूटनीतिक मदद कर रहा है जैसी कभी अमरीका किया करता था. १९७१ की बांग्लादेश की लड़ाई में पाकिस्तान ने भारत की सेना को धमकाने के लिए बंगाल की खाड़ी में अपने सातवें बेड़े के युद्धक विमान वाहक जहाज़ ,इंटरप्राइज़ को भेज दिया था. भारत के इतिहास के सबसे मुश्किल दौर ,१९७१ में वह पाकिस्तान को भारत के खिलाफ इस्तेमाल होने के लिए हथियार दे रहा था . एक बड़ा सवाल है कि क्या भारत को अमरीका उसी तरह का सहायक बनना चाहिए जैसा कभी पाकिस्तान हुआ करता था. भारत के राजनयिकों को इस बात को गंभीरता से समझना पडेगा कि कहीं अमरीका सलाहुद्दीन को अंतर राष्ट्रीय आतंकी घोषित करके कश्मीर में हस्तक्षेप करने की भूमिका तो नहीं बना रहा है . सलाहुद्दीन के बहाने अमरीका कश्मीर में बिचौलिया बनने की फ़िराक में तो नहीं है .
शेष नारायण सिंह
पाकिस्तान में आतंकवाद पूरी दुनिया में चर्चा का विषय बना हुआ है . यूरोप में हुए आतंकी हमलों में ज्यादातर के सूत्र पाकिस्तान से जुड़े हुए होते हैं . इस हफ्ते पाकिस्तान और आतंक के हवाले से दो बड़ी घटनाएं हुईं . एक तो अमरीका ने पाकिस्तान से चलने वाले आतंकवादी संगठन , हिजबुल मुजाहिदीन के मुखिया सैयद सलाहुद्दीन को अंतरराष्ट्रीय आतंकी घोषित कर दिया. अपने मुल्क में इसके बाद बड़ी खुशियाँ मनाई जा रही हैं . लेकिन इसमें बहुत खुश होने की बात नहीं है क्योंकि यह भी संभव है कि अमरीका इसी बहाने कश्मीर के मामले में बिचौलिया बनने के अपने सपने को साकार करने की कोशिश करना चाह रहा हो . इस अनुमान का आधार यह है कि सैयद सलाहुद्दीन पाकिस्तान में अमरीकी प्रशासन का बहुत ही लाड़ला रह चुका है . अमरीकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के दबाव में तत्कालीन पाकिस्तानी राष्ट्रपति जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने एक बार सलाहुद्दीन को भारत के खिलाफ आतंकी हमले बंद करने के लिए तैयार भी कर लिया था . वैसे भी सलाहुद्दीन को अंतरराष्ट्रीय आतंकी घोषित करके अमरीका ने केवल भारत को लालीपाप ही थमाया है . इस घोषणा का मतलब यह है कि अब सलाहुद्दीन अमरीका की यात्रा नहीं कर सकता और अमरीका में कोई बैंक अकाउंट या कोई अन्य संपत्ति नहीं रख सकता . अगर ऐसी कोई संपत्ति वहां होगी तो वह ज़ब्त कर ली जायेगी . पाकिस्तान और कश्मीर में रूचि रकने वाले सभी लोगों को मालूम है कि सलाहुद्दीन का आतंक का धंधा अमरीकी की मदद के बिना भी चलता रहेगा .
दूसरी घटना यह है कि चीन पाकिस्तान के साथ एक बार फिर खड़ा हो गया है .. एक सरकारी बयान में चीन की तरफ से कहा गया है कि ' चीन का विचार है कि आतंकवाद के खिलाफ सहयोग को बढाया जाना चाहिए . अंतरराष्ट्रीय बिरादरी को इस सम्बन्ध में पाकिस्तान की कोशिशों को मान्यता देना चाहिए और उसको समर्थन करना चाहिए. चीन मानता है कि अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के खिलाफ चल रहे युद्ध में पकिस्तान अगले दस्ते में खडा है और इस दिशा में प्रयास कर रहा है '. चीन के बयान का लुब्बो लुबाब यह है कि पाकिस्तान आतंकवाद का समर्थक नहीं बल्कि वह आतंकवाद से पीड़ित है.
चीन का यह बयान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के साझा बयान के बाद या यों कहें कि उसको बेअसर करने के लिए आया है . साझा बयान में कहा गया था कि ' आतंकवाद को ख़त्म करना हमारी ( भारत और अमरीका की ) सबसे बड़ी प्राथमिकता है . हमने आतंकवाद , अतिवाद और बुनियादी धार्मिक ध्रुवीकरण के बारे में बात की . हमारे सहयोग का प्रमुख उद्देश्य आतंकवाद से युद्ध , आतंकियों के सुरक्षित ठिकानों और आतंकी अभयारण्यों को ख़त्म करना भी है .' यह संयुक्त बयान आतंकवाद और पाकिस्तान को जोड़ता हुआ दिखता है . ज़ाहिर है अब अमरीका भी पाकिस्तान में पल रहे आतंकवाद का शिकार है , वरना एक दौर वह भी था जब पाकिस्तान में आतंकवाद को पालना अमरीकी विदेश नीति का हिस्सा हुआ करता था और पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति जिया उल हक १९८० के दशक में आतंकवाद को हवा देने के अमरीकी प्रोजक्ट के मुख्य एजेंट हुआ करते थे .
आतंकवाद को पाकिस्तान में सरकारी नीति के रूप में इस्तेमाल करने के सिलसिला १९८० के दशक में फौजी तानाशाह और चीफ मार्शल लॉ प्रशासक ज़नरल जिया उल हक ने शुरू किया था. उसने आतंकियों की एक बड़ी फौज बनाई थी जो अमरीकी पैसे से तैयार की गयी थी . अमरीका को अफगानिस्तान में मौजूद रूसी सैनकों से लड़ाई के लिए बन्दे चाहिए थे . पाकिस्तान ने अपनी सेना की शाखा आई एस आई के ज़रिये बड़ी संख्या में पाकिस्तानी बेरोजगार नौजवानों को ट्रेनिंग दे कर अफगानिस्तान में भेज दिया था . जब अफगानिस्तान में अमरीका की रूचि नहीं रही तो पाकिस्तान की आई एस आई ने इनको ही भारत में आतंक फैलाने के लिए लगा दिया . सोवियत रूस के विघटन के बाद आतंकवादियों की यह फौज कश्मीर में लग गयी . सलाहुद्दीन उसी दौर की पैदाइश है .कश्मीर में युसूफ शाह नाम से चुनाव लड़कर हारने के बाद वह पाकिस्तान चला गया था और वहां उसको अफगान आतंकी गुलबुद्दीन हिकमतयार ने ट्रेनिंग दी थी. हिकमतयार अल कायदा वाले ओसामा बिन लादेन का ख़ास आदमी हुआ करता था. शुरू में इसका संगठन जमाते इस्लामी का सहयोगी हुआ करता था लेकिन बाद में सलाहुद्दीन ने अपना स्वतंत्र संगठन बना लिया.
चीन के ताज़ा बयान को अगर इस पृष्ठभूमि में देखा जाए तो बात समझ में आती है क्योंकि आज पाकिस्तान में भी खूब आतंकी हमले हो रहे हैं . लेकिन यह भी सच है कि जब अमरीका की मदद से पाकिस्तानी तानाशाह, जिया उल हक आतंकवाद को अपनी सरकार की नीति के रूप में विकसित कर रहे थे , तभी दुनिया भर के समझदार लोगों ने उन्हें चेतावनी दी थी. लेकिन उन्होंने किसी की नहीं सुनी . जनरल जिया ने धार्मिक उन्मादियों और फौज के जिद्दी जनरलों की सलाह से देश के बेकार फिर रहे नौजवानों की एक जमात बनायी थी जिसकी मदद से उन्होंने अफगानिस्तान और भारत में आतंकवाद की खेती की थी .उसी खेती का ज़हर आज पाकिस्तान के अस्तित्व पर सवालिया निशान बन कर खडा हो गया है.. अमरीका की सुरक्षा पर भी उसी आतंकवाद का साया मंडरा रहा है जिसके तामझाम को अमरीका ने ही पाकिस्तानी हुक्मरानों की मदद से स्थापित किया गया था . दुनिया जानती है कि अमरीका का सबसे बड़ा दुश्मन, अल कायदा , अमरीकी पैसे से ही बनाया गया था और उसके संस्थापक ओसामा बिन लादेन अमरीका के ख़ास चेला हुआ करते थे .आज बात बदल गयी है . आज अमरीका में पाकिस्तान को आतंक के मुख्य क्षेत्र के रूप में पहचाना जाता है . जो अमरीका कभी पाकिस्तानी आतंकवाद का फाइनेंसर हुआ करता था वही आज उसके एक सरगना को अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी घोषित कर चुका है .और भारत सरकार के प्रधानमंत्री को यह बताने की कोशिश कर रहा है कि वह कश्मीर के मामले में भारत का सहयोगी बनने को तैयार है .
अब कश्मीर का मसला बहुत जटिल हो गया है . पाकिस्तान कभी नहीं चाहेगा कि वहां की समस्या हल हो. कश्मीर के मसले को जिंदा रखना पाकिस्तानी शासकों की मजबूरी है क्योंकि १९४८ में जब जिनाह की सरपरस्ती में कश्मीर पर कबायली हमला हुआ था उसके बाद से ही भारत के प्रति नफरत के पाकिस्तानी अभियान में कश्मीर विवाद का भारी योगदान रहा है अगर पाकिस्तान के हुक्मरान उसको ही ख़त्म कर देंगें तो उनके लिए बहुत मुश्किल हो जायेगी.
पाकिस्तान की एक देश में स्थापना ही एक तिकड़म का परिणाम है. वहां की एक बड़ी आबादी के रिश्तेदार और आधा परिवार भारत में है .उनकी सांस्कृतिक जड़ें भारत में हैं लेकिन धर्म के आधार पर बने पाकिस्तान में रहने को अभिशप्त हैं . शुरू से ही पाकिस्तानी शासकों ने धर्म के सहारे अवाम को इकठ्ठा रखने की कोशिश की . अब उनको पता चल गया है कि ऐसा सोचना उनकी बहुत बड़ी गलती थी. जब भी धर्म को राज काज में दखल देने की आज़ादी दी जायेगी राष्ट्र का वही हाल होगा जो आज पाकिस्तान का हो रहा है .इसलिए धर्म और गाय के नाम पर चल रहे खूनी खेल की अनदेखी करने वाले भारतीय नेताओं को भी सावधान होने की ज़रूरत है क्योंकि जब अर्धशिक्षित और लोकतंत्र से अनभिज्ञ धार्मिक नेता राजसत्ता को अपने इशारे पर नचाने लगते हैं तो वही होता है जो पाकिस्तान का हाल हो रहा है. धर्म को राजकाज का मुख्य आधार बनाकर चलने वालों में १९८९ के बाद के इरान को भी देखा जा सकता है . ईरान जो कभी आधुनिकता की दौड़ में बहुत आगे हुआ करता था , धार्मिक कठमुल्लों की ताक़त बढ़ने के बाद आज दुनिया में अलग थलग पड़ गया है .
आजकल पाकिस्तान की दोस्ती चीन से बहुत ज़्यादा है लेकिन अभी कुछ वर्ष पहले तक पाकिस्तान में रहने वाला आम आदमी अमरीकी और साउदी अरब की खैरात पर जिंदा था. उन दिनों पाकिस्तान पर अमरीका की ख़ास मेहरबानी हुआ करती थी. आज अमरीकी दोस्ती का हाथ भारत की तरफ बढ़ चुका है और चीन के बढ़ते क़दम को रोकने के लिए अमरीका भारत से अच्छे सम्बन्ध बनाने की फ़िराक में है .आज पाकिस्तान पूरी तरह से अस्थिरता के कगार पर खड़ा है . कभी भारत और बाद में अफगानिस्तान के खिलाफ आतंकवादियों की जमातें तैयार करने वाला पाकिस्तान आज अपनी एकता को बनाये रखने के लिए संघर्ष कर रहा है . अमरीका से दोस्ती और धार्मिक उन्माद को राजनीति की मुख्य धारा में लाकर पाकिस्तान का यह हाल हुआ है . भारत को भी समकालीन इतिहास के इस पक्ष पर नज़र रखनी चाहिए कि कहीं अपने महान देश की हालत अपने शासकों की अदूरदर्शिता के कारण पाकिस्तान जैसी न हो जाए. पाकिस्तान को अमरीका ने इस इलाके में अपने प्रभाव को बनाए रखने के लिये इस्तेमाल किया था , कहीं भारत उसी जाल में न फंस जाए. पाकिस्तान जिस तरह से अपने ही बनाए दलदल में फंस चुका है.और उस दलदल से निकलना पाकिस्तान के अब बहुत मुश्किल है . उसकी मजबूरी का फायदा अब चीन उठा रहा है . पाकिस्तान में चीन भारी विनिवेश कर रहा है . ज़ाहिर है वह पाकिस्तान को उसी तरह की कूटनीतिक मदद कर रहा है जैसी कभी अमरीका किया करता था. १९७१ की बांग्लादेश की लड़ाई में पाकिस्तान ने भारत की सेना को धमकाने के लिए बंगाल की खाड़ी में अपने सातवें बेड़े के युद्धक विमान वाहक जहाज़ ,इंटरप्राइज़ को भेज दिया था. भारत के इतिहास के सबसे मुश्किल दौर ,१९७१ में वह पाकिस्तान को भारत के खिलाफ इस्तेमाल होने के लिए हथियार दे रहा था . एक बड़ा सवाल है कि क्या भारत को अमरीका उसी तरह का सहायक बनना चाहिए जैसा कभी पाकिस्तान हुआ करता था. भारत के राजनयिकों को इस बात को गंभीरता से समझना पडेगा कि कहीं अमरीका सलाहुद्दीन को अंतर राष्ट्रीय आतंकी घोषित करके कश्मीर में हस्तक्षेप करने की भूमिका तो नहीं बना रहा है .
पहले हाफिज सईद को वैश्विक आतंकी घोषित कर कौन से घोड़े खोल लिए...अफ़गानिस्तान में जब तक अमेरिका के हित जुड़े रहेंगे तब तक पाकिस्तान को कोई चिंता की ज़रूरत नहीं है...
ReplyDeleteजय #हिन्दी_ब्लॉगिंग...