शेष नारायण सिंह
उत्तर प्रदेश में १९६७ के चुनाव में बीजेपी के पूर्व अवतार,जनसंघ ने मजबूती से चुनाव लड़ा था.इसका मतलब यह नहीं कि पार्टी जीत गयी थी लेकिन थोड़ी सम्मानजनक सीटें मिल गयी थी. मेरे गाँव में भी १९६७ के चुनाव में जनसंघ का जोर था. पूरे गाँव ने जनसंघ को वोट दिया था लेकिन जब नतीजे आये तो उम्मीदवार हार गया ,कांग्रेस वाला जीत गया था . मेरे गाँव में हर आदमी हतप्रभ था कि जब पूरी आबादी जनसंघ को वोट दे रही है तो हारने का क्या मतलब है .जनसंघ की हनक भी इतनी थी कि आसपास के गाँवों के लोग डर के मारे यही कहते थे कि उनके गाँव में भी जनसंघ के चुनाव निशान दीपक पर ही वोट पड़ा था. लेकिन सच्चाई यह थी कि हमारे गाँव के बाहर के गाँवों के लोगों ने कांग्रेस को वोट दिया था. पूरे जिले में कांग्रेस को ही वोट मिला था और कांग्रेस लगभग सभी सीटों पर जीत गयी थी . मैं बहुत परेशान था और मेरे गाँव के भगेलू सिंह ने जब जनसंघ के उम्मीदवार के घर से लौट कर बताया कि कांग्रेसियों ने बक्सा बदल दिया तो हमारे गाँव में सबने विश्वास कर लिया था . १९७१ में जब इंदिरा गाँधी की पार्टी को भारी बहुमत मिला तो मेरे गाँव में भगेलू सिंह के समर्थकों ने साफ़ ऐलान कर दिया कि बक्सा बदल गया है .हालांकि तब तक कुछ और पढ़े लिखे लोग गाँव में पैदा हो चुके थे और उन्होंने कहा कि बक्सा नहीं बदला गया बल्कि अखबार में छपा था कि उस वक़्त के जनसंघ के बड़े नेता , बलराज मधोक ने कहा है कि कांग्रेस ने बैलट पेपर के ऊपर ऐसा केमिकल लगवा दिया था कि मोहर कहीं भी लगाओ निशान गाय बछड़े पर ही बन रहा था जो इस चुनाव में कांग्रेस का चुनाव निशान था.बहरहाल जो भी हो कांग्रेस की जीत में बेईमानी का योगदान मुकम्मल तौर पर माना जाता था . हमारे गाँव में कोई यह मानने को तैयार ही नहीं था कि जनसंघ जैसी अच्छी पार्टी को छोड़कर कोई किसी अन्य पार्टी को वोट दे सकता था..धीरे धीरे लोगों की समझ में आया कि एक गाँव के वोट से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता बाकी गाँवों में भी लोग रहते हैं और वोट देते हैं. हमारे गाँव वालों की समझ में यह बात तो बहुत पहले आ गयी लेकिन जनसंघ/बीजेपी के नेताओं की समझ में यह बात अभी तक नहीं आई है कि लोग उनके अलावा किसी और को वोट कैसे दे सकते हैं . शायद इसी मानसिकता से पीड़ित होकर गुवाहाटी में जमा हुये बीजेपी नेताओं ने बोफोर्स तोप के सौदे को एक बार फिर चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश की है . उन्हें लगता है कि जब बोफोर्स जैसा मुद्दा मौजूद है तो और किसी बात पर क्यों ध्यान दिया जाय . अब जब आम आदमी के दिमाग में बैठ गया है कि कामनवेल्थ और २ जी के घोटाले में कांग्रेस और बीजेपी ,दोनों ही शामिल हैं,तो बीजेपी उससे बचने की कोशिश कर रही है . प्याज की बढ़ी हुई कीमतें भी अच्छा मुद्दा थीं लेकिन अब ज़खीरेबाज़ों की धर पकड़ में तो बीजेपी वाले ही फंस रहे हैं .इसलिए कुल मिला कर बीजेपी को भ्रष्टाचार का एक मुद्ददा मिल रहा है जिसमें उसके लोग बिलकुल शामिल नहीं हैं और वह है , बोफोर्स वाला . लेकिन सवाल यह उठता है कि आज २५ साल बाद तक बोफोर्स मुद्दा चल पायेगा क्या? ख़ास तौर पर जब बोफोर्स के ६५ करोड़ रूपये के घूस के बदले जब बीजेपी के नेताओं ने अपनी सरकार के दौरान सैकड़ों करोड़ की हेराफेरी की हो . वैसे भी जानकार बताते हैं कि १९८९ के चुनाव में बीजेपी की सीटें बोफोर्स के चक्कर में नहीं बढीं थीं . हिंदुत्व के नारे ने काम किया था, बोफोर्स तो मरीचिका ही था . वैसे भी बाद के वर्षों में बोफोर्स केवल बीजेपी के नेताओं के दरबारों में मुद्दा रहा देश ने कभी उसे गंभीरता से नहीं लिया .लेकिन गुवाहाटी में तो बीजेपी के नागपुरी अध्यक्ष ने न केवल बोफोर्स को मुद्दा बनाने का ऐलान किया बल्कि सोनिया गाँधी के परिवार को मीडिया के फोकस में रखने का भी फैसला कर दिया . यह क़दम उतना ही अजीब है जितना जनता पार्टी के राज में चौधरी चरण सिंह का इंदिरा गाँधी को गिरफतार करने का फैसला था . इंदिरा गाँधी को देश ने १९७७ में दुत्कार दिया था लेकिन केंद्र सरकार की उस मूर्खतापूर्ण कारवाई के बाद जब इंदिरा गाँधी अखबारों के पहले पन्ने पर आयीं तो कभी हटी ही नहीं .इस तरह १९७७ में जनता ने जो बाज़ी जीती थी उसे उस दौर के गैर कांग्रेसी नेताओं ने हार में बदल दिया . बीजेपी के गुवाहाटी के फैसले से भी लगता है कि अब रोज़ ही इनकी प्रेस कानफरेंस में सोनिया गाँधी छायी रहेगीं और उन्हें ही सारा मीडिया कवर करने को मजबूर होगा. बीजेपी देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है उसे इस तरह के गैरजिम्मेदार राजनीतिक आचरण से बच कर रहना चाहिए और ऐसी कोशिश करनी चाहिये कि भ्रष्टाचार ही मुद्दा बना रहे , कोई परिवार मुद्दा न बन बान जाए . बीजेपी के इस काम से आम आदमी की सत्ता को बदल देने की इच्छा प्रभावित होती है.
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