Sunday, January 30, 2011

अंत में उनका शरीर मंदिर बन गया था .

शेष नारायण सिंह

आज से ठीक तिरसठ साल पहले एक धार्मिक आतंकवादी की गोलियों से महात्मा गाँधी की मृत्यु हो गयी थी. कुछ लोगों को उनकी हत्या के आरोप में सज़ा भी हुई लेकिन साज़िश की परतों से पर्दा कभी नहीं उठ सका . खुद महात्मा जी अपनी हत्या से लापरवाह थे. जब २० जनवरी को उसी गिरोह ने उन्हें मारने की कोशिश की जिसने ३० जनवरी को असल में मारा तो सरकार चौकन्नी हो गयी थी लेकिन महत्मा गाँधी ने सुरक्षा का कोई भारी बंदोबस्त नहीं होने दिया . ऐसा लगता था कि महात्मा गाँधी इसी तरह की मृत्यु का इंतज़ार कर रहे थे.इंसानी मुहब्बत के लिए आख़िरी साँसे लेना उनका सपना भी था. जब १९२६ में एक धार्मिक उन्मादी ने स्वामी श्रद्धानंद जी महराज को मार डाला तो गाँधी जी को तकलीफ तो बहुत हुई लेकिन उन्होंने उनके मृत्यु के दूसरे पक्ष को देखा. २४ दिसंबर १९२६ को आल इण्डिया कांग्रेस कमेटी की बैठक में गाँधी जी ने कहा कि " स्वामी श्रद्धानंद जी की मृत्यु मेरे लिए असहनीय है .लेकिन मेरा दिल शोक माने से साफ़ इनकार कर रहा है. उलटे यह प्रार्थना कर रहा है कि हम सबको इसी तरह की मौत मिले.( कलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ महात्मा गाँधी अंक ३२ ) .अपनी खुद की मृत्यु के कुछ दिन पहले पाकिस्तान से आये कुछ शरणार्थियों के सामने उन्होंने सवाल किया था " क्या बेहतर है ? अपने होंठों पर ईश्वर का नाम लेते हुए अपने विश्वास के लिए मर जाना या बीमारी , फालिज या वृद्धावस्था का शिकार होकर मरना . जहां तक मेरा सवाल है मैं तो पहली वाली मौत का ही वरण करूंगा " ( प्यारेलाल के संस्मरण )
महात्मा जी की मृत्यु के बाद जवाहरलाल नेहरू का वह भाषण तो दुनिया जानती है जो उन्होंने रेडियो पर देश वासियों को संबोधित करते हुए दिया था . उसी भाषण में उन्होंने कहा था कि हमारी ज़िंदगी से प्रकाश चला गया है . लेकिन उन्होंने हरिजन ( १५ फरवरी १९४८ ) में जो लिखा ,वह महात्मा जी को सही श्रद्धांजलि है . लिखते हैं कि ' उम्र बढ़ने के साथ साथ ऐसा लगता था कि उनका शरीर उनकी शक्तिशाली आत्मा का वाहन हो गया था,. उनको देखने या सुनने के वक़्त उनके शरीर का ध्यान ही नहीं रहता था , लगता था कि जहां वे बैठे होते थे ,वह जगह एक मंदिर बन गयी है '

अपनी मृत्यु के दिन भी महात्मा गाँधी ने भारत के लोगों के लिए दिन भर काम किया था . लेकिन एक धर्माध आतंकी ने उन्हें मार डाला .

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