Thursday, June 24, 2010

नीतीश के नए दांव से कांग्रेस में घबडाहट

शेष नारायण सिंह


नीतीश कुमार ने सत्ता का सुख भोग लेने के बाद जिस तरह से बी जे पी के सबसे ताक़तवर नेता , नरेंद्र मोदी को फटकारा है , उसकी धमक दिल्ली में सत्ता के गलियारों में महसूस की जा रही है . पिछले चार वर्षों से राहुल गांधी के नेतृत्व में मुसलमानों को रिझाने की कांग्रेस की कोशिशों को एक ज़बरदस्त झटका लगा है और अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के रणनीतिकार सत्ता के नए मुहावरे की तलाश में लग गए हैं . क्योंकि अब यह बात सभी स्वीकार कर रहे हैं कि मुसलमानों के वोटों की दावेदारी के खेल में नीतीश ने पहला डाव ज़बरदस्त खेला है और अब वे भी मुस्लिम वोटों की लाइन में लग गए हैं . बिहार में राजनीति एक नयी करवट ले रही है . विधान सभा के लिए चुनाव होने वाले हैं और राजनीतिक जोड़ गाँठ के विशेषज्ञ अपने काम में लग गए हैं. बिहार के मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने पहला पांसा फेंक दिया है और लगता है बिहार में जो प्रयोग शुरू हुआ है वह आने वाले वर्षों की भारत की राजनीति की दिशा तय करेगा. बिहार ने कई बार भारतीय राजनीति की दिशा तय की है . १९७४ में तो अगर कदम कुआं के फ़कीर ने मोर्चा न संभाला होता तो शायद भारत में भी लोक तंत्र इतिहास की किताबों का विषय बन चुका होता. जय प्रकाश जी की हिम्मत का ही जलवा था कि १९७७ में भारत की जनता ने बता दिया कि इस देश में स्थापित सत्ता के ज़रिये तानाशाही का राज नहीं कायम किया जा सकता. जेपी ने इंदिरा गाँधी और उनके छोटे पुत्र को बता दिया था कि इमरजेंसी के बावजूद भी इस देश की जनता अंग्रेजों से लड़कर जीती हुई अपनी आज़ादी को किसी गुमराह नौजवान के हाथों में खेलने के लिए नहीं थमा देगी और देश की सरकार किसी की मनमर्जी से नहीं चलने देगी. . जे पी के लिए शायद इंदिरा गाँधी को हटाना संभव लगा हो लेकिन उस दौर के ज़्यादातर गुणी जनों को विश्वास था कि इंदिरा गाँधी और संजय की सरकार को वैधानिकता देने के लिए ही १९७७ का चुनाव करवाया गया था लेकिन देश की राजनीति बदल गयी. ७७ के चुनाव की एक खासियत और थी . १९४८ में महात्मा गाँधी की ह्त्या के बाद उठे तूफ़ान में घिर गए आर एस एस वाले आम तौर राउर भारतीय राजनीति में हाशिये पर ही रहते थे लेकिन जे पी का साथ मिल जाने की वजह से उनकी पार्टी भारतीय जनसंघ सम्मानित पार्टियों में गिनी जाने लगी. बी जे पी का गठन तो जनता पार्टी को तोड़ कर किया गया था . ७७ के जे पी के आन्दोलन से मिली इज्ज़त के चलते बी जे पी का खूब विकास हुआ . यहाँ तक कि १९९८ और ९९ में देश भर की अन्य पार्टियों ने उनके नेतृत्व में सरकार में शामिल होना कुबूल कर लिया. बी जे पी के नेतृत्व में बनी सरकार को सबसे ज्यादा मजबूती जार्ज फर्नांडीज़ ने दी . उनके साथ रहे बहुत सारे लोगों ने न चाहते हुए भी बी जे पी को नेता मान लिया . जार्ज के साथियों में नीतीश कुमार प्रमुख थे . जार्ज ब्रांड के समाजवादियों की कृपा से स्वीकार्यता हासिल कर चुकी बी जे पी ने कभी भी जार्ज के साथियों को कम करके नहीं आँका. . नीतीश कुमार और उनके साथियों को भी पता था कि अगर बी जे पी का साथ छूट गया तो वहीं संसोपा वाली राजनीति ही हाथ आयेगी . सत्ता से दूर रहकर ही सामाजिक परिवर्तन का हल्ला गुल्ला चलता रहेगा. इसलिए वे लोग भी चुप चाप पिछले १० साल से मौज कर रहे हैं. लेकिन अब अब हालात बदल गए हैं. और लगता है कि जिस बिहार आन्दोलन ने आर एस एस की राजनीतिक शाखा को इज्ज़त दी थी , वही बिहार अब उसे फिर अनाथ छोड़ने के एतैयारी कर रहा है. वैसे भी बिहार सबसे ज़्यादा राजनीतिक रूप से जागरूक राज्य है लेकिन सूचना क्रान्ति के बाद हालात बहुत तेज़ी से बदल गए हैं . पूरे देश के नेताओं की राजनीतिक सोच का पता अवाम को चलता रहता है . बिहार में तो और भी ज्यादा है . अब भारत की हर राजनीतिक पार्टी को मालूम है कि मुसलमानों को अलग करके देश के कई इलाकों में चुनाव नहीं जीता जा सकता . गुजरात में भी मुस्लिम विरोध के नाम पार नरेंद्र मोदी नहीं जीतते , वहां भी वे विकास की बोगी चलाते हैं और चुनाव जीत कर आते हैं . जीतने के बाद वे अपना हिन्दुत्व वादी एजेंडा चलाते हैं लेकिन साथ साथ विकास पुरुष भी बने रहते हैं .आर एस एस या बी जे पी को इस देश में मुसलमानों ने केवल एक बार स्वीकार किया . १९७७ के चुनाव में उत्तर भारत में जो भी इंदिरा -संजय टीम के खिलाफ था, उसे मुसलमान ने अपना लिया लेकिन २००२ के बाद तो मुसलमान किसी भी कीमत पर आर एस एस की मातहत पार्टी को वोट नहीं देगा. नीतेश कुमार की मोदी के विरोध की राजनीति इस पृष्ठभूमि में देखी जाए तो तस्वीर ज्यादा साफ हो जायेगी. पूरे देश में गुजरात २००२ के नरसंहार के लिए मोदी को ज़िम्मेदार माना जाता है और कोई भी सभ्य आदमी अपने को मोदी से सम्बंधित बताने में संकोच करता है . ज़ाहिर है कि अगर नरेंद्र मोदी के साथ देखे गए तो मुसलमान नीतीश से परहेज करेगा . इसलिए मोदी के विरोध का मामला बहुत बड़े पैमाने पर उठाकर नीतीश कुमार ने वह स्पेस हथिया लिया है जिसके लिए कांग्रेस और लालू प्रसाद यादव पिछले ४ साल से कोशिश कर रहे हैं . आम तौर पर मोदी के खिलाफ दिए गए हर बयान पर तालियाँ बजाने वाले कांग्रेसी नेता गुजरात से मिली बाढ़ सहायता राशि को लौटाने के काम को नौटंकी बता रहे हैं.. सब को मालूम है कि अगर अपने मुख्य समर्थकों के साथ मुसलमानों का वोट भी मिल गया तो पटना की गद्दी मिलने में आसानी होगी . लेकिन सच यह है कि नीतीश कुमार ने मुस्लिम वोट को रिझाने वाले स्पेस में अपनी दुकान सज़ा दी है और बाकी उम्मीद वार फिलहाल हक्के बक्के खड़े हैं . अभी चार महीने बाकी हैं . यह देखना दिलचस्प होगा कि मुस्लिम वोटों के लिए राजनीतिक पार्टियां अभी क्या क्या हथकंडे अपनाती हैं

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