महाराष्ट्र सरकार में एक बहुत ही उच्च पद पर तैनात अफसर, लीना जी ने चुनाव सुधार के मामले पर एक बहुत ही महत्वपूर्ण बहस शुरू की है .क्या यह संभव होगा कि इस विषय पर अन्य मंचों पर भी बड़ी बहस शुरू की जा सके.. उनकी बहस का लिंक है
http://www.linkedin.com/groupAnswers?viewQuestionAndAnswers=&gid=3169490&discussionID=23543924&commentID=18781092&goback=.anh_3169490&report.success=8ULbKyXO6NDvmoK7o030UNOYGZKrvdhBhypZ_w8EpQrrQI-BBjkmxwkEOwBjLE28YyDIxcyEO7_TA_giuRN#commentID_18781092
Wednesday, June 30, 2010
वापस आ गया हूँ
मैं मुंबई,वाराणसी,सुल्तानपुर और लखनऊ होते हुए वापस आ गया हूँ . इसे "लौट के बुद्धू घर को आये" या "पुनर्मूसिको भव" की तर्ज पर समझा जा सकता है .
Friday, June 25, 2010
मुसलमानों के वोट के चक्कर में बिहार के नेता क्या कर रहे हैं
शेष नारायण सिंह
गुजरात के मुख्य मंत्री , नरेंद्र मोदी को फटकार कर देश में कहीं भी धर्म निरपेक्ष जमातों की सहानुभूति बटोरी जा सकती है . गुजरात २००२ नर संहार के खलनायक को दुनिया में कहीं भी इज्ज़त की नज़र से नहीं देखा जता. अमरीका और यूरोप के ज़्यादातर देशों ने उनकी वीजा की दरखास्त को यह कह कर ठुकरा दिया है कि वे इतने खूंखार आदमी को अपने देश में आने की इजाज़त नहीं दे सकते. मुसलमान तो पूरे भारत में नरेंद्र मोदी को कातिल मानता है . जिन लोगों को २००२ में नरेंद्र मोदी की निगरानी में क़त्ल किया गया था ,उनमें बड़ी संख्या उत्तर प्रदेश और बिहार के उन मूल निवासियों की थी जो रोजी रोटी की तलाश में गुजरात के शहरों में जाकर बस गए थे. शायद इसीलिये नरेंद्र मोदी की मुखालिफात करना उत्तर प्रदेश और बिहार में जीत का नुस्खा माना जाता है . अगर किसी के ऊपर यह आरोप साबित हो गया कि वह नरेंद्र मोदी का दोस्त है तो उसके वोटों की संख्या में भारी कमी हो जाती है . जानकार बताते हैं कि नरेंद्र मोदी के साथ अपनी फोटो के प्रचारित होने पर, बिहार के मुख्यमंत्री, नीतीश कुमार का गुस्सा इस पृष्ठभूमि में बेहतर तरीके से समझा जा सकता है . दुनिया जानती है कि नीतीश कुमार बिहार के मुख्य मंत्री बी जे पी की कृपा से बने हैं और आज भी अगर बी जे पी उनकी सरकार से समर्थन वापस ले ले तो पैदल हो जायेंगें . राजनीति की मामूली समझ वाला भी जानता है कि बी जे पी का सबसे मज़बूत नेता आज की तारीख में नरेंद्र मोदी ही है . इसलिए नरेंद्र मोदी के विरोध के बाद किसी के लिए भी बी जे पी की मदद से हुकूमत करना असंभव है लेकिन नीतीश कुमार बने हुए हैं और राज कर रहे हैं . ज़ाहिर है बी जे पी और जे डी ( यू) के नेता एक ऐसी कुश्ती लड़ रहे हैं जिसमें शुरू में ही समझौता हो गया है कि वास्तव में कुश्ती नहीं लड़ना है , केवल अभिनय करना है . यह अभिनय सोची समझी रणनीति के तहत किया जा रहा है . इसके दो उद्देश्य हैं . एक तो यह कि नरेंद्र मोदी के खिलाफ जो लोग भी हैं उनके घावों पर मरहम लगाकर उनके वोट को बटोर जाए और दूसरा यह कि हिंद्दुत्ववादी सोच के लोगों को नरेंद्र मोदी के हवाले से बी जे पी के साथ लामबंद किया जाए. यहाँ यह गौरतलब है कि नीतीश कुमार की पार्टी और नरेंद्र मोदी की पार्टी किसी पक्ष का कोई असली नुकसान नहीं कर रही है. केवल विधान सभा चुनावों के वोटों के लिए सभी पक्ष काम कर रहे हैं .
इस तरह नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी के वोट अभियान में ताज़ा एपिसोड भी जुड़ गया है . बिहार पुलिस के कुछ पुलिस वाले गुजरात गए थे जहां वे कथित रूप से यह जांच करने वाले थे कि नरेंद्र मोदी के साथ नीतीश कुमार की फोटो जारी करने वाली एजेंसी ने किसके हुक्म से यह काम किया था लेकिन अभियुक्तों या सम्बंधित पुलिस अधिकारियों के पास तो खबर बाद में पंहुची, मीडिया को पहले पता चल गया . जिसके बाद बी जे पी के पूर्व अध्यक्ष वेंकैया नायडू सीधे शरद यादव के पास पंहुच गए और इस से पहले कि सम्बंधित एजेंसी वाले के ऊपर कोई केस बन जाए, मामले को दबा दिया गया लेकिन इसका राजनीतिक फायदा जितना मिल सकता था, मिल गया . मुसलमानों और धर्म निरपेक्ष जमातों को पता चल गया कि नीतीश कुमार पूरे मन से मोदी की मुखालफत कर रहे हैं .जबकि नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी के लोगों का कहीं कोई नुकसान भी नहीं हुआ . इस बात का भी खूब जोर शोर से अखबारों में प्रचार किया जा रहा है कि बी जी पी वाले नीतीश कुमार से बहुत नाराज़ हैं और सरकार से समर्थन वापस भी लेना चाहते हैं . . समर्थन वापसी का कोई मतलब नहीण है उस से बिहार सरकार पर कोई असर नहीं पड़ेगा क्यों कि अब तो चुनाव की ही तैयारी चल रही है .४ महीने मेंचुनाव है .
कुल मिला कर बिहार की ताज़ा राजनीतिक हालात पर गौर करें तो साफ़ लगता है कि मामला शुद्ध रूप से मुसलमानों के वोट को अपने पक्ष में मोड़ने से सम्बंधित है . नीतीश ने बिहार में व्याप्त अराजकता को कंट्रोल किया है इस लिए मध्य वर्ग का एक बड़ा तबका उनको समर्थन देना चाहता है . अति पिछड़ों यानी यादव विरोधी पिछड़ों में भी नीतीश ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में एक पैठ बनायी है . जे डी यू के वर्गचरित्र के हिसाब से सवर्णों का एक वर्ग भी उनके साथ है . इस में अगर मुसलमानों के वोट भी जुड़ जाएँ तो बिहार की राजनीति में यह एक अजेय फार्मूला है . आखिर लालू प्रसाद ने वहां एम वाई यानी मुस्लिम -यादव दोस्ती की राजनीति करके कई साल तक राज किया है . इस लिए बिहार की राजनीति के किसी खिलाड़ी को मुसलमानों के वोट का महत्व समझाना वैसे ही है जैसे चिड़िया के बच्चे को उड़ना सिखाना .बिहार में लालू यादव मुसलमानों के वोट के मुख्य दावेदार माने जाते हैं . लेकिन अपने शासन के दौरान उन्होंने मुसलमानों के कल्याण के लिए कोई ख़ास काम नहीं किया .पिछले ३ -४ वर्षों से कांग्रेस नेता , राहुल गाँधी मुसलमानों से संपर्क में हैं .शायद इसी वजह से उत्तर भारत में मुस्लिम समुदाय में कांग्रेस की लोक प्रियता भी बढ़ रही है . बिहार में मुस्लिम वोटों की दावेदारी में कांगेस का भी नाम आने लगा है . हालांकि कांग्रेस के पास अपना कोई बुनियादी वोट बैंक नहीं है लेकिन उसके लिए पूरी कोशिश चल रही है . बिहार प्रदेश की इन्चार्जी से हटाये जाने के पहले जगदीश टाइटलर ने भोजपुरी फिल्मों के नायक , मनोज तिवारी से घंटों बात की थी और उन्हें अपने साथ जोड़ने की कोशिश की थी . ज़ाहिर है कि मनोज तिवारी आज के सूचना क्रान्ति के ज़माने के बड़े नाम हैं और उनके साथ आने से कांग्रेस को उनकी बिरादरी के वोट तो मिलेगें ही, राज्य के बड़ी संख्या में नौजवान भी साथ आयेंगें .अगर इस वोट बैंक में मुसलमान जोड़ दिए जाएँ तो यह भी एक जिताऊ गठजोड़ बन सकता है . बताते हैं कि मनोज तिवारी ने इस लिए मना कर दिया कि वे अमर सिंह के बिना किसी पार्टी में नहीं जाना चाहते .अभी तक फिलहाल कांग्रेस में अमर सिंह के खिलाफ माहौल है लेकिन कल किसने देखा है. वैसे भी अमर सिंह अपने राज्य में अपनी राजनीतिक मौजूदगी का एहसास प्रभाव शाली तरीके करवा रहे हैं . समाजवादी पार्टी से निकाले जाने के बाद हाशिये पर आ गए अमर सिंह ने डुमरिया गंज उपचुनाव में अपनी पुरानी पार्टी के उम्मीदवार को पीस पार्टी नाम की एक नयी पार्टी को समर्थन दे कर शिकस्त दी है. डुमरिया गंज उपचुनाव में मुलायम सिंह के इस पूर्व सहयोगी ने दो बातें साबित की हैं . एक तो यह कि अमर सिंह अभी हार मानने को तैयार नहीं हैं और दूसरा कि वह मुसलमानों के वोटों की दावेदारी में किसी से कमज़ोर नहीं हैं. अगर कांग्रेस पार्टी बिहार के समीकरणों को दुरुस्त करने के लिए अमर सिंह के साथ उनके भीड़ जुटाऊ साथियों को साथ लेने का फैसला कर लेगी तो खेल बदल सकता है.
इस बात में कोई शक़ नहीं कि बिहार की राजनीति में बी जे पी के साथ की वजह से मुसलमानों में अछूत बन चुके नीतीश कुमार की मस्लिम वोट बैंक की दावेदारी के खेल में धमाकेदार वापसी हुई है . जिसके बाद बाकी दावेदार हतप्रभ हैं . क्योंकि आम तौर पार ज़ज्बाती मानसिकता के मुसलमानों के लिए मोदी की मुखालिफत को सम्मान की नज़र से देखा जाता है . लेकिन इस वापसी की वजह से बाकी दावेदारों में खलबली मच गयी है . हालांकि इस बात की पूरी संभावना है कि धर्म निरपेक्ष वोटों के स्पेस में सेंध लगाने के लिए ही नीतीश और बी जे पी ने यह नूरा कुश्ती लड़ी है लेकिन मामला बहस के दायरे में तो आ ही गया है . इसका फायदा नीतीश के अब तक के साथी नरेंद्र मोदी की पार्टी वालों को भी होगा क्योंकि मुसलमानों के पारंपरिक विरोधी वोटों के स्पेस में उनका कंट्रोल मज़बूत होगा . वैसे भी उन्हें मुसलमान न तो वोट देते हैं और न ही वे उसकी उम्मीद करते हैं . मुस्लिम वोटों की इस दौड़ में एक और महत्व पूर्ण राजनेता , राम विलास पासवान भी पिछड़ते नज़र आ रहे हैं . उन्होंने भी मुसलमानों के लिए बहुत काम किया है. बहुत सारे मुसलमानों को उन्होंने इज्ज़त दी है और उनके फायदे के लिए काम किया है. यहाँ तक की अमरीका तक में दलित-मुस्लिम सम्मलेन कर चुके हैं लेकिन आजकल वे हाशिये पर हैं. इस देश का मुसलमान राजनीतिक रूप से इतना सजग है कि वह उसी को वोट देना पसंद करता हैजो नरेंद्र मोदी की पार्टी को हराए . इस मामले में राम विलास पासवान खरे नहीं उतरते. वैसे भी वे बी जे पी के साथ सरकार में रह चुके हैं . ज़ाहिर है कि अगले ४ महीने में पटना की गद्दी के लिए लड़ाई तेज़ होगी और उसमें वे सारे गड़े मुर्दे उखाड़े जायेंगें जिसमें बिहार के राजनेताओं के बी जे पी प्रेम की कहानियां मुख्य रूप से बतायी जायेंगीं. इस किस्सागोई में नीतीश तो मुस्लिम विरोधी साबित हो ही जायेगें , राम विलास भी फंस सकते हैं क्योंकि अटल बिहारी वाजपेयी के किसी पूर्व मातहत को अपना शुभ चिन्तक मानने में मुसलमान को दिक्क़त होगी . कुल मिला कर अभी तस्वीर साफ़ नहीं है लेकिन मुस्लिम समर्थन के प्रमुख दावेदार लालू प्रसाद यादव और कांग्रेस के बीच फैसला होने की उम्मीद है. जो भी अपनी रणनीति सही तरीके से बनाएगा, जीत उसी की होगी. जहां तक नीतीश का प्रश्न है अगर उन्हें साफ़ अंदाज़ लग गया कि मोदी का विरोध करने से कोई राजनीतिक लाभ नहीं हो रहा है तो वे फिर शरद यादव को आगे करके बी जे पी के दरवाज़े पंहुच जायेंगें ..
गुजरात के मुख्य मंत्री , नरेंद्र मोदी को फटकार कर देश में कहीं भी धर्म निरपेक्ष जमातों की सहानुभूति बटोरी जा सकती है . गुजरात २००२ नर संहार के खलनायक को दुनिया में कहीं भी इज्ज़त की नज़र से नहीं देखा जता. अमरीका और यूरोप के ज़्यादातर देशों ने उनकी वीजा की दरखास्त को यह कह कर ठुकरा दिया है कि वे इतने खूंखार आदमी को अपने देश में आने की इजाज़त नहीं दे सकते. मुसलमान तो पूरे भारत में नरेंद्र मोदी को कातिल मानता है . जिन लोगों को २००२ में नरेंद्र मोदी की निगरानी में क़त्ल किया गया था ,उनमें बड़ी संख्या उत्तर प्रदेश और बिहार के उन मूल निवासियों की थी जो रोजी रोटी की तलाश में गुजरात के शहरों में जाकर बस गए थे. शायद इसीलिये नरेंद्र मोदी की मुखालिफात करना उत्तर प्रदेश और बिहार में जीत का नुस्खा माना जाता है . अगर किसी के ऊपर यह आरोप साबित हो गया कि वह नरेंद्र मोदी का दोस्त है तो उसके वोटों की संख्या में भारी कमी हो जाती है . जानकार बताते हैं कि नरेंद्र मोदी के साथ अपनी फोटो के प्रचारित होने पर, बिहार के मुख्यमंत्री, नीतीश कुमार का गुस्सा इस पृष्ठभूमि में बेहतर तरीके से समझा जा सकता है . दुनिया जानती है कि नीतीश कुमार बिहार के मुख्य मंत्री बी जे पी की कृपा से बने हैं और आज भी अगर बी जे पी उनकी सरकार से समर्थन वापस ले ले तो पैदल हो जायेंगें . राजनीति की मामूली समझ वाला भी जानता है कि बी जे पी का सबसे मज़बूत नेता आज की तारीख में नरेंद्र मोदी ही है . इसलिए नरेंद्र मोदी के विरोध के बाद किसी के लिए भी बी जे पी की मदद से हुकूमत करना असंभव है लेकिन नीतीश कुमार बने हुए हैं और राज कर रहे हैं . ज़ाहिर है बी जे पी और जे डी ( यू) के नेता एक ऐसी कुश्ती लड़ रहे हैं जिसमें शुरू में ही समझौता हो गया है कि वास्तव में कुश्ती नहीं लड़ना है , केवल अभिनय करना है . यह अभिनय सोची समझी रणनीति के तहत किया जा रहा है . इसके दो उद्देश्य हैं . एक तो यह कि नरेंद्र मोदी के खिलाफ जो लोग भी हैं उनके घावों पर मरहम लगाकर उनके वोट को बटोर जाए और दूसरा यह कि हिंद्दुत्ववादी सोच के लोगों को नरेंद्र मोदी के हवाले से बी जे पी के साथ लामबंद किया जाए. यहाँ यह गौरतलब है कि नीतीश कुमार की पार्टी और नरेंद्र मोदी की पार्टी किसी पक्ष का कोई असली नुकसान नहीं कर रही है. केवल विधान सभा चुनावों के वोटों के लिए सभी पक्ष काम कर रहे हैं .
इस तरह नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी के वोट अभियान में ताज़ा एपिसोड भी जुड़ गया है . बिहार पुलिस के कुछ पुलिस वाले गुजरात गए थे जहां वे कथित रूप से यह जांच करने वाले थे कि नरेंद्र मोदी के साथ नीतीश कुमार की फोटो जारी करने वाली एजेंसी ने किसके हुक्म से यह काम किया था लेकिन अभियुक्तों या सम्बंधित पुलिस अधिकारियों के पास तो खबर बाद में पंहुची, मीडिया को पहले पता चल गया . जिसके बाद बी जे पी के पूर्व अध्यक्ष वेंकैया नायडू सीधे शरद यादव के पास पंहुच गए और इस से पहले कि सम्बंधित एजेंसी वाले के ऊपर कोई केस बन जाए, मामले को दबा दिया गया लेकिन इसका राजनीतिक फायदा जितना मिल सकता था, मिल गया . मुसलमानों और धर्म निरपेक्ष जमातों को पता चल गया कि नीतीश कुमार पूरे मन से मोदी की मुखालफत कर रहे हैं .जबकि नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी के लोगों का कहीं कोई नुकसान भी नहीं हुआ . इस बात का भी खूब जोर शोर से अखबारों में प्रचार किया जा रहा है कि बी जी पी वाले नीतीश कुमार से बहुत नाराज़ हैं और सरकार से समर्थन वापस भी लेना चाहते हैं . . समर्थन वापसी का कोई मतलब नहीण है उस से बिहार सरकार पर कोई असर नहीं पड़ेगा क्यों कि अब तो चुनाव की ही तैयारी चल रही है .४ महीने मेंचुनाव है .
कुल मिला कर बिहार की ताज़ा राजनीतिक हालात पर गौर करें तो साफ़ लगता है कि मामला शुद्ध रूप से मुसलमानों के वोट को अपने पक्ष में मोड़ने से सम्बंधित है . नीतीश ने बिहार में व्याप्त अराजकता को कंट्रोल किया है इस लिए मध्य वर्ग का एक बड़ा तबका उनको समर्थन देना चाहता है . अति पिछड़ों यानी यादव विरोधी पिछड़ों में भी नीतीश ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में एक पैठ बनायी है . जे डी यू के वर्गचरित्र के हिसाब से सवर्णों का एक वर्ग भी उनके साथ है . इस में अगर मुसलमानों के वोट भी जुड़ जाएँ तो बिहार की राजनीति में यह एक अजेय फार्मूला है . आखिर लालू प्रसाद ने वहां एम वाई यानी मुस्लिम -यादव दोस्ती की राजनीति करके कई साल तक राज किया है . इस लिए बिहार की राजनीति के किसी खिलाड़ी को मुसलमानों के वोट का महत्व समझाना वैसे ही है जैसे चिड़िया के बच्चे को उड़ना सिखाना .बिहार में लालू यादव मुसलमानों के वोट के मुख्य दावेदार माने जाते हैं . लेकिन अपने शासन के दौरान उन्होंने मुसलमानों के कल्याण के लिए कोई ख़ास काम नहीं किया .पिछले ३ -४ वर्षों से कांग्रेस नेता , राहुल गाँधी मुसलमानों से संपर्क में हैं .शायद इसी वजह से उत्तर भारत में मुस्लिम समुदाय में कांग्रेस की लोक प्रियता भी बढ़ रही है . बिहार में मुस्लिम वोटों की दावेदारी में कांगेस का भी नाम आने लगा है . हालांकि कांग्रेस के पास अपना कोई बुनियादी वोट बैंक नहीं है लेकिन उसके लिए पूरी कोशिश चल रही है . बिहार प्रदेश की इन्चार्जी से हटाये जाने के पहले जगदीश टाइटलर ने भोजपुरी फिल्मों के नायक , मनोज तिवारी से घंटों बात की थी और उन्हें अपने साथ जोड़ने की कोशिश की थी . ज़ाहिर है कि मनोज तिवारी आज के सूचना क्रान्ति के ज़माने के बड़े नाम हैं और उनके साथ आने से कांग्रेस को उनकी बिरादरी के वोट तो मिलेगें ही, राज्य के बड़ी संख्या में नौजवान भी साथ आयेंगें .अगर इस वोट बैंक में मुसलमान जोड़ दिए जाएँ तो यह भी एक जिताऊ गठजोड़ बन सकता है . बताते हैं कि मनोज तिवारी ने इस लिए मना कर दिया कि वे अमर सिंह के बिना किसी पार्टी में नहीं जाना चाहते .अभी तक फिलहाल कांग्रेस में अमर सिंह के खिलाफ माहौल है लेकिन कल किसने देखा है. वैसे भी अमर सिंह अपने राज्य में अपनी राजनीतिक मौजूदगी का एहसास प्रभाव शाली तरीके करवा रहे हैं . समाजवादी पार्टी से निकाले जाने के बाद हाशिये पर आ गए अमर सिंह ने डुमरिया गंज उपचुनाव में अपनी पुरानी पार्टी के उम्मीदवार को पीस पार्टी नाम की एक नयी पार्टी को समर्थन दे कर शिकस्त दी है. डुमरिया गंज उपचुनाव में मुलायम सिंह के इस पूर्व सहयोगी ने दो बातें साबित की हैं . एक तो यह कि अमर सिंह अभी हार मानने को तैयार नहीं हैं और दूसरा कि वह मुसलमानों के वोटों की दावेदारी में किसी से कमज़ोर नहीं हैं. अगर कांग्रेस पार्टी बिहार के समीकरणों को दुरुस्त करने के लिए अमर सिंह के साथ उनके भीड़ जुटाऊ साथियों को साथ लेने का फैसला कर लेगी तो खेल बदल सकता है.
इस बात में कोई शक़ नहीं कि बिहार की राजनीति में बी जे पी के साथ की वजह से मुसलमानों में अछूत बन चुके नीतीश कुमार की मस्लिम वोट बैंक की दावेदारी के खेल में धमाकेदार वापसी हुई है . जिसके बाद बाकी दावेदार हतप्रभ हैं . क्योंकि आम तौर पार ज़ज्बाती मानसिकता के मुसलमानों के लिए मोदी की मुखालिफत को सम्मान की नज़र से देखा जाता है . लेकिन इस वापसी की वजह से बाकी दावेदारों में खलबली मच गयी है . हालांकि इस बात की पूरी संभावना है कि धर्म निरपेक्ष वोटों के स्पेस में सेंध लगाने के लिए ही नीतीश और बी जे पी ने यह नूरा कुश्ती लड़ी है लेकिन मामला बहस के दायरे में तो आ ही गया है . इसका फायदा नीतीश के अब तक के साथी नरेंद्र मोदी की पार्टी वालों को भी होगा क्योंकि मुसलमानों के पारंपरिक विरोधी वोटों के स्पेस में उनका कंट्रोल मज़बूत होगा . वैसे भी उन्हें मुसलमान न तो वोट देते हैं और न ही वे उसकी उम्मीद करते हैं . मुस्लिम वोटों की इस दौड़ में एक और महत्व पूर्ण राजनेता , राम विलास पासवान भी पिछड़ते नज़र आ रहे हैं . उन्होंने भी मुसलमानों के लिए बहुत काम किया है. बहुत सारे मुसलमानों को उन्होंने इज्ज़त दी है और उनके फायदे के लिए काम किया है. यहाँ तक की अमरीका तक में दलित-मुस्लिम सम्मलेन कर चुके हैं लेकिन आजकल वे हाशिये पर हैं. इस देश का मुसलमान राजनीतिक रूप से इतना सजग है कि वह उसी को वोट देना पसंद करता हैजो नरेंद्र मोदी की पार्टी को हराए . इस मामले में राम विलास पासवान खरे नहीं उतरते. वैसे भी वे बी जे पी के साथ सरकार में रह चुके हैं . ज़ाहिर है कि अगले ४ महीने में पटना की गद्दी के लिए लड़ाई तेज़ होगी और उसमें वे सारे गड़े मुर्दे उखाड़े जायेंगें जिसमें बिहार के राजनेताओं के बी जे पी प्रेम की कहानियां मुख्य रूप से बतायी जायेंगीं. इस किस्सागोई में नीतीश तो मुस्लिम विरोधी साबित हो ही जायेगें , राम विलास भी फंस सकते हैं क्योंकि अटल बिहारी वाजपेयी के किसी पूर्व मातहत को अपना शुभ चिन्तक मानने में मुसलमान को दिक्क़त होगी . कुल मिला कर अभी तस्वीर साफ़ नहीं है लेकिन मुस्लिम समर्थन के प्रमुख दावेदार लालू प्रसाद यादव और कांग्रेस के बीच फैसला होने की उम्मीद है. जो भी अपनी रणनीति सही तरीके से बनाएगा, जीत उसी की होगी. जहां तक नीतीश का प्रश्न है अगर उन्हें साफ़ अंदाज़ लग गया कि मोदी का विरोध करने से कोई राजनीतिक लाभ नहीं हो रहा है तो वे फिर शरद यादव को आगे करके बी जे पी के दरवाज़े पंहुच जायेंगें ..
Thursday, June 24, 2010
नीतीश के नए दांव से कांग्रेस में घबडाहट
शेष नारायण सिंह
नीतीश कुमार ने सत्ता का सुख भोग लेने के बाद जिस तरह से बी जे पी के सबसे ताक़तवर नेता , नरेंद्र मोदी को फटकारा है , उसकी धमक दिल्ली में सत्ता के गलियारों में महसूस की जा रही है . पिछले चार वर्षों से राहुल गांधी के नेतृत्व में मुसलमानों को रिझाने की कांग्रेस की कोशिशों को एक ज़बरदस्त झटका लगा है और अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के रणनीतिकार सत्ता के नए मुहावरे की तलाश में लग गए हैं . क्योंकि अब यह बात सभी स्वीकार कर रहे हैं कि मुसलमानों के वोटों की दावेदारी के खेल में नीतीश ने पहला डाव ज़बरदस्त खेला है और अब वे भी मुस्लिम वोटों की लाइन में लग गए हैं . बिहार में राजनीति एक नयी करवट ले रही है . विधान सभा के लिए चुनाव होने वाले हैं और राजनीतिक जोड़ गाँठ के विशेषज्ञ अपने काम में लग गए हैं. बिहार के मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने पहला पांसा फेंक दिया है और लगता है बिहार में जो प्रयोग शुरू हुआ है वह आने वाले वर्षों की भारत की राजनीति की दिशा तय करेगा. बिहार ने कई बार भारतीय राजनीति की दिशा तय की है . १९७४ में तो अगर कदम कुआं के फ़कीर ने मोर्चा न संभाला होता तो शायद भारत में भी लोक तंत्र इतिहास की किताबों का विषय बन चुका होता. जय प्रकाश जी की हिम्मत का ही जलवा था कि १९७७ में भारत की जनता ने बता दिया कि इस देश में स्थापित सत्ता के ज़रिये तानाशाही का राज नहीं कायम किया जा सकता. जेपी ने इंदिरा गाँधी और उनके छोटे पुत्र को बता दिया था कि इमरजेंसी के बावजूद भी इस देश की जनता अंग्रेजों से लड़कर जीती हुई अपनी आज़ादी को किसी गुमराह नौजवान के हाथों में खेलने के लिए नहीं थमा देगी और देश की सरकार किसी की मनमर्जी से नहीं चलने देगी. . जे पी के लिए शायद इंदिरा गाँधी को हटाना संभव लगा हो लेकिन उस दौर के ज़्यादातर गुणी जनों को विश्वास था कि इंदिरा गाँधी और संजय की सरकार को वैधानिकता देने के लिए ही १९७७ का चुनाव करवाया गया था लेकिन देश की राजनीति बदल गयी. ७७ के चुनाव की एक खासियत और थी . १९४८ में महात्मा गाँधी की ह्त्या के बाद उठे तूफ़ान में घिर गए आर एस एस वाले आम तौर राउर भारतीय राजनीति में हाशिये पर ही रहते थे लेकिन जे पी का साथ मिल जाने की वजह से उनकी पार्टी भारतीय जनसंघ सम्मानित पार्टियों में गिनी जाने लगी. बी जे पी का गठन तो जनता पार्टी को तोड़ कर किया गया था . ७७ के जे पी के आन्दोलन से मिली इज्ज़त के चलते बी जे पी का खूब विकास हुआ . यहाँ तक कि १९९८ और ९९ में देश भर की अन्य पार्टियों ने उनके नेतृत्व में सरकार में शामिल होना कुबूल कर लिया. बी जे पी के नेतृत्व में बनी सरकार को सबसे ज्यादा मजबूती जार्ज फर्नांडीज़ ने दी . उनके साथ रहे बहुत सारे लोगों ने न चाहते हुए भी बी जे पी को नेता मान लिया . जार्ज के साथियों में नीतीश कुमार प्रमुख थे . जार्ज ब्रांड के समाजवादियों की कृपा से स्वीकार्यता हासिल कर चुकी बी जे पी ने कभी भी जार्ज के साथियों को कम करके नहीं आँका. . नीतीश कुमार और उनके साथियों को भी पता था कि अगर बी जे पी का साथ छूट गया तो वहीं संसोपा वाली राजनीति ही हाथ आयेगी . सत्ता से दूर रहकर ही सामाजिक परिवर्तन का हल्ला गुल्ला चलता रहेगा. इसलिए वे लोग भी चुप चाप पिछले १० साल से मौज कर रहे हैं. लेकिन अब अब हालात बदल गए हैं. और लगता है कि जिस बिहार आन्दोलन ने आर एस एस की राजनीतिक शाखा को इज्ज़त दी थी , वही बिहार अब उसे फिर अनाथ छोड़ने के एतैयारी कर रहा है. वैसे भी बिहार सबसे ज़्यादा राजनीतिक रूप से जागरूक राज्य है लेकिन सूचना क्रान्ति के बाद हालात बहुत तेज़ी से बदल गए हैं . पूरे देश के नेताओं की राजनीतिक सोच का पता अवाम को चलता रहता है . बिहार में तो और भी ज्यादा है . अब भारत की हर राजनीतिक पार्टी को मालूम है कि मुसलमानों को अलग करके देश के कई इलाकों में चुनाव नहीं जीता जा सकता . गुजरात में भी मुस्लिम विरोध के नाम पार नरेंद्र मोदी नहीं जीतते , वहां भी वे विकास की बोगी चलाते हैं और चुनाव जीत कर आते हैं . जीतने के बाद वे अपना हिन्दुत्व वादी एजेंडा चलाते हैं लेकिन साथ साथ विकास पुरुष भी बने रहते हैं .आर एस एस या बी जे पी को इस देश में मुसलमानों ने केवल एक बार स्वीकार किया . १९७७ के चुनाव में उत्तर भारत में जो भी इंदिरा -संजय टीम के खिलाफ था, उसे मुसलमान ने अपना लिया लेकिन २००२ के बाद तो मुसलमान किसी भी कीमत पर आर एस एस की मातहत पार्टी को वोट नहीं देगा. नीतेश कुमार की मोदी के विरोध की राजनीति इस पृष्ठभूमि में देखी जाए तो तस्वीर ज्यादा साफ हो जायेगी. पूरे देश में गुजरात २००२ के नरसंहार के लिए मोदी को ज़िम्मेदार माना जाता है और कोई भी सभ्य आदमी अपने को मोदी से सम्बंधित बताने में संकोच करता है . ज़ाहिर है कि अगर नरेंद्र मोदी के साथ देखे गए तो मुसलमान नीतीश से परहेज करेगा . इसलिए मोदी के विरोध का मामला बहुत बड़े पैमाने पर उठाकर नीतीश कुमार ने वह स्पेस हथिया लिया है जिसके लिए कांग्रेस और लालू प्रसाद यादव पिछले ४ साल से कोशिश कर रहे हैं . आम तौर पर मोदी के खिलाफ दिए गए हर बयान पर तालियाँ बजाने वाले कांग्रेसी नेता गुजरात से मिली बाढ़ सहायता राशि को लौटाने के काम को नौटंकी बता रहे हैं.. सब को मालूम है कि अगर अपने मुख्य समर्थकों के साथ मुसलमानों का वोट भी मिल गया तो पटना की गद्दी मिलने में आसानी होगी . लेकिन सच यह है कि नीतीश कुमार ने मुस्लिम वोट को रिझाने वाले स्पेस में अपनी दुकान सज़ा दी है और बाकी उम्मीद वार फिलहाल हक्के बक्के खड़े हैं . अभी चार महीने बाकी हैं . यह देखना दिलचस्प होगा कि मुस्लिम वोटों के लिए राजनीतिक पार्टियां अभी क्या क्या हथकंडे अपनाती हैं
नीतीश कुमार ने सत्ता का सुख भोग लेने के बाद जिस तरह से बी जे पी के सबसे ताक़तवर नेता , नरेंद्र मोदी को फटकारा है , उसकी धमक दिल्ली में सत्ता के गलियारों में महसूस की जा रही है . पिछले चार वर्षों से राहुल गांधी के नेतृत्व में मुसलमानों को रिझाने की कांग्रेस की कोशिशों को एक ज़बरदस्त झटका लगा है और अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के रणनीतिकार सत्ता के नए मुहावरे की तलाश में लग गए हैं . क्योंकि अब यह बात सभी स्वीकार कर रहे हैं कि मुसलमानों के वोटों की दावेदारी के खेल में नीतीश ने पहला डाव ज़बरदस्त खेला है और अब वे भी मुस्लिम वोटों की लाइन में लग गए हैं . बिहार में राजनीति एक नयी करवट ले रही है . विधान सभा के लिए चुनाव होने वाले हैं और राजनीतिक जोड़ गाँठ के विशेषज्ञ अपने काम में लग गए हैं. बिहार के मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने पहला पांसा फेंक दिया है और लगता है बिहार में जो प्रयोग शुरू हुआ है वह आने वाले वर्षों की भारत की राजनीति की दिशा तय करेगा. बिहार ने कई बार भारतीय राजनीति की दिशा तय की है . १९७४ में तो अगर कदम कुआं के फ़कीर ने मोर्चा न संभाला होता तो शायद भारत में भी लोक तंत्र इतिहास की किताबों का विषय बन चुका होता. जय प्रकाश जी की हिम्मत का ही जलवा था कि १९७७ में भारत की जनता ने बता दिया कि इस देश में स्थापित सत्ता के ज़रिये तानाशाही का राज नहीं कायम किया जा सकता. जेपी ने इंदिरा गाँधी और उनके छोटे पुत्र को बता दिया था कि इमरजेंसी के बावजूद भी इस देश की जनता अंग्रेजों से लड़कर जीती हुई अपनी आज़ादी को किसी गुमराह नौजवान के हाथों में खेलने के लिए नहीं थमा देगी और देश की सरकार किसी की मनमर्जी से नहीं चलने देगी. . जे पी के लिए शायद इंदिरा गाँधी को हटाना संभव लगा हो लेकिन उस दौर के ज़्यादातर गुणी जनों को विश्वास था कि इंदिरा गाँधी और संजय की सरकार को वैधानिकता देने के लिए ही १९७७ का चुनाव करवाया गया था लेकिन देश की राजनीति बदल गयी. ७७ के चुनाव की एक खासियत और थी . १९४८ में महात्मा गाँधी की ह्त्या के बाद उठे तूफ़ान में घिर गए आर एस एस वाले आम तौर राउर भारतीय राजनीति में हाशिये पर ही रहते थे लेकिन जे पी का साथ मिल जाने की वजह से उनकी पार्टी भारतीय जनसंघ सम्मानित पार्टियों में गिनी जाने लगी. बी जे पी का गठन तो जनता पार्टी को तोड़ कर किया गया था . ७७ के जे पी के आन्दोलन से मिली इज्ज़त के चलते बी जे पी का खूब विकास हुआ . यहाँ तक कि १९९८ और ९९ में देश भर की अन्य पार्टियों ने उनके नेतृत्व में सरकार में शामिल होना कुबूल कर लिया. बी जे पी के नेतृत्व में बनी सरकार को सबसे ज्यादा मजबूती जार्ज फर्नांडीज़ ने दी . उनके साथ रहे बहुत सारे लोगों ने न चाहते हुए भी बी जे पी को नेता मान लिया . जार्ज के साथियों में नीतीश कुमार प्रमुख थे . जार्ज ब्रांड के समाजवादियों की कृपा से स्वीकार्यता हासिल कर चुकी बी जे पी ने कभी भी जार्ज के साथियों को कम करके नहीं आँका. . नीतीश कुमार और उनके साथियों को भी पता था कि अगर बी जे पी का साथ छूट गया तो वहीं संसोपा वाली राजनीति ही हाथ आयेगी . सत्ता से दूर रहकर ही सामाजिक परिवर्तन का हल्ला गुल्ला चलता रहेगा. इसलिए वे लोग भी चुप चाप पिछले १० साल से मौज कर रहे हैं. लेकिन अब अब हालात बदल गए हैं. और लगता है कि जिस बिहार आन्दोलन ने आर एस एस की राजनीतिक शाखा को इज्ज़त दी थी , वही बिहार अब उसे फिर अनाथ छोड़ने के एतैयारी कर रहा है. वैसे भी बिहार सबसे ज़्यादा राजनीतिक रूप से जागरूक राज्य है लेकिन सूचना क्रान्ति के बाद हालात बहुत तेज़ी से बदल गए हैं . पूरे देश के नेताओं की राजनीतिक सोच का पता अवाम को चलता रहता है . बिहार में तो और भी ज्यादा है . अब भारत की हर राजनीतिक पार्टी को मालूम है कि मुसलमानों को अलग करके देश के कई इलाकों में चुनाव नहीं जीता जा सकता . गुजरात में भी मुस्लिम विरोध के नाम पार नरेंद्र मोदी नहीं जीतते , वहां भी वे विकास की बोगी चलाते हैं और चुनाव जीत कर आते हैं . जीतने के बाद वे अपना हिन्दुत्व वादी एजेंडा चलाते हैं लेकिन साथ साथ विकास पुरुष भी बने रहते हैं .आर एस एस या बी जे पी को इस देश में मुसलमानों ने केवल एक बार स्वीकार किया . १९७७ के चुनाव में उत्तर भारत में जो भी इंदिरा -संजय टीम के खिलाफ था, उसे मुसलमान ने अपना लिया लेकिन २००२ के बाद तो मुसलमान किसी भी कीमत पर आर एस एस की मातहत पार्टी को वोट नहीं देगा. नीतेश कुमार की मोदी के विरोध की राजनीति इस पृष्ठभूमि में देखी जाए तो तस्वीर ज्यादा साफ हो जायेगी. पूरे देश में गुजरात २००२ के नरसंहार के लिए मोदी को ज़िम्मेदार माना जाता है और कोई भी सभ्य आदमी अपने को मोदी से सम्बंधित बताने में संकोच करता है . ज़ाहिर है कि अगर नरेंद्र मोदी के साथ देखे गए तो मुसलमान नीतीश से परहेज करेगा . इसलिए मोदी के विरोध का मामला बहुत बड़े पैमाने पर उठाकर नीतीश कुमार ने वह स्पेस हथिया लिया है जिसके लिए कांग्रेस और लालू प्रसाद यादव पिछले ४ साल से कोशिश कर रहे हैं . आम तौर पर मोदी के खिलाफ दिए गए हर बयान पर तालियाँ बजाने वाले कांग्रेसी नेता गुजरात से मिली बाढ़ सहायता राशि को लौटाने के काम को नौटंकी बता रहे हैं.. सब को मालूम है कि अगर अपने मुख्य समर्थकों के साथ मुसलमानों का वोट भी मिल गया तो पटना की गद्दी मिलने में आसानी होगी . लेकिन सच यह है कि नीतीश कुमार ने मुस्लिम वोट को रिझाने वाले स्पेस में अपनी दुकान सज़ा दी है और बाकी उम्मीद वार फिलहाल हक्के बक्के खड़े हैं . अभी चार महीने बाकी हैं . यह देखना दिलचस्प होगा कि मुस्लिम वोटों के लिए राजनीतिक पार्टियां अभी क्या क्या हथकंडे अपनाती हैं
प्रतिष्ठित अखबार द हिन्दू और जन पक्षधरता की पत्रकारिता
शेष नारायण सिंह
अंग्रेज़ी के अखबार द हिन्दू ने खोजी और जन पक्षधरता की पत्रकारिता का एक नया कारनामा अंजाम दिया है . अखबार ने छाप दिया है कि भोपाल के गैस पीड़ितों के साथ जो अन्याय हुआ है उसके लिए कांग्रेस और भी जे पी के नेता बराबर के ज़िम्मेदार हैं .भोपाल काण्ड के वक़्त यूनियन कार्बाइड कंपनी के अध्यक्ष , वारेन एंडरसन के मामले में एक नया आयाम सामने आ गया है . बी जे पी वाले भोपाल के बहाने एक और बोफोर्स की तलाश में हैं. सारी ज़िम्मेदारी राजीव गाँधी के मत्थे मढ़ देने के चक्कर में हैं जिस से सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी को रक्षात्मक मुद्रा में लाया जा सके . लेकिन अब खेल बदल गया है . अब पता चाल है कि पार्टी के सबसे प्रभावशाली नेता, अरुण जेटली जब कानून मंत्री थे तो उन्होंने भी एंडरसन के बारे में वही कहा था जो कहने के आरोप में बी जे पी वाले कांग्रेस को कटघरे में खड़ा करना चाहते हैं . आज देश के सबसे प्रतिष्ठित अखबार में छप गया है कि २५ सितम्बर को २००१ को कानून मंत्री के रूप में अरुण जेटली ने फ़ाइल में लिखा था कि एंडरसन को वापस बुला कर उन पर मुक़दमा चलाने का केस बहुत कमज़ोर है . जब यह नोट अरुण जेटली ने लिखा उस वक़्त उनके ऊपर कानून, न्याय और कंपनी मामलों के मंत्री पद की ज़िम्मेदारी थी . यही नहीं उस वक़्त देश के अटार्नी जनरल के पद पर देश के सर्वोच्च योग्यता वाले एक वकील, सोली सोराबजी विद्यमान थे. सोराबजी ने अपनी राय में लिखा था कि अब तक जुटाया गया साक्ष्य ऐसा नहीं है जिसके बल पर अमरीकी अदालतों में मामला जीता जा सके. अरुण जेटली के नोट में जो लिखा है उससे एंडरसन बिलकुल पाक साफ़ इंसान के रूप में सामने आता है . ज़ाहिर है आज बी जे पी राजीव गांधी के खिलाफ जो केस बना रही है , उसकी वह राय तब नहीं थी जब वह सरकार में थी. अरुण जेटली ने सरकारी फ़ाइल में लिखा है कि यह कोई मामला ही नहीं है कि मिस्टर एंडरसन ने कोई ऐसा काम किया जिस से गैस लीक हुई और जान माल की भारी क्षति हुई . श्री जेटली ने लिखा है कि कहीं भी कोई सबूत नहीं है कि मिस्टर एंडरसन को मालूम था कि प्लांट की डिजाइन में कहीं कोई दोष है या कहीं भी सुरक्षा की बुनियादी ज़रूरतों से समझौता किया गया है. कानून मंत्री, अरुण जेटली कहते हैं कि सारा मामला इस अवधारणा पर आधारित है कि कंपनी के अध्यक्ष होने के नाते एंडरसन को मालूम होना चाहिए कि उनकी भोपाल यूनिट में क्या गड़बड़ियां हैं . श्री जेटली के नोट में साफ़ लिखा है कि इस बात के कोई सबूत नहीं हैं कि अमरीका में मौजूद मुख्य कंपनी के अध्यक्ष ने भोपाल की फैक्टरी के रोज़ के काम काज में दखल दिया. उन्होंने कहा कि हालांकि केस बहुत कमज़ोर है लेकिन अगर मामले को आगे तक ले जाने की पालिसी बनायी जाती है तो केस दायर किया जा सकता है . ज़ाहिर हैं उस वक़्त की सरकार ने कानून के विद्वान् अपने मंत्री, अरुण जेटली की राय को जान लेने के बाद मामले को आगे नहीं बढ़ाया .
मौजूदा सरकार की भी यही राय है . उन्हें भी मालूम है कि केस बहुत कमज़ोर है लेकिन बी जे पी की ओर से मीडिया के ज़रिये शुरू किये गए अभियान से संभावित राजनीतिक नुकसान के डर से यू पी ए सरकार भी मामले चलाने का स्वांग करने के पक्ष में लगते हैं .वैसे भी बी जे पी ने इस मामले को अपनी टाप प्रायरिटी पर डाल दिया है . पता चला है कि संसद के मानसून सत्र में वे इस मामले पर भारी ताक़त के साथ जुटने वाले हैं . अब यह देखना दिलचस्प होगा कि एंडरसन के केस में राजीव गाँधी, अर्जुन सिंह वगैरह के साथ क्या अरुण जेटली को भी कटघरे में रखने की कोशिश की जायेगी क्योंकि अगर कांग्रेस ज़िम्मेदार है तो ठीक वही ज़िम्मेदारी अरुण जेटली पर भी बनती है .सरकार में मंत्री के रूप में तो अरुण जेटली ने बयान दिया ही था, निजी हैसियत में भी उन्होंने यूनियन कार्बाइड खरीदने वाली वाली कंपनी डाव केमिकल्स को कानूनी सलाह दी थी कि डाव को भोपाल गैस लीक मामले के किसी भी सिविल या क्रिमनल मुक़दमे में ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता..यह सलाह अरुण जेटली ने २००६ में दी थी जाब वे डाव केमिकल्स के एडवोकेट थे.
अब यह देखना दिलचस्प होगा कि राजनीतिक फायदे के लिए बी जे पी वाले भोपाल के पीड़ितों को राहत देने के काम में हाथ डालते हैं कि नहीं . इस में दो राय नहीं है कि १९८४ से लेकर अब तक जितनी भी सरकारें दिल्ली और भोपाल में आई हैं वे सब भोपाल के गैस पीड़ितों के गुनहगार हैं . लेकिन सबसे ज्यादा ज़िम्मेदारी कांगेस की है . अब यह साफ़ हो गया है कि बी जेपी का सबसे मज़बूत नेता भी उसमें शामिल था. अब यह भी पता है कि अमरीका परस्ती की अपनी नीति के कारण न तो , बी जे पी और न ही कांग्रेस भोपाल के पीड़ितों का पक्ष लेगी . ऐसी हालत में मीडिया की ज़िम्मेदारी है कि वह दोषियों को सामने लाये और सार्वजनिक रूप से कायल करे. प्रतिष्ठित अखबार हिन्दू ने बिगुल बजा दिया है , बाकी मीडिया संगठनों को भी कांग्रेस और बी जे पी के दोषी नेताओं के एकार्तूतों को सार्वजनिक डोमेन में लाने में मदद करनी चाहिये .
अंग्रेज़ी के अखबार द हिन्दू ने खोजी और जन पक्षधरता की पत्रकारिता का एक नया कारनामा अंजाम दिया है . अखबार ने छाप दिया है कि भोपाल के गैस पीड़ितों के साथ जो अन्याय हुआ है उसके लिए कांग्रेस और भी जे पी के नेता बराबर के ज़िम्मेदार हैं .भोपाल काण्ड के वक़्त यूनियन कार्बाइड कंपनी के अध्यक्ष , वारेन एंडरसन के मामले में एक नया आयाम सामने आ गया है . बी जे पी वाले भोपाल के बहाने एक और बोफोर्स की तलाश में हैं. सारी ज़िम्मेदारी राजीव गाँधी के मत्थे मढ़ देने के चक्कर में हैं जिस से सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी को रक्षात्मक मुद्रा में लाया जा सके . लेकिन अब खेल बदल गया है . अब पता चाल है कि पार्टी के सबसे प्रभावशाली नेता, अरुण जेटली जब कानून मंत्री थे तो उन्होंने भी एंडरसन के बारे में वही कहा था जो कहने के आरोप में बी जे पी वाले कांग्रेस को कटघरे में खड़ा करना चाहते हैं . आज देश के सबसे प्रतिष्ठित अखबार में छप गया है कि २५ सितम्बर को २००१ को कानून मंत्री के रूप में अरुण जेटली ने फ़ाइल में लिखा था कि एंडरसन को वापस बुला कर उन पर मुक़दमा चलाने का केस बहुत कमज़ोर है . जब यह नोट अरुण जेटली ने लिखा उस वक़्त उनके ऊपर कानून, न्याय और कंपनी मामलों के मंत्री पद की ज़िम्मेदारी थी . यही नहीं उस वक़्त देश के अटार्नी जनरल के पद पर देश के सर्वोच्च योग्यता वाले एक वकील, सोली सोराबजी विद्यमान थे. सोराबजी ने अपनी राय में लिखा था कि अब तक जुटाया गया साक्ष्य ऐसा नहीं है जिसके बल पर अमरीकी अदालतों में मामला जीता जा सके. अरुण जेटली के नोट में जो लिखा है उससे एंडरसन बिलकुल पाक साफ़ इंसान के रूप में सामने आता है . ज़ाहिर है आज बी जे पी राजीव गांधी के खिलाफ जो केस बना रही है , उसकी वह राय तब नहीं थी जब वह सरकार में थी. अरुण जेटली ने सरकारी फ़ाइल में लिखा है कि यह कोई मामला ही नहीं है कि मिस्टर एंडरसन ने कोई ऐसा काम किया जिस से गैस लीक हुई और जान माल की भारी क्षति हुई . श्री जेटली ने लिखा है कि कहीं भी कोई सबूत नहीं है कि मिस्टर एंडरसन को मालूम था कि प्लांट की डिजाइन में कहीं कोई दोष है या कहीं भी सुरक्षा की बुनियादी ज़रूरतों से समझौता किया गया है. कानून मंत्री, अरुण जेटली कहते हैं कि सारा मामला इस अवधारणा पर आधारित है कि कंपनी के अध्यक्ष होने के नाते एंडरसन को मालूम होना चाहिए कि उनकी भोपाल यूनिट में क्या गड़बड़ियां हैं . श्री जेटली के नोट में साफ़ लिखा है कि इस बात के कोई सबूत नहीं हैं कि अमरीका में मौजूद मुख्य कंपनी के अध्यक्ष ने भोपाल की फैक्टरी के रोज़ के काम काज में दखल दिया. उन्होंने कहा कि हालांकि केस बहुत कमज़ोर है लेकिन अगर मामले को आगे तक ले जाने की पालिसी बनायी जाती है तो केस दायर किया जा सकता है . ज़ाहिर हैं उस वक़्त की सरकार ने कानून के विद्वान् अपने मंत्री, अरुण जेटली की राय को जान लेने के बाद मामले को आगे नहीं बढ़ाया .
मौजूदा सरकार की भी यही राय है . उन्हें भी मालूम है कि केस बहुत कमज़ोर है लेकिन बी जे पी की ओर से मीडिया के ज़रिये शुरू किये गए अभियान से संभावित राजनीतिक नुकसान के डर से यू पी ए सरकार भी मामले चलाने का स्वांग करने के पक्ष में लगते हैं .वैसे भी बी जे पी ने इस मामले को अपनी टाप प्रायरिटी पर डाल दिया है . पता चला है कि संसद के मानसून सत्र में वे इस मामले पर भारी ताक़त के साथ जुटने वाले हैं . अब यह देखना दिलचस्प होगा कि एंडरसन के केस में राजीव गाँधी, अर्जुन सिंह वगैरह के साथ क्या अरुण जेटली को भी कटघरे में रखने की कोशिश की जायेगी क्योंकि अगर कांग्रेस ज़िम्मेदार है तो ठीक वही ज़िम्मेदारी अरुण जेटली पर भी बनती है .सरकार में मंत्री के रूप में तो अरुण जेटली ने बयान दिया ही था, निजी हैसियत में भी उन्होंने यूनियन कार्बाइड खरीदने वाली वाली कंपनी डाव केमिकल्स को कानूनी सलाह दी थी कि डाव को भोपाल गैस लीक मामले के किसी भी सिविल या क्रिमनल मुक़दमे में ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता..यह सलाह अरुण जेटली ने २००६ में दी थी जाब वे डाव केमिकल्स के एडवोकेट थे.
अब यह देखना दिलचस्प होगा कि राजनीतिक फायदे के लिए बी जे पी वाले भोपाल के पीड़ितों को राहत देने के काम में हाथ डालते हैं कि नहीं . इस में दो राय नहीं है कि १९८४ से लेकर अब तक जितनी भी सरकारें दिल्ली और भोपाल में आई हैं वे सब भोपाल के गैस पीड़ितों के गुनहगार हैं . लेकिन सबसे ज्यादा ज़िम्मेदारी कांगेस की है . अब यह साफ़ हो गया है कि बी जेपी का सबसे मज़बूत नेता भी उसमें शामिल था. अब यह भी पता है कि अमरीका परस्ती की अपनी नीति के कारण न तो , बी जे पी और न ही कांग्रेस भोपाल के पीड़ितों का पक्ष लेगी . ऐसी हालत में मीडिया की ज़िम्मेदारी है कि वह दोषियों को सामने लाये और सार्वजनिक रूप से कायल करे. प्रतिष्ठित अखबार हिन्दू ने बिगुल बजा दिया है , बाकी मीडिया संगठनों को भी कांग्रेस और बी जे पी के दोषी नेताओं के एकार्तूतों को सार्वजनिक डोमेन में लाने में मदद करनी चाहिये .
Tuesday, June 22, 2010
बात बिगड़ गयी है, जातिवादी नरक से निकालने के लिए महात्मा फुले की ज़रुरत है
शेष नारायण सिंह
दिल्ली में पापी लोग अपनी ही बहनों को मार डाल रहे हैं . इन दुष्टों से अपनी ही सगी बहनों की खुशियाँ नहीं देखी जा रही हैं.अभी मोनिका और कुलदीप की निर्मम हत्या की खबर आई थी . .अब उसी परिवार की एक और लड़की को भाई ने ही मार डाला. वह इसलिए नाराज़ था कि उसकी बहन ने अपनी खुशी के लिए शादी कर ली थी. उसने शादी किसी दूसरी जाति के लडके से की थी. अजीब बात है कि कहीं बच्चे इसलिए मार डाले जा रहे हैं कि उन्होंने अपनी जाति के बाहर शादी कार ली है और वहीं दिल्ली के आस पास बहुत सारे लड़के लडकियां इस लिए मौत के घाट उतार दिए जा रहे हैं कि उन्होंने अपनी ही जाति और गोत्र में शादी कर ली है .इक्कीसवीं सदी चल रही है , मुल्क को आज़ाद हुए ६० साल से ऊपर हो चुके हैं ,जिन इलाकों से इस तरह की तंगदिली की खबरें आ रही हैं उन इलाकों में शिक्षा का भी प्रचार प्रसार ख़ासा है . सूचना माध्यमों का प्रभाव है जिसके चलते दुनिया भर के रीति रिवाजों की जानकारी है लेकिन फिर भी निहायत ही जंगली तरीके से अपने सगे सम्बन्धियों को मौत की सज़ा दे रहे हैं यहाँ के लोग. समझ में नहीं आता कि एकाएक जाति और उस से जुड़े मुद्दे इतने अहम क्यों हो गए हैं . सबसे अजीब बात यह है कि इन मामलों में यह जानते हुए कि भयानक अपराध के काम किये जा रहे हैं , नेता लोग कुछ नहीं बोल रहे हैं. हरियाणा के मुख्य मंत्री ने तो एक तरह से जाति के बाहर शादी करने की बात को परम्परा विरुद्ध कह कर इन अपराधियों का समर्थन ही कर दिया है . बाकी नेता भी मीडिया द्वारा घेरे जाने पर गोल मोल जवाब देकर अपना पिंड छुड़ा रहे हैं. जबकि आज़ादी की लड़ाई में यह समाया हुआ है कि देश में बराबरी पर आधारित समाज की स्थापना की जायेगी. हरियाणा के मुख्य मंत्री की बात बहुत अजीब इसलिए लगती है कि उनके पिता आज़ादी की लड़ाई में शामिल थे और उस संविधान सभा के सदस्य थे जिसने जीवन के मौलिक अधिकार देने वाले संविधान की स्थापना की थी. इसी लिए इस वहशत के निजाम को समर्थन देने वाले भूपेन्द्र सिंह हुड्डा की बात समझ मेंआने वाली नहीं है . महात्मा गाँधी खुद जाति की कट्टरता के खिलाफ थे. उन्होंने इंदिरा गाँधी की दूसरी जाति में हुई शादी को समर्थन दिया था जबकि जवाहर लाल नेहरू ने कभी भी जाति और धर्म के आधार पर गैर बराबरी का समर्थन नहीं किया था. कांग्रेस को चाहिए कि जो लोग भी उनकी पार्टी में जाति और धर्म की कट्टरता का समर्थन कर रहे हों उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दें . डॉ भीम राव अंबेडकर और डॉ राम मनोहर लोहिया के नाम पर भी आज़ादी के लड़ाई के दौरान बहुत सारे लोग लामबंद हुए थे . इनकी विचार धारा को लागू करने के लिए अब कई राजनीतिक पार्टियां हैं. लेकिन वे पार्टियां भी जाति के शिकंजे को तोड़ने के लिए कुछ नहीं कर रही हैं . उलटे जाति की संस्था को वोट दिलाऊ दुधारू गाय की तरह जिंदा रखना चाहती हैं .एक और अजीब बात है कि आजकल जिन इलाकों में जाति के बाहर शादी करने या अपने गोत्र में शादी करने पर हिंसक वारदातें हो रही हैं वह आर्य समाज के प्रभाव वाले क्षेत्र भी है . जो रूढ़िवाद का विरोध करने के लिए शुरू किया गया था . और तो और इस्लाम धर्म को माने वाले भी इस जाति के चक्र व्यूह में फंस गए हैं .जहां जाति के आधार पर गैर बराबरी की अनुमति ही नहीं है . लगता हैकि इस सारे जाति वादी गोरख धंधे के पीछे राजनीतिक लालच काम कर रही है और जाति को वोट बैंक के रूप में जिंदा रखने वालों का एक वर्ग देश का नेता बना हुआ है . लगता है कि अपने समाज को इस जातिवादी नरक से निकालने के लिए किसी ज्योति बा फुले की ज़रुरत पड़ेगी वरना सत्ता के लोभी नेता बिरादरी के लोग आज़ादी की विरासत को चट कर जायेंगें.हालांकि पिछले ४० वर्षों से जाति की राजनीति को हवा दे रही राजनीतिक बिरादरी के लिए जाति के मोह को छोड़ना मुश्किल होगा.लेकिन यह तय है कि किसी न किसी को आन्दोलन का रास्ता अख्तियार करना पडेगा और उसे कुर्बानी भी देनी पड़ेगी. जब १८४८ में ज्योति बा फुले ने दलित लड़कियों के लिए स्कूल खोला था तो उन्हें उनके पिता ने ही घर से निकाल दिया था. और लगता है कि मौजूदा जातिवादी नरक का इलाज़ महात्मा फुले ही कर सकते हैं . क्योंकि बात बहुत बिगड़ गयी है
दिल्ली में पापी लोग अपनी ही बहनों को मार डाल रहे हैं . इन दुष्टों से अपनी ही सगी बहनों की खुशियाँ नहीं देखी जा रही हैं.अभी मोनिका और कुलदीप की निर्मम हत्या की खबर आई थी . .अब उसी परिवार की एक और लड़की को भाई ने ही मार डाला. वह इसलिए नाराज़ था कि उसकी बहन ने अपनी खुशी के लिए शादी कर ली थी. उसने शादी किसी दूसरी जाति के लडके से की थी. अजीब बात है कि कहीं बच्चे इसलिए मार डाले जा रहे हैं कि उन्होंने अपनी जाति के बाहर शादी कार ली है और वहीं दिल्ली के आस पास बहुत सारे लड़के लडकियां इस लिए मौत के घाट उतार दिए जा रहे हैं कि उन्होंने अपनी ही जाति और गोत्र में शादी कर ली है .इक्कीसवीं सदी चल रही है , मुल्क को आज़ाद हुए ६० साल से ऊपर हो चुके हैं ,जिन इलाकों से इस तरह की तंगदिली की खबरें आ रही हैं उन इलाकों में शिक्षा का भी प्रचार प्रसार ख़ासा है . सूचना माध्यमों का प्रभाव है जिसके चलते दुनिया भर के रीति रिवाजों की जानकारी है लेकिन फिर भी निहायत ही जंगली तरीके से अपने सगे सम्बन्धियों को मौत की सज़ा दे रहे हैं यहाँ के लोग. समझ में नहीं आता कि एकाएक जाति और उस से जुड़े मुद्दे इतने अहम क्यों हो गए हैं . सबसे अजीब बात यह है कि इन मामलों में यह जानते हुए कि भयानक अपराध के काम किये जा रहे हैं , नेता लोग कुछ नहीं बोल रहे हैं. हरियाणा के मुख्य मंत्री ने तो एक तरह से जाति के बाहर शादी करने की बात को परम्परा विरुद्ध कह कर इन अपराधियों का समर्थन ही कर दिया है . बाकी नेता भी मीडिया द्वारा घेरे जाने पर गोल मोल जवाब देकर अपना पिंड छुड़ा रहे हैं. जबकि आज़ादी की लड़ाई में यह समाया हुआ है कि देश में बराबरी पर आधारित समाज की स्थापना की जायेगी. हरियाणा के मुख्य मंत्री की बात बहुत अजीब इसलिए लगती है कि उनके पिता आज़ादी की लड़ाई में शामिल थे और उस संविधान सभा के सदस्य थे जिसने जीवन के मौलिक अधिकार देने वाले संविधान की स्थापना की थी. इसी लिए इस वहशत के निजाम को समर्थन देने वाले भूपेन्द्र सिंह हुड्डा की बात समझ मेंआने वाली नहीं है . महात्मा गाँधी खुद जाति की कट्टरता के खिलाफ थे. उन्होंने इंदिरा गाँधी की दूसरी जाति में हुई शादी को समर्थन दिया था जबकि जवाहर लाल नेहरू ने कभी भी जाति और धर्म के आधार पर गैर बराबरी का समर्थन नहीं किया था. कांग्रेस को चाहिए कि जो लोग भी उनकी पार्टी में जाति और धर्म की कट्टरता का समर्थन कर रहे हों उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दें . डॉ भीम राव अंबेडकर और डॉ राम मनोहर लोहिया के नाम पर भी आज़ादी के लड़ाई के दौरान बहुत सारे लोग लामबंद हुए थे . इनकी विचार धारा को लागू करने के लिए अब कई राजनीतिक पार्टियां हैं. लेकिन वे पार्टियां भी जाति के शिकंजे को तोड़ने के लिए कुछ नहीं कर रही हैं . उलटे जाति की संस्था को वोट दिलाऊ दुधारू गाय की तरह जिंदा रखना चाहती हैं .एक और अजीब बात है कि आजकल जिन इलाकों में जाति के बाहर शादी करने या अपने गोत्र में शादी करने पर हिंसक वारदातें हो रही हैं वह आर्य समाज के प्रभाव वाले क्षेत्र भी है . जो रूढ़िवाद का विरोध करने के लिए शुरू किया गया था . और तो और इस्लाम धर्म को माने वाले भी इस जाति के चक्र व्यूह में फंस गए हैं .जहां जाति के आधार पर गैर बराबरी की अनुमति ही नहीं है . लगता हैकि इस सारे जाति वादी गोरख धंधे के पीछे राजनीतिक लालच काम कर रही है और जाति को वोट बैंक के रूप में जिंदा रखने वालों का एक वर्ग देश का नेता बना हुआ है . लगता है कि अपने समाज को इस जातिवादी नरक से निकालने के लिए किसी ज्योति बा फुले की ज़रुरत पड़ेगी वरना सत्ता के लोभी नेता बिरादरी के लोग आज़ादी की विरासत को चट कर जायेंगें.हालांकि पिछले ४० वर्षों से जाति की राजनीति को हवा दे रही राजनीतिक बिरादरी के लिए जाति के मोह को छोड़ना मुश्किल होगा.लेकिन यह तय है कि किसी न किसी को आन्दोलन का रास्ता अख्तियार करना पडेगा और उसे कुर्बानी भी देनी पड़ेगी. जब १८४८ में ज्योति बा फुले ने दलित लड़कियों के लिए स्कूल खोला था तो उन्हें उनके पिता ने ही घर से निकाल दिया था. और लगता है कि मौजूदा जातिवादी नरक का इलाज़ महात्मा फुले ही कर सकते हैं . क्योंकि बात बहुत बिगड़ गयी है
उत्तर प्रदेश की राजनीति में अमर सिंह ने कांशीराम का रास्ता अपनाया
शेष नारायण सिंह
बिहार के साथ साथ उत्तर प्रदेश में भी मुस्लिम वोटों के लिए जुगाड़ शुरू हो गया है . बिहार में तो मुसलमानों को रिझाने के पारंपरिक तरीके इस्तेमाल किये जा रहे हैं लेकिन उत्तर प्रदेश में कुछ नए प्रयोग हो रहे हैं . आम तौर पर चुनाव में कुछ पैसों की लालच में छोटी राजनीतिक पार्टियां बना ली जाती हैं लेकिन इस बार जो छोटी राजनीतिक पार्टियां बन रही हैं, उन्हें जनता ने गंभीरता से लेना शुरू कर दिया है . डुमरिया गंज विधान सभा चुनाव में इस बात पर बहस नहीं थी कि कौन जीतेगा . सब को मालूम था कि सत्ताधारी पार्टी की उम्मीदवार ही जीतेगी लेकिन दूसरी जगह पर कौन आएगा ,इस पर चर्चा थी क्योंकि उस को ही सबसे लोकप्रिय पार्टी माना जाएगा. दूसरी जगह पर बी जे पी आ गयी जबकि राहुल गाँधी और जगदम्बिका पाल की कोशिश के बावजूद कांग्रेस बहुत पीछे छूट गयी . उत्तर प्रदेश में आम तौर पर मुसलमानों की पसंदीदा पार्टी, समाजवादी पार्टी भी बहुत पिछड़ गयी. और गैर मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट देकर घोषित रूप से पिछड़े मुसलमानों के हितों की रक्षा के लिए बनायी गयी , पीस पार्टी का उम्मीदवार बाकायदा लड़ाई में बना रहा. पीस पार्टी के बाद कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का नंबर आया. पीस पार्टी के बारे में कहा जाता है कि उसे हिंदुत्व वादी ताक़तों ने बनवाया है ताकि मुसलमानों का वोट कांग्रेस या समाजवादी पार्टी को न मिल सके. इस बात के कोई सबूत नहीं है लेकिन ऐसा कहने वाले बहुत सारे लोग मिल जायेगें . पीस पार्टी के अलावा भी उत्तर प्रदेश में मुसलमानों के नाम पर कई पार्टियां बन चुकी हैं. अभी उनकी राजनीतिक हैसियत कुछ ख़ास नहीं है लेकिन चुनाव के मैदान में उनकी मौजूदगी निश्चित रूप से नतीजों को प्रभावित कर रही है और करेगी भी .
उत्तर प्रदेश में डुमरिया गंज के उपचुनाव ने बहुत सारे राजनीतिक विमर्श के सूत्र छोड़े हैं . डुमरिया गंज जिस लोक सभा क्षेत्र में पड़ता है , वहां से पिछले लोक सभा चुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार जगदम्बिका पाल विजयी रहे थे. डुमरिया गंज सेगमेंट में भी वे आगे थे . यानी वहां माहौल कांग्रेस के पक्ष में था लेकिन विधान सभा उपचुनाव में पांचवें स्थान पर आकर कांग्रेस ने साबित कर दिया कि लोक सभा चुनाव का नतीजा एक इत्तेफाक था .इस से ज्यादा कुछ नहीं .लेकिन इसमें कांग्रेस की प्रतिष्टा दांव पर लगी थी और वह धूमिल हुई है ..इस उपचुनाव में और भी बहुत कुछ दांव पर लगा था. कल्याण सिंह को साथ लेने के बाद समाजवादी पार्टी और मुसलमानों के सम्बन्ध भी मुस्लिम जनमत के बीच बहस का विषय हैं . हालांकि कल्याणसिंह को अब समाजवादी पार्टी ने निकाल दिया है लेकिन अभी विश्वसनीयता का संकट बना हुआ है . कुछ मुसलमान नेता भी कल्याण सिंह मामले को मुद्दा बनाने के चक्कर में थे लेकिन सफल नहीं हुए . इनमें से एक तो पार्टी से निकाले भी गए. पूरे देश के मुसलमानों का प्रतिनिधि बनने का दावा करने वाले यह नेता जी अपने विधान सभा क्षेत्र में भी समाजवादी पार्टी की उम्मीदवार जयाप्रदा को हरा नहीं पाए . उनके घर के सामने , जयाप्रदा के समर्थकों ने सभा की और उनके समर्थन वाली कांग्रेसी उम्मीदवार को हराया .इसलिए मुस्लिम जनमत में उन नेता जी की तो कोई ख़ास इज्ज़त नहीं है लेकिन लोक सभा चुनावों में बड़े पैमाने पर मुसलमानों को समाजवादी पार्टी से जोड़ने वाले पार्टी के पूर्व महासचिव ,अमर सिंह की राजनीति का खामियाजा समाजवादी पार्टी को भोगना पड़ रहा है. डुमरिया गंज में भी अमर सिंह ने पूरी ताक़त से पीस पार्टी के उम्मीदवार की मदद की थी. भोजपुरी फिल्मों के नायक , मनोज तिवारी और हिन्दी फिल्मों की नायिका और संसद सदस्य , जयाप्रदा के साथ डुमरिया गंज में सभा भी की थी. और भी कारण रहे होंगें जिसकी वजह से मुसलमानों ने समाजवादी पार्टी को वोट नहीं दिया लेकिन इस चुनाव ने साबित कर दिया कि समाजवादी पार्टी से निकाले जाने के बाद अमर सिंह चुक जाने को तैयार नहीं हैं.. कांग्रेस की तरह समाजवादी पार्टी में भी नेता की कृपा से सत्ता का सुख भोगने का फैशन है . कांगेस में इंदिरा गाँधी के नाम पर चुनाव जीते जाते थे और जिसको भी वे पार्टी से निकाल देती थीं उसकी राजनीति का अंत हो जाता था. अब सोनिया गाँधी की लोकप्रियता की छाया में कांग्रेस के नेता लोग सत्ता का आनंद ले रहे हैं . समाजवादी पार्टी में भी यही होता था. मुलायम सिंह यादव के नाम पर ही सारी जमात राज कर रही थी . माना जा रहा था कि अमर सिंह भी उसी भीड़ का हिसा हैं जो नेता जी के नाम पर मौज कर रहे हैं. जिसको भी नेता जी ने निकाल दिया उनकी हालत खस्ता हो जाती थी और पार्टी का कोई नुकसान नहीं होता था . बेनी प्रसाद वर्मा, रघु ठाकुर,राज बब्बर, आज़म खां आदि कुछ ऐसे नाम हैं जो समाजवादी पार्टी के आलाकमान हुआ करते थे लेकिन आज कहीं नहीं हैं . अमर सिंह भी इसी दशा को प्राप्त होगें ऐसा माना जा रहा था लेकिन उन्होंने डुमरिया गंज चुनाव में हस्तक्षेप करके बता दिया है कि वे राज्य की राजनीति में मजबूती के साथ मौजूद हैं और आने वाले महीनों में अपनी पुरानी पार्टी के लिए तो मुश्किल पैदा करेगें ही, छोटी पार्टियों को जोड़कर एक ऐसा गठबंधन तैयार कर देगें जो उत्तर प्रदेश की पारंपरिक पार्टियों को सत्ता के गलियारों से बाहर भी खदेड़ सकता है. १९८७ के बाद कांशी राम ने भी यही प्रयोग किया था और आज देश के हर कोने में उनकी पार्टी की ताक़त से लोग डरते हैं. कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश की राजनीति में बड़े पैमाने पर परिवर्तन का डंका बज चुका है . भविष्य में क्या होगा , उसके बारे में अभी कुछ कहना इसलिए ठीक नहीं होगा कि अपनी राजनीतिक समझदारी की समझ दांव पर लग सकती है .
बिहार के साथ साथ उत्तर प्रदेश में भी मुस्लिम वोटों के लिए जुगाड़ शुरू हो गया है . बिहार में तो मुसलमानों को रिझाने के पारंपरिक तरीके इस्तेमाल किये जा रहे हैं लेकिन उत्तर प्रदेश में कुछ नए प्रयोग हो रहे हैं . आम तौर पर चुनाव में कुछ पैसों की लालच में छोटी राजनीतिक पार्टियां बना ली जाती हैं लेकिन इस बार जो छोटी राजनीतिक पार्टियां बन रही हैं, उन्हें जनता ने गंभीरता से लेना शुरू कर दिया है . डुमरिया गंज विधान सभा चुनाव में इस बात पर बहस नहीं थी कि कौन जीतेगा . सब को मालूम था कि सत्ताधारी पार्टी की उम्मीदवार ही जीतेगी लेकिन दूसरी जगह पर कौन आएगा ,इस पर चर्चा थी क्योंकि उस को ही सबसे लोकप्रिय पार्टी माना जाएगा. दूसरी जगह पर बी जे पी आ गयी जबकि राहुल गाँधी और जगदम्बिका पाल की कोशिश के बावजूद कांग्रेस बहुत पीछे छूट गयी . उत्तर प्रदेश में आम तौर पर मुसलमानों की पसंदीदा पार्टी, समाजवादी पार्टी भी बहुत पिछड़ गयी. और गैर मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट देकर घोषित रूप से पिछड़े मुसलमानों के हितों की रक्षा के लिए बनायी गयी , पीस पार्टी का उम्मीदवार बाकायदा लड़ाई में बना रहा. पीस पार्टी के बाद कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का नंबर आया. पीस पार्टी के बारे में कहा जाता है कि उसे हिंदुत्व वादी ताक़तों ने बनवाया है ताकि मुसलमानों का वोट कांग्रेस या समाजवादी पार्टी को न मिल सके. इस बात के कोई सबूत नहीं है लेकिन ऐसा कहने वाले बहुत सारे लोग मिल जायेगें . पीस पार्टी के अलावा भी उत्तर प्रदेश में मुसलमानों के नाम पर कई पार्टियां बन चुकी हैं. अभी उनकी राजनीतिक हैसियत कुछ ख़ास नहीं है लेकिन चुनाव के मैदान में उनकी मौजूदगी निश्चित रूप से नतीजों को प्रभावित कर रही है और करेगी भी .
उत्तर प्रदेश में डुमरिया गंज के उपचुनाव ने बहुत सारे राजनीतिक विमर्श के सूत्र छोड़े हैं . डुमरिया गंज जिस लोक सभा क्षेत्र में पड़ता है , वहां से पिछले लोक सभा चुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार जगदम्बिका पाल विजयी रहे थे. डुमरिया गंज सेगमेंट में भी वे आगे थे . यानी वहां माहौल कांग्रेस के पक्ष में था लेकिन विधान सभा उपचुनाव में पांचवें स्थान पर आकर कांग्रेस ने साबित कर दिया कि लोक सभा चुनाव का नतीजा एक इत्तेफाक था .इस से ज्यादा कुछ नहीं .लेकिन इसमें कांग्रेस की प्रतिष्टा दांव पर लगी थी और वह धूमिल हुई है ..इस उपचुनाव में और भी बहुत कुछ दांव पर लगा था. कल्याण सिंह को साथ लेने के बाद समाजवादी पार्टी और मुसलमानों के सम्बन्ध भी मुस्लिम जनमत के बीच बहस का विषय हैं . हालांकि कल्याणसिंह को अब समाजवादी पार्टी ने निकाल दिया है लेकिन अभी विश्वसनीयता का संकट बना हुआ है . कुछ मुसलमान नेता भी कल्याण सिंह मामले को मुद्दा बनाने के चक्कर में थे लेकिन सफल नहीं हुए . इनमें से एक तो पार्टी से निकाले भी गए. पूरे देश के मुसलमानों का प्रतिनिधि बनने का दावा करने वाले यह नेता जी अपने विधान सभा क्षेत्र में भी समाजवादी पार्टी की उम्मीदवार जयाप्रदा को हरा नहीं पाए . उनके घर के सामने , जयाप्रदा के समर्थकों ने सभा की और उनके समर्थन वाली कांग्रेसी उम्मीदवार को हराया .इसलिए मुस्लिम जनमत में उन नेता जी की तो कोई ख़ास इज्ज़त नहीं है लेकिन लोक सभा चुनावों में बड़े पैमाने पर मुसलमानों को समाजवादी पार्टी से जोड़ने वाले पार्टी के पूर्व महासचिव ,अमर सिंह की राजनीति का खामियाजा समाजवादी पार्टी को भोगना पड़ रहा है. डुमरिया गंज में भी अमर सिंह ने पूरी ताक़त से पीस पार्टी के उम्मीदवार की मदद की थी. भोजपुरी फिल्मों के नायक , मनोज तिवारी और हिन्दी फिल्मों की नायिका और संसद सदस्य , जयाप्रदा के साथ डुमरिया गंज में सभा भी की थी. और भी कारण रहे होंगें जिसकी वजह से मुसलमानों ने समाजवादी पार्टी को वोट नहीं दिया लेकिन इस चुनाव ने साबित कर दिया कि समाजवादी पार्टी से निकाले जाने के बाद अमर सिंह चुक जाने को तैयार नहीं हैं.. कांग्रेस की तरह समाजवादी पार्टी में भी नेता की कृपा से सत्ता का सुख भोगने का फैशन है . कांगेस में इंदिरा गाँधी के नाम पर चुनाव जीते जाते थे और जिसको भी वे पार्टी से निकाल देती थीं उसकी राजनीति का अंत हो जाता था. अब सोनिया गाँधी की लोकप्रियता की छाया में कांग्रेस के नेता लोग सत्ता का आनंद ले रहे हैं . समाजवादी पार्टी में भी यही होता था. मुलायम सिंह यादव के नाम पर ही सारी जमात राज कर रही थी . माना जा रहा था कि अमर सिंह भी उसी भीड़ का हिसा हैं जो नेता जी के नाम पर मौज कर रहे हैं. जिसको भी नेता जी ने निकाल दिया उनकी हालत खस्ता हो जाती थी और पार्टी का कोई नुकसान नहीं होता था . बेनी प्रसाद वर्मा, रघु ठाकुर,राज बब्बर, आज़म खां आदि कुछ ऐसे नाम हैं जो समाजवादी पार्टी के आलाकमान हुआ करते थे लेकिन आज कहीं नहीं हैं . अमर सिंह भी इसी दशा को प्राप्त होगें ऐसा माना जा रहा था लेकिन उन्होंने डुमरिया गंज चुनाव में हस्तक्षेप करके बता दिया है कि वे राज्य की राजनीति में मजबूती के साथ मौजूद हैं और आने वाले महीनों में अपनी पुरानी पार्टी के लिए तो मुश्किल पैदा करेगें ही, छोटी पार्टियों को जोड़कर एक ऐसा गठबंधन तैयार कर देगें जो उत्तर प्रदेश की पारंपरिक पार्टियों को सत्ता के गलियारों से बाहर भी खदेड़ सकता है. १९८७ के बाद कांशी राम ने भी यही प्रयोग किया था और आज देश के हर कोने में उनकी पार्टी की ताक़त से लोग डरते हैं. कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश की राजनीति में बड़े पैमाने पर परिवर्तन का डंका बज चुका है . भविष्य में क्या होगा , उसके बारे में अभी कुछ कहना इसलिए ठीक नहीं होगा कि अपनी राजनीतिक समझदारी की समझ दांव पर लग सकती है .
Sunday, June 20, 2010
माँ खीर भवानी का जयकारा कश्मीरियत की एक अहम पहचान है
शेष नारायण सिंह
करीब बीस साल बाद कश्मीरी पंडितों ने माता खीर भवानी के मंदिर पर अपने श्रद्धा सुमन चढ़ाए. धार्मिक कश्मीरी पंडित के लिए माता खीर भवानी के दर पर सिर झुकाना दुनिया की सबसे बड़ी नेमत है . १९९० के बाद से यहाँ के पंडितों को घर छोड़ने पर मजबूर किया गया था. तब राजनीतिक हालात ठीक नहीं थे . भारत में अस्थिरता चौतरफा मुंह बाए खडी थी.हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच बाबरी मस्जिद के नाम पर पूरे देश में विभाजन करने की राजनीति के इर्द गिर्द राजनीतिक पार्टियां डोल रही थीं. देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी ,कांग्रेस में नेतृत्व का संकट था. दुनिया की दूसरी बड़ी ताक़त , सोवियत रूस टूट चुका था . अमरीका पूंजीवादी विश्व व्यवस्था कायम करने के अपने सपने को पूरा करने के लिएय कुछ भी करने को तैयार था. अमरीकी पैसे से पाकिस्तानी जनरल और तानाशाह जिया उल हक ने अपने देश में भारत विरोधी आतंकवादियों की एक फौज खडी कर रखी थी और वे कश्मीर में आतंक फैला रहे थे. अमरीकी साम्राज्यवादी डिजाइन की सफलता की आहट पूरी दुनिया में महसूस की जा रही थी . भारत भी उसकी चपेट में आ चुका था . ऐसी हालत में कश्मीर में सक्रिय पाकिस्तानी आतंकवादियों ने घाटी में कश्मीरी पंडितों को मारना पीटना शुरू किया . उस वक़्त कश्मीर में जो भी नेता थे उनमें से ज़्यादातर बहुत ही लालची और पाकिस्तान परस्त थे. हालांकि एक कश्मीरी ही गृह मंत्री की कुर्सी पर मौजूद था लेकिन हालात बेकाबू हो गए थे. विश्वनाथ प्रताप सिंह बी जे पी की कृपा से प्रधान मंत्री बने थे और उसके सामने उनका सिर झुका हुआ था. दबाव में आकर उन्होंने जगमोहन को कश्मीर का राज्यपाल बना दिया . यह इतनी बड़ी राजनीतिक गलती है जिसका खामियाजा आज तक भोगा जा रहा है . जगमोहन ने अपनी आदत के हिसाब से मुसलमानों के खिलाफ काम करना शुरू कर दिया और पाकिस्तानी आतंकवादियों को कश्मीर में मुसलमानों के रक्षक के रूप में अपने आप को पेश करने का मौक़ा मिल गया . आम तौर पर अशिक्षित कश्मीरी नौजवानों को भी आतंक की सेना में भर्ती किया जाने लगा . कश्मीर में अफरा तफरी मच गयी और भारत के खिलाफ एक अजीब सा माहौल बनता गया . बाद में जगमोहन को भी हटाया गया और कश्मीर में स्थिरता लाने की राजनीतिक कोशिश भी की गयी लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी .ऐसी हालत में कश्मीरी पंडितों ने अपना घर छोड़ कर बाकी देश में शरण ली . हर साल जब भी माता खीर भवानी की पूजा का समय आता था , आतंरिक रूप से विस्थापित कश्मीरी पंडित के दिलों में हूक सी उठती थी लेकिन उल्मूला की हालत ऐसी थी कि वहां जाकर कोई भी पूजा पाठ नहीं कर सकता था.देश के बाकी शहरों में शरण लेकर अपना वक़्त काट रहे कश्मीरी तड़प उठते थे और घाटी में खीर भवानी के मंदिर के आस पास रहने वाले मुसलमान अपने विस्थापित कश्मीरी पड़ोसियों की याद में मायूस हो जाया करते थे. शायद इसी लिए इस बार खीर भवानी के मंदिर पर पूरी दुनिया और भारत के कोने कोने से आये कश्मीरियों को यह लग रहा था कि यह तीर्थ यात्रा एक तरह से घर वापसी की शुरुआत थी . जब वे अपनी मातृभूमि छोड़कर बाहर जाने को मजबूर हुए थे , उस वक़्त की राजनीतिक हालात और आज की हालत में बहुत फर्क पड़ चुका है . आज पाक्सितानी आतंकवाद की कमर टूट चुकी है . कश्मीर में उनके लिए काम करने वाले नेताओं को अब कहीं से आर्थिक मदद नहीं मिल रही है . अमरीका अब भारत में पाकिस्तानी आतंकवाद के खिलाफ पोजीशन ले चुका है . मौजूदा पाकिस्तान सरकार के लिए अमरीकी इच्छा को सम्मानित करने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है. कश्मीर में रहने वाला मुसलमान अब आज़ादी का नारा लगाने वाले पाकिस्तान के एजेंटों की बात का विश्वान नहीं कर रहा है . मुकामी कश्मीरी मुसलमान कभी भी न तो भारत के खिलाफ था और न ही कश्मीरी पंडितों के. यह बात इस बार माता खीर भवानी मंदिर में पूजा करने आये पंडितों की सेवा में लगे मुसलमानों की मौजूदगी से लगा. मुस्लिम नौजवान तीर्थ यात्रियों के लिए कोल्ड ड्रिंक और पानी का इंतज़ाम कर रहे थे . उसमें कुछ २१ साल के थे जिन्होंने पहली बार खीर भवानी की पूजा देखी और कुछ साठ साल के थे जो अपने बिछुड़े हुए कश्मीरी पंडित पड़ोसियों से गले मिलकर अपनी यादें ताज़ा कर रहे थे. वहां राज्य के मुख्य मंत्री , उमर अब्दुल्ला भी अपनी पत्नी पायल के साथ आये और रुंधे हुए गले से ऐलान किया कि यही कश्मीरियत है .उमर अब्दुल्ला ने कहा और ठीक कहा कि कश्मीर में निहित स्वार्थ के लोगों ने कश्मीरी अवाम के बीच खाई खोदने की कोशिश की थी . आंशिक रूप से वे सफल भी हो चुके थे लेकिन अब उस गड्ढे को बंद करने का वक़्त आ चुका है . हालांकि अभी बहुत काम बाकी है लेकिन माता खीर भवानी की अर्चना से शुरू होने वाला यह अभियान दूर तलक जाएगा, खासकर अगर पूजा कर रहे कश्मीरी पंडितों की हिफाज़त में उनके मुस्लिम भाई भी खड़े रहें . दरार तो बहुत बड़ी है लेकिन अगर विदेशी आतंकवाद और साम्प्रदायिक ताक़तों को कमज़ोर करने में सरकार और आम जनता सफलता पाती है तो कश्मीर में हालात बहुत जल्द दुरुस्त हो जायेगें .
करीब बीस साल बाद कश्मीरी पंडितों ने माता खीर भवानी के मंदिर पर अपने श्रद्धा सुमन चढ़ाए. धार्मिक कश्मीरी पंडित के लिए माता खीर भवानी के दर पर सिर झुकाना दुनिया की सबसे बड़ी नेमत है . १९९० के बाद से यहाँ के पंडितों को घर छोड़ने पर मजबूर किया गया था. तब राजनीतिक हालात ठीक नहीं थे . भारत में अस्थिरता चौतरफा मुंह बाए खडी थी.हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच बाबरी मस्जिद के नाम पर पूरे देश में विभाजन करने की राजनीति के इर्द गिर्द राजनीतिक पार्टियां डोल रही थीं. देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी ,कांग्रेस में नेतृत्व का संकट था. दुनिया की दूसरी बड़ी ताक़त , सोवियत रूस टूट चुका था . अमरीका पूंजीवादी विश्व व्यवस्था कायम करने के अपने सपने को पूरा करने के लिएय कुछ भी करने को तैयार था. अमरीकी पैसे से पाकिस्तानी जनरल और तानाशाह जिया उल हक ने अपने देश में भारत विरोधी आतंकवादियों की एक फौज खडी कर रखी थी और वे कश्मीर में आतंक फैला रहे थे. अमरीकी साम्राज्यवादी डिजाइन की सफलता की आहट पूरी दुनिया में महसूस की जा रही थी . भारत भी उसकी चपेट में आ चुका था . ऐसी हालत में कश्मीर में सक्रिय पाकिस्तानी आतंकवादियों ने घाटी में कश्मीरी पंडितों को मारना पीटना शुरू किया . उस वक़्त कश्मीर में जो भी नेता थे उनमें से ज़्यादातर बहुत ही लालची और पाकिस्तान परस्त थे. हालांकि एक कश्मीरी ही गृह मंत्री की कुर्सी पर मौजूद था लेकिन हालात बेकाबू हो गए थे. विश्वनाथ प्रताप सिंह बी जे पी की कृपा से प्रधान मंत्री बने थे और उसके सामने उनका सिर झुका हुआ था. दबाव में आकर उन्होंने जगमोहन को कश्मीर का राज्यपाल बना दिया . यह इतनी बड़ी राजनीतिक गलती है जिसका खामियाजा आज तक भोगा जा रहा है . जगमोहन ने अपनी आदत के हिसाब से मुसलमानों के खिलाफ काम करना शुरू कर दिया और पाकिस्तानी आतंकवादियों को कश्मीर में मुसलमानों के रक्षक के रूप में अपने आप को पेश करने का मौक़ा मिल गया . आम तौर पर अशिक्षित कश्मीरी नौजवानों को भी आतंक की सेना में भर्ती किया जाने लगा . कश्मीर में अफरा तफरी मच गयी और भारत के खिलाफ एक अजीब सा माहौल बनता गया . बाद में जगमोहन को भी हटाया गया और कश्मीर में स्थिरता लाने की राजनीतिक कोशिश भी की गयी लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी .ऐसी हालत में कश्मीरी पंडितों ने अपना घर छोड़ कर बाकी देश में शरण ली . हर साल जब भी माता खीर भवानी की पूजा का समय आता था , आतंरिक रूप से विस्थापित कश्मीरी पंडित के दिलों में हूक सी उठती थी लेकिन उल्मूला की हालत ऐसी थी कि वहां जाकर कोई भी पूजा पाठ नहीं कर सकता था.देश के बाकी शहरों में शरण लेकर अपना वक़्त काट रहे कश्मीरी तड़प उठते थे और घाटी में खीर भवानी के मंदिर के आस पास रहने वाले मुसलमान अपने विस्थापित कश्मीरी पड़ोसियों की याद में मायूस हो जाया करते थे. शायद इसी लिए इस बार खीर भवानी के मंदिर पर पूरी दुनिया और भारत के कोने कोने से आये कश्मीरियों को यह लग रहा था कि यह तीर्थ यात्रा एक तरह से घर वापसी की शुरुआत थी . जब वे अपनी मातृभूमि छोड़कर बाहर जाने को मजबूर हुए थे , उस वक़्त की राजनीतिक हालात और आज की हालत में बहुत फर्क पड़ चुका है . आज पाक्सितानी आतंकवाद की कमर टूट चुकी है . कश्मीर में उनके लिए काम करने वाले नेताओं को अब कहीं से आर्थिक मदद नहीं मिल रही है . अमरीका अब भारत में पाकिस्तानी आतंकवाद के खिलाफ पोजीशन ले चुका है . मौजूदा पाकिस्तान सरकार के लिए अमरीकी इच्छा को सम्मानित करने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है. कश्मीर में रहने वाला मुसलमान अब आज़ादी का नारा लगाने वाले पाकिस्तान के एजेंटों की बात का विश्वान नहीं कर रहा है . मुकामी कश्मीरी मुसलमान कभी भी न तो भारत के खिलाफ था और न ही कश्मीरी पंडितों के. यह बात इस बार माता खीर भवानी मंदिर में पूजा करने आये पंडितों की सेवा में लगे मुसलमानों की मौजूदगी से लगा. मुस्लिम नौजवान तीर्थ यात्रियों के लिए कोल्ड ड्रिंक और पानी का इंतज़ाम कर रहे थे . उसमें कुछ २१ साल के थे जिन्होंने पहली बार खीर भवानी की पूजा देखी और कुछ साठ साल के थे जो अपने बिछुड़े हुए कश्मीरी पंडित पड़ोसियों से गले मिलकर अपनी यादें ताज़ा कर रहे थे. वहां राज्य के मुख्य मंत्री , उमर अब्दुल्ला भी अपनी पत्नी पायल के साथ आये और रुंधे हुए गले से ऐलान किया कि यही कश्मीरियत है .उमर अब्दुल्ला ने कहा और ठीक कहा कि कश्मीर में निहित स्वार्थ के लोगों ने कश्मीरी अवाम के बीच खाई खोदने की कोशिश की थी . आंशिक रूप से वे सफल भी हो चुके थे लेकिन अब उस गड्ढे को बंद करने का वक़्त आ चुका है . हालांकि अभी बहुत काम बाकी है लेकिन माता खीर भवानी की अर्चना से शुरू होने वाला यह अभियान दूर तलक जाएगा, खासकर अगर पूजा कर रहे कश्मीरी पंडितों की हिफाज़त में उनके मुस्लिम भाई भी खड़े रहें . दरार तो बहुत बड़ी है लेकिन अगर विदेशी आतंकवाद और साम्प्रदायिक ताक़तों को कमज़ोर करने में सरकार और आम जनता सफलता पाती है तो कश्मीर में हालात बहुत जल्द दुरुस्त हो जायेगें .
Saturday, June 19, 2010
पाकिस्तान-चीन परमाणु समझौता -दुनिया को ब्लैकमेल करने की कोशिश
(मूल लेख दैनिक जागरण में छपा है )
शेष नारायण सिंह
बीजिंग से मिल रही ख़बरों के अनुसार चीन ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय को ब्लैकमेल करने के लिए पाकिस्तान के साथ परमाणु समझौता करने की चाल चलने का मन बना लिया है . पाकिस्तान की जो आर्थिक हालात हैं उसमें उसे किसी परमाणु समझौते की नहीं राजनीतिक स्थिरता की ज़रुरत है लेकिन फौजी जनरलों के हुक्म के गुलाम राष्ट्रपति ज़रदारी और प्रधानमंत्री गीलानी से सही तरह से राज चलाने की उम्मीद करना भी बेमतलब है . चीन और पाकिस्तान के बीच परमाणु समझौते की सम्भावना बहुत ज्यादा बढ़ गयी है . चीन के नए व्यवहार से लगता है कि वह भारत के साथ वही पचास के दशक वाला खेल खेलने वाला है . पिछले साल भारत और चीन के संबंधों में एक बार फिर सुधार आना शुरू हुआ था जब दिसंबर में प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह और चीनी प्रधान मंत्री वेन जिबाओ जलवायु सम्मलेन में मिले थे. उसके बाद भारत की राष्ट्रपति , प्रतिभा पाटिल चीन की यात्रा पर भी हो आयीं. दोनों ही पक्षों से अच्छी अच्छी बातें हो रही हैं . हालांकि तर्ज हिन्दी-चीनी भाई-भाई वाला तो नहीं है लेकिन सुधार के लक्षण साफ़ नज़र आ रहे हैं . वैसे भी नए भूराजनीतिक माहौल में चीन और भारत को मालूम है कि आपस में दोस्ती के संकेत देने पड़ेगें . लेकिन एक नयी कूटनीतिक चाल करवट लेती नज़र आने लगी है . चीन की तरफ से ऐसी खबरें आ रही हैं कि वह पाकिस्तान से वैसी ही परमाणु संधि करना चाह रहा है जैसी भारत और अमरीका के बीच हुई है. पाकिस्तान बहुत दिनों से अमरीका पर दबाव डाल रहा है कि अमरीका उसके साथ भी भारत की तरह का समझौता करे. पाकिस्तान को मुगालता है कि वह चीन की तरफ परमाणु दोस्ती का हाथ बढ़ा कर अमरीका को ब्लैकमेल कर सकता है लेकिन अब तक मिले संकेतों से साफ़ लगता है कि अमरीकी विदेश विभाग पाकिस्तान के सामने ब्लैकमेल होने को तैयार नहीं है . अमरीका जानता है कि पाकिस्तान के रोज़मर्रा के खर्च भी उसकी मदद के बिना नहीं चल सकते. और चीन या अन्य किसी देश की यह मंशा नहीं है कि वह पाकिस्तानी हुक्मरान की रोटी पानी का खर्च दे . इस लिए पाकिस्तान और चीन की परमाणु कूटनीति की भनक लगने के बाद अमरीकी सेना और विदेश नीति के मझोले दर्जे के अधिकारियों ने पाकिस्तान के सर्वोच्च अधिकारियों को बता दिया है कि अगर चीन से परमाणु समझौता किया तो ठीक नहीं होगा . ज़ाहिर है कि पाकिस्तान के लिए चीन से दोस्ती बढ़ा कर भारत को चिढाने में तो कोई ख़ास परेशानी नहीं होगी लेकिन पाकिस्तान को मालूम है कि अमरीका से पंगा लेना उसकी औकात के बाहर है .. हालांकि चीन को मज़ा आ रहा है कि वह पाकिस्तान के बहाने अमरीका और भारत दोनों को ही परेशानी में डालने की स्थिति में है . चीनी राजनयिक जानते हैं कि अगर पाकिस्तान ने चीन से परमाणु समझौता कर लिया तो अमरीका की जनता पाकिस्तान को मिलने वाली अमरीकी सहायता को जारी नहीं रखने देगी. इस से पाकिस्तान को परेशानी होगी और वह चीन पर पहले से भी ज्यादा निर्भर हो जाएगा . उस स्थिति में पाक्सितान का इस्तेमाल भारत को बन्दर घुडकी देने के लिए और भी बेहतर तरीके से किया जा सकेगा.
चीन की यात्रा पर गए पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष , जनरल परवेज़ अशफाक कियानी ने सारी ताक़त लगा दी है कि उनकी इस यात्रा के दौरान ही पाक-चीन परमाणु समझौते की घोषणा हो जाए लेकिन लगता है कि अमरीका के दबाव के चलते ,चीन इस घोषणा को कुछ वक़्त के लिए स्थगित कर सकता है . पिछले कुछ हफ़्तों से चीन की राजधानी से इस तरह के संकेत मिलने शुरू हुए हैं .कि वह पाकिस्तान को भारत से बराबर साबित करने की कोशिश में पाकिस्तान से परमाणु समझौता कर सकता है .लेकिन भारत सरकार ने भी चीन को आगाह कर दिया है कि अगर वह पाकिस्तान से परमाणु समझौता करता है तो दोनों देशों के सुधर रहे रिश्तों पर उलटा असर पड़ सकता है . . इस बात के भी ज़ोरदार संकेत हैं कि चीन अब भारत से रिश्तों को सुधारने की कोशिश कर रहा है.विदेश मंत्रालय में सर्वोच्च स्तर पर ऐसे लोग विद्यामान हैं जो चीन को अच्छी तरह से समझते हैं , विदेश सचिव निरुपमा राव और उनके पूर्व वर्ती शिव शंकर मेनन चीनी मामलों के अच्छे जानकार माने जाते हैं . ज़ाहिर है चीन से रिश्ते सुधारने की पहल के पीछे खूब सोची विचारी नीति काम कर रही है लेकिन चीन से आ रहे संकेतों के मद्दे-नज़र यह ख़तरा तो बना ही हुआ है कि चीन पाकिस्तान को इस्तेमाल करने की अपनी रणनीति में परमाणु आयाम भी जोड़ देगा. चीन की इस नीति को गम्भीरता से लेने की ज़रूरत इसलिए भी है कि चीन के परमाणु ऊर्जा विभाग और पाकिस्तान के परमाणु ऊर्जा आयोग के बीच सारी बात चीत हो चुकी है . आर्थिक और व्यापारिक पहलू पर गौर किया जा चुका है . अब राजनीतिक हरी झंडी का इंतज़ार है . जो दोनों देशों एक सरकारों के सर्वोच्च स्तर पर तय होना है .जहां तक पाकिस्तान का सवाल है उनका सर्वोच्च राजनीतिक और सैनिक अधिकारी जनरल कियानी ही हैं . ज़रदारी और गीलानी को वैसे भी जनरल कियानी की मर्जी के खिलाफ जाने की हिम्मत नहीं है लेकिन चीन में भारत और अमरीकी रिश्तों पर पड़ने वाले नफ़ा -नुकसान का जायज़ा लिया जा रहा है और उसके बाद ही कोई फैसला होगा. जहां तक पाकिस्तान का सवाल है वहां कूटनीतिक प्रशासन के जानकार बिलकुल नहीं है . वहां फौज की मर्जी ही चलती है
शेष नारायण सिंह
बीजिंग से मिल रही ख़बरों के अनुसार चीन ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय को ब्लैकमेल करने के लिए पाकिस्तान के साथ परमाणु समझौता करने की चाल चलने का मन बना लिया है . पाकिस्तान की जो आर्थिक हालात हैं उसमें उसे किसी परमाणु समझौते की नहीं राजनीतिक स्थिरता की ज़रुरत है लेकिन फौजी जनरलों के हुक्म के गुलाम राष्ट्रपति ज़रदारी और प्रधानमंत्री गीलानी से सही तरह से राज चलाने की उम्मीद करना भी बेमतलब है . चीन और पाकिस्तान के बीच परमाणु समझौते की सम्भावना बहुत ज्यादा बढ़ गयी है . चीन के नए व्यवहार से लगता है कि वह भारत के साथ वही पचास के दशक वाला खेल खेलने वाला है . पिछले साल भारत और चीन के संबंधों में एक बार फिर सुधार आना शुरू हुआ था जब दिसंबर में प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह और चीनी प्रधान मंत्री वेन जिबाओ जलवायु सम्मलेन में मिले थे. उसके बाद भारत की राष्ट्रपति , प्रतिभा पाटिल चीन की यात्रा पर भी हो आयीं. दोनों ही पक्षों से अच्छी अच्छी बातें हो रही हैं . हालांकि तर्ज हिन्दी-चीनी भाई-भाई वाला तो नहीं है लेकिन सुधार के लक्षण साफ़ नज़र आ रहे हैं . वैसे भी नए भूराजनीतिक माहौल में चीन और भारत को मालूम है कि आपस में दोस्ती के संकेत देने पड़ेगें . लेकिन एक नयी कूटनीतिक चाल करवट लेती नज़र आने लगी है . चीन की तरफ से ऐसी खबरें आ रही हैं कि वह पाकिस्तान से वैसी ही परमाणु संधि करना चाह रहा है जैसी भारत और अमरीका के बीच हुई है. पाकिस्तान बहुत दिनों से अमरीका पर दबाव डाल रहा है कि अमरीका उसके साथ भी भारत की तरह का समझौता करे. पाकिस्तान को मुगालता है कि वह चीन की तरफ परमाणु दोस्ती का हाथ बढ़ा कर अमरीका को ब्लैकमेल कर सकता है लेकिन अब तक मिले संकेतों से साफ़ लगता है कि अमरीकी विदेश विभाग पाकिस्तान के सामने ब्लैकमेल होने को तैयार नहीं है . अमरीका जानता है कि पाकिस्तान के रोज़मर्रा के खर्च भी उसकी मदद के बिना नहीं चल सकते. और चीन या अन्य किसी देश की यह मंशा नहीं है कि वह पाकिस्तानी हुक्मरान की रोटी पानी का खर्च दे . इस लिए पाकिस्तान और चीन की परमाणु कूटनीति की भनक लगने के बाद अमरीकी सेना और विदेश नीति के मझोले दर्जे के अधिकारियों ने पाकिस्तान के सर्वोच्च अधिकारियों को बता दिया है कि अगर चीन से परमाणु समझौता किया तो ठीक नहीं होगा . ज़ाहिर है कि पाकिस्तान के लिए चीन से दोस्ती बढ़ा कर भारत को चिढाने में तो कोई ख़ास परेशानी नहीं होगी लेकिन पाकिस्तान को मालूम है कि अमरीका से पंगा लेना उसकी औकात के बाहर है .. हालांकि चीन को मज़ा आ रहा है कि वह पाकिस्तान के बहाने अमरीका और भारत दोनों को ही परेशानी में डालने की स्थिति में है . चीनी राजनयिक जानते हैं कि अगर पाकिस्तान ने चीन से परमाणु समझौता कर लिया तो अमरीका की जनता पाकिस्तान को मिलने वाली अमरीकी सहायता को जारी नहीं रखने देगी. इस से पाकिस्तान को परेशानी होगी और वह चीन पर पहले से भी ज्यादा निर्भर हो जाएगा . उस स्थिति में पाक्सितान का इस्तेमाल भारत को बन्दर घुडकी देने के लिए और भी बेहतर तरीके से किया जा सकेगा.
चीन की यात्रा पर गए पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष , जनरल परवेज़ अशफाक कियानी ने सारी ताक़त लगा दी है कि उनकी इस यात्रा के दौरान ही पाक-चीन परमाणु समझौते की घोषणा हो जाए लेकिन लगता है कि अमरीका के दबाव के चलते ,चीन इस घोषणा को कुछ वक़्त के लिए स्थगित कर सकता है . पिछले कुछ हफ़्तों से चीन की राजधानी से इस तरह के संकेत मिलने शुरू हुए हैं .कि वह पाकिस्तान को भारत से बराबर साबित करने की कोशिश में पाकिस्तान से परमाणु समझौता कर सकता है .लेकिन भारत सरकार ने भी चीन को आगाह कर दिया है कि अगर वह पाकिस्तान से परमाणु समझौता करता है तो दोनों देशों के सुधर रहे रिश्तों पर उलटा असर पड़ सकता है . . इस बात के भी ज़ोरदार संकेत हैं कि चीन अब भारत से रिश्तों को सुधारने की कोशिश कर रहा है.विदेश मंत्रालय में सर्वोच्च स्तर पर ऐसे लोग विद्यामान हैं जो चीन को अच्छी तरह से समझते हैं , विदेश सचिव निरुपमा राव और उनके पूर्व वर्ती शिव शंकर मेनन चीनी मामलों के अच्छे जानकार माने जाते हैं . ज़ाहिर है चीन से रिश्ते सुधारने की पहल के पीछे खूब सोची विचारी नीति काम कर रही है लेकिन चीन से आ रहे संकेतों के मद्दे-नज़र यह ख़तरा तो बना ही हुआ है कि चीन पाकिस्तान को इस्तेमाल करने की अपनी रणनीति में परमाणु आयाम भी जोड़ देगा. चीन की इस नीति को गम्भीरता से लेने की ज़रूरत इसलिए भी है कि चीन के परमाणु ऊर्जा विभाग और पाकिस्तान के परमाणु ऊर्जा आयोग के बीच सारी बात चीत हो चुकी है . आर्थिक और व्यापारिक पहलू पर गौर किया जा चुका है . अब राजनीतिक हरी झंडी का इंतज़ार है . जो दोनों देशों एक सरकारों के सर्वोच्च स्तर पर तय होना है .जहां तक पाकिस्तान का सवाल है उनका सर्वोच्च राजनीतिक और सैनिक अधिकारी जनरल कियानी ही हैं . ज़रदारी और गीलानी को वैसे भी जनरल कियानी की मर्जी के खिलाफ जाने की हिम्मत नहीं है लेकिन चीन में भारत और अमरीकी रिश्तों पर पड़ने वाले नफ़ा -नुकसान का जायज़ा लिया जा रहा है और उसके बाद ही कोई फैसला होगा. जहां तक पाकिस्तान का सवाल है वहां कूटनीतिक प्रशासन के जानकार बिलकुल नहीं है . वहां फौज की मर्जी ही चलती है
नीतीश कुमार ने बी जे पी से पिंड छुडाने का काम शुरू किया
खबर छोटी है लेकिन बात बहुत बड़ी है . बिहार के मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने आर एस एस को अलविदा कह दिया और उस की राजनीतिक शाखा से पिंड छुडाने का काम शुरू कर दिया है . शिवानन्द तिवारी गुस्से में हैं. उनके छात्र जीवन के साथी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी गुस्से में हैं. नीतीश ने वह रक़म लौटा दी है जो मोदी ने कोसी की आपदा के समय बिहार सरकार को दी थी . मदद करके उसका उल्लेख करना वैसे भी ठीक काम नहीं है. लेकिन मोदी को शिष्टाचार का पाठ पढ़ाना पत्थर पर दूब उगाने जैसा नामुमकिन काम है मोदी ने पूरी दुनिया को बता दिया कि उनकी कृपा से बिहार सरकार को पांच करोड़ रूपये हासिल हुए थे. दर असल बी जे पी वालों से समझने में गलती हो गयी. उनको लगा कि नीतीश कुमार की पार्टी से उनका पक्का सम्बन्ध है . लेकिन जो लोग नीतीश को जानते हैं उनका कहना है कि नीतीश बी जे पी के साथ से खुश नहीं थे लेकिन जार्ज फर्नांडीज़ और शरद की बात मानकर बी जे पी को ढो रहे थे . उधर बी जे पी के बडबोले नेता लोग बिहार को अपनी सरकार बताते घूमते फिरते थे. नाराज़ नीतीश ने उनको औकात बताने का काम शुरू कर दिया है और बहुत जल्दी जे पी आन्दोलन के नौजवान नेता, नीतीश कुमार अपने साथियों सहित बी जे पी से पिंड छुड़ा लेंगें
Thursday, June 17, 2010
प्रकाश झा की फिल्म ही नहीं लगती राजनीति
शेष नारायण सिंह
प्रकाश झा एक संवेदनशील फिल्मकार हैं . एक से एक अच्छी फ़िल्में बनायी हैं उन्होंने. उनकी फिल्म 'गंगाजल और अपहरण ' को देखने के बाद अंदाज़ लगा था कि किसी नीरस विषय पर वे इतनी संवेदनशील फिल्म बना सकते हैं . ज़ाहिर है कि आम फिल्मकार इस तरह की फिल्म नहीं बना सकता. अब उनकी नयी फिल्म आई है ,राजनीति . विश्वास ही नहीं हुआ कि इतनी चर्चित फिल्म को देखने के लिए मुंबई के इतने बड़े हाल में केवल १०-१२ लोग आये थे.. शुरू तो बहुत ही मज़बूत तरीके से हुई लेकिन बाद में साफ़ हो गया कि फिल्म बिलकुल मामूली है .नसीरुद्दीन शाह , अजय देवगन,मनोज बाजपेयी और नाना पाटेकर के अलावा बाकी कलाकारों का काम बहुत ही मामूली है.फिल्म के कलात्मक पक्ष पर कुछ ज्यादा कह सकने की मेरी हैसियत नहीं है लेकिन एक आम दर्शक पर जो असर पड़ता है उसके हिसाब से बात करने की कोशिश की जायेगी.पहली बात तो यह कि बोली के लिहाज़ से फिल्म में भौगोलिक असंतुलन है . नक्शा मध्य प्रदेश का दिखाया जाता है और बोली बिहार की है .इसी भोजपुरी हिन्दी के बल पर गंगाजल और अपहरण ने गुणवत्ता की दुनिया में झंडे बुलंद किये थे. दूसरी बात कि फिल्म में जो सबसे सशक्त करेक्टर पृथ्वी और समर का है .वह कुछ मॉडलनुमा अभिनेताओं से करवाया गया है जिनके मुंह से डायलाग ऐसे निकलते हैं जैसे पांचवीं जमात का बच्चा याद किया गया अपना पाठ सुनाता है .. फिल्म में जो कुछ दृश्य नसीरुद्दीन शाह के हैं वे फिल्मकार के काम को और भी मुश्किल बना देते हैं . जो ऊंचाई नसीर ने भास्कर सान्याल के चरित्र को दे दी है , यह बेचारे मोडल टाइप कलाकार उसे कभी भी नहीं प्रस्तुत कर सकते . उनसे तो इसकी उम्मीद करना भी बेमानी है . बाकी सब कुछ प्रकाश झा वाला ही है लेकिन कहानी बहुत ही बम्बइया हो गयी है . राजनीतिक सुप्रीमेसी के लिए लड़ी गयी लड़ाई इस तरह से पेश कर दी गयी है जैसे किसी शहर में ठेके में मिली कमाई के लिए लड़ाई लड़ी जाती है . कहीं महाभारत के सन्दर्भ मिल जाते हैं तो कहीं श्याम बेनेगल की कलियुग के . जब फिल्म बन रही थी ,उस वक़्त से ही ऐसा प्रचार किया जा रहा था कि प्रियंका गाँधी की तरह दिखने वाली एक अभिनेत्री को शामिल किया गया है और वह उनके व्यक्तित्व को नक़ल करने की कोशिश करेगी लेकिन ऐसा कोसों तक नहीं दिखा. आखीर के कुछ दृश्यों में उस अभिनेत्री ने प्रियंका की कुछ साड़ियों के रंग को कॉपी करने में आंशिक सफलता ज़रूर पायी है . बाकी उस रोल में प्रियंका गांधी कहीं नहीं नज़र आयीं .उनके व्यक्तित्व के किसी पक्ष को नहीं दिखा पायी कटरीना नाम की कलाकार . कुल मिलाकर प्रकाश झा ने एक ऐसी फिल्म बना दी ,जो प्रकाश झा की फिल्म तो बिलकुल नहीं लगती क्योंकि प्रकाश झा से उम्मीदें थोडा ज़्यादा की जाती हैं . उन्हें मेरे जैसे लोग श्याम बेनेगाल, मणि रत्नम, शुरू वाले राम गोपाल वर्मा की लाइन में रखने के चक्कर में रहते हैं . यह फिल्म तो उन्होंने ऐसी बना दी जो कोई भी राज कपूर , सुनील दत्त या मोहन कुमार बना देता, . इन्ही लोगों की वजह से फ़िल्मी गाँव पेश किये जाते हैं जहां सारे लोग अजीबो गरीब भाषा बोलते हैं , वहां के छप्परों के नीचे बारिश से नहीं बचा जा सकता , गरीब से गरीब आदमी के घर में जर्सी गाय बंधी होती है . इन फंतासीलैंड के फिल्मकारों की वजह से ही ज़्यादातर ठाकुर काले कुरते पहने होते हैं , माँ भवानी की पूजा करते रहते हैं , काला तिलक लगाते हैं और हमेशा दुनाली बन्दूक लिए रहते हैं .
अगर प्रकश झा का नाम न होता तो इस फिल्म को दारा सिंह की पुरानी फिल्मों की तरह ठाकुर दिलेर सिंह टाइप फिल्मों के सांचे में रखा जा सकता था लेकिन ऐसा नहीं है . प्रकश झा से उम्मीद ज़्यादा की जाती है .मनोज बाजपेयी को चुनौती देने वाला जो नौजवान है वह किसी बड़े नेता के बेटे के रोल तक तो ठीक है , वहीअमरीका जाना , ड्राइवर को काका कहना, और किसी पैसे वाले की लडकी से इश्क करना लेकिन जब वह भारतीय राजनीति के खूंखार खेल में अजय देवगन और मनोजबाजपेयी जैसे बड़े अभिनेताओं को चुनौती देता है तो लगता है कि बस अब कह पड़ेगा कि यह बहादुरी मैंने फला साबुन से नहा कर पायी है . आप भी इस्तेमाल करें. उनके चेहरे पर हिन्दी हार्टलैंड की राजनीति की क्रूरता का कोसों तक पता नहीं है . कुल मिलाकर फिल्म इतनी साधारण है कि इसे फिल्म समीक्षा का विषय बनाना भी एक सड़क छाप काम है . लेकिन करना पड़ता है
प्रकाश झा एक संवेदनशील फिल्मकार हैं . एक से एक अच्छी फ़िल्में बनायी हैं उन्होंने. उनकी फिल्म 'गंगाजल और अपहरण ' को देखने के बाद अंदाज़ लगा था कि किसी नीरस विषय पर वे इतनी संवेदनशील फिल्म बना सकते हैं . ज़ाहिर है कि आम फिल्मकार इस तरह की फिल्म नहीं बना सकता. अब उनकी नयी फिल्म आई है ,राजनीति . विश्वास ही नहीं हुआ कि इतनी चर्चित फिल्म को देखने के लिए मुंबई के इतने बड़े हाल में केवल १०-१२ लोग आये थे.. शुरू तो बहुत ही मज़बूत तरीके से हुई लेकिन बाद में साफ़ हो गया कि फिल्म बिलकुल मामूली है .नसीरुद्दीन शाह , अजय देवगन,मनोज बाजपेयी और नाना पाटेकर के अलावा बाकी कलाकारों का काम बहुत ही मामूली है.फिल्म के कलात्मक पक्ष पर कुछ ज्यादा कह सकने की मेरी हैसियत नहीं है लेकिन एक आम दर्शक पर जो असर पड़ता है उसके हिसाब से बात करने की कोशिश की जायेगी.पहली बात तो यह कि बोली के लिहाज़ से फिल्म में भौगोलिक असंतुलन है . नक्शा मध्य प्रदेश का दिखाया जाता है और बोली बिहार की है .इसी भोजपुरी हिन्दी के बल पर गंगाजल और अपहरण ने गुणवत्ता की दुनिया में झंडे बुलंद किये थे. दूसरी बात कि फिल्म में जो सबसे सशक्त करेक्टर पृथ्वी और समर का है .वह कुछ मॉडलनुमा अभिनेताओं से करवाया गया है जिनके मुंह से डायलाग ऐसे निकलते हैं जैसे पांचवीं जमात का बच्चा याद किया गया अपना पाठ सुनाता है .. फिल्म में जो कुछ दृश्य नसीरुद्दीन शाह के हैं वे फिल्मकार के काम को और भी मुश्किल बना देते हैं . जो ऊंचाई नसीर ने भास्कर सान्याल के चरित्र को दे दी है , यह बेचारे मोडल टाइप कलाकार उसे कभी भी नहीं प्रस्तुत कर सकते . उनसे तो इसकी उम्मीद करना भी बेमानी है . बाकी सब कुछ प्रकाश झा वाला ही है लेकिन कहानी बहुत ही बम्बइया हो गयी है . राजनीतिक सुप्रीमेसी के लिए लड़ी गयी लड़ाई इस तरह से पेश कर दी गयी है जैसे किसी शहर में ठेके में मिली कमाई के लिए लड़ाई लड़ी जाती है . कहीं महाभारत के सन्दर्भ मिल जाते हैं तो कहीं श्याम बेनेगल की कलियुग के . जब फिल्म बन रही थी ,उस वक़्त से ही ऐसा प्रचार किया जा रहा था कि प्रियंका गाँधी की तरह दिखने वाली एक अभिनेत्री को शामिल किया गया है और वह उनके व्यक्तित्व को नक़ल करने की कोशिश करेगी लेकिन ऐसा कोसों तक नहीं दिखा. आखीर के कुछ दृश्यों में उस अभिनेत्री ने प्रियंका की कुछ साड़ियों के रंग को कॉपी करने में आंशिक सफलता ज़रूर पायी है . बाकी उस रोल में प्रियंका गांधी कहीं नहीं नज़र आयीं .उनके व्यक्तित्व के किसी पक्ष को नहीं दिखा पायी कटरीना नाम की कलाकार . कुल मिलाकर प्रकाश झा ने एक ऐसी फिल्म बना दी ,जो प्रकाश झा की फिल्म तो बिलकुल नहीं लगती क्योंकि प्रकाश झा से उम्मीदें थोडा ज़्यादा की जाती हैं . उन्हें मेरे जैसे लोग श्याम बेनेगाल, मणि रत्नम, शुरू वाले राम गोपाल वर्मा की लाइन में रखने के चक्कर में रहते हैं . यह फिल्म तो उन्होंने ऐसी बना दी जो कोई भी राज कपूर , सुनील दत्त या मोहन कुमार बना देता, . इन्ही लोगों की वजह से फ़िल्मी गाँव पेश किये जाते हैं जहां सारे लोग अजीबो गरीब भाषा बोलते हैं , वहां के छप्परों के नीचे बारिश से नहीं बचा जा सकता , गरीब से गरीब आदमी के घर में जर्सी गाय बंधी होती है . इन फंतासीलैंड के फिल्मकारों की वजह से ही ज़्यादातर ठाकुर काले कुरते पहने होते हैं , माँ भवानी की पूजा करते रहते हैं , काला तिलक लगाते हैं और हमेशा दुनाली बन्दूक लिए रहते हैं .
अगर प्रकश झा का नाम न होता तो इस फिल्म को दारा सिंह की पुरानी फिल्मों की तरह ठाकुर दिलेर सिंह टाइप फिल्मों के सांचे में रखा जा सकता था लेकिन ऐसा नहीं है . प्रकश झा से उम्मीद ज़्यादा की जाती है .मनोज बाजपेयी को चुनौती देने वाला जो नौजवान है वह किसी बड़े नेता के बेटे के रोल तक तो ठीक है , वहीअमरीका जाना , ड्राइवर को काका कहना, और किसी पैसे वाले की लडकी से इश्क करना लेकिन जब वह भारतीय राजनीति के खूंखार खेल में अजय देवगन और मनोजबाजपेयी जैसे बड़े अभिनेताओं को चुनौती देता है तो लगता है कि बस अब कह पड़ेगा कि यह बहादुरी मैंने फला साबुन से नहा कर पायी है . आप भी इस्तेमाल करें. उनके चेहरे पर हिन्दी हार्टलैंड की राजनीति की क्रूरता का कोसों तक पता नहीं है . कुल मिलाकर फिल्म इतनी साधारण है कि इसे फिल्म समीक्षा का विषय बनाना भी एक सड़क छाप काम है . लेकिन करना पड़ता है
फर्जी शक़ की बुनियाद पर केवल मुसलमानों को क्यों पकड़ती है पुलिस
शेष नारायण सिंह
पुणे की जर्मन बेकरी के विस्फोट के मामले में महाराष्ट्र पुलिस ने मुंह की खाई है .राज्य के पुलिस महानिदेशक,डी शिवनंदन ने बयान दे दिया है कि जर्मन बेकरी केस में पुलिस का काम बिलकुल गलत ढर्रे पर चल रहा था और अब तक जो कुछ भी जांच हुई है उसका केस से कोई मतलब नहीं है. जांच को फिर से करना होगा .जांच का काम ए टी एस को दिया गया था . राज्य के सबसे बड़े पुलिस अधिकारी ने ऐलानियाँ कहा है कि अब तक की जांच को कूड़े दान के हवाले करके नए सिरे से तफ्तीश होगी . उन्होंने अखबार वालों को बताया कि ए टी एस को केस का ठीक से अध्ययन करना पड़ेगा,वैज्ञानिक तरीके से सबूत हटाना पड़ेगा और तब उन लोगों के एपह्चान करनी पड़ेगी जो जर्मन बेकरी काण्ड के लिए वास्तव में ज़िम्मेदार हैं . यानी अब तक पुलिस ने जो भी किया उसमें पेशागत ईमानदारी बिलकुल नहीं है , .इस बात की जांच की जानी चाहिए कि जिन लोगों को भी पुलिस ने पकड़ रखा था ,उनके खिलाफ केस क्यों बनाया गया. वैसे भी महाराष्ट्र पुलिस आजकल तरह तरह के गैरकानूनी काम के सिलसिले में ख़बरों में है . उनके एक इन्स्पेक्टर को गिरफ्तार किया गया है क्योंकि उसने सुपारी लेकर एक बिल्डर को जान से मारने की कोशिश की थी. ऐसे और भी बहुत से मामले सामने आ चुके हैं जिसमें पुलिस के तथा कथित इनकाउंटर स्पेशलिस्टों ने निरीह लोगों को मौत के घाट उतार दिया था .जर्मन बेकरी का मामला थोडा पेचीदा है. जिस आदमी के बारे में सर्वोच्च पुलिस अधिकारी ने न बताया है कि उसके खिलाफ कोई मामला नहीं है , जब उसे ए टी एस वालों ने पकड़ा था तो क्या माहौल था उस पर नज़र डाल लेने से पुलिस की मानसिकता ठीक से समझ में आ जायेगी.
पुणे की जर्मन बेकरी में करीब ४ महीने पहले हुए धमाके में १७ लोग मारे गए थे . पुलिस ने अब्दुल समद उर्फ़ भटकल नाम के एक आदमी को २४ मई को कर्णाटक में जाकर पकड़ लिया था . यह समद इंडियन मुजाहिदीन के सदस्य यासीन भटकल नाम के आदमी का भाई है .तो क्या पुलिस किसी प्रतिबंधित संगठन के सदस्य के भाई को बिना किसी बुनियाद के गिरफ्तार कने के लिए आज़ाद है . अब्दुल समद की गिरफ्तारी के बाद तो माहौल ही बदल गया . पुलिस ने दावा किया कि जर्मन बेकरी में लगे क्लोज़ सर्किट टी वी की तस्वीरें देखने के बाद यह गिरफ्तारी हुई थी और वास्तव में जो आदमी बेकरी के अन्दर बम रख रहा था , वह भटकल ही है और उसे गिरफ्तार करके ए टी एस वालों ने बड़ी वाह वाही बटोरी थी. हद तो तब हो गयी जब केंद्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम ने महाराष्ट्र ए टी एस को सार्वजनिक रूप से बधाई दी.और कहा कि कि समद जर्मन बेकरी धमाके का एक प्रमुख संदिग्ध है और उसको पकड़ कर पुलिस ने बहुत बड़ा काम किया है . आज जब पुलिस ने खुद ही यह स्वीकार कर लिया है कि उसके खिलाफ कोई केस नहीं है तो समद के नागरिक अधिकारों का मलीदा बनाने वालों के साथ क्या सलूक किया जाना चाहिए . किसी भी आतंकवादी मामले में किसी भी मुसलमान कोपकड़ लेने की पुलिस की मानसिकता का इलाज़ किये जाने की ज़रुरत है . समद को गलत तरीके से हिरासत में ले लेने का यह कोई इकलौता मामला नहीं है . मुंबई में ही ऐसे कई नौजवान बंद हैं जनके ऊपर पोटा का केस बनाकर पुलिस ने पकड़ लिया था लेकिन बाद में पता चला कि उन पर कोई मामला ही नहीं था . इन हालात कोदुरुस्त करने की ज़रुरत है . जब से गुजरात में नरेंद्र मोदी का राज आया है , वहां की पुलिस अपने राजनीतिक आका को खुश करने के लिए किसी भी मुसलमान को पकड़ लेती है और उसे प्रताड़ना देकर छोड़ देती है . गुजरात पुलिस ने मुंबई की लड़की इशरत जहां को भी इसी तरह के मामले में पकड़ा था और बाद में फर्जी मुठभेड़ दिखा कर मारा डाला था. उसी मामले में पुलिस वाले आजकल जेल की हवा खा रहे हैं . . लेकिन वह तब संभव हुआ अजब मामला सुप्रीम कोर्ट तक पंहुचा .
ज़रुरत इस बात की है कि शक़ की बिना पर लोगों को गिरफ्तार करने की पुलिस की ताक़त की कानूनी समीक्षा की जाए. वरना मुंबई और गुजरात की जेलों में ऐसे सैकड़ों मुसलमान बंद हैं जिनके ऊपर जो दफाएँ लगाई गयी हैं उन में कहीं तीन साल ,तो कहीं ७ साल की सज़ा होती है लेकिन यह लडके पिछले ८-१० साल से बंद हैं और बाद में उन्हें बाइज्ज़त बरी कर दिया जाएगा. . यह न्याय व्यवस्था की एक बड़ी कमी है और इस पर फ़ौरन सिविल सोसाइटी , मीडिया और राजनीतिक बिरादरी की नज़र पड़नी चाहिए . और अंग्रेजों के वक़्त की नज़रबंदी की पुलिस की ताक़त को कम करके देश को एक सभ्य प्रशासन देने की कोशिश करनी चाहिए
पुणे की जर्मन बेकरी के विस्फोट के मामले में महाराष्ट्र पुलिस ने मुंह की खाई है .राज्य के पुलिस महानिदेशक,डी शिवनंदन ने बयान दे दिया है कि जर्मन बेकरी केस में पुलिस का काम बिलकुल गलत ढर्रे पर चल रहा था और अब तक जो कुछ भी जांच हुई है उसका केस से कोई मतलब नहीं है. जांच को फिर से करना होगा .जांच का काम ए टी एस को दिया गया था . राज्य के सबसे बड़े पुलिस अधिकारी ने ऐलानियाँ कहा है कि अब तक की जांच को कूड़े दान के हवाले करके नए सिरे से तफ्तीश होगी . उन्होंने अखबार वालों को बताया कि ए टी एस को केस का ठीक से अध्ययन करना पड़ेगा,वैज्ञानिक तरीके से सबूत हटाना पड़ेगा और तब उन लोगों के एपह्चान करनी पड़ेगी जो जर्मन बेकरी काण्ड के लिए वास्तव में ज़िम्मेदार हैं . यानी अब तक पुलिस ने जो भी किया उसमें पेशागत ईमानदारी बिलकुल नहीं है , .इस बात की जांच की जानी चाहिए कि जिन लोगों को भी पुलिस ने पकड़ रखा था ,उनके खिलाफ केस क्यों बनाया गया. वैसे भी महाराष्ट्र पुलिस आजकल तरह तरह के गैरकानूनी काम के सिलसिले में ख़बरों में है . उनके एक इन्स्पेक्टर को गिरफ्तार किया गया है क्योंकि उसने सुपारी लेकर एक बिल्डर को जान से मारने की कोशिश की थी. ऐसे और भी बहुत से मामले सामने आ चुके हैं जिसमें पुलिस के तथा कथित इनकाउंटर स्पेशलिस्टों ने निरीह लोगों को मौत के घाट उतार दिया था .जर्मन बेकरी का मामला थोडा पेचीदा है. जिस आदमी के बारे में सर्वोच्च पुलिस अधिकारी ने न बताया है कि उसके खिलाफ कोई मामला नहीं है , जब उसे ए टी एस वालों ने पकड़ा था तो क्या माहौल था उस पर नज़र डाल लेने से पुलिस की मानसिकता ठीक से समझ में आ जायेगी.
पुणे की जर्मन बेकरी में करीब ४ महीने पहले हुए धमाके में १७ लोग मारे गए थे . पुलिस ने अब्दुल समद उर्फ़ भटकल नाम के एक आदमी को २४ मई को कर्णाटक में जाकर पकड़ लिया था . यह समद इंडियन मुजाहिदीन के सदस्य यासीन भटकल नाम के आदमी का भाई है .तो क्या पुलिस किसी प्रतिबंधित संगठन के सदस्य के भाई को बिना किसी बुनियाद के गिरफ्तार कने के लिए आज़ाद है . अब्दुल समद की गिरफ्तारी के बाद तो माहौल ही बदल गया . पुलिस ने दावा किया कि जर्मन बेकरी में लगे क्लोज़ सर्किट टी वी की तस्वीरें देखने के बाद यह गिरफ्तारी हुई थी और वास्तव में जो आदमी बेकरी के अन्दर बम रख रहा था , वह भटकल ही है और उसे गिरफ्तार करके ए टी एस वालों ने बड़ी वाह वाही बटोरी थी. हद तो तब हो गयी जब केंद्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम ने महाराष्ट्र ए टी एस को सार्वजनिक रूप से बधाई दी.और कहा कि कि समद जर्मन बेकरी धमाके का एक प्रमुख संदिग्ध है और उसको पकड़ कर पुलिस ने बहुत बड़ा काम किया है . आज जब पुलिस ने खुद ही यह स्वीकार कर लिया है कि उसके खिलाफ कोई केस नहीं है तो समद के नागरिक अधिकारों का मलीदा बनाने वालों के साथ क्या सलूक किया जाना चाहिए . किसी भी आतंकवादी मामले में किसी भी मुसलमान कोपकड़ लेने की पुलिस की मानसिकता का इलाज़ किये जाने की ज़रुरत है . समद को गलत तरीके से हिरासत में ले लेने का यह कोई इकलौता मामला नहीं है . मुंबई में ही ऐसे कई नौजवान बंद हैं जनके ऊपर पोटा का केस बनाकर पुलिस ने पकड़ लिया था लेकिन बाद में पता चला कि उन पर कोई मामला ही नहीं था . इन हालात कोदुरुस्त करने की ज़रुरत है . जब से गुजरात में नरेंद्र मोदी का राज आया है , वहां की पुलिस अपने राजनीतिक आका को खुश करने के लिए किसी भी मुसलमान को पकड़ लेती है और उसे प्रताड़ना देकर छोड़ देती है . गुजरात पुलिस ने मुंबई की लड़की इशरत जहां को भी इसी तरह के मामले में पकड़ा था और बाद में फर्जी मुठभेड़ दिखा कर मारा डाला था. उसी मामले में पुलिस वाले आजकल जेल की हवा खा रहे हैं . . लेकिन वह तब संभव हुआ अजब मामला सुप्रीम कोर्ट तक पंहुचा .
ज़रुरत इस बात की है कि शक़ की बिना पर लोगों को गिरफ्तार करने की पुलिस की ताक़त की कानूनी समीक्षा की जाए. वरना मुंबई और गुजरात की जेलों में ऐसे सैकड़ों मुसलमान बंद हैं जिनके ऊपर जो दफाएँ लगाई गयी हैं उन में कहीं तीन साल ,तो कहीं ७ साल की सज़ा होती है लेकिन यह लडके पिछले ८-१० साल से बंद हैं और बाद में उन्हें बाइज्ज़त बरी कर दिया जाएगा. . यह न्याय व्यवस्था की एक बड़ी कमी है और इस पर फ़ौरन सिविल सोसाइटी , मीडिया और राजनीतिक बिरादरी की नज़र पड़नी चाहिए . और अंग्रेजों के वक़्त की नज़रबंदी की पुलिस की ताक़त को कम करके देश को एक सभ्य प्रशासन देने की कोशिश करनी चाहिए
Wednesday, June 16, 2010
फिर पूछें कि मौत का सौदागर कौन है
शेष नारायण सिंह
(डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट से साभार )
दिसंबर १९८४ में हुए भोपाल गैस हादसे का विवाद एक बार फिर जिंदा हो गया है . राजीव गाँधी का नाम आते ही बी जे पी को लगने लगा है कि शायद बोफर्स टाइप कुछ काम बन जाए और राजनीतिक फसल में मुनाफ़ा हो . उधर दिल्ली में बैठे कांग्रेस के ज़रुरत से ज्यादा वफादार लोग राजीव के नाम को बचाने के चक्कर में उल जलूल बयान दे रहे हैं . जिन्होंने भोपाल की उस खूंखार रात को देखा है उनके लिए भोपाल गैस त्रासदी के किसी अपराधी को माफ़ कर् पाना मुश्किल है . अब भोपाल गैस काण्ड पर विधिवत राजनीति शुरू हो गयी है जिसका स्वागत किया जाना चाहिए. लेकिन राजनीतिक किलेबंदी के चक्कर में मुद्दे से जनमत का ध्यान हटाने की कोशिश को भी बात को को हड़प लेने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए. मुद्दा यह है कि भोपाल के इतने बड़े मामले को जिन लोगों ने मामूली कानून व्यवस्था के मामले की तरह पेश किया , वे ज़िम्मेदार हैं और उन्हें सवालों के घेरे में लिया जाना चाहिए . हादसा जिस दिन हुआ उस दिन मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री ,अर्जुन सिंह थे , उनकी जो भी ज़िम्मेदारी हो उसके लिए उन्हें दण्डित किया जाना चाहिये. उन पर आरोप है कि उन्होंने युनियन कार्बाइड के मुखिया को देश से भाग जाने में मदद की. लेकिन इस मामले में इस से बहुत बड़े बड़े घपले हुए हैं . उन पर भी नज़र डाली जानी चाहिए और सब को कटघरे में लाया जाना चाहिए जिस से भविष्य में कोई भी नेता या अधिकारी इस तरह के काम करने से डरे . भोपाल गैस काण्ड में बहुत सारे आयाम हैं. यह भी पता लगाया जाना चाहिए कि दंड संहिता की धाराओं को हल्का किसने किया , लोगों के पुनर्वास के काम में ढिलाई किसने बरती , एक अभियुक्त को तत्कालीन गृह मंत्री और राष्ट्रपति के पास कौन लेकर गया और क्यों यह मुलाक़ात करवाई गयी. उस वक़्त के ताक़तवर लोगों की क्या भूमिका थी . यह सब ऐसे सवाल हैं जिनकी जांच करने से आगे की बात साफ़ करने में मदद मिलेगी. लेकिन बात यहीं ख़त्म नहीं हो जाती. दिसंबर ८४ से लेकर आजतक इस मामले में बहुत सारे लोग आये हैं. उसमें भोपाल के जिला प्रशासन के वे अधिकारी हैं जिन्होंने मामले को हल्का किया . इसमें पुलिस का रोल है , मुकामी न्यायपालिका का रोल हैं , मुकामी नेताओं का रोल है. सब की पड़ताल की जानी चाहिए . और इस तरह से अर्जुन सिंह के बाद जो लोग भी मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री हुए हों सबसे पूछ ताछ की जानी चाहिए . अगर ऐसा हुआ तो पिछले २५ वर्षों के हर मुख्य मंत्री की जवाबदेही और ज़िम्मेदारी तय की जा सकेगी और आने वाले दौर में मुख्य मंत्री मनमानीकरने से बाज़ आयेगें. हाँ अगर कांग्रेस के उस वक़्त के मुख्यमंत्री और प्रधान मंत्री को सूली पर चढ़ाना है तो मीडिया में जिस तरह का काम चल रहा है , उसे जारी रखा जा सकता है लेकिन अगर सही बात को सामने लाना है तो मीडिया के लिए भी लाजिम है कि वह सारी बातों को बहस के घेरे में लाये और बात को आगे बढाए. भारत के कानून ऐसे हैं कि वह यह सुनिश्चित करने के अवसर देते हैं कि किसी के साथ अन्याय न हो . इसके लिए कभी भी किसी मुक़दमे में दुबारा जांच की जा सकती है . इस बात की भी जांच की जानी चाहिए कि क्या अर्जुन सिंह के बाद से लेकर अब तक किसी मुख्य मंत्री ने जांच के बारे में कोई जानकारी ली क्योंकि जनता के प्रतिनधि के रूप में चुने गए हर मुख्यमंत्री का यह कि वह जनता के हितों के कस्टोडियन के रूप में काम करे.इसलिए यह ज़रूरी है कि कि दिग्विजय सिंह , मोतीलाल वोरा, उमा भारती , कैलाश जोशी. सुन्दर लाल पटवा ,राजीव गाँधी, वी पी सिंह , पी वी नरसिंह राव, एच डी देवेगोड़ा, अटल बिहारी वाजपेयी, और मनमोहन सिंह की भूमिका की भी जांच कर लेनी छाहिये . मीडिया को भी चौकन्ना रहने की ज़रुरत है कि वह बी जे पी की ओर से एजेंडा फिक्स कर रहे लोगों की बात को भी ध्यान में रखें लेकिन बी जे पी वालों को बचाने की कोशिशों का भी पर्दा फाश करें. ताज़ा खबर यह है कि मौत के सौदागर वाली बहस भी शुरू हो गयी है . और गुजरात २००२ के लिए ज़िम्मेदार नेता ने पूछना शुरू कर दिया है कि मौत का सौदागर कौन है . उन नेता जी को भी यह बताने की ज़रुरत है कि मौत का सौदागर वह होता है जो अपनी निगरानी में हज़ारों लोगों को मौत के घाट उतारे . वे खुद तय कर लें कि उस सांचे में कौन फिट बैठता है.
(डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट से साभार )
दिसंबर १९८४ में हुए भोपाल गैस हादसे का विवाद एक बार फिर जिंदा हो गया है . राजीव गाँधी का नाम आते ही बी जे पी को लगने लगा है कि शायद बोफर्स टाइप कुछ काम बन जाए और राजनीतिक फसल में मुनाफ़ा हो . उधर दिल्ली में बैठे कांग्रेस के ज़रुरत से ज्यादा वफादार लोग राजीव के नाम को बचाने के चक्कर में उल जलूल बयान दे रहे हैं . जिन्होंने भोपाल की उस खूंखार रात को देखा है उनके लिए भोपाल गैस त्रासदी के किसी अपराधी को माफ़ कर् पाना मुश्किल है . अब भोपाल गैस काण्ड पर विधिवत राजनीति शुरू हो गयी है जिसका स्वागत किया जाना चाहिए. लेकिन राजनीतिक किलेबंदी के चक्कर में मुद्दे से जनमत का ध्यान हटाने की कोशिश को भी बात को को हड़प लेने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए. मुद्दा यह है कि भोपाल के इतने बड़े मामले को जिन लोगों ने मामूली कानून व्यवस्था के मामले की तरह पेश किया , वे ज़िम्मेदार हैं और उन्हें सवालों के घेरे में लिया जाना चाहिए . हादसा जिस दिन हुआ उस दिन मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री ,अर्जुन सिंह थे , उनकी जो भी ज़िम्मेदारी हो उसके लिए उन्हें दण्डित किया जाना चाहिये. उन पर आरोप है कि उन्होंने युनियन कार्बाइड के मुखिया को देश से भाग जाने में मदद की. लेकिन इस मामले में इस से बहुत बड़े बड़े घपले हुए हैं . उन पर भी नज़र डाली जानी चाहिए और सब को कटघरे में लाया जाना चाहिए जिस से भविष्य में कोई भी नेता या अधिकारी इस तरह के काम करने से डरे . भोपाल गैस काण्ड में बहुत सारे आयाम हैं. यह भी पता लगाया जाना चाहिए कि दंड संहिता की धाराओं को हल्का किसने किया , लोगों के पुनर्वास के काम में ढिलाई किसने बरती , एक अभियुक्त को तत्कालीन गृह मंत्री और राष्ट्रपति के पास कौन लेकर गया और क्यों यह मुलाक़ात करवाई गयी. उस वक़्त के ताक़तवर लोगों की क्या भूमिका थी . यह सब ऐसे सवाल हैं जिनकी जांच करने से आगे की बात साफ़ करने में मदद मिलेगी. लेकिन बात यहीं ख़त्म नहीं हो जाती. दिसंबर ८४ से लेकर आजतक इस मामले में बहुत सारे लोग आये हैं. उसमें भोपाल के जिला प्रशासन के वे अधिकारी हैं जिन्होंने मामले को हल्का किया . इसमें पुलिस का रोल है , मुकामी न्यायपालिका का रोल हैं , मुकामी नेताओं का रोल है. सब की पड़ताल की जानी चाहिए . और इस तरह से अर्जुन सिंह के बाद जो लोग भी मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री हुए हों सबसे पूछ ताछ की जानी चाहिए . अगर ऐसा हुआ तो पिछले २५ वर्षों के हर मुख्य मंत्री की जवाबदेही और ज़िम्मेदारी तय की जा सकेगी और आने वाले दौर में मुख्य मंत्री मनमानीकरने से बाज़ आयेगें. हाँ अगर कांग्रेस के उस वक़्त के मुख्यमंत्री और प्रधान मंत्री को सूली पर चढ़ाना है तो मीडिया में जिस तरह का काम चल रहा है , उसे जारी रखा जा सकता है लेकिन अगर सही बात को सामने लाना है तो मीडिया के लिए भी लाजिम है कि वह सारी बातों को बहस के घेरे में लाये और बात को आगे बढाए. भारत के कानून ऐसे हैं कि वह यह सुनिश्चित करने के अवसर देते हैं कि किसी के साथ अन्याय न हो . इसके लिए कभी भी किसी मुक़दमे में दुबारा जांच की जा सकती है . इस बात की भी जांच की जानी चाहिए कि क्या अर्जुन सिंह के बाद से लेकर अब तक किसी मुख्य मंत्री ने जांच के बारे में कोई जानकारी ली क्योंकि जनता के प्रतिनधि के रूप में चुने गए हर मुख्यमंत्री का यह कि वह जनता के हितों के कस्टोडियन के रूप में काम करे.इसलिए यह ज़रूरी है कि कि दिग्विजय सिंह , मोतीलाल वोरा, उमा भारती , कैलाश जोशी. सुन्दर लाल पटवा ,राजीव गाँधी, वी पी सिंह , पी वी नरसिंह राव, एच डी देवेगोड़ा, अटल बिहारी वाजपेयी, और मनमोहन सिंह की भूमिका की भी जांच कर लेनी छाहिये . मीडिया को भी चौकन्ना रहने की ज़रुरत है कि वह बी जे पी की ओर से एजेंडा फिक्स कर रहे लोगों की बात को भी ध्यान में रखें लेकिन बी जे पी वालों को बचाने की कोशिशों का भी पर्दा फाश करें. ताज़ा खबर यह है कि मौत के सौदागर वाली बहस भी शुरू हो गयी है . और गुजरात २००२ के लिए ज़िम्मेदार नेता ने पूछना शुरू कर दिया है कि मौत का सौदागर कौन है . उन नेता जी को भी यह बताने की ज़रुरत है कि मौत का सौदागर वह होता है जो अपनी निगरानी में हज़ारों लोगों को मौत के घाट उतारे . वे खुद तय कर लें कि उस सांचे में कौन फिट बैठता है.
Monday, June 14, 2010
पंद्रह हज़ार करोड़ रूपये का मुआवजा देंगें लीबिया के गद्दाफी
शेष नारायण सिंह
आतंकवाद के प्रायोजकों के लिए बहुत बुरी खबर है . आतंकवादियों को मदद देने वालों को सभ्य समाज की ताक़त दबोचती ज़रूर है . ओसामा बिन लादेन का उदाहरण दुनिया के सामने है .उसे अंदाज़ भी नहीं रहा होगा कि आतंक की कीमत इतनी भारी हो सकती है . ताज़ा उदाहरण नरेंद्र मोदी का है . गुजरात में आतंक और २००२ के नरसंहार के लिए ज़िम्मेदार नेता, नरेंद्र मोदी की पूरी दुनिया के सभ्य समाजों में प्रवेश की मनाही है . अभी बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने उन्हें ज़रा संभल के रहने की चेतावनी दी है .इसके पहले अमरीका और यूरोप के देशों की कुछ सरकारों ने उनकी वीजा की अर्जी को ठुकरा कर उन्हें अपनी हैसियत में रहने की ताकीद की थी. १९७४ में चिली के राष्ट्रपति अलेंदे को मार कर चिली में आतंक का शासन कायम करने वाले पिनोशे का भी वही हाल हुआ जो बाकी आतंक फैलाने वालों का होता है . आतंक की सियासत के आदिपुरुष, एडोल्फ हिटलर को अपने किये की जो सज़ा मिली, उस से दुनिया में आतंक की खेती करने वाले आजतक सबक लेते हैं .१९८४ में सिखों को चुन चुन कर आतंक का शिकार बनाने वाले अर्जुन दास, ललित माकन, हरिकिशन लाल भगत ,सज्जन कुमार और जगदीश टाइटलर का हश्र दुनिया ने देखा ही है .आतंक की सियासत के नतीजों को भोगने का एक नया मामला सामने आया है . करीब ३५ साल से अमरीका और पश्चिमी यूरोप के देशों के खिलाफ अभियान चला रहे, लीबिया के राष्ट्रपति , कर्नल मुअम्मर गद्दाफी को तीसरी दुनिया के बहुत सारे देशों में इज्ज़त से देखा जाता था लेकिन अपने आपको गलत समझने के चक्कर में वे आतंकवादी गतिविधियों के प्रायोजक हो गए.और इंग्लैंड में आतंक फैला रहे आयरिश रिपब्लिकन आर्मी के आतंकवादियों को हथियार देने लगे जिसका इस्तेमाल करके उन लोगों ने आयरलैंड और इंग्लैण्ड में खूब आतंक फैलाया . हज़ारों लोगों का मौत के घाट उतारा और सामान्य जीवन को खतरनाक बनाया .. अब तो दुनिया जानती है कि लाकरबी विमान विस्फोट काण्ड भी कर्नल गद्दाफी के दिमाग की उपज थी क्योंकि अब उन्होंने ही उसे स्वीकार कर लिया है ... हालांकि सबको मालूम है कि गद्दाफी ने अमरीकी और पश्चिमी यूरोप के साम्राज्यवादी मुल्कों की उस लूट पर लगाम लगाई थी जो पेट्रोल के आविष्कार के बाद से ही जारी थी . लेकिन अपने उत्साह में उन्होंने निर्दोष लोगों को मारने का काम शुरू कर दिया जो उन्हें नहीं करना चाहिए था लेकिन गद्दाफी निरंकुश तानाशाह थे और उनको टोकने की हिम्मत किसी के पास नहीं थी . बाद में जब सोवियत रूस का विघटन हुआ तो गद्दाफी ने पश्चिम के देशों से रिश्ते सुधारने की कोशिश शुरू कर दी लेकिन वह कोशिश उनको बहुत महंगी पड़ रही है . लाकरबी विमान के हादसे के शिकार हुए लोगों के परिवारों को वे बहुत बड़ी रक़म बतौर मुआवजा दे चुके हैं . और अब खबर आई है कि वे आयरलैंड में आतंक के शिकार हुए परिवारों को भी करीब १५ हज़ार करोड़ रूपये के बराबर की रक़म देने वाले हैं . हालांकि वे इसे मुआवजा नहीं मान रहे हैं , उनका कहना है कि यह तो मानवीय सहायता के लिए दिया जा रहा है लेकिन यह तय है कि कि लीबिया की सरकार आयरलैंड के आतंक के शिकार लोगों को बहुत बड़ी रक़म दे रही है .. गद्दाफी ने आयरलैंड के आतंकवादियों को एक खतरनाक विस्फोटक सेमटैक्स की सप्लाई की थी . यह एक प्लास्टिक विस्फोटक है और आर डी एक्स जैसा असर करता है . गद्दाफी की सरकार की तरफ से सप्लाई किये गए सेमटैक्स का इस्तेमाल कम से कम दस आतंकवादी वारदातों में हुआ था लन्दन के विख्यात डिपार्टमेंटल स्टोर, हैरड्स और लाकरबी विमान के धमाके में इसी विस्फोटक का इस्तेमाल हुआ था. लाकरबी धमाके के शिकार लोगों के परिवार वालों को तो गद्दाफी पहले ही मुआवाज़ा दे चुके हैं . यह सारी रक़म रखवा लेने के बाद ब्रिटेन की सरकार ने गद्दाफी को केवल यह राहत दी है कि वे आयरलैंड में मानवीय सहायता के नाम पर कुछ कार्यक्रम चला सकते हैं जिस से यह लगे कि वे जो कुछ भी दे रहे हैं अपनी खुशी से दे रहे हैं ,उन पर कोई दबाव नहीं है . बहर हाल तरीकों पर चर्चा करना यहाँ उद्देश्य नहीं है लेकिन यह पक्का है कि आतंकवादी की राजनीति हमेशा हार कू ही गले लगाती है और इंसानियत हर बार विजयी रहती है . भविष्य के आतंकवादियों को इन पुराने आतंकियों के अंजाम को देख कर सबक ज़रूर लेना चाहिए
आतंकवाद के प्रायोजकों के लिए बहुत बुरी खबर है . आतंकवादियों को मदद देने वालों को सभ्य समाज की ताक़त दबोचती ज़रूर है . ओसामा बिन लादेन का उदाहरण दुनिया के सामने है .उसे अंदाज़ भी नहीं रहा होगा कि आतंक की कीमत इतनी भारी हो सकती है . ताज़ा उदाहरण नरेंद्र मोदी का है . गुजरात में आतंक और २००२ के नरसंहार के लिए ज़िम्मेदार नेता, नरेंद्र मोदी की पूरी दुनिया के सभ्य समाजों में प्रवेश की मनाही है . अभी बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने उन्हें ज़रा संभल के रहने की चेतावनी दी है .इसके पहले अमरीका और यूरोप के देशों की कुछ सरकारों ने उनकी वीजा की अर्जी को ठुकरा कर उन्हें अपनी हैसियत में रहने की ताकीद की थी. १९७४ में चिली के राष्ट्रपति अलेंदे को मार कर चिली में आतंक का शासन कायम करने वाले पिनोशे का भी वही हाल हुआ जो बाकी आतंक फैलाने वालों का होता है . आतंक की सियासत के आदिपुरुष, एडोल्फ हिटलर को अपने किये की जो सज़ा मिली, उस से दुनिया में आतंक की खेती करने वाले आजतक सबक लेते हैं .१९८४ में सिखों को चुन चुन कर आतंक का शिकार बनाने वाले अर्जुन दास, ललित माकन, हरिकिशन लाल भगत ,सज्जन कुमार और जगदीश टाइटलर का हश्र दुनिया ने देखा ही है .आतंक की सियासत के नतीजों को भोगने का एक नया मामला सामने आया है . करीब ३५ साल से अमरीका और पश्चिमी यूरोप के देशों के खिलाफ अभियान चला रहे, लीबिया के राष्ट्रपति , कर्नल मुअम्मर गद्दाफी को तीसरी दुनिया के बहुत सारे देशों में इज्ज़त से देखा जाता था लेकिन अपने आपको गलत समझने के चक्कर में वे आतंकवादी गतिविधियों के प्रायोजक हो गए.और इंग्लैंड में आतंक फैला रहे आयरिश रिपब्लिकन आर्मी के आतंकवादियों को हथियार देने लगे जिसका इस्तेमाल करके उन लोगों ने आयरलैंड और इंग्लैण्ड में खूब आतंक फैलाया . हज़ारों लोगों का मौत के घाट उतारा और सामान्य जीवन को खतरनाक बनाया .. अब तो दुनिया जानती है कि लाकरबी विमान विस्फोट काण्ड भी कर्नल गद्दाफी के दिमाग की उपज थी क्योंकि अब उन्होंने ही उसे स्वीकार कर लिया है ... हालांकि सबको मालूम है कि गद्दाफी ने अमरीकी और पश्चिमी यूरोप के साम्राज्यवादी मुल्कों की उस लूट पर लगाम लगाई थी जो पेट्रोल के आविष्कार के बाद से ही जारी थी . लेकिन अपने उत्साह में उन्होंने निर्दोष लोगों को मारने का काम शुरू कर दिया जो उन्हें नहीं करना चाहिए था लेकिन गद्दाफी निरंकुश तानाशाह थे और उनको टोकने की हिम्मत किसी के पास नहीं थी . बाद में जब सोवियत रूस का विघटन हुआ तो गद्दाफी ने पश्चिम के देशों से रिश्ते सुधारने की कोशिश शुरू कर दी लेकिन वह कोशिश उनको बहुत महंगी पड़ रही है . लाकरबी विमान के हादसे के शिकार हुए लोगों के परिवारों को वे बहुत बड़ी रक़म बतौर मुआवजा दे चुके हैं . और अब खबर आई है कि वे आयरलैंड में आतंक के शिकार हुए परिवारों को भी करीब १५ हज़ार करोड़ रूपये के बराबर की रक़म देने वाले हैं . हालांकि वे इसे मुआवजा नहीं मान रहे हैं , उनका कहना है कि यह तो मानवीय सहायता के लिए दिया जा रहा है लेकिन यह तय है कि कि लीबिया की सरकार आयरलैंड के आतंक के शिकार लोगों को बहुत बड़ी रक़म दे रही है .. गद्दाफी ने आयरलैंड के आतंकवादियों को एक खतरनाक विस्फोटक सेमटैक्स की सप्लाई की थी . यह एक प्लास्टिक विस्फोटक है और आर डी एक्स जैसा असर करता है . गद्दाफी की सरकार की तरफ से सप्लाई किये गए सेमटैक्स का इस्तेमाल कम से कम दस आतंकवादी वारदातों में हुआ था लन्दन के विख्यात डिपार्टमेंटल स्टोर, हैरड्स और लाकरबी विमान के धमाके में इसी विस्फोटक का इस्तेमाल हुआ था. लाकरबी धमाके के शिकार लोगों के परिवार वालों को तो गद्दाफी पहले ही मुआवाज़ा दे चुके हैं . यह सारी रक़म रखवा लेने के बाद ब्रिटेन की सरकार ने गद्दाफी को केवल यह राहत दी है कि वे आयरलैंड में मानवीय सहायता के नाम पर कुछ कार्यक्रम चला सकते हैं जिस से यह लगे कि वे जो कुछ भी दे रहे हैं अपनी खुशी से दे रहे हैं ,उन पर कोई दबाव नहीं है . बहर हाल तरीकों पर चर्चा करना यहाँ उद्देश्य नहीं है लेकिन यह पक्का है कि आतंकवादी की राजनीति हमेशा हार कू ही गले लगाती है और इंसानियत हर बार विजयी रहती है . भविष्य के आतंकवादियों को इन पुराने आतंकियों के अंजाम को देख कर सबक ज़रूर लेना चाहिए
Sunday, June 13, 2010
दांतेवाडा के आस पास दलितों की बेटियों की इज्ज़त लूटी जा रही है
शेष नारायण सिंह
छत्तीस गढ़ के दांतेवाडा जिले में माओवादी आतंकवादियों ने केंद्रीय रिज़र्व पुलिस के ७६ सिपाहियों को ६ अप्रैल २०१० की रात में मार डाला था. मारे गए पुलिस के वे जवान अपनी ड्यूटी कर रहे थे , उनको बहुत ही मुश्किल से सी आर पी की नौकरी मिली थी. गरीबी से जूझ रहे भारत के गावों में जब किसी बच्चे को सी आर पी एफ , बी एस एफ, आई टी बी पी या अन्य अर्ध सैनिक संगठनों में नौकरी मिल जाती है तो खुशी मनाई जाती है ., प्रीतिभोज किया जाता है और इलाके में परिवार की इज़्ज़त बढ़ती है . संपन्न इलाकों के लोगों की समझ में यह बात नहीं आयेगी लेकिन व्यक्तिगत जानकारी के आधार पर कहा जा सकता है कि इन अर्ध सैनिक बलों में नौकरी पाने के लिए इन बच्चों के मातापिता बड़ी रक़म बतौर रिश्वत के भी देते हैं . सरकारी नौकरी की सुरक्षा के लिए गरीब आदमी सब कुछ करता है . लेकिन जब दांतेवाडा में आतंकवादियों ने इन्ही गरीब परिवारों के बच्चों को मार डाला तो पूरे देश में गम और गुस्से का माहौल बन गया .वैसे भी जिन लोगों के हाथों में माओवादी लुटेरों ने बंदूक पकड़ा दी है , वे भी तो गरीब लोगों की औलादें हैं और उनको बेवक़ूफ़ बना कर कुछ पैसों की लालच में फंसाया गया है . इसलिए माओवादी आतंक के इस खूनी खेल में दोनों तरफ ही शिकार हो रही शोषित पीड़ित जनता है और शासक वर्गों के लोग उनको अपने हित में इस्तेमाल कर रहे हैं . वास्तव में सरकारी नेताओं और माओवादी आतंकवादियों का वर्गचरित्र एक ही है. . वे दोनों ही गरीबों को चारे की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं . लेकिन इस सब में सबसे ज्यादा ज़िम्मेदारी सरकारों की है , केंद्र और राज्य दोनों ही सरकारों की . उन्होंने विदेशी और स्वदेशी पूंजीपतियों के हाथों आदिवासी इलाकों की खनिज सम्पदा को औने पौने दामों में बेच कर इन इलाकों में रहने वाले और इस खनिज सम्पदा के असली वारिस लोगों के भविष्य को बड़ी पूंजी के हाथों गिरवी रख दिया है. ज़ाहिर हैं यह वही लोग हैं जो राजनीति और नौकरशाही में बड़े पदों पर विराजमान हैं और हज़ारों करोड़ की रिश्वत खा कर आम आदमी का शोषण कर रहे हैं . दूसरी तरफ माओवादी हैं जो अपने हितों के लिए गरीब आदिवासी जनता के हाथों में बंदूक पकड़ा रहे हैं . इस सारे ड्रामे में मुकामी बदमाश भी शामिल हो गए हैं और चारों तरफ से राष्ट्र हित पर हमला बोल दिया गया है .यहाँ यह भी साफ़ कर देना ज़रूरी है कि राज्य या केंद्र में सरकार चाहे जिस पार्टी की हो , सभी पार्टियां घूस की लालच में अपने देश के हितों के खिलाफ काम कर रही हैं . जहां भी आतंकवाद बढ़ता है, वहां हालात पर सामाजिक कंट्रोल बिलकुल ख़त्म हो जाता है . उसके बाद हालात पर लोकल ठगों का क़ब्ज़ा हो जाता है , सरकार का हुक्म नहीं चलता और आतंकवादी संगठन जो अपने को क्रांतिकारी समझ रहे होते हैं, वे बदमाशों को भी अपना मानने की गलती कर बैठते हैं और हालात बेकाबू हो जाते हैं . दांतेवाडा के आस पास भी यही हो रहा है. हालात के बेकाबू होने का सबसे बड़ा नुकसान उन लोगों को होता है जो गरीब होते हैं और जिनमें शिक्षा का अभाव होता है . कुछ चालाक और शातिर किस्म के लोग आतंकवादियों और सरकारी एजेंसियों के मुखबिर बन जाते हैं और आतंक की वजह से जो लूट होती है उनको यही करते हैं .
दांतेवाडा के आस पास आजकल हर लेवल पर आतंक का राज है . दैनिक हिन्दू अखबार के रिपोर्टर ने दांतेवाडा जिले के गावों का दौरा करने के बाद अपनी आँखों से देखा कि पुलिस और माओवादियों के मुखबिर किस तरह से लोगों का शोषण कर रहे हैं . इस इलाके में आजकल पुलिस का बहुत ही भारी बंदोबस्त है . लिहाजा माओवादी आतंकवादियों की गतिविधियाँ तो उतनी ज्यादा नहीं हैं लेकिन पुलिस के मुखबिर खुले आम लूट पाट कर रहे हैं . मुकरम गाँव में जाकर संवाददाता ने पाया कि मुखबिरों ने तीन लड़कियों को मारा पीटा और उनके साथ बलात्कार किया . उनके शरीर के नाजुक स्थानों पर लात से मारा और बच्चियों को फेंक कर चले गए.इन लड़कियों ने बताया कि जब एक बड़ा पुलिस अधिकारी उधर से गुज़रा तब यह लोग उन्हें फेंक कर भागे वरना पता नहीं क्या हो सकता था. यह तो एक गाँव की घटना है . छत्तीस गढ़ और झारखण्ड में इस तरह के हज़ारों गाँव हैं और इमकान है कि हर जगह यही हो रहा होगा . इस घटना का पता तो बाकी दुनिया को इस लिए चल गया कि वहां एक सम्मानित अखबार का रिपोर्टर पंहुच गया . इस रिपोर्टर ने पड़ोस के गाँव में भी इसी तरह का आतंक देखा जो कि सरकारी पक्ष से हो रहा है
दांतेवाडा नरसंहार को दो महीने हो गए हैं और आस पास का इलाका पूरी तरह से छावनी की शक्ल अख्तियार कर चुका है .वहां गए रिपोर्टर को गाँव वालों ने बताया कि जब गाँव के मर्द खेतों में काम करने चले जाते हैं , तो आस पास तैनात पुलिस वाले गश्त के बहाने गाँवों में आते हैं और औरतों को परेशान करते हैं इस तरह की अमानवीय आचरण की बहुत सारी घटनाएं इन इलाकों में हो रही हैं .सरकारों और सिविल सोसाइटी को चाहिए कि फ़ौरन से पेशतर ज़रूरी कार्रवाई करें वरना बहुत देर हो जायेगी. .
छत्तीस गढ़ के दांतेवाडा जिले में माओवादी आतंकवादियों ने केंद्रीय रिज़र्व पुलिस के ७६ सिपाहियों को ६ अप्रैल २०१० की रात में मार डाला था. मारे गए पुलिस के वे जवान अपनी ड्यूटी कर रहे थे , उनको बहुत ही मुश्किल से सी आर पी की नौकरी मिली थी. गरीबी से जूझ रहे भारत के गावों में जब किसी बच्चे को सी आर पी एफ , बी एस एफ, आई टी बी पी या अन्य अर्ध सैनिक संगठनों में नौकरी मिल जाती है तो खुशी मनाई जाती है ., प्रीतिभोज किया जाता है और इलाके में परिवार की इज़्ज़त बढ़ती है . संपन्न इलाकों के लोगों की समझ में यह बात नहीं आयेगी लेकिन व्यक्तिगत जानकारी के आधार पर कहा जा सकता है कि इन अर्ध सैनिक बलों में नौकरी पाने के लिए इन बच्चों के मातापिता बड़ी रक़म बतौर रिश्वत के भी देते हैं . सरकारी नौकरी की सुरक्षा के लिए गरीब आदमी सब कुछ करता है . लेकिन जब दांतेवाडा में आतंकवादियों ने इन्ही गरीब परिवारों के बच्चों को मार डाला तो पूरे देश में गम और गुस्से का माहौल बन गया .वैसे भी जिन लोगों के हाथों में माओवादी लुटेरों ने बंदूक पकड़ा दी है , वे भी तो गरीब लोगों की औलादें हैं और उनको बेवक़ूफ़ बना कर कुछ पैसों की लालच में फंसाया गया है . इसलिए माओवादी आतंक के इस खूनी खेल में दोनों तरफ ही शिकार हो रही शोषित पीड़ित जनता है और शासक वर्गों के लोग उनको अपने हित में इस्तेमाल कर रहे हैं . वास्तव में सरकारी नेताओं और माओवादी आतंकवादियों का वर्गचरित्र एक ही है. . वे दोनों ही गरीबों को चारे की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं . लेकिन इस सब में सबसे ज्यादा ज़िम्मेदारी सरकारों की है , केंद्र और राज्य दोनों ही सरकारों की . उन्होंने विदेशी और स्वदेशी पूंजीपतियों के हाथों आदिवासी इलाकों की खनिज सम्पदा को औने पौने दामों में बेच कर इन इलाकों में रहने वाले और इस खनिज सम्पदा के असली वारिस लोगों के भविष्य को बड़ी पूंजी के हाथों गिरवी रख दिया है. ज़ाहिर हैं यह वही लोग हैं जो राजनीति और नौकरशाही में बड़े पदों पर विराजमान हैं और हज़ारों करोड़ की रिश्वत खा कर आम आदमी का शोषण कर रहे हैं . दूसरी तरफ माओवादी हैं जो अपने हितों के लिए गरीब आदिवासी जनता के हाथों में बंदूक पकड़ा रहे हैं . इस सारे ड्रामे में मुकामी बदमाश भी शामिल हो गए हैं और चारों तरफ से राष्ट्र हित पर हमला बोल दिया गया है .यहाँ यह भी साफ़ कर देना ज़रूरी है कि राज्य या केंद्र में सरकार चाहे जिस पार्टी की हो , सभी पार्टियां घूस की लालच में अपने देश के हितों के खिलाफ काम कर रही हैं . जहां भी आतंकवाद बढ़ता है, वहां हालात पर सामाजिक कंट्रोल बिलकुल ख़त्म हो जाता है . उसके बाद हालात पर लोकल ठगों का क़ब्ज़ा हो जाता है , सरकार का हुक्म नहीं चलता और आतंकवादी संगठन जो अपने को क्रांतिकारी समझ रहे होते हैं, वे बदमाशों को भी अपना मानने की गलती कर बैठते हैं और हालात बेकाबू हो जाते हैं . दांतेवाडा के आस पास भी यही हो रहा है. हालात के बेकाबू होने का सबसे बड़ा नुकसान उन लोगों को होता है जो गरीब होते हैं और जिनमें शिक्षा का अभाव होता है . कुछ चालाक और शातिर किस्म के लोग आतंकवादियों और सरकारी एजेंसियों के मुखबिर बन जाते हैं और आतंक की वजह से जो लूट होती है उनको यही करते हैं .
दांतेवाडा के आस पास आजकल हर लेवल पर आतंक का राज है . दैनिक हिन्दू अखबार के रिपोर्टर ने दांतेवाडा जिले के गावों का दौरा करने के बाद अपनी आँखों से देखा कि पुलिस और माओवादियों के मुखबिर किस तरह से लोगों का शोषण कर रहे हैं . इस इलाके में आजकल पुलिस का बहुत ही भारी बंदोबस्त है . लिहाजा माओवादी आतंकवादियों की गतिविधियाँ तो उतनी ज्यादा नहीं हैं लेकिन पुलिस के मुखबिर खुले आम लूट पाट कर रहे हैं . मुकरम गाँव में जाकर संवाददाता ने पाया कि मुखबिरों ने तीन लड़कियों को मारा पीटा और उनके साथ बलात्कार किया . उनके शरीर के नाजुक स्थानों पर लात से मारा और बच्चियों को फेंक कर चले गए.इन लड़कियों ने बताया कि जब एक बड़ा पुलिस अधिकारी उधर से गुज़रा तब यह लोग उन्हें फेंक कर भागे वरना पता नहीं क्या हो सकता था. यह तो एक गाँव की घटना है . छत्तीस गढ़ और झारखण्ड में इस तरह के हज़ारों गाँव हैं और इमकान है कि हर जगह यही हो रहा होगा . इस घटना का पता तो बाकी दुनिया को इस लिए चल गया कि वहां एक सम्मानित अखबार का रिपोर्टर पंहुच गया . इस रिपोर्टर ने पड़ोस के गाँव में भी इसी तरह का आतंक देखा जो कि सरकारी पक्ष से हो रहा है
दांतेवाडा नरसंहार को दो महीने हो गए हैं और आस पास का इलाका पूरी तरह से छावनी की शक्ल अख्तियार कर चुका है .वहां गए रिपोर्टर को गाँव वालों ने बताया कि जब गाँव के मर्द खेतों में काम करने चले जाते हैं , तो आस पास तैनात पुलिस वाले गश्त के बहाने गाँवों में आते हैं और औरतों को परेशान करते हैं इस तरह की अमानवीय आचरण की बहुत सारी घटनाएं इन इलाकों में हो रही हैं .सरकारों और सिविल सोसाइटी को चाहिए कि फ़ौरन से पेशतर ज़रूरी कार्रवाई करें वरना बहुत देर हो जायेगी. .
Friday, June 11, 2010
इरान पर सुरक्षा परिषद् की नयी पाबंदी से भारत पर भी असर पडेगा
शेष नारायण सिंह
किसी और मुल्क को अपनी बराबरी न करने देने की अमरीकी जिद का एक और नमूना सामने है . अमरीका ने इरान की सरकार के ऊपर फिर से पाबंदी लगा दी है .और पश्चिम एशिया में अमरीकी दादागीरी का एक और कारनामा अंजाम दे दिया है . अमरीका को इरान का परमाणु कार्यक्रम रास नहीं आ रहा है . हर बार की तरह इस बार भी इरान पर पाबंदी लगाने के लिए अमरीका ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् का इस्तेमाल किया . अजीब बात यह है कि पांच स्थायी सदस्यों, ब्रिटेन,फ्रांस,चीन और रूस में किसी ने भी किसी तरह का विरोध नहीं किया. बाकी १० अ-स्थायी सदस्यों में ७ ने अमरीका का साथ दिया , दो ने विरोध किया और एक ने वोते में हिस्सा नहीं लिया. अ-स्थायी सदस्यों के वोट का बहुत मतलब नहीं है लेकिन अमरीका ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि वह अब इकलौता सुपर पॉवर है और उसकी मनमानी के आगे किसी की नहीं चलने वाली है . सुरक्षा परिषद् मेंचर्चा के दौरान अमरीकी राजदूत, सूज़न राईस ने कहा कि इस बार की पाबंदियाँ निर्णायक साबित होंगीं.उन्हें शिकायत है कि इरान ने उन अवसरों का इस्तेमाल नहीं किया जब उसे अपने परमाणु कार्यक्रम के शांतिपूर्ण साबित करने के अवसर दिए गए. ब्राज़ील और तुर्की ने पाबंदियों क अविरोध किया. इन दोनों ही देशों ने इरान के साथ परमाणु ऊर्जा के शान्तिपूर्ण इस्तेमाल के लिए पिछले महीने ही समझौता किया है . दोनों ही मुल्कों ने कहा कि पाबंदी लगान इसे कुछ भी हासिल नहीं होने वाला है . पाबंदी की धमकी, और किसी मुल्क को अलग थलग करने की कोशिश के नतीजे बहुत ही दुखदायी हो सकते हैं . अगर अमरीका को इरान के परमाणु कार्यक्रम से कोई शिकायत हा इतो उसे बातचीत के ज़रिये सुलझाने की कोशिश करना चाहिए. पाबंदियों की घोषणा के तुरंत बाद अमरीकी राष्ट्रपति , बराक ओबामा ने प्रेस को संबोधित किया और कहा कि इस बार इरान पर लगाई गयी पाबंदियां ज्यादा प्रभावी होंगीं और पिछले ३ बार की पाबंदियों से बेहतर नतीजे लायेंगीं . उन्होंने कहा कि पाबंदियों का मतलब यह नहीं है कि बातचीत के रास्ते बंद हो गए हैं . ओबामा ने दावा किया कि इरान से कूटनीतिक स्तर पर संवाद जारी रहेगा. लेकिन नयी पाबंदियां इरान को अलग थलग करने की गंभीर कोशिश हैं . इन पाबंदियों के तहत इरान कहीं से भी भारी हथियार नहीं खरीद सकता, उसके माल को किसी भी बन्दरगाह या हवाई अड्डे पर जांच के लिए रोका जा सकता है . उन बैंकों के लाइसेंस रद्द किये जायेंगें जिनके ऊपर शक़ होगा कि वे इरानी परमाणु कार्यक्रम में किसे एताढ़ से भी सहयोग कर रही हैं. इरान के साथियों के घेरने की कोशिश भी की जायेगी . क्योंकि रूस, फ्रांस और अमरीका ने पिछले महीने हुए ब्राजील, तुर्की और इरान के परमाणु समझौते की भी आलोचना की है . यह देश अपने आपको वियान ग्रुप कहते हैं और एक तरह से बाकी दुनिया के परमाणु कार्यक्रमों की चौकी दारी करने का ठेका ले रखा है .
अमरीकी कोशिश के बाद सुरक्षा परिषद् की तरफ से घोषित इन पाबंदियों का भारत पर भी असर पडेगा. इंदिरा गाँधी के युग में तो किसी अमरीकी राष्ट्रपति की हिम्मत नहीं थी कि वह भारत को यह समझाए कि कइसी तीसरे देश के साथ कैसा बर्ताव करना है लेकिन अब मामला बदल गया है . अभी पिछले दिनों ही संयुक्त राष्ट्र के एक मंच पर भारत के प्रतिनिधि ने अमरीका के दबाव में आकर इरान के खिलाफ वोट दिया था . लेकिन इस बार मामला बिलकुल अलग है.अमरीकी दबाव में सुरक्षा परिषद् ओर से आये इस प्रतिबन्ध पर इरान ने बिलकुल अलगर्ज़ रवैया अपनाया है . इरानी राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद ने कहा है कि संयुक्त राष्ट्र का यह प्रताव किसी काम का नईं है इसे इस्तेमाल किये गए रूमाल की तरह किसी कूड़े दान में फेंक देना चाहिए.इरान ने घोषणा की है इस पाबंडे एके प्रताव के बाद भी कुछ नहीं बदलेगा . इरान का इस्लामी गणराज्य यूरेनियम के संवर्धन के अपने कार्यक्रम को बदस्तूर जारी रखेगा . ज़ाहिर है कि अगर इरान सुरक्षा परिषद् और अमरीका की पाबंदी वाली धमकी को गंभीरता से लेने को तैयार नहीं है तो वह उम्मीद करेगा कि उस से अच्छा सम्बन्ध बनाने के इच्छुक देश भी इस पाबंदी की घोषणा के बाद इरान से अपन एरिष्टों में तबदीली न लायें . इरान के इस रुख से भारत के लिए परेशानी बढ़ सकती है . भारत का इरान से मज़बूत आर्थिक सम्बन्ध है . हालांकि अमरीका से भारत के आर्थिक सम्बन्ध आब जायद हो गए हैं लेकिन इरान से जो सम्बन्ध हैं उनके खराब होने पर भारत की ऊर्जा संबंधी ज़रूरतें प्रभावित होंगीं जिससे विकास की गति भी धीमी पड़ेगी और आम आदमी पर आर्थिक बोझ भी बढेगा यानी इरान को नाराज़ करके भारत महंगाई के दलदल में फंस सकता है . ज़ाहिर है कि नयी दिल्ली की कोई भी सरकार बैठे ठाले इस मुसीबत से बचना चाहेगी.इसका मतलब यह हुआ कि भारत के सामने सुरक्षा परिषद् की इरान संबंधी पाबंदी आने के बाद कठिन परिस्थितियाँ पैदा हो गयी हैं .सबसे बड़ी बात तो यह है कि इरान से भारत आने वाली गैस की पाईपलाइन की योजना ही प्रभावित होगी. दुनिया जानती है कि इस पाईपलाइन के बाद देश की ऊर्जा की ज़रूरतों पर बहुत ही सकारात्मक असर पडेगा.ऐसी हालत में अमरीका की इरान को घेरने की नयी कोशिश का बाकी दुनिया की कूटनीति पर उल्टा प्रभाव पड़ने की आशंका है .
किसी और मुल्क को अपनी बराबरी न करने देने की अमरीकी जिद का एक और नमूना सामने है . अमरीका ने इरान की सरकार के ऊपर फिर से पाबंदी लगा दी है .और पश्चिम एशिया में अमरीकी दादागीरी का एक और कारनामा अंजाम दे दिया है . अमरीका को इरान का परमाणु कार्यक्रम रास नहीं आ रहा है . हर बार की तरह इस बार भी इरान पर पाबंदी लगाने के लिए अमरीका ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् का इस्तेमाल किया . अजीब बात यह है कि पांच स्थायी सदस्यों, ब्रिटेन,फ्रांस,चीन और रूस में किसी ने भी किसी तरह का विरोध नहीं किया. बाकी १० अ-स्थायी सदस्यों में ७ ने अमरीका का साथ दिया , दो ने विरोध किया और एक ने वोते में हिस्सा नहीं लिया. अ-स्थायी सदस्यों के वोट का बहुत मतलब नहीं है लेकिन अमरीका ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि वह अब इकलौता सुपर पॉवर है और उसकी मनमानी के आगे किसी की नहीं चलने वाली है . सुरक्षा परिषद् मेंचर्चा के दौरान अमरीकी राजदूत, सूज़न राईस ने कहा कि इस बार की पाबंदियाँ निर्णायक साबित होंगीं.उन्हें शिकायत है कि इरान ने उन अवसरों का इस्तेमाल नहीं किया जब उसे अपने परमाणु कार्यक्रम के शांतिपूर्ण साबित करने के अवसर दिए गए. ब्राज़ील और तुर्की ने पाबंदियों क अविरोध किया. इन दोनों ही देशों ने इरान के साथ परमाणु ऊर्जा के शान्तिपूर्ण इस्तेमाल के लिए पिछले महीने ही समझौता किया है . दोनों ही मुल्कों ने कहा कि पाबंदी लगान इसे कुछ भी हासिल नहीं होने वाला है . पाबंदी की धमकी, और किसी मुल्क को अलग थलग करने की कोशिश के नतीजे बहुत ही दुखदायी हो सकते हैं . अगर अमरीका को इरान के परमाणु कार्यक्रम से कोई शिकायत हा इतो उसे बातचीत के ज़रिये सुलझाने की कोशिश करना चाहिए. पाबंदियों की घोषणा के तुरंत बाद अमरीकी राष्ट्रपति , बराक ओबामा ने प्रेस को संबोधित किया और कहा कि इस बार इरान पर लगाई गयी पाबंदियां ज्यादा प्रभावी होंगीं और पिछले ३ बार की पाबंदियों से बेहतर नतीजे लायेंगीं . उन्होंने कहा कि पाबंदियों का मतलब यह नहीं है कि बातचीत के रास्ते बंद हो गए हैं . ओबामा ने दावा किया कि इरान से कूटनीतिक स्तर पर संवाद जारी रहेगा. लेकिन नयी पाबंदियां इरान को अलग थलग करने की गंभीर कोशिश हैं . इन पाबंदियों के तहत इरान कहीं से भी भारी हथियार नहीं खरीद सकता, उसके माल को किसी भी बन्दरगाह या हवाई अड्डे पर जांच के लिए रोका जा सकता है . उन बैंकों के लाइसेंस रद्द किये जायेंगें जिनके ऊपर शक़ होगा कि वे इरानी परमाणु कार्यक्रम में किसे एताढ़ से भी सहयोग कर रही हैं. इरान के साथियों के घेरने की कोशिश भी की जायेगी . क्योंकि रूस, फ्रांस और अमरीका ने पिछले महीने हुए ब्राजील, तुर्की और इरान के परमाणु समझौते की भी आलोचना की है . यह देश अपने आपको वियान ग्रुप कहते हैं और एक तरह से बाकी दुनिया के परमाणु कार्यक्रमों की चौकी दारी करने का ठेका ले रखा है .
अमरीकी कोशिश के बाद सुरक्षा परिषद् की तरफ से घोषित इन पाबंदियों का भारत पर भी असर पडेगा. इंदिरा गाँधी के युग में तो किसी अमरीकी राष्ट्रपति की हिम्मत नहीं थी कि वह भारत को यह समझाए कि कइसी तीसरे देश के साथ कैसा बर्ताव करना है लेकिन अब मामला बदल गया है . अभी पिछले दिनों ही संयुक्त राष्ट्र के एक मंच पर भारत के प्रतिनिधि ने अमरीका के दबाव में आकर इरान के खिलाफ वोट दिया था . लेकिन इस बार मामला बिलकुल अलग है.अमरीकी दबाव में सुरक्षा परिषद् ओर से आये इस प्रतिबन्ध पर इरान ने बिलकुल अलगर्ज़ रवैया अपनाया है . इरानी राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद ने कहा है कि संयुक्त राष्ट्र का यह प्रताव किसी काम का नईं है इसे इस्तेमाल किये गए रूमाल की तरह किसी कूड़े दान में फेंक देना चाहिए.इरान ने घोषणा की है इस पाबंडे एके प्रताव के बाद भी कुछ नहीं बदलेगा . इरान का इस्लामी गणराज्य यूरेनियम के संवर्धन के अपने कार्यक्रम को बदस्तूर जारी रखेगा . ज़ाहिर है कि अगर इरान सुरक्षा परिषद् और अमरीका की पाबंदी वाली धमकी को गंभीरता से लेने को तैयार नहीं है तो वह उम्मीद करेगा कि उस से अच्छा सम्बन्ध बनाने के इच्छुक देश भी इस पाबंदी की घोषणा के बाद इरान से अपन एरिष्टों में तबदीली न लायें . इरान के इस रुख से भारत के लिए परेशानी बढ़ सकती है . भारत का इरान से मज़बूत आर्थिक सम्बन्ध है . हालांकि अमरीका से भारत के आर्थिक सम्बन्ध आब जायद हो गए हैं लेकिन इरान से जो सम्बन्ध हैं उनके खराब होने पर भारत की ऊर्जा संबंधी ज़रूरतें प्रभावित होंगीं जिससे विकास की गति भी धीमी पड़ेगी और आम आदमी पर आर्थिक बोझ भी बढेगा यानी इरान को नाराज़ करके भारत महंगाई के दलदल में फंस सकता है . ज़ाहिर है कि नयी दिल्ली की कोई भी सरकार बैठे ठाले इस मुसीबत से बचना चाहेगी.इसका मतलब यह हुआ कि भारत के सामने सुरक्षा परिषद् की इरान संबंधी पाबंदी आने के बाद कठिन परिस्थितियाँ पैदा हो गयी हैं .सबसे बड़ी बात तो यह है कि इरान से भारत आने वाली गैस की पाईपलाइन की योजना ही प्रभावित होगी. दुनिया जानती है कि इस पाईपलाइन के बाद देश की ऊर्जा की ज़रूरतों पर बहुत ही सकारात्मक असर पडेगा.ऐसी हालत में अमरीका की इरान को घेरने की नयी कोशिश का बाकी दुनिया की कूटनीति पर उल्टा प्रभाव पड़ने की आशंका है .
पाकिस्तान के एक इलाके पर तालिबानी कब्जा
शेष नारायण सिंह
एमनेस्टी इंटरनेशनल की नयी रिपोर्ट में बताया गया है कि पाकिस्तान में कुछ इलाके ऐसे हैं जहां पाकिस्तानी सरकार का कोई अधिकारी घुस नहीं सकता . यह इलाके वास्तव में तालिबानी कब्जे में हैं और वहां, मानवाधिकारों का दिन रात क़त्ल हो रहा है .इस इलाके के लोगों को किसी तरह की कानूनी सुरक्षा नहीं हासिल है और लोग तालिबानी आतंक के शिकार हो रहे हैं .पश्चिमोत्तर पाकिस्तान के क्षेत्र में रहने वाले इन करीब चालीस लाख लोगों को पाकिस्तानी सरकार ने तालिबानियों के रहमो-करम पर छोड़ दिया है . इसके अलावा पाकिस्तान में करीब दस लाख ऐसे लोग हैं जो तालिबानी आतंक से तो आज़ाद हैं लेकिन पाकिस्तानी सरकार उनकी समस्याओं को हल करने के लिए कोई कोशिश नहीं कर रही है और लोग भूखों मरने के लिए छोड़ दिए गए हैं . उन्हें मदद की अर्जेंट ज़रुरत है लेकिन पाकिस्तानी सरकार किसी भी पहल का जवाब नहीं दे रही है .एमनेस्टी इंटरनेशनल के सेक्रेटरी का दावा है कि अगर फ़ौरन कुछ न किया गया तो पाकिस्तानी सरकार की उपेक्षा के शिकार इन इंसानों को बचाया नहीं जा सकेगा.एमनेस्टी ने पाकिस्तान सरकार और तालिबान के नेताओं से अपील की है कि अंतरराष्ट्रीय कानून का पालन करें और इन परेशान लोगों के मानवाधिकार से खिलवाड़ न करें.संगठन ने बताया है कि लड़ाकों और फौजियों के अलावा २००९ में इस क्षेत्र में करीब १३०० सिविलियन मारे गए थे. इस साल यह संख्या और भी बढ़ जाने की आशंका है .स्वात घाटी तालिबानी आतंक का सबसे मज़बूत ठिकाना है . वहां से भाग कर आये लोगों की शिकायत है कि पाकिस्तानी सरकार ने उनकी जिंदगियों को बेमतलब मान कर उन्हें पूरी तरह से भुला दिया है और अब तालिबानी चील कौवे उनको नोच रहे हैं .वहां स्कूलों में अब किताबें नहीं पढाई जातीं , तालिबान आतंकवादी उन स्कूलों में बाकायदा बंदूक चलाने की ट्रेनिंग देता है . आतंक फैलाने के अन्य तरीकों की शिक्षा भी इन्हीं स्कूलों में दी जा रही है.
पाकिस्तान के पिछले साठ साल के इतिहास पर नज़र डालें तो अंदाज़ लग जायेगा कि गलत राजनीतिक फैसलों का क्या नतीजा होता है.पाकिस्तान की स्थापना के साथ ही यह पक्का पता लग गया था कि एक ऐतिहासिक और भौगोलिक अजूबा पैदा हो गया है .मौलाना आज़ाद ने विभाजन के वक़्त ही बता दिया था कि यह मुल्क जिन्नाह के जीवन काल तक ही चल पायेगा . उसके बाद इसके टुकड़े होने से कोई नहीं रोक सकता. इसीलिये जब जनरल अय्यूब ने पाकिस्तान को फौजी तानाशाही के बूटों तले रौंदने का फैसला किया तो तस्वीर साफ़ होने लगी थी. तानाशाही से अपने को अलग करने की कोशिश कर रहे पूर्वी बंगाल की जनता ने अपने आपको पाकिस्तान से अलग कर लिया . अब बाकी बचे पाकिस्तान में तबाही का माहौल है . १९७१ में अमरीकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन और पाकिस्तानी हुक्मरान , याहया खां और ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने भारत के खिलाफ एक हज़ार साल तक की लड़ाई की मंसूबाबंदी की थी. . वे दोनों तो ज़बानी जमा खर्च से आगे नहीं बढ़ सके लेकिन उनके उत्तराधिकारी जनरल जिया-उल-हक ने इस धमकी को अंजाम तक पंहुचाने की कोशिश की. उन्होंने अमरीकी पैसे की मदद से भारत में आतंकवाद के ज़रिये हमले करना शुरू कर दिया .इसके लिए उन्होंने पाकिस्तानी फौज का इस्तेमाल किया और तरह तरह के आतंकवादी संगठन खड़े कर दिए .पहले भारत के राज्य ,पंजाब में दहशतगर्दी का काम शुरू करवाया . उनके मरने के बाद वे ही दहशतगर्द कश्मीर में सक्रिय हो गए लेकिन भारत की ताक़त के सामने पाकिस्तान की सारी तरकीबें फेल हो गयीं और जो आतंकवादी संगठन भारत के खिलाफ इस्तेमाल होने के लिए बनाये गए थे ,आज वही पाकिस्तानी राष्ट्र को तबाह करने पर आमादा हैं . यह तालिबान वगैरह उसी आतंकवादी फलसफे को लागू करने के लिए सक्रिय हैं . बस फर्क यह है कि अब निशाने पर पाकिस्तान है . और पाकिस्तान का एक बड़ा इलाका वहां के असली शासक , फौज से नाराज़ है . बलूचों के सरदार अकबर खां बुग्ती को जिस बेरहमी से जनरल मुशर्रफ ने मारा था उसकी वजह से बलूचिस्तान अब पाकिस्तान से अलग होना चाहता है . अलग सिंध की मांग पाकिस्तान से भी पुरानी है , वह भी बिलकुल आन्दोलन की शक्ल अख्तियार करने के लिए तैयार है . पख्तून पहले से ही अफगानिस्तान से ज्यादा बिरादराना महसूस करते हैं . हमारे खान अब्दुल गफ्फार खां ही काबुल में दफनाये गए थे . दर असल यह उनकी आख़िरी इच्छा थी. तो वह इलाका भी भावनात्मक रूप से कभी पाकिस्तान का हिस्सा नहीं बन सका . जो हमारे रिश्तेदार विभाजन के बाद वहां जाकर बसे हैं , उनको भी पंजाबी प्रभाव वाली फौज अभी मोहाजिर की कहती है . यानी वह भी अभी भारत के उन इलाकों को ही अपना घर मानते हैं जहां उनके पुरखों की हड्डियां दफन हैं . केवल पंजाब है जो अपने को पाकिस्तान कहलाने में गर्व महसूस करता है .
इस पृष्ठभूमि में यह बिलकुल साफ़ है कि पाकिस्तान के एकता का कोई केस नहीं है . लेकिन अजीब बात है कि सबसे पहले पाकिस्तानी राजनीतिक और फौजी हुक्मरान के हाथ से वे इलाके निकल रहे हैं जिनके बारे में आम तौर पर बात ही नहीं की जाती थी. अगर स्वात घाटी और उसके आस पास के इलाके में पाकिस्तान फ़ौरन अपना इकबाल बुलंद नहीं करता तो तालिबान के कब्जे में एक बड़ा भौगोलिक भूभाग आ जायेगा जिसके बाद पाकिस्तान को खंड खंड होने कोई नहीं बचा सकता .
एमनेस्टी इंटरनेशनल की नयी रिपोर्ट में बताया गया है कि पाकिस्तान में कुछ इलाके ऐसे हैं जहां पाकिस्तानी सरकार का कोई अधिकारी घुस नहीं सकता . यह इलाके वास्तव में तालिबानी कब्जे में हैं और वहां, मानवाधिकारों का दिन रात क़त्ल हो रहा है .इस इलाके के लोगों को किसी तरह की कानूनी सुरक्षा नहीं हासिल है और लोग तालिबानी आतंक के शिकार हो रहे हैं .पश्चिमोत्तर पाकिस्तान के क्षेत्र में रहने वाले इन करीब चालीस लाख लोगों को पाकिस्तानी सरकार ने तालिबानियों के रहमो-करम पर छोड़ दिया है . इसके अलावा पाकिस्तान में करीब दस लाख ऐसे लोग हैं जो तालिबानी आतंक से तो आज़ाद हैं लेकिन पाकिस्तानी सरकार उनकी समस्याओं को हल करने के लिए कोई कोशिश नहीं कर रही है और लोग भूखों मरने के लिए छोड़ दिए गए हैं . उन्हें मदद की अर्जेंट ज़रुरत है लेकिन पाकिस्तानी सरकार किसी भी पहल का जवाब नहीं दे रही है .एमनेस्टी इंटरनेशनल के सेक्रेटरी का दावा है कि अगर फ़ौरन कुछ न किया गया तो पाकिस्तानी सरकार की उपेक्षा के शिकार इन इंसानों को बचाया नहीं जा सकेगा.एमनेस्टी ने पाकिस्तान सरकार और तालिबान के नेताओं से अपील की है कि अंतरराष्ट्रीय कानून का पालन करें और इन परेशान लोगों के मानवाधिकार से खिलवाड़ न करें.संगठन ने बताया है कि लड़ाकों और फौजियों के अलावा २००९ में इस क्षेत्र में करीब १३०० सिविलियन मारे गए थे. इस साल यह संख्या और भी बढ़ जाने की आशंका है .स्वात घाटी तालिबानी आतंक का सबसे मज़बूत ठिकाना है . वहां से भाग कर आये लोगों की शिकायत है कि पाकिस्तानी सरकार ने उनकी जिंदगियों को बेमतलब मान कर उन्हें पूरी तरह से भुला दिया है और अब तालिबानी चील कौवे उनको नोच रहे हैं .वहां स्कूलों में अब किताबें नहीं पढाई जातीं , तालिबान आतंकवादी उन स्कूलों में बाकायदा बंदूक चलाने की ट्रेनिंग देता है . आतंक फैलाने के अन्य तरीकों की शिक्षा भी इन्हीं स्कूलों में दी जा रही है.
पाकिस्तान के पिछले साठ साल के इतिहास पर नज़र डालें तो अंदाज़ लग जायेगा कि गलत राजनीतिक फैसलों का क्या नतीजा होता है.पाकिस्तान की स्थापना के साथ ही यह पक्का पता लग गया था कि एक ऐतिहासिक और भौगोलिक अजूबा पैदा हो गया है .मौलाना आज़ाद ने विभाजन के वक़्त ही बता दिया था कि यह मुल्क जिन्नाह के जीवन काल तक ही चल पायेगा . उसके बाद इसके टुकड़े होने से कोई नहीं रोक सकता. इसीलिये जब जनरल अय्यूब ने पाकिस्तान को फौजी तानाशाही के बूटों तले रौंदने का फैसला किया तो तस्वीर साफ़ होने लगी थी. तानाशाही से अपने को अलग करने की कोशिश कर रहे पूर्वी बंगाल की जनता ने अपने आपको पाकिस्तान से अलग कर लिया . अब बाकी बचे पाकिस्तान में तबाही का माहौल है . १९७१ में अमरीकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन और पाकिस्तानी हुक्मरान , याहया खां और ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने भारत के खिलाफ एक हज़ार साल तक की लड़ाई की मंसूबाबंदी की थी. . वे दोनों तो ज़बानी जमा खर्च से आगे नहीं बढ़ सके लेकिन उनके उत्तराधिकारी जनरल जिया-उल-हक ने इस धमकी को अंजाम तक पंहुचाने की कोशिश की. उन्होंने अमरीकी पैसे की मदद से भारत में आतंकवाद के ज़रिये हमले करना शुरू कर दिया .इसके लिए उन्होंने पाकिस्तानी फौज का इस्तेमाल किया और तरह तरह के आतंकवादी संगठन खड़े कर दिए .पहले भारत के राज्य ,पंजाब में दहशतगर्दी का काम शुरू करवाया . उनके मरने के बाद वे ही दहशतगर्द कश्मीर में सक्रिय हो गए लेकिन भारत की ताक़त के सामने पाकिस्तान की सारी तरकीबें फेल हो गयीं और जो आतंकवादी संगठन भारत के खिलाफ इस्तेमाल होने के लिए बनाये गए थे ,आज वही पाकिस्तानी राष्ट्र को तबाह करने पर आमादा हैं . यह तालिबान वगैरह उसी आतंकवादी फलसफे को लागू करने के लिए सक्रिय हैं . बस फर्क यह है कि अब निशाने पर पाकिस्तान है . और पाकिस्तान का एक बड़ा इलाका वहां के असली शासक , फौज से नाराज़ है . बलूचों के सरदार अकबर खां बुग्ती को जिस बेरहमी से जनरल मुशर्रफ ने मारा था उसकी वजह से बलूचिस्तान अब पाकिस्तान से अलग होना चाहता है . अलग सिंध की मांग पाकिस्तान से भी पुरानी है , वह भी बिलकुल आन्दोलन की शक्ल अख्तियार करने के लिए तैयार है . पख्तून पहले से ही अफगानिस्तान से ज्यादा बिरादराना महसूस करते हैं . हमारे खान अब्दुल गफ्फार खां ही काबुल में दफनाये गए थे . दर असल यह उनकी आख़िरी इच्छा थी. तो वह इलाका भी भावनात्मक रूप से कभी पाकिस्तान का हिस्सा नहीं बन सका . जो हमारे रिश्तेदार विभाजन के बाद वहां जाकर बसे हैं , उनको भी पंजाबी प्रभाव वाली फौज अभी मोहाजिर की कहती है . यानी वह भी अभी भारत के उन इलाकों को ही अपना घर मानते हैं जहां उनके पुरखों की हड्डियां दफन हैं . केवल पंजाब है जो अपने को पाकिस्तान कहलाने में गर्व महसूस करता है .
इस पृष्ठभूमि में यह बिलकुल साफ़ है कि पाकिस्तान के एकता का कोई केस नहीं है . लेकिन अजीब बात है कि सबसे पहले पाकिस्तानी राजनीतिक और फौजी हुक्मरान के हाथ से वे इलाके निकल रहे हैं जिनके बारे में आम तौर पर बात ही नहीं की जाती थी. अगर स्वात घाटी और उसके आस पास के इलाके में पाकिस्तान फ़ौरन अपना इकबाल बुलंद नहीं करता तो तालिबान के कब्जे में एक बड़ा भौगोलिक भूभाग आ जायेगा जिसके बाद पाकिस्तान को खंड खंड होने कोई नहीं बचा सकता .
Wednesday, June 9, 2010
प्रधान मंत्री की श्रीनगर यात्रा एक ज़रूरी पहल है
शेष नारायण सिंह
(डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट से साभार )
प्रधान मंत्री डॉ मनमोहन सिंह की कश्मीर यात्रा से दिल्ली के शासकों को बहुत उम्मीदें हैं . पिछले २० वर्षों से भी ज्यादा वक़्त से आतंकवादी हमलों को झेल रहे कश्मीरी अवाम को कुछ सुकून देने की केंद्र सरकार की कोशिश साफ़ नज़र आ रही है. आतंकवाद पर दुनिया भर में दबाव बना हुआ है. ऐसी हालत में प्रधानमंत्री की कोशिश है कि विकास के मुद्दों को पुरजोर तरीके से चर्चा का विषय बनाया जाए. उनकी मौजूदा यात्रा नयी दिल्ली के नीति नियामकों की इसी सोच का नतीजा है . यात्रा के पहले दिन ही प्रधान मंत्री ने सभी वर्गों के लोगों से बात की . उनको भरोसा दिलाने की कोशिश की कि केंद्र सरकार राज्य के विकास को गंभीरता से लेती है..अलगाववादियों की गतिविधियों को भी बेमानी साबित करने की दिशा में गंभीर पहल की गयी . उन्होंने जब यात्रा शुरू होने के पहले यह ऐलान कर दिया कि शान्ति और विकास के लिए किसी से भी बात करने में कोई हर्ज़ नहीं है, तो आतंक वालों का आधा खेल तो पहले ही बिगड़ गया था . बाकी वहां जाकर दुरुस्त करने की कोशिश की . विकास का हमला करने की मनमोहन सरकार की रणनीति के सफल होने की उम्मीद दिल्ली और इस्लामाबाद में की जा रही है . हालांकि सरहद के दोनों तरफ की अतिवादी ताकतें अभी इस फ़िराक़ में हैं कि भारत और पाकिस्तान के बीच झगडा बना रहे . दर असल इन अतिवादी ताक़तों की राजनीति की बुनियाद ही यही है . लेकिन मनमोहन सिंह ने विकास के रास्ते शान्ति की पहल कर दी है . वक़्त ही बतायेगा कि भारत सरकार का यह जुआ शान्ति की दिशा में सही क़दम साबित होता है कि नेताओं और अफसरों के लिए रिश्वत की गिज़ा का माध्यम बनता है . प्रधान मंत्री ने राज्य के मुख्य मंत्री की बहुत तारीफ़ की और कहा कि जिस तरह से उमर अब्दुल्ला ने राज्य के विकास और उसके लिए ज़रूरी केंद्रीय मदद की मांग की , उस से वे बहुत प्रभावित हुए हैं . इसका मतलब यह हुआ कि जम्मू-कश्मीर में बड़े पैमाने पर सरकारी धन भेजा जाने वाला है . लगता है कि प्रधानमंत्री की पुनर्निर्माण योजना के वे ६७ प्रोजेक्ट भी शुरू हो जायेंगें जो अर्थव्यवस्था के ११ क्षेत्रों को कवर करते हैं और उन पर केंद्र सरकार २४ हज़ार करोड़ रूपये खर्च करने की योजना बना चुकी है . डॉ मनमोहन सिंह की जम्मू-कश्मीर यात्रा का शान्ति के हित में बहुत ही अधिक महत्व है . राज्य के वे लोग जो अब तक गलत राजनीतिक सोच की वजह से परेशान रहे हैं उनको भी उम्मीद का एक अवसर नज़र आना चाहिए .
जम्मू -कश्मीर इस बात का उदाहरण है कि गलत राजनीतिक फैसलों से किस तरह देश का भविष्य तबाह किया जा सकता है . जिस कश्मीर की तुलना स्वर्ग से की जाती थी , वहां रहने वाले लोग देश के सबसे खस्ताहाल इलाके के नागरिक कहे जाते हैं . कश्मीर बहुत पहले से गलत राजनीतिक सोच का शिकार रहा है. पुराने इतिहास में न जाकर देश विभाजन के वक़्त की राजनीति को ही देखने से कश्मीरी अवाम की बदकिस्मती का एक खाका दिमाग में उभरता है . उस वक़्त का कश्मीर नरेश एक अजीब इंसान था . विभाजन के दौरान ,बहुत दिनों तक वह पाकिस्तान से सौदेबाजी करता रहा कि वह उनके साथ जाना चाहता था. वो तो जब पाकिस्तान ने कबायलियों के साथ अपने फौजी भेजकर ज़बरदस्ती कश्मीर पर क़ब्ज़ा करने की कोशिश की तब उसकी समझ में आया कि वह कितनी बड़ी बेवकूफी का शिकार हो रहा था .बहर हाल वह सरदार पटेल की शरण में आया और उन्होंने उसे अपने साथ मिला लिया और पाकिस्तानी फौज़ को वापस खदेड़ दिया गया . शेख अब्दुल्ला उस दौर के हीरो थे. सरदार पटेल ने जब जम्मू-कश्मीर को अपने साथ लिया था तो राज्य को एक विशेष दर्जा देने का वचन दिया था . उसी वचन को पूरा करने के लिए संविधान में अनुच्छेद ३७० की व्यवस्था की गयी. लेकिन जो पार्टियां आज़ादी की लड़ाई में शामिल नहीं थीं, उन्हें सरदार पटेल के वचन या भारतीय संविधान का सम्मान करने की तमीज नहीं थी और उन्होंने उसका विरोध शुरू कर दिया . नतीजा यह हुआ कि कई फैसलों में गलतियां हुईं और जवाहर लाल नेहरू ने १९५३ में शेख अब्दुल्ला को गिरफ्तार कर लिया . उसके बाद तो गलत फैसलों की बाढ़ सी आ गई. राज्य के सबसे लोकप्रिय नेता को गिरफ्तार करके केंद्र सरकार ने वह गलती की जिसका खामियाजा आज तक भोगा जा रहा है . दिल्ली की पसंद की सरकार बनाने के लिए जम्मू-कश्मीर में हमेशा राजनीतिक अड़ंगेबाज़ी का सिलसिला चलता रहा. बताते हैं कि शेख साहेब की गिरफ्तारी के बाद पहली बार राज्य में निष्पक्ष चुनाव १९७७ में ही हुए . लेकिन उसके बाद पाकिस्तान में जनरल जिया उल हक का राज हो गया और वह १९७१ की पाकिस्तानी फौज की हार का बदला लेना चाहते थे और भारत को कमज़ोर करना उनका प्रमुख उद्देश्य था . पहले तो उसने पंजाब में आतंकवाद को हवा दी और साथ साथ कश्मीर में भी काम शुरू करवा दिया .इधर दिल्ली में भी अदूरदर्शी लोगों के हाथ में सत्ता आ गयी. इंदिरा गाँधी के दूसरे कार्यकाल में अरुण नेहरू बहुत बड़े सलाहकार बन कर उभरे. उन्होंने इंदिरा और राजीव ,दोनों को ही कश्मीर मामले में गलत फैसले करने के लिए उकसाया , अरुण नेहरू ने ही वह गैर ज़िम्मेदार बयान दिया था जिसमें कहा गया था कि कश्मीर में चल रहा अलगाव वादियो का आन्दोलन वास्तव में कानून व्यवस्था की समस्या है . कोई अज्ञानी ही इतनी बड़ी समस्या को कानून व्यवस्था की समस्या कह सकता है . अरुण नेहरू ने इसी स्तर की सलाह राजीव गाँधी को उपलब्ध कराई जिसकी वजह से केंद्र सरकार ने थोक में गलत फैसले किये . नतीजा सामने है . बाद में जब जगमोहन को वहां राज्यपाल बनाकर भेजा गया तब तो मूर्खता पूर्ण फैसलों का दौरदौरा शुरू हो गया . जगमोहन ने तो अपनी मुस्लिम विरोधी सोच की सारी कारस्तानियों को अंजाम दिया . मीरवाइज़ फारूक की शव यात्रा पर गोली चलवाना जगमोहन के दिमाग की ही उपज हो सकता था . जगमोहन ने ही निर्दोष मुसलमानों को फर्जी तरीके से फंसाना शुरू कर दिया . मुफ्ती मुहम्मद सईद का गृह मंत्री होना , कश्मीर का सबसे बड़ा दुर्भाग्य माना जाता है . उनके शासनकाल में ही वहां आतंकवाद खूब पला बढा . बाद में केंद्र में ऐसी सरकारें आती रहीं जिनके पास स्पष्ट जनादेश नहीं था. लिहाज़ा सब कुछ गड़बड़ होता रहा . उधर पाकिस्तान में आई एस आई और फौज की ताक़त बहुत बढ़ गयी . पाकिस्तान ने आतंक के ज़रिये भारत को दबाने की कोशिश की . यह अलग बात है कि उसी चक्कर में पाकिस्तान खुद ही नष्ट हो गया लेकिन भारत का नुकसान तो हुआ .उसी नुक्सान को संभालने के लिए आज मुल्क हर स्तर पर कोशिश कर रहा है . प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह की यात्रा को इसी पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए . अभी यह उम्मीद करना भी ठीक नहीं होगा कि सब कुछ जल्दी ही दुरुस्त हो जाएगा लेकिन यह तो तय है कि सही दिशा में क़दम उठा दिया गया है . नतीजा भविष्य की कोख में है.
(डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट से साभार )
प्रधान मंत्री डॉ मनमोहन सिंह की कश्मीर यात्रा से दिल्ली के शासकों को बहुत उम्मीदें हैं . पिछले २० वर्षों से भी ज्यादा वक़्त से आतंकवादी हमलों को झेल रहे कश्मीरी अवाम को कुछ सुकून देने की केंद्र सरकार की कोशिश साफ़ नज़र आ रही है. आतंकवाद पर दुनिया भर में दबाव बना हुआ है. ऐसी हालत में प्रधानमंत्री की कोशिश है कि विकास के मुद्दों को पुरजोर तरीके से चर्चा का विषय बनाया जाए. उनकी मौजूदा यात्रा नयी दिल्ली के नीति नियामकों की इसी सोच का नतीजा है . यात्रा के पहले दिन ही प्रधान मंत्री ने सभी वर्गों के लोगों से बात की . उनको भरोसा दिलाने की कोशिश की कि केंद्र सरकार राज्य के विकास को गंभीरता से लेती है..अलगाववादियों की गतिविधियों को भी बेमानी साबित करने की दिशा में गंभीर पहल की गयी . उन्होंने जब यात्रा शुरू होने के पहले यह ऐलान कर दिया कि शान्ति और विकास के लिए किसी से भी बात करने में कोई हर्ज़ नहीं है, तो आतंक वालों का आधा खेल तो पहले ही बिगड़ गया था . बाकी वहां जाकर दुरुस्त करने की कोशिश की . विकास का हमला करने की मनमोहन सरकार की रणनीति के सफल होने की उम्मीद दिल्ली और इस्लामाबाद में की जा रही है . हालांकि सरहद के दोनों तरफ की अतिवादी ताकतें अभी इस फ़िराक़ में हैं कि भारत और पाकिस्तान के बीच झगडा बना रहे . दर असल इन अतिवादी ताक़तों की राजनीति की बुनियाद ही यही है . लेकिन मनमोहन सिंह ने विकास के रास्ते शान्ति की पहल कर दी है . वक़्त ही बतायेगा कि भारत सरकार का यह जुआ शान्ति की दिशा में सही क़दम साबित होता है कि नेताओं और अफसरों के लिए रिश्वत की गिज़ा का माध्यम बनता है . प्रधान मंत्री ने राज्य के मुख्य मंत्री की बहुत तारीफ़ की और कहा कि जिस तरह से उमर अब्दुल्ला ने राज्य के विकास और उसके लिए ज़रूरी केंद्रीय मदद की मांग की , उस से वे बहुत प्रभावित हुए हैं . इसका मतलब यह हुआ कि जम्मू-कश्मीर में बड़े पैमाने पर सरकारी धन भेजा जाने वाला है . लगता है कि प्रधानमंत्री की पुनर्निर्माण योजना के वे ६७ प्रोजेक्ट भी शुरू हो जायेंगें जो अर्थव्यवस्था के ११ क्षेत्रों को कवर करते हैं और उन पर केंद्र सरकार २४ हज़ार करोड़ रूपये खर्च करने की योजना बना चुकी है . डॉ मनमोहन सिंह की जम्मू-कश्मीर यात्रा का शान्ति के हित में बहुत ही अधिक महत्व है . राज्य के वे लोग जो अब तक गलत राजनीतिक सोच की वजह से परेशान रहे हैं उनको भी उम्मीद का एक अवसर नज़र आना चाहिए .
जम्मू -कश्मीर इस बात का उदाहरण है कि गलत राजनीतिक फैसलों से किस तरह देश का भविष्य तबाह किया जा सकता है . जिस कश्मीर की तुलना स्वर्ग से की जाती थी , वहां रहने वाले लोग देश के सबसे खस्ताहाल इलाके के नागरिक कहे जाते हैं . कश्मीर बहुत पहले से गलत राजनीतिक सोच का शिकार रहा है. पुराने इतिहास में न जाकर देश विभाजन के वक़्त की राजनीति को ही देखने से कश्मीरी अवाम की बदकिस्मती का एक खाका दिमाग में उभरता है . उस वक़्त का कश्मीर नरेश एक अजीब इंसान था . विभाजन के दौरान ,बहुत दिनों तक वह पाकिस्तान से सौदेबाजी करता रहा कि वह उनके साथ जाना चाहता था. वो तो जब पाकिस्तान ने कबायलियों के साथ अपने फौजी भेजकर ज़बरदस्ती कश्मीर पर क़ब्ज़ा करने की कोशिश की तब उसकी समझ में आया कि वह कितनी बड़ी बेवकूफी का शिकार हो रहा था .बहर हाल वह सरदार पटेल की शरण में आया और उन्होंने उसे अपने साथ मिला लिया और पाकिस्तानी फौज़ को वापस खदेड़ दिया गया . शेख अब्दुल्ला उस दौर के हीरो थे. सरदार पटेल ने जब जम्मू-कश्मीर को अपने साथ लिया था तो राज्य को एक विशेष दर्जा देने का वचन दिया था . उसी वचन को पूरा करने के लिए संविधान में अनुच्छेद ३७० की व्यवस्था की गयी. लेकिन जो पार्टियां आज़ादी की लड़ाई में शामिल नहीं थीं, उन्हें सरदार पटेल के वचन या भारतीय संविधान का सम्मान करने की तमीज नहीं थी और उन्होंने उसका विरोध शुरू कर दिया . नतीजा यह हुआ कि कई फैसलों में गलतियां हुईं और जवाहर लाल नेहरू ने १९५३ में शेख अब्दुल्ला को गिरफ्तार कर लिया . उसके बाद तो गलत फैसलों की बाढ़ सी आ गई. राज्य के सबसे लोकप्रिय नेता को गिरफ्तार करके केंद्र सरकार ने वह गलती की जिसका खामियाजा आज तक भोगा जा रहा है . दिल्ली की पसंद की सरकार बनाने के लिए जम्मू-कश्मीर में हमेशा राजनीतिक अड़ंगेबाज़ी का सिलसिला चलता रहा. बताते हैं कि शेख साहेब की गिरफ्तारी के बाद पहली बार राज्य में निष्पक्ष चुनाव १९७७ में ही हुए . लेकिन उसके बाद पाकिस्तान में जनरल जिया उल हक का राज हो गया और वह १९७१ की पाकिस्तानी फौज की हार का बदला लेना चाहते थे और भारत को कमज़ोर करना उनका प्रमुख उद्देश्य था . पहले तो उसने पंजाब में आतंकवाद को हवा दी और साथ साथ कश्मीर में भी काम शुरू करवा दिया .इधर दिल्ली में भी अदूरदर्शी लोगों के हाथ में सत्ता आ गयी. इंदिरा गाँधी के दूसरे कार्यकाल में अरुण नेहरू बहुत बड़े सलाहकार बन कर उभरे. उन्होंने इंदिरा और राजीव ,दोनों को ही कश्मीर मामले में गलत फैसले करने के लिए उकसाया , अरुण नेहरू ने ही वह गैर ज़िम्मेदार बयान दिया था जिसमें कहा गया था कि कश्मीर में चल रहा अलगाव वादियो का आन्दोलन वास्तव में कानून व्यवस्था की समस्या है . कोई अज्ञानी ही इतनी बड़ी समस्या को कानून व्यवस्था की समस्या कह सकता है . अरुण नेहरू ने इसी स्तर की सलाह राजीव गाँधी को उपलब्ध कराई जिसकी वजह से केंद्र सरकार ने थोक में गलत फैसले किये . नतीजा सामने है . बाद में जब जगमोहन को वहां राज्यपाल बनाकर भेजा गया तब तो मूर्खता पूर्ण फैसलों का दौरदौरा शुरू हो गया . जगमोहन ने तो अपनी मुस्लिम विरोधी सोच की सारी कारस्तानियों को अंजाम दिया . मीरवाइज़ फारूक की शव यात्रा पर गोली चलवाना जगमोहन के दिमाग की ही उपज हो सकता था . जगमोहन ने ही निर्दोष मुसलमानों को फर्जी तरीके से फंसाना शुरू कर दिया . मुफ्ती मुहम्मद सईद का गृह मंत्री होना , कश्मीर का सबसे बड़ा दुर्भाग्य माना जाता है . उनके शासनकाल में ही वहां आतंकवाद खूब पला बढा . बाद में केंद्र में ऐसी सरकारें आती रहीं जिनके पास स्पष्ट जनादेश नहीं था. लिहाज़ा सब कुछ गड़बड़ होता रहा . उधर पाकिस्तान में आई एस आई और फौज की ताक़त बहुत बढ़ गयी . पाकिस्तान ने आतंक के ज़रिये भारत को दबाने की कोशिश की . यह अलग बात है कि उसी चक्कर में पाकिस्तान खुद ही नष्ट हो गया लेकिन भारत का नुकसान तो हुआ .उसी नुक्सान को संभालने के लिए आज मुल्क हर स्तर पर कोशिश कर रहा है . प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह की यात्रा को इसी पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए . अभी यह उम्मीद करना भी ठीक नहीं होगा कि सब कुछ जल्दी ही दुरुस्त हो जाएगा लेकिन यह तो तय है कि सही दिशा में क़दम उठा दिया गया है . नतीजा भविष्य की कोख में है.
Tuesday, June 8, 2010
काकोरी के शहीदों की शान को सलामत रखना होगा
शेष नारायण सिंह
भारत की आज़ादी के इतिहास में काकोरी नाम सोने के अक्षरों में लिखा गया है .और काकोरी के शहीदों में ठाकुर रोशन सिंह का नाम बहुत ही इज्ज़त से लिया जाता है . वे काकोरी केस के उन बहादुरों में से थे जिनको फांसी की सज़ा सुनायी गयी थी. काकोरी के केस की मूल योजना पंडित राम प्रसाद बिस्मिल ने बनायी थी.उनके साथियों में अशफाकुल्ला खान, ठाकुर रोशन सिंह, राजेंद्र लाहिरी, दुर्गा भाभी ,शचीन्द्र बख्शी ,चन्द्रशेखर आज़ाद , केशव चक्रवर्ती ,शचीन्द्र नाथ सान्याल, मन्मथ नाथ गुप्ता आदि थे. हालांकि बताया जाता है कि इन लोगों ने अपने आन्दोलन की आर्थिक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए लखनऊ जाती हुई रेल गाडी को लूट लिया था जिसमें ब्रितानी सरकार का खजाना रखा हुआ था लेकिन सच्चाई यह है कि गांधी जी के असहयोग आन्दोलन के वापस लिए जाने के बाद जो शिथिलता आ गयी थी , उसे फिर से जीवित करना इन नौजवानों का उद्देश्य था . काकोरी में खजाना लूटे जाने के बाद अंग्रेजों को अंदाज़ लग गया था कि अब भारत की आजादी को रोक पाना मुश्किल है . जो दरिया झूम के उट्ठे थे उन्हें रोक पाना अंग्रेजों के बस की बात नहीं थी. . इन नौजवानों के अदालती डिफेंस के लिए जो कमेटी बनी, उसकी अध्यक्षता खुद मोती लाल नेहरू कर रहे थे . इसका मतलब यह लगाया गया कि इन बहादुरों को महात्मा गाँधी का समर्थन भी मिला हुआ है . यानी पूरे देश की जनता इनके साथ है . अंग्रेज़ी हुकूमत की चूलें हिल गयी थी लेकिन उसने पूरी सख्ती दिखाई और चार लोगों को फांसी की सज़ा दी गयी जबकि बाकी साथियों को आजीवन कारावास की सज़ा मिली. मौत की सज़ा पाने वालों में राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाकुल्ला खां, राजेंद्र लाहिरी और रोशन सिंह थे. देश की आज़ादी की शान के लिए यह चारों नौजवान फांसी के तख्ते पर चढ़े थे. इतिहास कारों का एक वर्ग इनके योगदान को कम करके आंकता है लेकिन सही बात यह है कि इनकी शहादत के बाद देश में तूफ़ान आ गया था और जब महात्मा गाँधी ने १९३०में सम्पूर्ण आज़ादी की बात की तो अंग्रेजों के कुछ पिट्ठू संगठनों के अलावा बाकी पूरा देश आज़ादी के साथ था, गाँधी के साथ था और अंग्रेजोंके खिलाफ था. जेलों में हिन्दुस्तानी अवाम को ठूंस दिया गया .सभी संगठनों के लोग जेलों में थे. जिन संगठनों के मुखिया जेल नहीं गए उन्हें अंग्रेजों के खैरख्वाह के रूप में आज भी पहचाना जाता है .
एक दुखद खबर आई है कि ठाकुर रोशन सिंह का पौत्र उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर जिले में एक धोखाधड़ी के केस में पकड़ लिया गया है . उसके ऊपर यह भी आरोप है कि उसने एक दलित महिला को धोखा देकर उसका यौन शोषण भी किया . भारत की आज़ादी के लड़ाई का नेतृत्व महात्मा गाँधी ने किया था लेकिन रोशन सिंह जैसे लोगों का उसमें कम योगदान नहीं है और उनका ही वंशज जब दलित के शोषण और धोखा धडी का काम करता है तो यह इस बात का संकेत हैं कि हमारी व्यवस्था में कहीं कुछ बहुत ही गड़बड़ हो गयी है . आरोप है कि रोशन के पौत्र ने एक दलित महिला से झूठ बोलकर शादी की और जब सच्चाई का पता उस महिला को चला तो उसने नाराज़गी ज़ाहिर की. रोशन सिंह के पौत्र ने उसे गाली दी और मारा पीटा अगर यह आरोप सच है तो बात बहुत बिगड़ चुकी है . उत्तर प्रदेश में समाज की भलाई की चिंता करने वालों को इस मामले पर गंभीरता से विचार करना चाहिए ..क्योंकि अगर श्हहीद रोशन सिंह के परिवार के लोगों में भी सामाजिक बराबरी की भावना नहीं रह गयी है तो ज़ाहिर है पिछले साठ वर्षों में देश ने बहुत कुछ खो दिया है . जो व्यक्ति मुल्क की आज़ादी के लिए फांसी पर झूल गया हो उसके परिवार में अगर दलितों का उत्पीडन करने वाला मौजूद है तो यह संस्कार रोशन सिंह के तो नहीं है . निश्चित रूप से समाज और सरकार ने यह हालात पैदा किये हैं . सरकार इस लिए कि आजकल लगभग सब कुछ सरकार के हवाले है . सामाजिक परिवर्तन के लिए भी अब राजनीतिक आन्दोलन नहीं चलते, बस सरकारी अनुदान के सहारे सामाजिक परिवर्तन की गाडी चल रही है .
ज़ाहिर है उत्तर प्रदेश में नौजवानों को जीवन मूल्यों की सही शिक्षा नहीं दी जा रही है . इसका एक कारण तो यह है कि पूरे राज्य में ग्रामीण इलाकों में प्राइमरी स्कूलों में शिक्षक अपना काम ईमानदारी से नहीं कर रहे हैं . बच्चों को शिक्षा नहीं दे रहे हैं . मजबूरी में यह बच्चे उन स्कूलों में जाते हैं जो निजी हाथों में हैं ,. उन स्कूलों में संचालकों की विचारधारा की घुट्टी पिलाई जाती है . ज़्यादातर स्कूलों में पाठ्यक्रम ऐसे हैं जो सामंती-साम्प्रदायिक रंग में रंगे हुए हैं . एक सर्वे के अनुसार उत्तर प्रदेश के ज़्यादातर जिलों में आर एस एस वालों ने सरस्वती शिशु मंदिर खोल रखे हैं . जहाँ पूरी तरह से सामंती माहौल है . वहां सांप्रदायिक पाठ्यक्रम भी है . उन स्कूलों में पढने वाले बच्चों को यह तो बताया जाता है कि सावरकर या गोलवलकर कितने महान थे लेकिन यह नहीं बताया जाता कि अशफाकुल्ला खान ने इस देश के आज़ादी के ;लिए अपनी कुर्बानी दी थी. ज़ाहिर है सामंती सोच की शिक्षा से ऐसे ही नौजवान समाज में आयेगें जैसा महान क्रांतिकारी रोशन सिंह का पौत्र है . सरकार और समाज को फ़ौरन संभालना होगा वरना आज़ादी के लिए दी गयी कुर्बानियां बेकार चली जायेंगीं और देश में एक ऐसा समाज कायम हो जाएगा जिसकी सामाजिक सोच सामंती होगी या साम्प्रदायिक होगी. सभी लोगों को इस बात की चिंता करनी चाहिए कि हमारी आजादी की विरासत की हिफाज़त हो
भारत की आज़ादी के इतिहास में काकोरी नाम सोने के अक्षरों में लिखा गया है .और काकोरी के शहीदों में ठाकुर रोशन सिंह का नाम बहुत ही इज्ज़त से लिया जाता है . वे काकोरी केस के उन बहादुरों में से थे जिनको फांसी की सज़ा सुनायी गयी थी. काकोरी के केस की मूल योजना पंडित राम प्रसाद बिस्मिल ने बनायी थी.उनके साथियों में अशफाकुल्ला खान, ठाकुर रोशन सिंह, राजेंद्र लाहिरी, दुर्गा भाभी ,शचीन्द्र बख्शी ,चन्द्रशेखर आज़ाद , केशव चक्रवर्ती ,शचीन्द्र नाथ सान्याल, मन्मथ नाथ गुप्ता आदि थे. हालांकि बताया जाता है कि इन लोगों ने अपने आन्दोलन की आर्थिक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए लखनऊ जाती हुई रेल गाडी को लूट लिया था जिसमें ब्रितानी सरकार का खजाना रखा हुआ था लेकिन सच्चाई यह है कि गांधी जी के असहयोग आन्दोलन के वापस लिए जाने के बाद जो शिथिलता आ गयी थी , उसे फिर से जीवित करना इन नौजवानों का उद्देश्य था . काकोरी में खजाना लूटे जाने के बाद अंग्रेजों को अंदाज़ लग गया था कि अब भारत की आजादी को रोक पाना मुश्किल है . जो दरिया झूम के उट्ठे थे उन्हें रोक पाना अंग्रेजों के बस की बात नहीं थी. . इन नौजवानों के अदालती डिफेंस के लिए जो कमेटी बनी, उसकी अध्यक्षता खुद मोती लाल नेहरू कर रहे थे . इसका मतलब यह लगाया गया कि इन बहादुरों को महात्मा गाँधी का समर्थन भी मिला हुआ है . यानी पूरे देश की जनता इनके साथ है . अंग्रेज़ी हुकूमत की चूलें हिल गयी थी लेकिन उसने पूरी सख्ती दिखाई और चार लोगों को फांसी की सज़ा दी गयी जबकि बाकी साथियों को आजीवन कारावास की सज़ा मिली. मौत की सज़ा पाने वालों में राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाकुल्ला खां, राजेंद्र लाहिरी और रोशन सिंह थे. देश की आज़ादी की शान के लिए यह चारों नौजवान फांसी के तख्ते पर चढ़े थे. इतिहास कारों का एक वर्ग इनके योगदान को कम करके आंकता है लेकिन सही बात यह है कि इनकी शहादत के बाद देश में तूफ़ान आ गया था और जब महात्मा गाँधी ने १९३०में सम्पूर्ण आज़ादी की बात की तो अंग्रेजों के कुछ पिट्ठू संगठनों के अलावा बाकी पूरा देश आज़ादी के साथ था, गाँधी के साथ था और अंग्रेजोंके खिलाफ था. जेलों में हिन्दुस्तानी अवाम को ठूंस दिया गया .सभी संगठनों के लोग जेलों में थे. जिन संगठनों के मुखिया जेल नहीं गए उन्हें अंग्रेजों के खैरख्वाह के रूप में आज भी पहचाना जाता है .
एक दुखद खबर आई है कि ठाकुर रोशन सिंह का पौत्र उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर जिले में एक धोखाधड़ी के केस में पकड़ लिया गया है . उसके ऊपर यह भी आरोप है कि उसने एक दलित महिला को धोखा देकर उसका यौन शोषण भी किया . भारत की आज़ादी के लड़ाई का नेतृत्व महात्मा गाँधी ने किया था लेकिन रोशन सिंह जैसे लोगों का उसमें कम योगदान नहीं है और उनका ही वंशज जब दलित के शोषण और धोखा धडी का काम करता है तो यह इस बात का संकेत हैं कि हमारी व्यवस्था में कहीं कुछ बहुत ही गड़बड़ हो गयी है . आरोप है कि रोशन के पौत्र ने एक दलित महिला से झूठ बोलकर शादी की और जब सच्चाई का पता उस महिला को चला तो उसने नाराज़गी ज़ाहिर की. रोशन सिंह के पौत्र ने उसे गाली दी और मारा पीटा अगर यह आरोप सच है तो बात बहुत बिगड़ चुकी है . उत्तर प्रदेश में समाज की भलाई की चिंता करने वालों को इस मामले पर गंभीरता से विचार करना चाहिए ..क्योंकि अगर श्हहीद रोशन सिंह के परिवार के लोगों में भी सामाजिक बराबरी की भावना नहीं रह गयी है तो ज़ाहिर है पिछले साठ वर्षों में देश ने बहुत कुछ खो दिया है . जो व्यक्ति मुल्क की आज़ादी के लिए फांसी पर झूल गया हो उसके परिवार में अगर दलितों का उत्पीडन करने वाला मौजूद है तो यह संस्कार रोशन सिंह के तो नहीं है . निश्चित रूप से समाज और सरकार ने यह हालात पैदा किये हैं . सरकार इस लिए कि आजकल लगभग सब कुछ सरकार के हवाले है . सामाजिक परिवर्तन के लिए भी अब राजनीतिक आन्दोलन नहीं चलते, बस सरकारी अनुदान के सहारे सामाजिक परिवर्तन की गाडी चल रही है .
ज़ाहिर है उत्तर प्रदेश में नौजवानों को जीवन मूल्यों की सही शिक्षा नहीं दी जा रही है . इसका एक कारण तो यह है कि पूरे राज्य में ग्रामीण इलाकों में प्राइमरी स्कूलों में शिक्षक अपना काम ईमानदारी से नहीं कर रहे हैं . बच्चों को शिक्षा नहीं दे रहे हैं . मजबूरी में यह बच्चे उन स्कूलों में जाते हैं जो निजी हाथों में हैं ,. उन स्कूलों में संचालकों की विचारधारा की घुट्टी पिलाई जाती है . ज़्यादातर स्कूलों में पाठ्यक्रम ऐसे हैं जो सामंती-साम्प्रदायिक रंग में रंगे हुए हैं . एक सर्वे के अनुसार उत्तर प्रदेश के ज़्यादातर जिलों में आर एस एस वालों ने सरस्वती शिशु मंदिर खोल रखे हैं . जहाँ पूरी तरह से सामंती माहौल है . वहां सांप्रदायिक पाठ्यक्रम भी है . उन स्कूलों में पढने वाले बच्चों को यह तो बताया जाता है कि सावरकर या गोलवलकर कितने महान थे लेकिन यह नहीं बताया जाता कि अशफाकुल्ला खान ने इस देश के आज़ादी के ;लिए अपनी कुर्बानी दी थी. ज़ाहिर है सामंती सोच की शिक्षा से ऐसे ही नौजवान समाज में आयेगें जैसा महान क्रांतिकारी रोशन सिंह का पौत्र है . सरकार और समाज को फ़ौरन संभालना होगा वरना आज़ादी के लिए दी गयी कुर्बानियां बेकार चली जायेंगीं और देश में एक ऐसा समाज कायम हो जाएगा जिसकी सामाजिक सोच सामंती होगी या साम्प्रदायिक होगी. सभी लोगों को इस बात की चिंता करनी चाहिए कि हमारी आजादी की विरासत की हिफाज़त हो
Monday, June 7, 2010
कुछ तमाशा ये नहीं,कौम ने करवट ली है
शेष नारायण सिंह
महिलाओं के लिए संसद और विधान मंडलों में ३३ प्रतिशत आरक्षण के लिए औरतों ने मैदान ले लिया है .अब वे अपने हक को हर हाल में लेने के लिए संघर्ष के रास्ते पर चल पड़ी हैं .करीब २० हज़ार किलोमीटर की यात्रा करके महिलाओं के तीन जत्थे दिल्ली पंहुचे थे और जब यह उत्साही महिलायें कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी से उनके आवास पर मिलीं तो वे बहुत प्रभावित हुईं और उन्होएँ अपने आप को इनके मिशन से जोड़ दिया. लेकिन उन्होंने चेतावनी भी दी कि अभी लम्बी लड़ाई है . उनको मालूम है कि महिला आरक्षण का विरोध कर रही जमातें किसी से कमज़ोर नहीं हैं और वे पिछले १२ वर्षों से सरकारों को अपनी बातें मानने पर मजबूर करती रही हैं .अपने को पिछड़ी जातियों के राजनीतिक हित की निगहबान बताने वाली राजनीतिक पार्टियां महिलाओं के आरक्षण में अलग से पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण की बात कर रही हैं . बात तो ठीक है लेकिन महिलाओं को शक़ है कि यह टालने का तरीका है .महिला आरक्षण की ज़बरदस्त वकील, महिलाओं का कहना है कि एक बार महिलाओं के रिज़र्वेशन का कानून बन जाए तो शोषित वर्गों की महिलाओं के लिए आरक्षण के लिए फिर आन्दोलन किया जा सकता है . लेकिन राजनीतिक पार्टियों के दादा लोग किसी भी वायदे पर ऐतबार नहीं करना चाहते .ऐतबार तो महिलाओं को भी इन नेताओं का नहीं है . सच्ची बात यह है कि २० हज़ार किलोमीटर की जागरूकता यात्रा करके लौटी इन औरतों को जिसने देखा है , उसे मालूम है कि महिला आरक्षण का माला अब राजनीतिक प्रबंधन की सीमा से बाहर जा चुका है . लगता है कि इतिहास एक नयी दिशा में चल पड़ा है और आने वाली नस्लें इन औरतों पर फख्र करेगीं . यह कोई तफरीह नहीं है , यहाँ इतिहास अंगडाई ले रहा है.
इसके पहले महिला आरक्षण कारवां ६ जून को दिल्ली पंहुचा था . पूरे भारत में करीब २० हज़ार किलोमीटर की यात्रा करके तीन काफिले जब दिल्ली के मावलंकर हाल के मैदान में पंहुचे तो उनका बाजे गाजे के साथ स्वागत किया गया. यह तीनों काफिले १८५७ की हीरो झलकारी बाई और लक्ष्मीबाई की बलिदान स्थली, झांसी से २० मई को चले थे. १८५७ में मई के महीने में ही भारतीय इतिहास की इन वीरांगनाओं ने ब्रितानी साम्राज्यवाद को चुनौती दी थी . और साम्राज्यवादी सामन्ती सोच के सामने इन्होने वीरता का वरण किया था और शहीद हुई थीं. . भारत की आज़ादी की नींव में जिन लोगों का खून लगा है , यह दोनों उसमें सर-ए-फेहरिस्त हैं . १८५७ में ही मुल्क की खुद मुख्तारी की लड़ाई शुरू हो गयी थी लेकिन अँगरेज़ भारत का साम्राज्य छोड़ने को तैयार नहीं था. उसने इंतज़ाम बदल दिया. ईस्ट इण्डिया कंपनी से छीनकर ब्रितानी सम्राट ने हुकूमत अपने हाथ में ले ली. लेकिन शोषण का सिलसिला जारी रहा. दूसरी बार अँगरेज़ को बड़ी चुनौती महात्मा गाँधी ने दी . १९२० में उन्होंने जब आज़ादी की लड़ाई का नेतृत्व करना शुरू किया तो बहुत शुरुआती दौर में साफ़ कर दिया था कि उनके अभियान का मकसद केवल राजनीतिक आज़ादी नहीं है, वे सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई लड़ रहे हैं , उनके साथ पूरा मुल्क खड़ा हो गया . . हिन्दू ,मुसलमान, सिख, ईसाई, बूढ़े ,बच्चे नौजवान , औरतें और मर्द सभी गाँधी के साथ थे. सामाजिक बराबरी के उनके आह्वान ने भरोसा जगा दिया था कि अब असली आज़ादी मिल जायेगी. लेकिन अँगरेज़ ने उनकी मुहिम में हर तरह के अड़ंगे डाले . १९२० की हिन्दू मुस्लिम एकता को खंडित करने की कोशिश की . अंग्रेजों ने पैसे देकर अपने वफादार हिन्दुओं और मुसलमानों के साम्प्रदायिक संगठन बनवाये और देश वासियों की एकता को तबाह करने की पूरी कोशिश की . लेकिन आज़ादी हासिल कर ली गयी. आज़ादी के लड़ाई का स्थायी भाव सामाजिक इन्साफ और बराबरी पर आधारित समाज की स्थापना भी थी . लेकिन १९५० के दशक में जब गांधी नहीं रहे तो कांग्रेस के अन्दर सक्रिय हिन्दू और मुस्लिम पोंगापंथियों ने बराबरी के सपने को चनाचूर कर दिया . इनकी पुरातन पंथी सोच का सबसे बड़ा शिकार महिलायें हुईं. इस बात का अंदाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब महात्मा गाँधी की इच्छा का आदर करने के उद्देश्य से जवाहर लाल नेहरू ने हिन्दू विवाह अधिनियम पास करवाने की कोशिश की तो उसमें कांग्रेस के बड़े बड़े नेता टूट पड़े और नेहरू का हर तरफ से विरोध किया. यहाँ तक कि उस वक़्त के राष्ट्रपति ने भी अडंगा लगाने की कोशिश की. हिन्दू विवाह अधिनियम कोई क्रांतिकारी दस्तावेज़ नहीं था . इसके ज़रिये हिन्दू औरतों को कुछ अधिकार देने की कोशिश की गयी थी. लेकिन मर्दवादी सोच के कांग्रेसी नेताओं ने उसका विरोध किया. बहरहाल नेहरू बहुत बड़े नेता थे , उनका विरोध कर पाना पुरातन पंथियों के लिए संभव नहीं था और बिल पास हो गया .
महिलाओं को उनके अधिकार देने का विरोध करने वाली पुरुष मानसिकता के चलते आज़ादी के बाद सत्ता में औरतों को उचित हिस्सेदारी नहीं मिल सकी. राजीव गाँधी ने पंचायतों में तो सीटें रिज़र्व कर दीन लेकिन बहुत दिन तक पुरुषों ने वहां भी उनको अपने अधिकारों से वंचित रखा . धीरे धीरे सब सुधर रहा है .लेकिन जब संसद और विधान मंडलों में महिलाओं को आरक्षण देने की बात आई तो अड़ंगेबाजी का सिलसिला एक बार फिर शुरू हो गया. किसी न किसी बहाने से पिछले १२ वर्षों से महिला आरक्षण बिल राजनीतिक अड़ंगे का शिकार हुआ पड़ा है . देश का दुर्भाग्य है कि महिला आरक्षण बिल का सबसे ज्यादा विरोध वे नेता कर रहे हैं जो डॉ राम मनोहर लोहिया की राजनीतिक सोच को बुनियाद बना कर राजनीति आचरण करने का दावा करते हैं . डॉ लोहिया ने महिलाओं के राजनीतिक भागीदारी का सबसे ज्यादा समर्थन किया था और पूरा जीवन उसके लिए कोशिश करते रहे,. . देश का दूसरा दुर्भाग्य यह है कि पिछले २० वर्षों से देश में ऐसी सरकारें हैं जो गठबंधन की राजनीति की शिकार हैं . लिहाज़ा कांग्रेस , बी जे पी या लेफ्ट फ्रंट की राजनीतिक मंशा होने के बावजूद भी कुछ नहीं हो पा रहा है . मर्दवादी सोच चौतरफा हावी है . इस बार भी राज्य सभा में बिल को पास करा लिया गया है लेकिन उसका कोई मतलब नहीं होता. असली काम तो लोक सभा में होना है और मामला हर बार की तरह एक बार फिर लटक गया है .. अब तो कांग्रेस और बी जे पी जैसी पार्टियां भी इस बिल से बच कर निकल जाना चाहती हैं . ऐसे माहौल में मानवाधिकारों के लिए संघर्ष करने के लिए बनायी गयी संस्था, अनहद की अगुवाई में करीब दो सौ महिला संगठनों के कार्यकर्ता सामने आये और चल पड़ा जागरूकता का कारवां. झांसी से चल कर करीब बीस हज़ार किलोमीटर की यात्रा करके जो महिलायें दिल्ली पंहुची थीं , उनका उत्साह देखते बनता था . राजस्थान में महिला अधिकारों की अलख जगाने वाली भंवरी देवी थीं , तो गुजरात पुलिस के हाथों फर्जी इनकाउंटर में मारी गयी लड़की इशरत जहां के माँ शमीमा और उसकी बहन मुसर्रत भी थीं . अनहद की शबनम हाशमी का दावा है कि जब पूरे देश में जागरूक महिलाओं की ओर से आवाज़ उठेगी तो दिल्ली में बैठे सरकारी नेताओं के लिए महिलाओं के अधिकार को हड़प कर पाना बहुत मुश्किल होगा
महिलाओं के लिए संसद और विधान मंडलों में ३३ प्रतिशत आरक्षण के लिए औरतों ने मैदान ले लिया है .अब वे अपने हक को हर हाल में लेने के लिए संघर्ष के रास्ते पर चल पड़ी हैं .करीब २० हज़ार किलोमीटर की यात्रा करके महिलाओं के तीन जत्थे दिल्ली पंहुचे थे और जब यह उत्साही महिलायें कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी से उनके आवास पर मिलीं तो वे बहुत प्रभावित हुईं और उन्होएँ अपने आप को इनके मिशन से जोड़ दिया. लेकिन उन्होंने चेतावनी भी दी कि अभी लम्बी लड़ाई है . उनको मालूम है कि महिला आरक्षण का विरोध कर रही जमातें किसी से कमज़ोर नहीं हैं और वे पिछले १२ वर्षों से सरकारों को अपनी बातें मानने पर मजबूर करती रही हैं .अपने को पिछड़ी जातियों के राजनीतिक हित की निगहबान बताने वाली राजनीतिक पार्टियां महिलाओं के आरक्षण में अलग से पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण की बात कर रही हैं . बात तो ठीक है लेकिन महिलाओं को शक़ है कि यह टालने का तरीका है .महिला आरक्षण की ज़बरदस्त वकील, महिलाओं का कहना है कि एक बार महिलाओं के रिज़र्वेशन का कानून बन जाए तो शोषित वर्गों की महिलाओं के लिए आरक्षण के लिए फिर आन्दोलन किया जा सकता है . लेकिन राजनीतिक पार्टियों के दादा लोग किसी भी वायदे पर ऐतबार नहीं करना चाहते .ऐतबार तो महिलाओं को भी इन नेताओं का नहीं है . सच्ची बात यह है कि २० हज़ार किलोमीटर की जागरूकता यात्रा करके लौटी इन औरतों को जिसने देखा है , उसे मालूम है कि महिला आरक्षण का माला अब राजनीतिक प्रबंधन की सीमा से बाहर जा चुका है . लगता है कि इतिहास एक नयी दिशा में चल पड़ा है और आने वाली नस्लें इन औरतों पर फख्र करेगीं . यह कोई तफरीह नहीं है , यहाँ इतिहास अंगडाई ले रहा है.
इसके पहले महिला आरक्षण कारवां ६ जून को दिल्ली पंहुचा था . पूरे भारत में करीब २० हज़ार किलोमीटर की यात्रा करके तीन काफिले जब दिल्ली के मावलंकर हाल के मैदान में पंहुचे तो उनका बाजे गाजे के साथ स्वागत किया गया. यह तीनों काफिले १८५७ की हीरो झलकारी बाई और लक्ष्मीबाई की बलिदान स्थली, झांसी से २० मई को चले थे. १८५७ में मई के महीने में ही भारतीय इतिहास की इन वीरांगनाओं ने ब्रितानी साम्राज्यवाद को चुनौती दी थी . और साम्राज्यवादी सामन्ती सोच के सामने इन्होने वीरता का वरण किया था और शहीद हुई थीं. . भारत की आज़ादी की नींव में जिन लोगों का खून लगा है , यह दोनों उसमें सर-ए-फेहरिस्त हैं . १८५७ में ही मुल्क की खुद मुख्तारी की लड़ाई शुरू हो गयी थी लेकिन अँगरेज़ भारत का साम्राज्य छोड़ने को तैयार नहीं था. उसने इंतज़ाम बदल दिया. ईस्ट इण्डिया कंपनी से छीनकर ब्रितानी सम्राट ने हुकूमत अपने हाथ में ले ली. लेकिन शोषण का सिलसिला जारी रहा. दूसरी बार अँगरेज़ को बड़ी चुनौती महात्मा गाँधी ने दी . १९२० में उन्होंने जब आज़ादी की लड़ाई का नेतृत्व करना शुरू किया तो बहुत शुरुआती दौर में साफ़ कर दिया था कि उनके अभियान का मकसद केवल राजनीतिक आज़ादी नहीं है, वे सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई लड़ रहे हैं , उनके साथ पूरा मुल्क खड़ा हो गया . . हिन्दू ,मुसलमान, सिख, ईसाई, बूढ़े ,बच्चे नौजवान , औरतें और मर्द सभी गाँधी के साथ थे. सामाजिक बराबरी के उनके आह्वान ने भरोसा जगा दिया था कि अब असली आज़ादी मिल जायेगी. लेकिन अँगरेज़ ने उनकी मुहिम में हर तरह के अड़ंगे डाले . १९२० की हिन्दू मुस्लिम एकता को खंडित करने की कोशिश की . अंग्रेजों ने पैसे देकर अपने वफादार हिन्दुओं और मुसलमानों के साम्प्रदायिक संगठन बनवाये और देश वासियों की एकता को तबाह करने की पूरी कोशिश की . लेकिन आज़ादी हासिल कर ली गयी. आज़ादी के लड़ाई का स्थायी भाव सामाजिक इन्साफ और बराबरी पर आधारित समाज की स्थापना भी थी . लेकिन १९५० के दशक में जब गांधी नहीं रहे तो कांग्रेस के अन्दर सक्रिय हिन्दू और मुस्लिम पोंगापंथियों ने बराबरी के सपने को चनाचूर कर दिया . इनकी पुरातन पंथी सोच का सबसे बड़ा शिकार महिलायें हुईं. इस बात का अंदाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब महात्मा गाँधी की इच्छा का आदर करने के उद्देश्य से जवाहर लाल नेहरू ने हिन्दू विवाह अधिनियम पास करवाने की कोशिश की तो उसमें कांग्रेस के बड़े बड़े नेता टूट पड़े और नेहरू का हर तरफ से विरोध किया. यहाँ तक कि उस वक़्त के राष्ट्रपति ने भी अडंगा लगाने की कोशिश की. हिन्दू विवाह अधिनियम कोई क्रांतिकारी दस्तावेज़ नहीं था . इसके ज़रिये हिन्दू औरतों को कुछ अधिकार देने की कोशिश की गयी थी. लेकिन मर्दवादी सोच के कांग्रेसी नेताओं ने उसका विरोध किया. बहरहाल नेहरू बहुत बड़े नेता थे , उनका विरोध कर पाना पुरातन पंथियों के लिए संभव नहीं था और बिल पास हो गया .
महिलाओं को उनके अधिकार देने का विरोध करने वाली पुरुष मानसिकता के चलते आज़ादी के बाद सत्ता में औरतों को उचित हिस्सेदारी नहीं मिल सकी. राजीव गाँधी ने पंचायतों में तो सीटें रिज़र्व कर दीन लेकिन बहुत दिन तक पुरुषों ने वहां भी उनको अपने अधिकारों से वंचित रखा . धीरे धीरे सब सुधर रहा है .लेकिन जब संसद और विधान मंडलों में महिलाओं को आरक्षण देने की बात आई तो अड़ंगेबाजी का सिलसिला एक बार फिर शुरू हो गया. किसी न किसी बहाने से पिछले १२ वर्षों से महिला आरक्षण बिल राजनीतिक अड़ंगे का शिकार हुआ पड़ा है . देश का दुर्भाग्य है कि महिला आरक्षण बिल का सबसे ज्यादा विरोध वे नेता कर रहे हैं जो डॉ राम मनोहर लोहिया की राजनीतिक सोच को बुनियाद बना कर राजनीति आचरण करने का दावा करते हैं . डॉ लोहिया ने महिलाओं के राजनीतिक भागीदारी का सबसे ज्यादा समर्थन किया था और पूरा जीवन उसके लिए कोशिश करते रहे,. . देश का दूसरा दुर्भाग्य यह है कि पिछले २० वर्षों से देश में ऐसी सरकारें हैं जो गठबंधन की राजनीति की शिकार हैं . लिहाज़ा कांग्रेस , बी जे पी या लेफ्ट फ्रंट की राजनीतिक मंशा होने के बावजूद भी कुछ नहीं हो पा रहा है . मर्दवादी सोच चौतरफा हावी है . इस बार भी राज्य सभा में बिल को पास करा लिया गया है लेकिन उसका कोई मतलब नहीं होता. असली काम तो लोक सभा में होना है और मामला हर बार की तरह एक बार फिर लटक गया है .. अब तो कांग्रेस और बी जे पी जैसी पार्टियां भी इस बिल से बच कर निकल जाना चाहती हैं . ऐसे माहौल में मानवाधिकारों के लिए संघर्ष करने के लिए बनायी गयी संस्था, अनहद की अगुवाई में करीब दो सौ महिला संगठनों के कार्यकर्ता सामने आये और चल पड़ा जागरूकता का कारवां. झांसी से चल कर करीब बीस हज़ार किलोमीटर की यात्रा करके जो महिलायें दिल्ली पंहुची थीं , उनका उत्साह देखते बनता था . राजस्थान में महिला अधिकारों की अलख जगाने वाली भंवरी देवी थीं , तो गुजरात पुलिस के हाथों फर्जी इनकाउंटर में मारी गयी लड़की इशरत जहां के माँ शमीमा और उसकी बहन मुसर्रत भी थीं . अनहद की शबनम हाशमी का दावा है कि जब पूरे देश में जागरूक महिलाओं की ओर से आवाज़ उठेगी तो दिल्ली में बैठे सरकारी नेताओं के लिए महिलाओं के अधिकार को हड़प कर पाना बहुत मुश्किल होगा
Saturday, June 5, 2010
ता हद्दे नज़र शहरे-खामोशां के निशाँ हैं
शेष नारायण सिंह
गुजरात में एक दलित नेता और उनकी पत्नी को पकड़ लिया गया है . पुलिस की कहानी में बताया गया है कि वे दोनों नक्सलवादी हैं और उनसे राज्य के अमन चैन को ख़तरा है . शंकर नाम के यह व्यक्ति मूलतः आंध्र प्रदेश के रहने वाले हैं लेकिन अब वर्षों से गुजरात को ही अपना घर बना लिया है . गुजरात में साम्प्रदायिकता के खिलाफ जो चंद आवाजें बच गयी हैं , वे भी उसी में शामिल हैं. विरोधियों को परेशान करने की सरकारी नीति के खिलाफ वे विरोध कर रहे हैं और लोगों को एक जुट करने की कोशिश कर रहे हैं .उनकी पत्नी, हंसाबेन भी इला भट के संगठन सेवा में काम करती हैं , वे गुजराती मूल की हैं लेकिन उनको गिरफ्तार करते वक़्त पुलिस ने जो कहानी दी है ,उसके अनुसार वे अपने पति के साथ आंध्र प्रदेश से ही आई हैं और वहीं से नक्सलवाद की ट्रेनिंग लेकर आई हैं . ज़ाहिर है पुलिस ने सिविल सोसाइटी के इन कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार करने के पहले होम वर्क नहीं किया था. इसके पहले डांग्स जिले के एक मानवाधिकार कार्यकर्ता ,अविनाश कुलकर्णी को भी गिरफ्तार कर लिया गया था . किसी को कुछ पता नहीं कि ऐसा क्यों हुआ लेकिन वे अभी तक जेल में ही हैं .गुजरात में सक्रिय सभी मानवाधिकार संगठनों के कार्यकर्ताओं को चुप कराने की गुजरात पुलिस की नीति पर काम शुरू हो चुका है और आने वाले वक़्त में किसी को भी नक्सलवादी बता कर धर लिया जाएगा और उसक अभी वही हाल होगा जो पिछले १० साल से गुजराती मुसलमानों का हो रहा है .नक्सलवादी बता कर किसी को पकड़ लेना बहुत आसान होता है क्योंकि किसी भी पढ़े लिखे आदमी के घर में मार्क्सवाद की एकाध किताब तो मिल ही जायेगी. और मोदी क एपुलिस वालों के लिए इतना ही काफी है . वैसे भी मुसलमानों को पूरी तरह से चुप करा देने के बाद , राज्य में मोदी का विरोध करने वाले कुछ मानवाधिकार संगठन ही बचे हैं . अगर उनको भी दमन का शिकार बना कर निष्क्रिय कर दिया गया तो उनकी बिरादराना राजनीतिक पार्टी , राष्ट्रवादी सोशलिस्ट पार्टी और उसके नेता , एडोल्फ हिटलर की तरह गुजरात के मुख्यमंत्री का भी अपने राज्य में एकछत्र निरंकुश राज कायम हो जाएगा .
अहमदाबाद में जारी के बयान में मानवाधिकार संस्था,दर्शन के निदेशक हीरेन गाँधी ने कहा है कि 'गुजरात सरकार और उसकी पुलिस विरोध की हर आवाज़ को कुचल देने के उद्देश्य से मानवाधिकार संगठनो , दलितों के हितों की रक्षा के लिए काम करने वाले कार्यकर्ताओं और सिविल सोसाइटी के अन्य कार्यकर्ताओं को नक्सलवादी बताकर पकड़ रही है ' लेकिन विरोध के स्वर भी अभी दबने वाले नहीं है . शहर के एक मोहल्ले गोमतीपुर में पुलिस का सबसे ज़्यादा आतंक है, . वहां के लोगों ने तय किया है कि अपने घरों के सामने बोर्ड लगा देंगें जिसमें लिखा होगा कि उस घर में रहने वाले लोग नक्सलवादी हैं और पुलिस के सामने ऐसी हालात पैदा की जायेगीं कि वे लोगों को गिरफ्तार करें . ज़ाहिर है इस तरीके से जेलों में ज्यादा से ज्यादा लोग बंद होंगें और मोदी की दमनकारी नीतियों को राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बनाया जाएगा.वैसे भी अगर सभ्य समाज के लोग बर्बरता के खिलाफ लामबंद नहीं हुए तो बहुत देर हो चुकी होगी और कम से कम गुजरात में तो हिटलरी जनतंत्र का स्वाद जनता को चखना ही पड़ जाएगा.
वैसे गुजरात में अब मुसलमानों में कोई अशांति नहीं है , सब अमन चैन से हैं . गुजरात के कई मुसलमानों से सूरत और वड़ोदरा में बात करने का मौक़ा लगा . सब ने बताया कि अब बिलकुल शान्ति है , कहीं किसी तरह के दंगे की कोई आशंका नहीं है . उन लोगों का कहना था कि शान्ति के माहौल में कारोबार भी ठीक तरह से होता है और आर्थिक सुरक्षा के बाद ही बाकी सुरक्षा आती है.बड़ा अच्छा लगा कि चलो १० साल बाद गुजरात में ऐसी शान्ति आई है .लेकिन कुछ देर बाद पता चला कि जो कुछ मैं सुन रहा था वह सच्चाई नहीं थी. वही लोग जो ग्रुप में अच्छी अच्छी बातें कर रहे थे , जब अलग से मिले तो बताया कि हालात बहुत खराब हैं . गुजरात में मुसलमान का जिंदा रहना उतना ही मुश्किल है जितना कि पाकिस्तान में हिन्दू का . गुजरात के शहरों के ज़्यादातर मुहल्लों में पुलिस ने कुछ मुसलमानों को मुखबिर बना रखा है , पता नहीं चलता कि कौन मुखबिर है और कौन नहीं है . अगर पुलिस या सरकार के खिलाफ कहीं कुछ कह दिया गया तो अगले ही दिन पुलिस का अत्याचार शुरू हो जाता है. मोदी के इस आतंक को देख कर समझ में आया कि अपने राजनीतिक पूर्वजों की लाइन को कितनी खूबी से वे लागू कर रहे हैं . लेकिन यह सफलता उन्हें एक दिन में नहीं मिली . इसके लिए वे पिछले दस वर्षों से काम कर रहे हैं . गोधरा में हुए ट्रेन हादसे के बहाने मुसलमानों को हलाल करना इसी रणनीति का हिस्सा था . उसके बाद मुसलमानों को फर्जी इनकाउंटर में मारा गया, इशरत जहां और शोहराबुद्दीन की हत्या इस योजना का उदाहरण है . उसके बाद मुस्लिम बस्तियों में उन लड़कों को पकड़ लिया जाता था जिनके ऊपर कभी कोई मामूली आपराधिक मामला दर्ज किया गया हो . पाकेटमारी, दफा १५१ , चोरी आदि अपराधों के रिकार्ड वाले लोगों को पुलिस वाले पकड़ कर ले जाते थे , उन्हें गिरफ्तार नहीं दिखाते थे, किसी प्राइवेट फार्म हाउस में ले जा कर प्रताड़ित करते थे और अपंग बनाकर उनके मुहल्लों में छोड़ देते थे . पड़ोसियों में दहशत फैल जाती थी और मुसलमानों को चुप रहने के लिए बहाना मिल जाता था .लोग कहते थे कि हमारा बच्चा तो कभी किसी केस में पकड़ा नहीं गया इसलिए उसे कोई ख़तरा नहीं था . ज़ाहिर है इन लोगों ने अपने पड़ोसियों की मदद नहीं की ..इसके बाद पुलिस ने अपने खेल का नया चरण शुरू किया . इस चरण में मुस्लिम मुहल्लों से उन लड़कों को पकड़ा जाता था जिनके खिलाफ कभी कोई मामला न दर्ज किया गया हो . उनको भी उसी तरह से प्रताड़ित करके छोड़ दिया जाता था . इस अभियान की सफलता के बाद राज्य के मुसलमानों में पूरी तरह से दहशत पैदा की जा सकी. और अब गुजरात का कोई मुसलमान मोदी या उनकी सरकार के खिलाफ नहीं बोलता ..डर के मारे सभी नरेन्द्र मोदी की जय जयकार कर रहे हैं. अब राज्य में विरोध का स्वर कहीं नहीं है . कांग्रेस नाम की पार्टी के लोग पहले से ही निष्क्रिय हैं . वैसे उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती क्योंकि विपक्ष का अभिनय करने के लिए उनकी ज़रूरत है .यह मानवाधिकार संगठन वाले आज के मोदी के लिए एक मामूली चुनौती हैं और अब उनको भी नक्सलवादी बताकर दुरुस्त कर दिया जाएगा. फिर मोदी को किसी से कोई ख़तरा नहीं रह जाएगा. हमारी राजनीति और लोकशाही के लिए यह बहुत ही खतरनाक संकेत हैं क्योंकि मोदी की मौजूदा पार्टी बी जे पी ने अपने बाकी मुख्यमंत्रियों को भी सलाह दी है कि नरेन्द्र मोदी की तरह ही राज काज चलाना उनके हित में होगा
गुजरात में एक दलित नेता और उनकी पत्नी को पकड़ लिया गया है . पुलिस की कहानी में बताया गया है कि वे दोनों नक्सलवादी हैं और उनसे राज्य के अमन चैन को ख़तरा है . शंकर नाम के यह व्यक्ति मूलतः आंध्र प्रदेश के रहने वाले हैं लेकिन अब वर्षों से गुजरात को ही अपना घर बना लिया है . गुजरात में साम्प्रदायिकता के खिलाफ जो चंद आवाजें बच गयी हैं , वे भी उसी में शामिल हैं. विरोधियों को परेशान करने की सरकारी नीति के खिलाफ वे विरोध कर रहे हैं और लोगों को एक जुट करने की कोशिश कर रहे हैं .उनकी पत्नी, हंसाबेन भी इला भट के संगठन सेवा में काम करती हैं , वे गुजराती मूल की हैं लेकिन उनको गिरफ्तार करते वक़्त पुलिस ने जो कहानी दी है ,उसके अनुसार वे अपने पति के साथ आंध्र प्रदेश से ही आई हैं और वहीं से नक्सलवाद की ट्रेनिंग लेकर आई हैं . ज़ाहिर है पुलिस ने सिविल सोसाइटी के इन कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार करने के पहले होम वर्क नहीं किया था. इसके पहले डांग्स जिले के एक मानवाधिकार कार्यकर्ता ,अविनाश कुलकर्णी को भी गिरफ्तार कर लिया गया था . किसी को कुछ पता नहीं कि ऐसा क्यों हुआ लेकिन वे अभी तक जेल में ही हैं .गुजरात में सक्रिय सभी मानवाधिकार संगठनों के कार्यकर्ताओं को चुप कराने की गुजरात पुलिस की नीति पर काम शुरू हो चुका है और आने वाले वक़्त में किसी को भी नक्सलवादी बता कर धर लिया जाएगा और उसक अभी वही हाल होगा जो पिछले १० साल से गुजराती मुसलमानों का हो रहा है .नक्सलवादी बता कर किसी को पकड़ लेना बहुत आसान होता है क्योंकि किसी भी पढ़े लिखे आदमी के घर में मार्क्सवाद की एकाध किताब तो मिल ही जायेगी. और मोदी क एपुलिस वालों के लिए इतना ही काफी है . वैसे भी मुसलमानों को पूरी तरह से चुप करा देने के बाद , राज्य में मोदी का विरोध करने वाले कुछ मानवाधिकार संगठन ही बचे हैं . अगर उनको भी दमन का शिकार बना कर निष्क्रिय कर दिया गया तो उनकी बिरादराना राजनीतिक पार्टी , राष्ट्रवादी सोशलिस्ट पार्टी और उसके नेता , एडोल्फ हिटलर की तरह गुजरात के मुख्यमंत्री का भी अपने राज्य में एकछत्र निरंकुश राज कायम हो जाएगा .
अहमदाबाद में जारी के बयान में मानवाधिकार संस्था,दर्शन के निदेशक हीरेन गाँधी ने कहा है कि 'गुजरात सरकार और उसकी पुलिस विरोध की हर आवाज़ को कुचल देने के उद्देश्य से मानवाधिकार संगठनो , दलितों के हितों की रक्षा के लिए काम करने वाले कार्यकर्ताओं और सिविल सोसाइटी के अन्य कार्यकर्ताओं को नक्सलवादी बताकर पकड़ रही है ' लेकिन विरोध के स्वर भी अभी दबने वाले नहीं है . शहर के एक मोहल्ले गोमतीपुर में पुलिस का सबसे ज़्यादा आतंक है, . वहां के लोगों ने तय किया है कि अपने घरों के सामने बोर्ड लगा देंगें जिसमें लिखा होगा कि उस घर में रहने वाले लोग नक्सलवादी हैं और पुलिस के सामने ऐसी हालात पैदा की जायेगीं कि वे लोगों को गिरफ्तार करें . ज़ाहिर है इस तरीके से जेलों में ज्यादा से ज्यादा लोग बंद होंगें और मोदी की दमनकारी नीतियों को राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बनाया जाएगा.वैसे भी अगर सभ्य समाज के लोग बर्बरता के खिलाफ लामबंद नहीं हुए तो बहुत देर हो चुकी होगी और कम से कम गुजरात में तो हिटलरी जनतंत्र का स्वाद जनता को चखना ही पड़ जाएगा.
वैसे गुजरात में अब मुसलमानों में कोई अशांति नहीं है , सब अमन चैन से हैं . गुजरात के कई मुसलमानों से सूरत और वड़ोदरा में बात करने का मौक़ा लगा . सब ने बताया कि अब बिलकुल शान्ति है , कहीं किसी तरह के दंगे की कोई आशंका नहीं है . उन लोगों का कहना था कि शान्ति के माहौल में कारोबार भी ठीक तरह से होता है और आर्थिक सुरक्षा के बाद ही बाकी सुरक्षा आती है.बड़ा अच्छा लगा कि चलो १० साल बाद गुजरात में ऐसी शान्ति आई है .लेकिन कुछ देर बाद पता चला कि जो कुछ मैं सुन रहा था वह सच्चाई नहीं थी. वही लोग जो ग्रुप में अच्छी अच्छी बातें कर रहे थे , जब अलग से मिले तो बताया कि हालात बहुत खराब हैं . गुजरात में मुसलमान का जिंदा रहना उतना ही मुश्किल है जितना कि पाकिस्तान में हिन्दू का . गुजरात के शहरों के ज़्यादातर मुहल्लों में पुलिस ने कुछ मुसलमानों को मुखबिर बना रखा है , पता नहीं चलता कि कौन मुखबिर है और कौन नहीं है . अगर पुलिस या सरकार के खिलाफ कहीं कुछ कह दिया गया तो अगले ही दिन पुलिस का अत्याचार शुरू हो जाता है. मोदी के इस आतंक को देख कर समझ में आया कि अपने राजनीतिक पूर्वजों की लाइन को कितनी खूबी से वे लागू कर रहे हैं . लेकिन यह सफलता उन्हें एक दिन में नहीं मिली . इसके लिए वे पिछले दस वर्षों से काम कर रहे हैं . गोधरा में हुए ट्रेन हादसे के बहाने मुसलमानों को हलाल करना इसी रणनीति का हिस्सा था . उसके बाद मुसलमानों को फर्जी इनकाउंटर में मारा गया, इशरत जहां और शोहराबुद्दीन की हत्या इस योजना का उदाहरण है . उसके बाद मुस्लिम बस्तियों में उन लड़कों को पकड़ लिया जाता था जिनके ऊपर कभी कोई मामूली आपराधिक मामला दर्ज किया गया हो . पाकेटमारी, दफा १५१ , चोरी आदि अपराधों के रिकार्ड वाले लोगों को पुलिस वाले पकड़ कर ले जाते थे , उन्हें गिरफ्तार नहीं दिखाते थे, किसी प्राइवेट फार्म हाउस में ले जा कर प्रताड़ित करते थे और अपंग बनाकर उनके मुहल्लों में छोड़ देते थे . पड़ोसियों में दहशत फैल जाती थी और मुसलमानों को चुप रहने के लिए बहाना मिल जाता था .लोग कहते थे कि हमारा बच्चा तो कभी किसी केस में पकड़ा नहीं गया इसलिए उसे कोई ख़तरा नहीं था . ज़ाहिर है इन लोगों ने अपने पड़ोसियों की मदद नहीं की ..इसके बाद पुलिस ने अपने खेल का नया चरण शुरू किया . इस चरण में मुस्लिम मुहल्लों से उन लड़कों को पकड़ा जाता था जिनके खिलाफ कभी कोई मामला न दर्ज किया गया हो . उनको भी उसी तरह से प्रताड़ित करके छोड़ दिया जाता था . इस अभियान की सफलता के बाद राज्य के मुसलमानों में पूरी तरह से दहशत पैदा की जा सकी. और अब गुजरात का कोई मुसलमान मोदी या उनकी सरकार के खिलाफ नहीं बोलता ..डर के मारे सभी नरेन्द्र मोदी की जय जयकार कर रहे हैं. अब राज्य में विरोध का स्वर कहीं नहीं है . कांग्रेस नाम की पार्टी के लोग पहले से ही निष्क्रिय हैं . वैसे उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती क्योंकि विपक्ष का अभिनय करने के लिए उनकी ज़रूरत है .यह मानवाधिकार संगठन वाले आज के मोदी के लिए एक मामूली चुनौती हैं और अब उनको भी नक्सलवादी बताकर दुरुस्त कर दिया जाएगा. फिर मोदी को किसी से कोई ख़तरा नहीं रह जाएगा. हमारी राजनीति और लोकशाही के लिए यह बहुत ही खतरनाक संकेत हैं क्योंकि मोदी की मौजूदा पार्टी बी जे पी ने अपने बाकी मुख्यमंत्रियों को भी सलाह दी है कि नरेन्द्र मोदी की तरह ही राज काज चलाना उनके हित में होगा
Friday, June 4, 2010
बेगुनाह कश्मीरियों के हत्यारे फौजियों को सज़ा देना हुकूमत का फ़र्ज़ है
शेष नारायण सिंह
पिछले महीने संपन्न हुए प्रधान मंत्री के राष्ट्रीय पत्रकार सम्मलेन में जो सवाल पूछे गए उनमें से ज़्यादातर बहुत आसान सवाल थे . उसके लिए उनकी आलोचना भी हुई थी लेकिन कुछ कठिन सवाल भी पूछे गए थे .यह अलग बात है कि उन्होंने जो कुछ भी जवाब दे दिया , वह हर्फे-आखिर हो गया क्योंकि किसी को भी दूसरा सवाल पूछने की अनुमति नहीं थी. प्रधानमंत्री बार बार यह कहते रहते हैं कि कि मानवाधिकारों का हनन करने वालों के लिए उनकी सरकार में कोई नरमी नहीं है , उनसे सख्ती से पेश आया जाएगा लेकिन जब सन २००० में पथरीबल में मारे गए निर्दोष नौजवानों के बारे में पूछा गया तो उनके पास कोई जवाब नहीं था . हो सकता है कि वे इस सवाल की उम्मीद न कर रहे हों लेकिन यह देखना दिलचस्प होगा कि बाद में वे क्या कार्रवाई करते हैं . उनसे पूछा गया था कि सन २०० में पथरीबल में मारे गए पांच निर्दोष नौजवानों को मारने वाले जिन फौजियों के ऊपर सी बी आई ने चार्जशीट दाखिल किया है उनके खिलाफ मुक़दमा चलाये जाने की अनुमति क्यों नहीं दी जा रही है . आगे की कार्रवाई के बारे में सिविल सोसाइटी को इंतज़ार रहेगा.
हुआ यह था कि २० मार्च ,२००० के दिन अनंतनाग जिले के छतीसिंहपुरा में लश्कर-ए-तय्यबा के कुछ आतंकियों ने गाँव के सभी सिख मर्दों को इकठ्ठा किया और उन्हें मौत के घाट उतार दिया . . उस वक़्त लाल कृष्ण आडवानी देश के गृह मंत्री थे . इस क़त्ले-आम के पांच दिन बाद उन्होंने देश को बताया कि हत्यारों का पता लगा लिया गया है . वे विदेशी आतंकवादी थे . उन्होंने दावा किया कि ५ विदेशी आतंकवादियों को मार गिराया गया है . . राष्ट्रीय राइफल्स और राज्य पुलिस की ओर से एक एफ आई आर लिखाया गया जिसमें सूचना दी गयी कि पथरीबल के पास एक मुठभेड़ हुई जिसमें आतंकवादियों को घेर लिया गया और उन्हें मार डाला गया. . वहां मिले शव इतने जल गए थे कि उनको पहचानना मुश्किल था और उन्हें दफन कर दिया गया . लेकिन बाद में पता चला कि लाल कृष्ण आडवानी ने देश को गुमराह करने की कोशिश की थी. पता यह भी चला कि जो पांच लोग मारे गए तह वे विदेशी नहीं थे और आतंकवादी नहीं थे. वे निर्दोष थे. उन पाँचों को अनंतनाग के आस पास से २४ मार्च को उठाया गया था . उनके नाम थे, ज़हूर दलाल ,बशीर अहमद भट, मुहम्मद मलिक , जुमा खान . एक और नौजवान भी था जिसका नाम भी शायद जुमा खान ही था. . जब २५ मार्च को पास के जंगलों में पांच लोगों के मारे जाने की खबर प्रचारित हुई तो गाँव वालों को शक़ हुआ कि कहीं यह पाँचों उनके अपने ही लोग तो नहीं हैं . भारी हल्ले गुल्ले के बाद उन पाँचों तथाकथित विदेशी आतंकवादियों के शवों को ज़मीन से बाहर निकाला गया . परिवार वालों के खून के नमूने लिए गए और डी एन ए जांच के लिए भेज दिया गया लेकिन यहाँ भी डाक्टरों की मदद से सेना और पुलिस ने हेराफेरी की और खून के नमूने बदल दिए . ज़ाहिर है कि जांच में यह आ गया कि मारे और दफन किये गए लोग गाँव वालों के रिश्तेदार नहीं थे . लेकिन मार्च २००२ में पता चला कि हेराफेरी हुई थी . फिर खून के नमूने लिए गए और पक्के तौर पर साबित हो गया कि जिन लोगों को सेना और पुलिस ने मारा था वे विदेशी नहीं थे . वे वास्तव में वही लड़के थे जिन्हें सुरक्षा बालों ने २४ मार्च २००० के दिन अनंत नाग के आस पास के गावों से उठाया था .
पूरे देश में सिविल सोसाइटी के लोगों ने मांग की कि मामले की निष्पक्ष जांच की जानी चाहिए .राज्य सरकार ने मामले की सी बी आई जांच का आदेश दे दिया . जिसने पांच साल की गहरी जांच के बाद पता लगाया कि जो लोग मरे थे वे वास्तव में विदेशी नहीं थे , वे यही पांच नौजवान थे जिन्हें गावों से उठाया गया था ..सी बी आई ने श्रीनगर के चीफ जुडिसियल मजिस्ट्रेट की अदालत में जुलाई २००६ में चार्ज शीट दाखिल कर दिया जिसमें ब्रिगेडियर अजय सक्सेना, ले. कर्नल ब्रिजेन्द्र प्रताप सिंह , मेजर सौरभ शर्मा ,मेजर अमित सक्सेना और सूबेदार आई खान के खिलाफ रणबीर पेनल कोड की दफा ३०२ के तहत मुक़दमा चलाया जाना है . अभी तक मुक़दमे की सुनवाई शुरू नहीं हुई है . . मामला अदालती दांव पेंच के घेरे में फंस गया है .और अभी तक कुछ नहीं हुआ . प्रधान मंत्री अगर मानवाधिकारों के हनन वालों के खिलाफ गंभीर हैं और उनके खिलाफ किसी तरह की नरमी को बर्दाश्त करने के मूड में नहीं हैं तो उन्हें इस समाले में सी बी आई की मदद करनी चाहिए और उन फौजियों को सख्त से सख्त सज़ा दिलवानी चाहिए जिन्होंने गरीब और निर्दोष कश्मीरियों को पकड़ कर बेरहमी से मार डाला था
पिछले महीने संपन्न हुए प्रधान मंत्री के राष्ट्रीय पत्रकार सम्मलेन में जो सवाल पूछे गए उनमें से ज़्यादातर बहुत आसान सवाल थे . उसके लिए उनकी आलोचना भी हुई थी लेकिन कुछ कठिन सवाल भी पूछे गए थे .यह अलग बात है कि उन्होंने जो कुछ भी जवाब दे दिया , वह हर्फे-आखिर हो गया क्योंकि किसी को भी दूसरा सवाल पूछने की अनुमति नहीं थी. प्रधानमंत्री बार बार यह कहते रहते हैं कि कि मानवाधिकारों का हनन करने वालों के लिए उनकी सरकार में कोई नरमी नहीं है , उनसे सख्ती से पेश आया जाएगा लेकिन जब सन २००० में पथरीबल में मारे गए निर्दोष नौजवानों के बारे में पूछा गया तो उनके पास कोई जवाब नहीं था . हो सकता है कि वे इस सवाल की उम्मीद न कर रहे हों लेकिन यह देखना दिलचस्प होगा कि बाद में वे क्या कार्रवाई करते हैं . उनसे पूछा गया था कि सन २०० में पथरीबल में मारे गए पांच निर्दोष नौजवानों को मारने वाले जिन फौजियों के ऊपर सी बी आई ने चार्जशीट दाखिल किया है उनके खिलाफ मुक़दमा चलाये जाने की अनुमति क्यों नहीं दी जा रही है . आगे की कार्रवाई के बारे में सिविल सोसाइटी को इंतज़ार रहेगा.
हुआ यह था कि २० मार्च ,२००० के दिन अनंतनाग जिले के छतीसिंहपुरा में लश्कर-ए-तय्यबा के कुछ आतंकियों ने गाँव के सभी सिख मर्दों को इकठ्ठा किया और उन्हें मौत के घाट उतार दिया . . उस वक़्त लाल कृष्ण आडवानी देश के गृह मंत्री थे . इस क़त्ले-आम के पांच दिन बाद उन्होंने देश को बताया कि हत्यारों का पता लगा लिया गया है . वे विदेशी आतंकवादी थे . उन्होंने दावा किया कि ५ विदेशी आतंकवादियों को मार गिराया गया है . . राष्ट्रीय राइफल्स और राज्य पुलिस की ओर से एक एफ आई आर लिखाया गया जिसमें सूचना दी गयी कि पथरीबल के पास एक मुठभेड़ हुई जिसमें आतंकवादियों को घेर लिया गया और उन्हें मार डाला गया. . वहां मिले शव इतने जल गए थे कि उनको पहचानना मुश्किल था और उन्हें दफन कर दिया गया . लेकिन बाद में पता चला कि लाल कृष्ण आडवानी ने देश को गुमराह करने की कोशिश की थी. पता यह भी चला कि जो पांच लोग मारे गए तह वे विदेशी नहीं थे और आतंकवादी नहीं थे. वे निर्दोष थे. उन पाँचों को अनंतनाग के आस पास से २४ मार्च को उठाया गया था . उनके नाम थे, ज़हूर दलाल ,बशीर अहमद भट, मुहम्मद मलिक , जुमा खान . एक और नौजवान भी था जिसका नाम भी शायद जुमा खान ही था. . जब २५ मार्च को पास के जंगलों में पांच लोगों के मारे जाने की खबर प्रचारित हुई तो गाँव वालों को शक़ हुआ कि कहीं यह पाँचों उनके अपने ही लोग तो नहीं हैं . भारी हल्ले गुल्ले के बाद उन पाँचों तथाकथित विदेशी आतंकवादियों के शवों को ज़मीन से बाहर निकाला गया . परिवार वालों के खून के नमूने लिए गए और डी एन ए जांच के लिए भेज दिया गया लेकिन यहाँ भी डाक्टरों की मदद से सेना और पुलिस ने हेराफेरी की और खून के नमूने बदल दिए . ज़ाहिर है कि जांच में यह आ गया कि मारे और दफन किये गए लोग गाँव वालों के रिश्तेदार नहीं थे . लेकिन मार्च २००२ में पता चला कि हेराफेरी हुई थी . फिर खून के नमूने लिए गए और पक्के तौर पर साबित हो गया कि जिन लोगों को सेना और पुलिस ने मारा था वे विदेशी नहीं थे . वे वास्तव में वही लड़के थे जिन्हें सुरक्षा बालों ने २४ मार्च २००० के दिन अनंत नाग के आस पास के गावों से उठाया था .
पूरे देश में सिविल सोसाइटी के लोगों ने मांग की कि मामले की निष्पक्ष जांच की जानी चाहिए .राज्य सरकार ने मामले की सी बी आई जांच का आदेश दे दिया . जिसने पांच साल की गहरी जांच के बाद पता लगाया कि जो लोग मरे थे वे वास्तव में विदेशी नहीं थे , वे यही पांच नौजवान थे जिन्हें गावों से उठाया गया था ..सी बी आई ने श्रीनगर के चीफ जुडिसियल मजिस्ट्रेट की अदालत में जुलाई २००६ में चार्ज शीट दाखिल कर दिया जिसमें ब्रिगेडियर अजय सक्सेना, ले. कर्नल ब्रिजेन्द्र प्रताप सिंह , मेजर सौरभ शर्मा ,मेजर अमित सक्सेना और सूबेदार आई खान के खिलाफ रणबीर पेनल कोड की दफा ३०२ के तहत मुक़दमा चलाया जाना है . अभी तक मुक़दमे की सुनवाई शुरू नहीं हुई है . . मामला अदालती दांव पेंच के घेरे में फंस गया है .और अभी तक कुछ नहीं हुआ . प्रधान मंत्री अगर मानवाधिकारों के हनन वालों के खिलाफ गंभीर हैं और उनके खिलाफ किसी तरह की नरमी को बर्दाश्त करने के मूड में नहीं हैं तो उन्हें इस समाले में सी बी आई की मदद करनी चाहिए और उन फौजियों को सख्त से सख्त सज़ा दिलवानी चाहिए जिन्होंने गरीब और निर्दोष कश्मीरियों को पकड़ कर बेरहमी से मार डाला था
Thursday, June 3, 2010
मीडिया को रिटायर्ड फौजी अफसरों को महिमा मंडित नहीं करना चाहिए
शेष नारायण सिंह
जब से टेलिविज़न पर चौबीसों घंटे ख़बरों का सिलसिला शुरू हुआ है , एक अजीब प्रवृत्ति नज़र आने लगी है . शुरू तो यह एक बहुत ही मामूली तरीके से हुई थी लेकिन अब प्रवृत्ति यह खतरनाक मुकाम तक पंहुंच चुकी है. देखा गया है कि हर मसले पर पूर्व और वर्तमान फौजी अफसर अपनी राय देने लगे हैं और टेलिविज़न चैनलों पर उसे प्रमुखता से दिखाया जाने लगा है . समाचार संकलन अपने आप में एक गंभीर काम है , ज़रा सी चूक से क्या से क्या हो सकता है .टेलिविज़न के समाचार तो और भी गंभीर माने जाने चाहिए क्योंकि देखी गयी खबर का असर सुनी या पढी गयी खबर से ज्यादा होता है . इसलिए टेलिविज़न की ज़िम्मेदारी है कि वह मामले को हल्का फुल्का करके पेश करने की लालच में न पड़े. लेकिन ऐसा धड़ल्ले से हो रहा है . यह लोकतंत्र और समाज के लिए ठीक नहीं है . आजकल कारगिल के युद्ध के बारे में तरह तरह की खबरें दिखाई जा रही हैं . किसी ब्रिगेडियर के साथ हुए अन्याय को केंद्र में रख कर कई टी वी चैनलों पर सेना और इतिहास से जुड़े तरह तरह के विषयों पर चर्चा की जा रही है . यह ठीक नहीं है . लोकतंत्र में बहस का महत्व है या यह कह सकते हैं कि बिना बहस के लोकतंत्र में जान ही नहीं आती लेकिन यह बहस उन मुद्दों के बारे में होनी चाहिए जो सरकारी नीति के बनाने में सहयोग कर सकें या उन पर निगरानी करने में काम आ सकें . राज काज और राजनीतिक विषयों पर बहस बहुत ज़रूरी है और उसे उत्साहित किया जाना चाहिए लेकिन सेना और राष्ट्रीय सुरक्षा के नीतियों और योजनाओं को पब्लिक डोमेन में लाना राष्ट्रीय सुरक्षा से खेलना है और इसे किसी कीमत पर बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए.
खबर आई है कि कारगिल युद्ध में हेरा फेरी के आरोपी एक जनरल ने कहा है कि उस लड़ाई में भारत की जीत ही नहीं हुई थी. इस जनरल का आचरण संदेह के घेरे में आ चुका है और उसके बारे में अदालती हस्तक्षेप के बाद यह पता लग चुका है कि यह भाई हेरा फेरी का उस्ताद है . उसके दृष्टिकोण को पब्लिक डोमेन में लाने का कोई मतलब नहीं है . जहां तक कारगिल की लड़ाई की बात है , वह हमारी विदेश नीति की नाकामी का एक बड़ा उदाहरण है . भला बताइये , हमारा प्रधानमंत्री पाकिस्तान से दोस्ती बढाने के लिए सकारात्मक पहल कर रहा है और बस से लाहौर की यात्रा पर गया हुआ है और पाकिस्तानी फौज हमारे महत्वपूर्ण सैनिक ठिकानों पर क़ब्ज़ा कर रही है . और हमारी खुफिया एजेंसियों को भनक तक नहीं है . ज़ाहिर है कि उस वक़्त के कूटनीति के प्रबंधकों को दण्डित किया जाना चाहिए लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि कोई भी पुराना फौजी मुंह उठाकर चला आये और कह दे कि जिस लड़ाई में हमारे इतने नौजवान शहीद हुए हों , वह बेकार की लड़ाई थी ., उसमें हमारी जीत ही नहीं हुई थी. यह बहुत ही गैरज़िम्मेदार बयान है और अगर कोई ऐसा आदमी कह रहा हो, जो उस लड़ाई के संचालन में बहुत ही महत्वपूर्ण पद पर रहा हो , तो और भी गंभीर बात है . हालांकि कि फौजियों को इतने गंभीर मामलों के राजनीतिक और कूटनीतिक पक्ष में शामिल नहीं किया जाना चाहिए लेकिन अब बात बहस में घसीट ली गयी है तो बात को साफ़ कर देना ज़रूरी है . जहां तक कारगिल में हार जीत की बात है , निश्चित रूप से भारत ने वहां सैनिक सफलता पायी है . यह भी सही है कि उस लड़ाई में अपने बहुत से बहादुर अफसर और जवान शहीद भी हुए . लेकिन अगर उस वक़्त हमारी सेना सफल न हुई होती तो कारगिल और आसपास के इलाकों में सामरिक रूप से जिन ऊंचाइयों पर पाकिस्तानी सेना ने अपने अड्डे बना लिये थे , वह हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए बहुत ही खतरनाक साबित हो सकता है . वहां से पाकिस्तान को बेदखल कर के सैनिक सुरक्षा की अपनी व्यवस्था को दुरुस्त करना अगर जीत नहीं है तो फिर क्या है . इस गैर ज़िम्मेदार,हेराफेरी मास्टर और कुंठित पूर्व जनरल के प्रलाप को पूरे देश में प्रचारित करके जिस न्यूज़ चैनल ने राष्ट्रीय सुरक्षा को सवालों के घेरे में खड़ा करने की कोशिश की है , उसे ऐसा नहीं करना चाहिए था. सवाल पैदा होता है कि वह फौजी जिसकी बे-ईमानी की कथा अब जगज़ाहिर है , उसके अध् कचरे ख्यालात को राष्ट्रहित के खिलाफ इतनी अहमियत क्यों दी जा रही है . जिस चैनल पर यह श्रीमान जी अपने आप को महिमामंडित कर रहे थे उसकी एक बहुत ही वरिष्ठ कार्यकर्ता पर पिछले दिनों पावर ब्रोकर होने के आरोप भी लग चुके हैं . कारगिल युद्ध के दौरान भी इस चैनल की एक रिपोर्टर पर आरोप लग चुका है कि उसकी एक खबर की वजह से हमारे कुछ सैनिक शहीद हुए थे . हालांकि इन खबरों में सच्चाई नहीं है लेकिन उस युद्ध के दौरान जो बंदा इंचार्ज था, उसको बहुत हाईलाईट करके कहीं एहसान का बदला तो नहीं चुकाया जा रहा है .
जहां तक कारगिल की लड़ाई को बेकार साबित करने की कोशिश है , वह भी बिलकुल बेकार की बात है .. उस लड़ाई में भारतीय फौज विजयी रही थी क्योंकि उसने महत्वपूर्ण सैनिक ठिकानों को पाकिस्तानी फौज से वापस लेकर वहां तिरंगा लहरा दिया था .. लेकिन असली जीत तो अंतरराष्ट्रीय मैदान में हुई थी. पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने अमरीका जाकर उसके राष्ट्रपति से मदद की गुहार की थी लेकिन उन्होंने साफ़ मना कर दिया था और चेतावनी दी थी कि अगर पाकिस्तानी फौजें फ़ौरन न हटीं तो मुश्किल हो जायेगी. परंपरागत रूप से आँख मूँद कर पाकिस्तान की मदद करने वाले अमरीका की नज़र में पाकिस्तान का यह पतन भारत के लिए एक बड़ी कूटनीतिक जीत थी . लेकिन इन बातों से फौजी जनरलों को कोई मतलब नहीं होना चाहिए और समाचार माध्यमों को भी सावधान रहना चाहिए कि कहीं उनकी अधकचरी समझ की वजह से राष्ट्रीय सुरक्षा को ख़तरा न पैदा हो जाय
जब से टेलिविज़न पर चौबीसों घंटे ख़बरों का सिलसिला शुरू हुआ है , एक अजीब प्रवृत्ति नज़र आने लगी है . शुरू तो यह एक बहुत ही मामूली तरीके से हुई थी लेकिन अब प्रवृत्ति यह खतरनाक मुकाम तक पंहुंच चुकी है. देखा गया है कि हर मसले पर पूर्व और वर्तमान फौजी अफसर अपनी राय देने लगे हैं और टेलिविज़न चैनलों पर उसे प्रमुखता से दिखाया जाने लगा है . समाचार संकलन अपने आप में एक गंभीर काम है , ज़रा सी चूक से क्या से क्या हो सकता है .टेलिविज़न के समाचार तो और भी गंभीर माने जाने चाहिए क्योंकि देखी गयी खबर का असर सुनी या पढी गयी खबर से ज्यादा होता है . इसलिए टेलिविज़न की ज़िम्मेदारी है कि वह मामले को हल्का फुल्का करके पेश करने की लालच में न पड़े. लेकिन ऐसा धड़ल्ले से हो रहा है . यह लोकतंत्र और समाज के लिए ठीक नहीं है . आजकल कारगिल के युद्ध के बारे में तरह तरह की खबरें दिखाई जा रही हैं . किसी ब्रिगेडियर के साथ हुए अन्याय को केंद्र में रख कर कई टी वी चैनलों पर सेना और इतिहास से जुड़े तरह तरह के विषयों पर चर्चा की जा रही है . यह ठीक नहीं है . लोकतंत्र में बहस का महत्व है या यह कह सकते हैं कि बिना बहस के लोकतंत्र में जान ही नहीं आती लेकिन यह बहस उन मुद्दों के बारे में होनी चाहिए जो सरकारी नीति के बनाने में सहयोग कर सकें या उन पर निगरानी करने में काम आ सकें . राज काज और राजनीतिक विषयों पर बहस बहुत ज़रूरी है और उसे उत्साहित किया जाना चाहिए लेकिन सेना और राष्ट्रीय सुरक्षा के नीतियों और योजनाओं को पब्लिक डोमेन में लाना राष्ट्रीय सुरक्षा से खेलना है और इसे किसी कीमत पर बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए.
खबर आई है कि कारगिल युद्ध में हेरा फेरी के आरोपी एक जनरल ने कहा है कि उस लड़ाई में भारत की जीत ही नहीं हुई थी. इस जनरल का आचरण संदेह के घेरे में आ चुका है और उसके बारे में अदालती हस्तक्षेप के बाद यह पता लग चुका है कि यह भाई हेरा फेरी का उस्ताद है . उसके दृष्टिकोण को पब्लिक डोमेन में लाने का कोई मतलब नहीं है . जहां तक कारगिल की लड़ाई की बात है , वह हमारी विदेश नीति की नाकामी का एक बड़ा उदाहरण है . भला बताइये , हमारा प्रधानमंत्री पाकिस्तान से दोस्ती बढाने के लिए सकारात्मक पहल कर रहा है और बस से लाहौर की यात्रा पर गया हुआ है और पाकिस्तानी फौज हमारे महत्वपूर्ण सैनिक ठिकानों पर क़ब्ज़ा कर रही है . और हमारी खुफिया एजेंसियों को भनक तक नहीं है . ज़ाहिर है कि उस वक़्त के कूटनीति के प्रबंधकों को दण्डित किया जाना चाहिए लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि कोई भी पुराना फौजी मुंह उठाकर चला आये और कह दे कि जिस लड़ाई में हमारे इतने नौजवान शहीद हुए हों , वह बेकार की लड़ाई थी ., उसमें हमारी जीत ही नहीं हुई थी. यह बहुत ही गैरज़िम्मेदार बयान है और अगर कोई ऐसा आदमी कह रहा हो, जो उस लड़ाई के संचालन में बहुत ही महत्वपूर्ण पद पर रहा हो , तो और भी गंभीर बात है . हालांकि कि फौजियों को इतने गंभीर मामलों के राजनीतिक और कूटनीतिक पक्ष में शामिल नहीं किया जाना चाहिए लेकिन अब बात बहस में घसीट ली गयी है तो बात को साफ़ कर देना ज़रूरी है . जहां तक कारगिल में हार जीत की बात है , निश्चित रूप से भारत ने वहां सैनिक सफलता पायी है . यह भी सही है कि उस लड़ाई में अपने बहुत से बहादुर अफसर और जवान शहीद भी हुए . लेकिन अगर उस वक़्त हमारी सेना सफल न हुई होती तो कारगिल और आसपास के इलाकों में सामरिक रूप से जिन ऊंचाइयों पर पाकिस्तानी सेना ने अपने अड्डे बना लिये थे , वह हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए बहुत ही खतरनाक साबित हो सकता है . वहां से पाकिस्तान को बेदखल कर के सैनिक सुरक्षा की अपनी व्यवस्था को दुरुस्त करना अगर जीत नहीं है तो फिर क्या है . इस गैर ज़िम्मेदार,हेराफेरी मास्टर और कुंठित पूर्व जनरल के प्रलाप को पूरे देश में प्रचारित करके जिस न्यूज़ चैनल ने राष्ट्रीय सुरक्षा को सवालों के घेरे में खड़ा करने की कोशिश की है , उसे ऐसा नहीं करना चाहिए था. सवाल पैदा होता है कि वह फौजी जिसकी बे-ईमानी की कथा अब जगज़ाहिर है , उसके अध् कचरे ख्यालात को राष्ट्रहित के खिलाफ इतनी अहमियत क्यों दी जा रही है . जिस चैनल पर यह श्रीमान जी अपने आप को महिमामंडित कर रहे थे उसकी एक बहुत ही वरिष्ठ कार्यकर्ता पर पिछले दिनों पावर ब्रोकर होने के आरोप भी लग चुके हैं . कारगिल युद्ध के दौरान भी इस चैनल की एक रिपोर्टर पर आरोप लग चुका है कि उसकी एक खबर की वजह से हमारे कुछ सैनिक शहीद हुए थे . हालांकि इन खबरों में सच्चाई नहीं है लेकिन उस युद्ध के दौरान जो बंदा इंचार्ज था, उसको बहुत हाईलाईट करके कहीं एहसान का बदला तो नहीं चुकाया जा रहा है .
जहां तक कारगिल की लड़ाई को बेकार साबित करने की कोशिश है , वह भी बिलकुल बेकार की बात है .. उस लड़ाई में भारतीय फौज विजयी रही थी क्योंकि उसने महत्वपूर्ण सैनिक ठिकानों को पाकिस्तानी फौज से वापस लेकर वहां तिरंगा लहरा दिया था .. लेकिन असली जीत तो अंतरराष्ट्रीय मैदान में हुई थी. पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने अमरीका जाकर उसके राष्ट्रपति से मदद की गुहार की थी लेकिन उन्होंने साफ़ मना कर दिया था और चेतावनी दी थी कि अगर पाकिस्तानी फौजें फ़ौरन न हटीं तो मुश्किल हो जायेगी. परंपरागत रूप से आँख मूँद कर पाकिस्तान की मदद करने वाले अमरीका की नज़र में पाकिस्तान का यह पतन भारत के लिए एक बड़ी कूटनीतिक जीत थी . लेकिन इन बातों से फौजी जनरलों को कोई मतलब नहीं होना चाहिए और समाचार माध्यमों को भी सावधान रहना चाहिए कि कहीं उनकी अधकचरी समझ की वजह से राष्ट्रीय सुरक्षा को ख़तरा न पैदा हो जाय
पाकिस्तान को ख़त्म कर सकता है आतंकवाद
शेष नारायण सिंह
पाकिस्तान में अहमदिया समुदाय लोगों की दो मस्जिदों में शुक्रवार की नमाज़ के वक़्त जो हमला हुआ वह पाकिस्तानी समाज में व्याप्त असहिष्णुता को एक बार भी फिर रेखांकित कर देता है .. अहमदिया समुदाय के लोग अपने आप को मुसलमान कहते हैं लेकिन पाकिस्तानी सरकार उन्हें मुसलमान नहीं मानती. वे वहां के सरकारी रिकॉर्ड में गैर-मुस्लिम जमात के रूप में दर्ज हैं . शायद इसीलिए जब शुक्रवार के दिन मस्जिद में हुए हमलों में मारे गए अहमदिया समुदाय के लोगों का अंतिम संस्कार किया गया तो कोई भी सरकारी नेता या अधिकारी वहां नहीं गया . राजनीतिक पार्टियों ने तो दो मस्जिदों में हुए इस नरसंहार के खिलाफ बयान दे दिए लेकिन कोई नेता सार्वजनिक रूप से सहानुभूति व्यक्त करने की हिम्मत नहीं जुटा सका.दरअसल पाकिस्तान में अहमदिया समुदाय के लोगों के खिलाफ बहुत असहिष्णुता है . पाकिस्तानी हुकूमत का दावा है कि अहमदिया सम्प्रदाय के लोगों की आबादी उनके देश में चौथाई प्रतिशत से भी कम है . पाकिस्तान की स्थापना के बाद से ही जब जमाते-इस्लामी के नेता , मौलाना मौदूदी ने नए देश को इस्लामी राज्य के रूप में स्थापित करने की मुहिम शुरू की , तो लोगों को लगने लगा था कि पाकिस्तान के संस्थापक , मुहम्मद अली जिन्ना के सपनों का पाकिस्तान तो कभी नहीं बन पायेगा. इसका कारण यह था कि पाकिस्तान की बुनियादी मांग ही धार्मिक आधार पर की गयी थी. जिन्ना ने अंग्रेजों से पाकिस्तान हासिल ही इसलिए किया था कि उन्हें शक़ था कि आज़ादी के बाद जब अँगरेज़ चले जायेंगे तो हिन्दू बहुमत की सरकारें मुसलमानों को परेशान करेंगीं . जिन्ना की यह सोच गलत थी क्योंकि आज भी मुसलमान भारत में गर्व से रहते हैं और मुस्लिम विरोधी आर एस एस के खिलाफ लगभग पूरे देश के धर्मनिरपेक्ष हिन्दू लामबंद हैं.. जिन्ना की वफादारी और भारत के टुकड़े करने की अपनी नीति के तहत अंग्रेजों ने मुल्क का बँटवारा कर दिया . शायद इसीलिए जमाते इस्लामी की अगुवाई में मुल्लाओं ने इस्लामी राज्य की स्थापना के लिए कोशिश शुरू कर दी लेकिन जिन्ना के दिमाग में कुछ और था . वे धार्मिक मामलों को राजकाज का हिस्सा नहीं बनाना चाहते थे. इसीलिए पाकिस्तान के बँटवारे के बाद उन्होंने जो सबसे चर्चित भाषण दिया था उसमें उन्होंने साफ़ कह दिया था कि नया मुल्क एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र होगा. उनका वह भाषण बार बार उद्धृत किया जाता है . उस पर गौर करने की ज़रुरत है क्योंकि उसकी रोशनी में ही समझ में आयेगा कि पाकिस्तान के संस्थापक के असली सपने कितने नीचे दफन कर दिए गए हैं .
जिन्ना ने अपने उस विख्यात भाषण में कहा था कि ' मेरी समझ से भारत के विकास में धार्मिक मतभेद की समस्या सबसे बड़ी बाधा रही है . इसलिए हमें इस से एक सबक सीखना चाहिए . इस नए पाकिस्तान में आप मंदिर में जाने के लिए स्वतंत्र हैं .आप अपनी मस्जिदों में जा सकते हैं या किसी और पूजा स्थल पर जा सकते हैं . आप किसी भी धर्म, जाति या मत से ताल्लुक रख सकते हैं , उस से राज्य का कोई लेना देना नहीं है .' जिन्ना का यह भाषण साफ़ कर देता है कि पाकिस्तान हथियाने के लिए उन्होंने चाहे जो कुछ भी किया हो लेकिन नए देश को वे भी धर्मनिरपेक्षता की बुनियाद पर चलाना चाहते थे . लेकिन उनकी बात को सुनने वाला कोई नहीं था . उनके मरने के कुछ बाद ही उनके चहेते और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाक़त अली को मार डाला गया , पंजाबी साम्राज्यवाद की शुरुआत हो गयी शुरू में तो जिन्ना की सोच को इज्ज़त देने का ड्रामा होता रहा लेकिन बाद में अपने आप को बहुत सेकुलर और आधुनिक कहलाने के शौकीन , ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने सत्ता पर काबिज़ होने के बाद सरकारी स्तर पर मुल्लाओं की बात को स्वीकार करना शुरू कर दिया . ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने ही अहमदिया सम्प्रदाय के लोगों को गैर-मुस्लिम घोषित किया था . बाद में उनके हत्यारे और पाकिस्तान के फौजी तानाशाह ,जिया उल हक ने उसे बहुत ही मज़बूत कर दिया .
बहरहाल यह पक्का है कि मुहम्मद अली जिन्ना वाला पाकिस्तान आज कहीं दूर दूर तक नहीं है . यह हाल शुरू से ही है . पाकिस्तान में सत्तर के दशक में लोग कहते पाए जाते थे कि यहाँ सिन्धी हैं , पंजाबी हैं , पख्तून हैं और बलूच हैं लेकिन पाकिस्तानी कोई नहीं . आज हालात उस से भी बदतर हैं . जिस तरह से पूरे पाकिस्तान में खून खराबा हो रहा है, उसे देखकर कई बार शक़ होने लगता है आज के पाकिस्तान में इंसान की इज्ज़त करने वाली जमातें भी कहीं छुप गयी हैं . मुहम्मद अली जिन्ना मूल रूप से धर्मनिरपेक्षता की राजनीति के पैरोकार थे ..१९१९ के पहले की कांग्रेस में उनकी हैसियत एक बड़े नेता की थी लेकिन अपने चिडचिडे और दूसरों की राय की इज्ज़त न करने के स्वभाव कारण उन्हें कांग्रेस से अलग होना पड़ा . बाद में लियाक़त अली के साथ मिलकर वे मुल्क के बँटवारे के अभियान के नेता बने. लेकिन आज़ादी के बाद वे पाकिस्तान में वैज्ञानिक सोच के आधार पर हुकूमत के पक्षधर थे. जो हो न सका .उनका सपना पूरा नहीं हुआ .. पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना के सपने अब कहीं नहीं हैं. पूर्व तानाशाह जिया उल हक ने जिस तरह से हर पाकिस्तानी के दिमाग में भारत से दुश्मनी का ज़हर भर दिया था , वह अब रंग दिखाने लगा है . भारत को तबाह करने के लिए जिया ने आतंकवाद को अपनी सरकार की प्राथमिकता में शामिल किया था और आई एस आई का इस्तेमाल करके आतंकवाद का एक बड़ा तामझाम तैयार किया था . भारत ने तो अपने आप को सुरक्षित कर लिया लेकिन वही आतंकवाद आज पाकिस्तान की तबाही का कारण बनता नज़र आ रहा है. और लगता है कि जिया से शुरू होकर बेनजीर ,नवाज़ शरीफ और मुशर्रफ के शासन काल में जिस आतंकवाद को भारत के खिलाफ इस्तेमाल करने की कोशिश की गयी थी ,वह पाकिस्तान को तबाह करके ही दम लेगा.
पाकिस्तान में अहमदिया समुदाय लोगों की दो मस्जिदों में शुक्रवार की नमाज़ के वक़्त जो हमला हुआ वह पाकिस्तानी समाज में व्याप्त असहिष्णुता को एक बार भी फिर रेखांकित कर देता है .. अहमदिया समुदाय के लोग अपने आप को मुसलमान कहते हैं लेकिन पाकिस्तानी सरकार उन्हें मुसलमान नहीं मानती. वे वहां के सरकारी रिकॉर्ड में गैर-मुस्लिम जमात के रूप में दर्ज हैं . शायद इसीलिए जब शुक्रवार के दिन मस्जिद में हुए हमलों में मारे गए अहमदिया समुदाय के लोगों का अंतिम संस्कार किया गया तो कोई भी सरकारी नेता या अधिकारी वहां नहीं गया . राजनीतिक पार्टियों ने तो दो मस्जिदों में हुए इस नरसंहार के खिलाफ बयान दे दिए लेकिन कोई नेता सार्वजनिक रूप से सहानुभूति व्यक्त करने की हिम्मत नहीं जुटा सका.दरअसल पाकिस्तान में अहमदिया समुदाय के लोगों के खिलाफ बहुत असहिष्णुता है . पाकिस्तानी हुकूमत का दावा है कि अहमदिया सम्प्रदाय के लोगों की आबादी उनके देश में चौथाई प्रतिशत से भी कम है . पाकिस्तान की स्थापना के बाद से ही जब जमाते-इस्लामी के नेता , मौलाना मौदूदी ने नए देश को इस्लामी राज्य के रूप में स्थापित करने की मुहिम शुरू की , तो लोगों को लगने लगा था कि पाकिस्तान के संस्थापक , मुहम्मद अली जिन्ना के सपनों का पाकिस्तान तो कभी नहीं बन पायेगा. इसका कारण यह था कि पाकिस्तान की बुनियादी मांग ही धार्मिक आधार पर की गयी थी. जिन्ना ने अंग्रेजों से पाकिस्तान हासिल ही इसलिए किया था कि उन्हें शक़ था कि आज़ादी के बाद जब अँगरेज़ चले जायेंगे तो हिन्दू बहुमत की सरकारें मुसलमानों को परेशान करेंगीं . जिन्ना की यह सोच गलत थी क्योंकि आज भी मुसलमान भारत में गर्व से रहते हैं और मुस्लिम विरोधी आर एस एस के खिलाफ लगभग पूरे देश के धर्मनिरपेक्ष हिन्दू लामबंद हैं.. जिन्ना की वफादारी और भारत के टुकड़े करने की अपनी नीति के तहत अंग्रेजों ने मुल्क का बँटवारा कर दिया . शायद इसीलिए जमाते इस्लामी की अगुवाई में मुल्लाओं ने इस्लामी राज्य की स्थापना के लिए कोशिश शुरू कर दी लेकिन जिन्ना के दिमाग में कुछ और था . वे धार्मिक मामलों को राजकाज का हिस्सा नहीं बनाना चाहते थे. इसीलिए पाकिस्तान के बँटवारे के बाद उन्होंने जो सबसे चर्चित भाषण दिया था उसमें उन्होंने साफ़ कह दिया था कि नया मुल्क एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र होगा. उनका वह भाषण बार बार उद्धृत किया जाता है . उस पर गौर करने की ज़रुरत है क्योंकि उसकी रोशनी में ही समझ में आयेगा कि पाकिस्तान के संस्थापक के असली सपने कितने नीचे दफन कर दिए गए हैं .
जिन्ना ने अपने उस विख्यात भाषण में कहा था कि ' मेरी समझ से भारत के विकास में धार्मिक मतभेद की समस्या सबसे बड़ी बाधा रही है . इसलिए हमें इस से एक सबक सीखना चाहिए . इस नए पाकिस्तान में आप मंदिर में जाने के लिए स्वतंत्र हैं .आप अपनी मस्जिदों में जा सकते हैं या किसी और पूजा स्थल पर जा सकते हैं . आप किसी भी धर्म, जाति या मत से ताल्लुक रख सकते हैं , उस से राज्य का कोई लेना देना नहीं है .' जिन्ना का यह भाषण साफ़ कर देता है कि पाकिस्तान हथियाने के लिए उन्होंने चाहे जो कुछ भी किया हो लेकिन नए देश को वे भी धर्मनिरपेक्षता की बुनियाद पर चलाना चाहते थे . लेकिन उनकी बात को सुनने वाला कोई नहीं था . उनके मरने के कुछ बाद ही उनके चहेते और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाक़त अली को मार डाला गया , पंजाबी साम्राज्यवाद की शुरुआत हो गयी शुरू में तो जिन्ना की सोच को इज्ज़त देने का ड्रामा होता रहा लेकिन बाद में अपने आप को बहुत सेकुलर और आधुनिक कहलाने के शौकीन , ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने सत्ता पर काबिज़ होने के बाद सरकारी स्तर पर मुल्लाओं की बात को स्वीकार करना शुरू कर दिया . ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने ही अहमदिया सम्प्रदाय के लोगों को गैर-मुस्लिम घोषित किया था . बाद में उनके हत्यारे और पाकिस्तान के फौजी तानाशाह ,जिया उल हक ने उसे बहुत ही मज़बूत कर दिया .
बहरहाल यह पक्का है कि मुहम्मद अली जिन्ना वाला पाकिस्तान आज कहीं दूर दूर तक नहीं है . यह हाल शुरू से ही है . पाकिस्तान में सत्तर के दशक में लोग कहते पाए जाते थे कि यहाँ सिन्धी हैं , पंजाबी हैं , पख्तून हैं और बलूच हैं लेकिन पाकिस्तानी कोई नहीं . आज हालात उस से भी बदतर हैं . जिस तरह से पूरे पाकिस्तान में खून खराबा हो रहा है, उसे देखकर कई बार शक़ होने लगता है आज के पाकिस्तान में इंसान की इज्ज़त करने वाली जमातें भी कहीं छुप गयी हैं . मुहम्मद अली जिन्ना मूल रूप से धर्मनिरपेक्षता की राजनीति के पैरोकार थे ..१९१९ के पहले की कांग्रेस में उनकी हैसियत एक बड़े नेता की थी लेकिन अपने चिडचिडे और दूसरों की राय की इज्ज़त न करने के स्वभाव कारण उन्हें कांग्रेस से अलग होना पड़ा . बाद में लियाक़त अली के साथ मिलकर वे मुल्क के बँटवारे के अभियान के नेता बने. लेकिन आज़ादी के बाद वे पाकिस्तान में वैज्ञानिक सोच के आधार पर हुकूमत के पक्षधर थे. जो हो न सका .उनका सपना पूरा नहीं हुआ .. पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना के सपने अब कहीं नहीं हैं. पूर्व तानाशाह जिया उल हक ने जिस तरह से हर पाकिस्तानी के दिमाग में भारत से दुश्मनी का ज़हर भर दिया था , वह अब रंग दिखाने लगा है . भारत को तबाह करने के लिए जिया ने आतंकवाद को अपनी सरकार की प्राथमिकता में शामिल किया था और आई एस आई का इस्तेमाल करके आतंकवाद का एक बड़ा तामझाम तैयार किया था . भारत ने तो अपने आप को सुरक्षित कर लिया लेकिन वही आतंकवाद आज पाकिस्तान की तबाही का कारण बनता नज़र आ रहा है. और लगता है कि जिया से शुरू होकर बेनजीर ,नवाज़ शरीफ और मुशर्रफ के शासन काल में जिस आतंकवाद को भारत के खिलाफ इस्तेमाल करने की कोशिश की गयी थी ,वह पाकिस्तान को तबाह करके ही दम लेगा.
अगर आतंक में पकडे गए तो आर एस एस अपने लोगों से पल्ला झाड़ लेगा
शेष नारायण सिंह
देश में हुई आतंकवादी गतिविधियों में आर एस एस के शामिल होने की पोल खुलने के बाद नागपुर के मठाधीश बहुत परेशान हैं . एक बहुत ही आदरणीय पत्रकार से बात चीत में संगठन के एक ज़िम्मेदार नेता ने बताया कि यह ठीक नहीं है क्योंकि अगर आर एस एस के कार्यक्रताओं के नाम आतंकवादी काम में जुड़ गए तो उनकी उस रणनीति की हवा निकल जायेगी जिसके तहत वे कहते पाए जाते थे कि सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं होते लेकिन सभी आतंकवादी मुसलमान होते हैं .. उनकी कोशिश रहती थी कि मुसलमानों को आतंकवाद के साचे में मुकम्मल तरीके से फिक्स रखा जाए . लेकिन महाराष्ट्र के मालेगांव, राजस्थान के अजमेर और आन्ध्र प्रदेश के मक्का मस्जिद धमाकों में आर एस एस के लोगों के पकडे जाने और उनके शामिल होने की बात के साबित हो जाने के बाद यह तो पता चल ही गया है कि सभी आतंकवादी मुसलमान नहीं होते, बल्कि यह भी कि आर एस एस ही इस देश में होने वाले आतंकवाद का एक प्रमुख नियंता है और आतंकवादी का कोई धर्म नहीं होता .. अब आर एस एस की ताज़ा लाइन अलग है. अब तक तो यह था कि अपने लोगों को आतंकवादी घटनाओं में पकडे जाने के बाद भी मदद की जायेगी . इस सोच के तहत ही जब उनकी मध्य प्रदेश की नेता, प्रज्ञा सिंह ठाकुर आतंकवादी होने के आरोप में पकड़ी गयी थीं तो उस वक़्त के आर एस एस की राजनीतिक शाखा के अध्यक्ष राजनाथ सिंह और प्रधान मंत्री पद के प्रतीक्षक, लाल कृष्ण आडवानी ने उनके समर्थन में बयान दिया था लेकिन अब बात बिगड़ रही है. प्रज्ञा ठाकुर वाले मामले में बचत की एक गुंजाइश थी . वे आर एस एस के उन संगठनों के साथ थीं जो चोरी छुपे उनका काम करते हैं और पकडे जाने पर नागपुर उनसे पल्ला झाड लेता है . लेकिन अब बात बदल गयी है . अजमेर में ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर जो धमाका हुआ था , उसका सरगना पकड़ लिया गया है और वह आर एस एस का आधिकारिक रूप से तैनात किया गया प्रचारक था. प्रचारक ,आर एस एस का सबसे महत्वपूर्ण पद्दाधिकारी होता है . सही बात यह है कि वही सारे खेल में केंदीय भूमिका अदा करता है . संगठन के सभी बड़े नेता मूल रूप से स्वयंसेवक होते हैं लेकिन जो प्रचारक होकर बी जे पी में आते हैं ,उनकी ताक़त औरों से ज्यादा होती है . गुजरात के नरेंद्र मोदी भी आर एस एस के प्रचारक रह चुके हैं . ज़ाहिर है प्रचारकों के पकडे जाने के बाद आर एस एस वालों को लगने लगा है कि अगर सारी पोल पट्टी खुल गयी तो उनका एक बार फिर वही हाल होगा जो गाँधी जी की हत्या में पकडे जाने के बाद हुआ था. उस मामले में तो उनके मुखिया ,गोलवलकर तक पकड़ लिए गए थे . बाद में छूट गए लेकिन उनके अपने बन्दे सावरकर , नाथूराम गोडसे वगैरह के ऊपर आरोप साबित हो गए थे. और उन लोगों को माकूल सज़ा भी हुई. गांधी हत्या में पकडे जाने की वजह से इस संगठन पर बहुत दिनों तक किसी को भरोसा नहीं हुआ था. वह तो १९७७ में जयप्रकाश नारायण ने इनको मुख्य धारा में लाने में मदद की. शायद इसीलिए अब आर एस एस के नेता लोग खुले आम बदमाशी करने या अपने लोगों को आतंकवादी कहलवाने का ख़तरा मोल नहीं लेना चाहते . जिस गुमनाम आर एस एस वाले ने एक प्रतिष्ठित अखबार की संवाददाता से बात की उसने साफ़ कहा कि गाँधी जी की ह्त्या वाले मामले के बाद उनका संगठन बहुत पिछड़ गया था .
इस नयी सोच के तहत अजमेर के आतंकवादी धामाके में पकड़ा गया नरेंद्र गुप्ता अपनी जान बचाने के लिए अकेला छोड़ दिया गया है . हालांकि आर एस एस के लिए यह साबित कर पाना मुश्किल है कि नरेंद्र गुप्ता का उनसे कोई लेना देना नहीं है. क्योंकि आर एस एस ने ही उसे प्रचारक के रूप में झारखण्ड में कई वर्षों तक तैनात रखा था . उसका जो सिम कार्ड बरामद हुआ है उस से उसके सम्बन्ध अजमेर धमाके के दौरान भी आर एस एस के टाप नेताओं से बने रहने की बात साबित हो गयी है . यह भी साबित हो गया है कि अपने अन्य साथियों से भी वह उसी सिम कार्ड से संपर्क में था . उसकी मक्का मस्जिद विस्फोट में हिस्सेदारी की पुष्टि हो गयी है और आर एस एस के बाकी आतंकवादी भी उसकी निशान देही पर पकडे जा रहे हैं . इस तरह से आतंकवादी हरकतों में आर एस एस के शामिल होने के पुख्ता सबूत मिल जाने के बाद उसके आला नेता परेशानी में हैं और अब उनकी नीति यह है कि जब तक पकड़ा न जाए तब तक तो आर एस एस अपने आतंकवादियों की मदद करेगा लेकिन पकडे जाने के बाद उसको कुर्बान कर देगा. आर एस एस के इस गुमनाम बड़े नेता ने सम्मानित पत्रकार को बताया कि अगर एक दिन के लिए भी आर एस एस का आतंकवादी गतिविधियों में डाइरेक्ट शामिल होता हुआ पकड़ा गया तो बहुत बुरा होगा . यानी आगे से आर एस एस का जो भी स्वयंसेवक आतंक का काम करते पकड़ा जाएगा उसका वही हश्र होगा जो अजमेर के केस में पकडे गए नरेंद्र गुप्ता का हो रहा है . यानी अब नागपुर वाले अपने उन आतंकवादियों को नहीं बचायेंगें जो पुलिस की पकड़ में आ जायेंगें
देश में हुई आतंकवादी गतिविधियों में आर एस एस के शामिल होने की पोल खुलने के बाद नागपुर के मठाधीश बहुत परेशान हैं . एक बहुत ही आदरणीय पत्रकार से बात चीत में संगठन के एक ज़िम्मेदार नेता ने बताया कि यह ठीक नहीं है क्योंकि अगर आर एस एस के कार्यक्रताओं के नाम आतंकवादी काम में जुड़ गए तो उनकी उस रणनीति की हवा निकल जायेगी जिसके तहत वे कहते पाए जाते थे कि सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं होते लेकिन सभी आतंकवादी मुसलमान होते हैं .. उनकी कोशिश रहती थी कि मुसलमानों को आतंकवाद के साचे में मुकम्मल तरीके से फिक्स रखा जाए . लेकिन महाराष्ट्र के मालेगांव, राजस्थान के अजमेर और आन्ध्र प्रदेश के मक्का मस्जिद धमाकों में आर एस एस के लोगों के पकडे जाने और उनके शामिल होने की बात के साबित हो जाने के बाद यह तो पता चल ही गया है कि सभी आतंकवादी मुसलमान नहीं होते, बल्कि यह भी कि आर एस एस ही इस देश में होने वाले आतंकवाद का एक प्रमुख नियंता है और आतंकवादी का कोई धर्म नहीं होता .. अब आर एस एस की ताज़ा लाइन अलग है. अब तक तो यह था कि अपने लोगों को आतंकवादी घटनाओं में पकडे जाने के बाद भी मदद की जायेगी . इस सोच के तहत ही जब उनकी मध्य प्रदेश की नेता, प्रज्ञा सिंह ठाकुर आतंकवादी होने के आरोप में पकड़ी गयी थीं तो उस वक़्त के आर एस एस की राजनीतिक शाखा के अध्यक्ष राजनाथ सिंह और प्रधान मंत्री पद के प्रतीक्षक, लाल कृष्ण आडवानी ने उनके समर्थन में बयान दिया था लेकिन अब बात बिगड़ रही है. प्रज्ञा ठाकुर वाले मामले में बचत की एक गुंजाइश थी . वे आर एस एस के उन संगठनों के साथ थीं जो चोरी छुपे उनका काम करते हैं और पकडे जाने पर नागपुर उनसे पल्ला झाड लेता है . लेकिन अब बात बदल गयी है . अजमेर में ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर जो धमाका हुआ था , उसका सरगना पकड़ लिया गया है और वह आर एस एस का आधिकारिक रूप से तैनात किया गया प्रचारक था. प्रचारक ,आर एस एस का सबसे महत्वपूर्ण पद्दाधिकारी होता है . सही बात यह है कि वही सारे खेल में केंदीय भूमिका अदा करता है . संगठन के सभी बड़े नेता मूल रूप से स्वयंसेवक होते हैं लेकिन जो प्रचारक होकर बी जे पी में आते हैं ,उनकी ताक़त औरों से ज्यादा होती है . गुजरात के नरेंद्र मोदी भी आर एस एस के प्रचारक रह चुके हैं . ज़ाहिर है प्रचारकों के पकडे जाने के बाद आर एस एस वालों को लगने लगा है कि अगर सारी पोल पट्टी खुल गयी तो उनका एक बार फिर वही हाल होगा जो गाँधी जी की हत्या में पकडे जाने के बाद हुआ था. उस मामले में तो उनके मुखिया ,गोलवलकर तक पकड़ लिए गए थे . बाद में छूट गए लेकिन उनके अपने बन्दे सावरकर , नाथूराम गोडसे वगैरह के ऊपर आरोप साबित हो गए थे. और उन लोगों को माकूल सज़ा भी हुई. गांधी हत्या में पकडे जाने की वजह से इस संगठन पर बहुत दिनों तक किसी को भरोसा नहीं हुआ था. वह तो १९७७ में जयप्रकाश नारायण ने इनको मुख्य धारा में लाने में मदद की. शायद इसीलिए अब आर एस एस के नेता लोग खुले आम बदमाशी करने या अपने लोगों को आतंकवादी कहलवाने का ख़तरा मोल नहीं लेना चाहते . जिस गुमनाम आर एस एस वाले ने एक प्रतिष्ठित अखबार की संवाददाता से बात की उसने साफ़ कहा कि गाँधी जी की ह्त्या वाले मामले के बाद उनका संगठन बहुत पिछड़ गया था .
इस नयी सोच के तहत अजमेर के आतंकवादी धामाके में पकड़ा गया नरेंद्र गुप्ता अपनी जान बचाने के लिए अकेला छोड़ दिया गया है . हालांकि आर एस एस के लिए यह साबित कर पाना मुश्किल है कि नरेंद्र गुप्ता का उनसे कोई लेना देना नहीं है. क्योंकि आर एस एस ने ही उसे प्रचारक के रूप में झारखण्ड में कई वर्षों तक तैनात रखा था . उसका जो सिम कार्ड बरामद हुआ है उस से उसके सम्बन्ध अजमेर धमाके के दौरान भी आर एस एस के टाप नेताओं से बने रहने की बात साबित हो गयी है . यह भी साबित हो गया है कि अपने अन्य साथियों से भी वह उसी सिम कार्ड से संपर्क में था . उसकी मक्का मस्जिद विस्फोट में हिस्सेदारी की पुष्टि हो गयी है और आर एस एस के बाकी आतंकवादी भी उसकी निशान देही पर पकडे जा रहे हैं . इस तरह से आतंकवादी हरकतों में आर एस एस के शामिल होने के पुख्ता सबूत मिल जाने के बाद उसके आला नेता परेशानी में हैं और अब उनकी नीति यह है कि जब तक पकड़ा न जाए तब तक तो आर एस एस अपने आतंकवादियों की मदद करेगा लेकिन पकडे जाने के बाद उसको कुर्बान कर देगा. आर एस एस के इस गुमनाम बड़े नेता ने सम्मानित पत्रकार को बताया कि अगर एक दिन के लिए भी आर एस एस का आतंकवादी गतिविधियों में डाइरेक्ट शामिल होता हुआ पकड़ा गया तो बहुत बुरा होगा . यानी आगे से आर एस एस का जो भी स्वयंसेवक आतंक का काम करते पकड़ा जाएगा उसका वही हश्र होगा जो अजमेर के केस में पकडे गए नरेंद्र गुप्ता का हो रहा है . यानी अब नागपुर वाले अपने उन आतंकवादियों को नहीं बचायेंगें जो पुलिस की पकड़ में आ जायेंगें
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