उच्चतम न्यायालय के निर्णय से अभिनेता संजय दत्त के नेता बनने की उम्मीदों पर जिस तरह पानी फिरा उसका यदि कोई सकारात्मक पक्ष है तो सिर्फ यह कि अब उन अनेक आपराधिक इतिहास वाले बाहुबलियों को अदालत का दरवाजा खटखटाने की हिम्मत नहीं पड़ेगी जो अपनी सजा निलंबित कराने का तानाबाना बुन रहे थे।
इसके लिए वे क्रिकेटर से नेता बने नवजोत सिंह सिद्धू के मामले को एक नजीर की तरह इस्तेमाल कर रहे थे। यदि संजय दत्त को चुनाव लडऩे की अनुमति मिल जाती तो शायद बाहुबलियों की जमात भी अपने लिए ऐसी ही सुविधा की मांग करती। इस पर संतोष जताया जा सकता है कि अब ऐसा नहीं होगा, लेकिन इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि संजय दत्त की आशाओं पर जो तुषारापात हुआ उसके लिए उनके कथित गंभीर अपराध के साथ-साथ वह न्यायिक तंत्र भी जिम्मेदार है जिसने उनसे संबंधित मामले का निपटारा करने में इतना अधिक समय ले लिया।
उन्हें 1993 के मुंबई बम विस्फोट कांड में 2007 में यानी 14 वर्ष बाद सजा सुनाई जा सकी। इस सजा के खिलाफ संजय दत्त की अपील उच्चतम न्यायालय में अभी लंबित है। यदि इस अपील का निपटारा हो गया होता तो यह स्वत: स्पष्ट हो जाता कि वह चुनाव लडऩे के पात्र हैं अथवा नहीं? संजय दत्त को टाडा कोर्ट ने छह वर्ष की सजा सुनाई है। जनप्रतिनिधित्व कानून के तहत दो या इससे अधिक वर्ष की कैद के सजायाफ्ता व्यक्ति के चुनाव में खड़े होने पर रोक का प्रावधान है, लेकिन अभी तो इसका निर्धारण होना शेष है कि संजय दत्त इतनी सजा पाने के हकदार हैं या नहीं?
जिस तरह उच्चतम न्यायालय ने यह माना कि संजय दत्त आदतन अपराधी नहीं हैं उसी तरह टाडा अदालत भी इस निष्कर्ष पर पहुंची थी कि उनका अपराध अमानवीय एवं समाज को क्षति पहुंचाने वाला नहीं है, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से इसका कोई भी लाभ उन्हें नहीं मिल सका। संजय दत्त इस आधार पर स्वयं को दिलासा दे सकते हैं कि उनके राजनीति में सक्रिय होने की संभावनाएं अभी भी बरकरार हैं।
फिलहाल यह कहना कठिन है कि टाडा कोर्ट की सजा के खिलाफ की गई संजय दत्त की अपील पर उच्चतम न्यायालय किस निष्कर्ष पर पहुंचता है, लेकिन यदि वह यह पाता है कि 18 माह की जो सजा वह भुगत चुके हैं वह पर्याप्त है तो फिर यह एक तरह की नाइंसाफी होगी। यह कहना आसान है कि संजय दत्त थोड़ा और इंतजार करें तथा कानून को अपना काम करने दें, लेकिन ध्यान रहे कि वह पिछले 14 वर्षो से यही कर रहे हैं।
नि:संदेह कानून अपनी तरह से अपना रास्ता तय करता है, लेकिन जब उसका रास्ता अनावश्यक रूप से लंबा नजर आने लगे तो फिर सवाल उठने स्वाभाविक हैं। यह न्याय तंत्र के सुगम और सक्रिय न होने का ही परिणाम है कि संजय दत्त आदतन अपराधी न होते हुए भी प्रतीक्षा करने के लिए विवश हैं। यह विवशता तो उनके समक्ष होनी चाहिए जो आदतन अपराधी हैं। यह निराशाजनक है कि अनेक आदतन अपराधी न केवल चुनाव लडऩे, बल्कि विधानमंडलों तक पहुंचने में भी सफल हैं। नि: संदेह ऐसा नहीं होना चाहिए।
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