दिल्ली के दो स्कूलों में छात्राओं की असामयिक मौत हुई। रईसों के माडर्न स्कूल वसंत विहार में पढऩे वाली आकृति भाटिया को अस्थमा का दौरा पड़ा, आरोप है कि स्कूल के अधिकारियों ने उसे अस्पताल पहुंचाने और चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने में देरी की, नतीजतन बच्ची की मौत हो गई। दूसरा हादसा उत्तरी दिल्ली के बवाना के एक सरकारी स्कूल में हुआ। 11 साल की शन्नो खातून नाम की एक बच्ची बवाना के म्युनिस्पल स्कूल में पढ़ती थी।
उसकी टीचर ने उसे धूप में खड़ा रखा, सजा दी और बच्ची बेहोश हो गई। उसके माता पिता को तलब किया गया जो उसे अस्पताल ले गए। बच्ची दो दिन तक अस्पताल में बेहोश पड़ी रही, जिसके बाद उसकी मौत हो गई। बहुत कम समय के अंतर पर दिल्ली में यह दोनों हादसे हुए। दो परिवारों से उनकी लाडली बच्चियां चली गईं। दर्द दोनों ही परिवारों में महसूस किया गया, पड़ोसी, मित्र और रिश्तेदारों ने दोनों ही परिवारों को ढाढस बंधाया।
यहां तक सब कुछ सामान्य है एक परिवार पर जब मुसीबत का पहाड़ टूटता है, तो इष्टमित्र, तकलीफ को कम करने के लिए आगे आते हैं, यह लोकाचार है। इन दोनों घटनाओं के प्रति समाज, सरकार और मीडिया का जो रवैया था, वह बहुत ही अजीब था। गरीबी-अमीरी की खाईं बहुत ही साफ तरीके से नजर आई। माडर्न स्कूल की बच्ची मौत को मीडिया ने इतना उछाल दिया कि हर हाल में टी.वी. पर शक्ल दिखाने के लिए व्याकुल शहरी मध्य वर्ग के लोग टूट पड़े।
टी.वी. चैनलों के दफ्तरों और अखबारों के रिपोर्टरों के पास फोन आने लगे कि आकृति भाटिया के केस में माडर्न स्कूल की प्रिंसिपल के गैर जिम्मेदाराना व्यवहार को विषय बनाकर कोई कार्यक्रम होने वाला है, वगैरह, वगैरह। किसी भी मीडिया कंपनी ने यह देखने की कोशिश नहीं की कि हो सकता है कि स्कूल की प्रिंसिपल की कोई गलती न हो, मौत अपरिहार्य कारणों से हुई हो। लेकिन टी आर.पी. के शिकार के लिए बदहवास टी.वी. चैनल को कौन समझाए। एक मिनट के लिए नहीं सोचा कि बिना किसी गलती के, कही स्कूल की प्रिंसिपल सूली पर तो नहीं चढ़ाई जा रही है। टी. आर.पी. के इन खूंखार शिकारियों से यह उम्मीद करना ठीक नहीं होगा।
इन्हीं लोगों ने तो आरुषि हत्या केस में उसके पिता को ही जेल में बंद करवा दिया था। यह भी नहीं सोचा कि बेचारे बाप की इकलौती बेटी को किसी ने मार डाला है और एक पुलिस वाले के गैर जिम्मेदार बयान को आखरी सच मानकर टूट पड़े और अरुचि की हत्या के गलत अभियोग के चक्कर में इतना दबाव बनाया कि पुलिस को बच्ची के पिता को जेल में डालने के लिए बहाना मिल गया। बाद में जब जांच से पता लगा कि पिता निर्दोष है तो पुलिस से ज्यादा मीडिया को खिसियाहट झेलनी पड़ी।
आकृति के मामले में भी टीवी चैनल टूट पड़े और इस बात की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी थी भारतीय न्याय व्यवस्था में कोई व्यक्ति तब तक निर्दोष है जब तक कि उसका दोष न साबित हो जाय। मीडिया के इस रुख के चलते नेता भी शुरू हो गये और एक केंद्रीय मंत्री ने वाहवाही लूटने का प्रयास किया। दूसरी तरफ शन्नो की मौत का मामला था। जिन हालात में उसकी मौत हुई थी, वह काफी हद तक साफ थी लेकिन मीडिया ने उसके साथ भेदभाव किया! शायद इसी वजह से कोई नेता भी नहीं गया, कुछ वोट याचक नेताओं को छोडक़र। जहां तक समाज के संपन्न वर्गों का सवाल है, उनकी प्रतिक्रिया ऐसी है जो हमारे अभिजात वर्ग को कई स्तरों तक बेपरवा कर देती है।
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