Thursday, June 25, 2009

पाकिस्तान तबाही की ओर

पाकिस्तान में हालात सुधरने के बजाय बिगड़ रहे हैं, इसका एक और प्रमाण है लाहौर में पुलिस प्रशिक्षण केंद्र पर आतंकियों का हमला। इस हमले के जरिये पाकिस्तान में फल-फूल रहे आतंकियों ने यह स्पष्ट कर दिया कि वे कहीं अधिक दुस्साहसी हो गए हैं और कभी भी कहीं पर भी हमला करने में समर्थ हैं।

इस स्थिति के लिए यदि कोई जिम्मेदार है तो पाकिस्तान का सत्ता तंत्र। जब कभी पाकिस्तान पर उंगलियां उठती हैं तो सरकार के स्तर पर इस तरह के बहादुरी भरे बयान देने की होड़ मच जाती है कि हम एक जिम्मेदार देश हैं, हमारे यहां कानून का शासन है और किसी को हमारे आंतरिक मामले में हस्तक्षेप करने की इजाजत नहीं दी जा सकती, लेकिन जब आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई का सवाल उठता है तो यह प्रतीति कराई जाती है कि उन पर किसी का जोर नहीं-यहां तक कि उस तथाकथित शक्तिशाली सेना का भी नहीं जो खुद को आदर्श सैन्य बल के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश करती रहती है।

स्पष्ट है कि या तो पाकिस्तान में आतंकवाद से लडऩे का इरादा नहीं या फिर वह आतंकी संगठनों को नियंत्रित करने के नाम पर दुनिया की आंखों में धूल झोंक रहा है। यदि ऐसा नहीं होता तो सरकारी स्तर पर आतंकी संगठनों का बचाव नहीं किया जाता और न ही उन्हें नाम बदलकर सक्रिय होने की सुविधा प्रदान की जाती। क्या यह एक तथ्य नहीं कि पिछले कुछ वर्षो में पाकिस्तान ने हर उस आतंकी संगठन पर लगाम लगाने के बजाय उसे नए नाम से सक्रिय होने की छूट दी जिस पर विश्व समुदाय और विशेष रूप से अमेरिका ने नजर टेढ़ी की?

वैसे तो इस तथ्य से अमेरिका भी परिचित है, लेकिन ऐसा लगता है कि उसे पाकिस्तान के बहाने सुनने में विशेष सुख मिलता है। अभी तक बुश प्रशासन पाकिस्तान के बहाने सुन रहा था। अब यही काम ओबामा प्रशासन कर रहा है और वह भी तब जब एक के बाद एक अमेरिकी अधिकारी इस निष्कर्ष पर पहुंच रहे हैं कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई अभी भी अलकायदा, तालिबान आदि आतंकी संगठनों के साथ है। यदि पाकिस्तान तबाही के रास्ते पर जा रहा है तो इसमें जितना हाथ उसके अपने नेताओं का है उतना ही अमेरिकी नेताओं का भी है।

जिस तरह मुशर्रफ अमेरिका को धोखा देने में समर्थ थे उसी तरह आसिफ अली जरदारी भी हैं। जरदारी पर भरोसा करने का मतलब है, खुद को धोखा देना। वह अपनी कुर्सी मजबूत करने के लिए उन आतंकियों को भी गले लगा सकते हैं जिन पर बेनजीर भुंट्टो की हत्या का संदेह है। यह संभव है कि अमेरिका को पाकिस्तान के मौजूदा सत्ता तंत्र की असलियत समझने में देर लगे, लेकिन आखिर भारत को अब क्या समझना शेष है? जब इसके कहीं कोई संकेत भी नहीं हैं कि पाकिस्तान अपने यहां के आतंकी संगठनों के खिलाफ कोई कदम उठाएगा तब फिर उसे ऐसा करने की नसीहत देते रहने और हाथ पर हाथ रखकर बैठने का क्या मतलब?

समझदारी का तकाजा यह है कि भारत एक ऐसे पाकिस्तान का सामना करने के लिए तैयार रहे जो विफल होने की कगार पर है। भारत को और अधिक सतर्कता इसलिए भी दिखानी चाहिए, क्योंकि उसकी सीमा के निकट आतंकियों की गतिविधियां कुछ ज्यादा ही बढ़ती जा रही हैं।

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