दिल्ली के दो स्कूलों में छात्राओं की असामयिक मौत हुई। रईसों के माडर्न स्कूल वसंत विहार में पढऩे वाली आकृति भाटिया को अस्थमा का दौरा पड़ा, आरोप है कि स्कूल के अधिकारियों ने उसे अस्पताल पहुंचाने और चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने में देरी की, नतीजतन बच्ची की मौत हो गई। दूसरा हादसा उत्तरी दिल्ली के बवाना के एक सरकारी स्कूल में हुआ। 11 साल की शन्नो खातून नाम की एक बच्ची बवाना के म्युनिस्पल स्कूल में पढ़ती थी।
उसकी टीचर ने उसे धूप में खड़ा रखा, सजा दी और बच्ची बेहोश हो गई। उसके माता पिता को तलब किया गया जो उसे अस्पताल ले गए। बच्ची दो दिन तक अस्पताल में बेहोश पड़ी रही, जिसके बाद उसकी मौत हो गई। बहुत कम समय के अंतर पर दिल्ली में यह दोनों हादसे हुए। दो परिवारों से उनकी लाडली बच्चियां चली गईं। दर्द दोनों ही परिवारों में महसूस किया गया, पड़ोसी, मित्र और रिश्तेदारों ने दोनों ही परिवारों को ढाढस बंधाया।
यहां तक सब कुछ सामान्य है एक परिवार पर जब मुसीबत का पहाड़ टूटता है, तो इष्टमित्र, तकलीफ को कम करने के लिए आगे आते हैं, यह लोकाचार है। इन दोनों घटनाओं के प्रति समाज, सरकार और मीडिया का जो रवैया था, वह बहुत ही अजीब था। गरीबी-अमीरी की खाईं बहुत ही साफ तरीके से नजर आई। माडर्न स्कूल की बच्ची मौत को मीडिया ने इतना उछाल दिया कि हर हाल में टी.वी. पर शक्ल दिखाने के लिए व्याकुल शहरी मध्य वर्ग के लोग टूट पड़े।
टी.वी. चैनलों के दफ्तरों और अखबारों के रिपोर्टरों के पास फोन आने लगे कि आकृति भाटिया के केस में माडर्न स्कूल की प्रिंसिपल के गैर जिम्मेदाराना व्यवहार को विषय बनाकर कोई कार्यक्रम होने वाला है, वगैरह, वगैरह। किसी भी मीडिया कंपनी ने यह देखने की कोशिश नहीं की कि हो सकता है कि स्कूल की प्रिंसिपल की कोई गलती न हो, मौत अपरिहार्य कारणों से हुई हो। लेकिन टी आर.पी. के शिकार के लिए बदहवास टी.वी. चैनल को कौन समझाए। एक मिनट के लिए नहीं सोचा कि बिना किसी गलती के, कही स्कूल की प्रिंसिपल सूली पर तो नहीं चढ़ाई जा रही है। टी. आर.पी. के इन खूंखार शिकारियों से यह उम्मीद करना ठीक नहीं होगा।
इन्हीं लोगों ने तो आरुषि हत्या केस में उसके पिता को ही जेल में बंद करवा दिया था। यह भी नहीं सोचा कि बेचारे बाप की इकलौती बेटी को किसी ने मार डाला है और एक पुलिस वाले के गैर जिम्मेदार बयान को आखरी सच मानकर टूट पड़े और अरुचि की हत्या के गलत अभियोग के चक्कर में इतना दबाव बनाया कि पुलिस को बच्ची के पिता को जेल में डालने के लिए बहाना मिल गया। बाद में जब जांच से पता लगा कि पिता निर्दोष है तो पुलिस से ज्यादा मीडिया को खिसियाहट झेलनी पड़ी।
आकृति के मामले में भी टीवी चैनल टूट पड़े और इस बात की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी थी भारतीय न्याय व्यवस्था में कोई व्यक्ति तब तक निर्दोष है जब तक कि उसका दोष न साबित हो जाय। मीडिया के इस रुख के चलते नेता भी शुरू हो गये और एक केंद्रीय मंत्री ने वाहवाही लूटने का प्रयास किया। दूसरी तरफ शन्नो की मौत का मामला था। जिन हालात में उसकी मौत हुई थी, वह काफी हद तक साफ थी लेकिन मीडिया ने उसके साथ भेदभाव किया! शायद इसी वजह से कोई नेता भी नहीं गया, कुछ वोट याचक नेताओं को छोडक़र। जहां तक समाज के संपन्न वर्गों का सवाल है, उनकी प्रतिक्रिया ऐसी है जो हमारे अभिजात वर्ग को कई स्तरों तक बेपरवा कर देती है।
Thursday, June 25, 2009
दंगाई के हाथ में वोटर लिस्ट
बीजेपी की राजनीति की कुछ बारीकियां सामने आई हैं। पार्टी के मुसलमान, सांसद सैयद शाहनवाज़ हुसैन की ओर से एक ख़त दिल्ली के मुसलमान मतदाताओं के यहां पहुंचा है। इस ख़त में बीजेपी उम्मीदवार को जिताने की अपील की गई हैं। यह सब कुछ सामान्य सा है इस अपील करने के अधिकार पर कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता। शाहनवाज हुसैन की इस चिट्ठी को पढक़र धर्मनिरपेक्षता की राजनीति की बड़ी कार्यकर्ता शबनम हाशमी ने जो जवाब लिखा वह चौंकाने वाला है।
उन्होंने लिखा कि लगता है कि बीजेपी वालों ने वोटर लिस्ट से नाम देखकर ऐसे लोगों के पास ही खत भेजा है तो मुसलमान लगते हों। उन्होंने आगे बताया कि इस बार तो अपने वोट मांगने के लिए मुसलमानों का नाम ढूंढा है लेकिन यही लिस्ट चुन-चुनकर घर जलाने में, हमला करने में, लूटपाट और खून खराबा करने में भी इस्तेमाल की जाती होगी। ज़ाहिर है बीजेपी के पास हर इलाके में रहने वाले मुसलमानों की फेहरिस्त है और दंगे के वक़्त उस लिस्ट का इस्तेमाल किया जाता है। शबनम हाशमी को गुजरात 2002 के नरसंहार के बाद राज्य में चले पुनर्वास और सहायता के काम में शामिल होने का तजुर्बा है।
उन्होंने बीजेपी और आर.एस.एस की मुस्लिम विरोधी राजनीति को बहुत करीब से समझा है, ज़ाहिर है उनके अनुभव से सभ्य समाज को कुछ न कुछ सीखना चाहिए। संघ बिरादरी के लोग आम तौर पर आरोप लगाते हैं कि मुसलमान उन्ही इलाकों में रहना पसंद करते है जहां मुसलमानों की घनी आबादी होती है और मुख्य धारा के लोगों से मेल जोल नहीं बढ़ाते। एक बीजेपी नेता ने तो एक बार यहां तक कह दिया कि बीजेपी को वोट देकर मुसलमान मुख्यधारा में शामिल हो सकते हैं।
यह बहुसंख्यक होने का दंभ है और इसको रोका जाना चाहिए। मुस्लिम बहुल इलाकों में ही मुसलमान इसलिए रहना पसंद करते है क्योंकि आम तौर पर दंगा फैलाने वाला संघ का आदमी मुस्लिम बहुल इलाकों में जाने की हिम्मत नहीं करता। हां गुजरात की बात अलग है। वहां के दंगाई को मालूम था कि राज्य सरकार उसके साथ है। मुख्यमंत्री उनका अपना बंदा है और पुलिस को पूरी हिदायत दे दी गई है। इसीलिए गुजरात 2002 नरसंहार में दंगाईयों ने मुहल्लों में बसे छिटपुट मुसलमानों को भी चुनचुन कर मारा था क्योंकि उनके पास वोटर लिस्ट थी।
इस तरह की सैकड़ों घटनाएं स्लाइड की तरह दिमाग से गुजर जाती है। शुरू में तो समझ में नहीं आता था कि सब होता कैसे है। बाद में समझ में आया कि दंगाइयों के पास वोटर लिस्ट होती है और उसी का इस्तेमाल किया जाता है। दंगों के इतिहास में इस तरीके का इस्तेमाल बार-बार हुआ है। 1984 के दिल्ली के सिख विरोधी दंगों में भी इसी तरकीब इस्तेमाल करके सिखों के घर जलाए गये थे। दक्षिण दिल्ली की सम्पन्न कालोनियों में इंदिरा गांधी के भक्तों ने बाकायदा आतंक का तांडव किया था, शायद सरकारी इशारे पर पुलिस मूक दर्शक बनी खड़ी थी और इंसानियत का सिर झुक गया था जरूरत इस बात की है कि देश का जागरूक मध्यवर्ग दंगा फैलाने के इन तरीकों और हर तरह के दंगाइयों के खिलाफ लामबंद हो और समाज विरोधी तत्वों को हाशिए पर लाए।
उन्होंने लिखा कि लगता है कि बीजेपी वालों ने वोटर लिस्ट से नाम देखकर ऐसे लोगों के पास ही खत भेजा है तो मुसलमान लगते हों। उन्होंने आगे बताया कि इस बार तो अपने वोट मांगने के लिए मुसलमानों का नाम ढूंढा है लेकिन यही लिस्ट चुन-चुनकर घर जलाने में, हमला करने में, लूटपाट और खून खराबा करने में भी इस्तेमाल की जाती होगी। ज़ाहिर है बीजेपी के पास हर इलाके में रहने वाले मुसलमानों की फेहरिस्त है और दंगे के वक़्त उस लिस्ट का इस्तेमाल किया जाता है। शबनम हाशमी को गुजरात 2002 के नरसंहार के बाद राज्य में चले पुनर्वास और सहायता के काम में शामिल होने का तजुर्बा है।
उन्होंने बीजेपी और आर.एस.एस की मुस्लिम विरोधी राजनीति को बहुत करीब से समझा है, ज़ाहिर है उनके अनुभव से सभ्य समाज को कुछ न कुछ सीखना चाहिए। संघ बिरादरी के लोग आम तौर पर आरोप लगाते हैं कि मुसलमान उन्ही इलाकों में रहना पसंद करते है जहां मुसलमानों की घनी आबादी होती है और मुख्य धारा के लोगों से मेल जोल नहीं बढ़ाते। एक बीजेपी नेता ने तो एक बार यहां तक कह दिया कि बीजेपी को वोट देकर मुसलमान मुख्यधारा में शामिल हो सकते हैं।
यह बहुसंख्यक होने का दंभ है और इसको रोका जाना चाहिए। मुस्लिम बहुल इलाकों में ही मुसलमान इसलिए रहना पसंद करते है क्योंकि आम तौर पर दंगा फैलाने वाला संघ का आदमी मुस्लिम बहुल इलाकों में जाने की हिम्मत नहीं करता। हां गुजरात की बात अलग है। वहां के दंगाई को मालूम था कि राज्य सरकार उसके साथ है। मुख्यमंत्री उनका अपना बंदा है और पुलिस को पूरी हिदायत दे दी गई है। इसीलिए गुजरात 2002 नरसंहार में दंगाईयों ने मुहल्लों में बसे छिटपुट मुसलमानों को भी चुनचुन कर मारा था क्योंकि उनके पास वोटर लिस्ट थी।
इस तरह की सैकड़ों घटनाएं स्लाइड की तरह दिमाग से गुजर जाती है। शुरू में तो समझ में नहीं आता था कि सब होता कैसे है। बाद में समझ में आया कि दंगाइयों के पास वोटर लिस्ट होती है और उसी का इस्तेमाल किया जाता है। दंगों के इतिहास में इस तरीके का इस्तेमाल बार-बार हुआ है। 1984 के दिल्ली के सिख विरोधी दंगों में भी इसी तरकीब इस्तेमाल करके सिखों के घर जलाए गये थे। दक्षिण दिल्ली की सम्पन्न कालोनियों में इंदिरा गांधी के भक्तों ने बाकायदा आतंक का तांडव किया था, शायद सरकारी इशारे पर पुलिस मूक दर्शक बनी खड़ी थी और इंसानियत का सिर झुक गया था जरूरत इस बात की है कि देश का जागरूक मध्यवर्ग दंगा फैलाने के इन तरीकों और हर तरह के दंगाइयों के खिलाफ लामबंद हो और समाज विरोधी तत्वों को हाशिए पर लाए।
प्रधानमंत्री पद और राजनीतिक पैंतरे
लोकसभा चुनाव के इस मौसम में लगभग आधी सीटों पर वोट डाले जा चुके हैं बाकी दो सीटों पर भी अगले दो हफ़्ते में मतदान हो जायेगा। राजनीतिक दलों के नेताओं को मालूम है कि जो स्थिति लोकसभा चुनाव 2004 के बाद थी, वही स्थिति इस बार भी है।
कुछ पार्टियों की सीटें कहीं बढ़ेंगी तो इस की जगह बढ़ेंगी। ज़ाहिर है सत्ता के लिए गठजोड़ और जोड़तोड़ बड़े पैमाने पर होगा हर पार्टी ने मिडवे अपनी राजनीति की धार दम करने के उïद्देश्य से बयानों में कुछ एडजस्टमेंट किया है। बीजेपी के अब तक के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लालकृष्ण अडवाणी के सामने संकट के बादल घिरने लगे हैं बीजेपी ने कहना शुरू कर दिया है कि वह मोदी को भी प्रधानमंत्री बना सकती है।
आधिकारिक प्रवक्त्ता ने भी इस बात को औपचारिक ब्रीफिंग में मीडिया से बताकर आडवाणी/मोदी विवाद को शंका के दायरे से बाहर कर दिया है, क्योंकि बीजेपी के मोदी गुट को यह भरोसा है कि आडवाणी से ज्य़ादा मोदी के नाम पर वोट लिए जा सकते हैं। संभवित नतीजों के मद्देनजऱ, राष्टï्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता शरद पवार ने फिर कांग्रेस की जीत की भविष्यवाणी करना शुरु कर दिया है। इस के पहले वह नवीन पटनायक, अमर सिंह, प्रकाश कारात आदि किंग मेकर नेताओं से मेलजोल बढ़ा रहे थे कि अगर गैरकांग्रेस, गैरभाजपा प्रधानमंत्री की सरकार हुई तो उनका नाम चल जाये लेकिन दो दौर के मतदान और बाकी दौर के अनुमान ने उनकी महत्वाकांक्षा की लगाम लगाने में मदद किया है।
एक शिगुफा जो अभी कुछ दिन पहले बीजेपी नेेता लालकृण आडवाणी ने छोड़ा था वह अब माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव प्रकाश करात की ओर से आ रहा है। श्री करात ने कहा है कि प्रधानमंत्री ऐसा हो जो लोकसभा का सदस्य हो। अब कोई प्रकाश करात से पूछे कि इस बयान का क्या सैद्घांतिक आधार है। ज़ाहिर तौर पर यह बयान मनमोहन सिंह को रोकने के उद्देश्य से दिया गया लगता है।
मनमोहन सिंह राज्यसभा के सदस्य हैं और 16 मई के बाद भी वे लोकसभा के सदस्य नहीं बन पाएंगे क्योंकि वह चुनाव ही नहीं लड़ रहे हैं। मनमोहन सिंह को रोकने की प्रकाश करात की कोशिश इतनी मजबूत है कि वे किसी भी हद तक जा सकते हैं। यहां तक कि आडवाणी की लाइन भी ले सकते हैं। आडवाणी ने भी मनमोहन सिंह को रोकने की गरज़ से ही यह बात की थी। बयानों के इस जंगल से एक बात तो समझ में आनी शुरू हो गई है कि मनमोहन सिंह के दो सबसे बड़े शत्रु यह मानने लगे हैं कि कांग्रेस की सरकार बनने की संभावना बाकी राजनीतिक गठबंधंनों से अधिक है और मनमोहन सिंह को रोकने की पेशबंदी शुरू हो गई है।
एक दिलचस्प पहलू और विकासित हो रहा है एक बड़े अखबार के आमतौर पर भरोसेमंद संवाद्दाता ने खबर दी है कि माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी में थोड़ा विवाद है। कांग्रेस पार्टी के प्रति प्रकाश करात के रूख को पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री और पार्टी के मुखिया की मंजूरी नहीं है। अगर यह सच है तो प्रकाश करात के सामने बड़ी मुश्किल पेश आ सकती है उनकी पार्टी की ताकत तो पश्चिम बंगाल से ही आती है और वहां के तो सबसे आदरणीय नेता उनकी बात को ठीक नहीं समझ रहे हैं तो यह राजनीतिक संकट की शुरूआत का संकेत है।
वैसे भी आम राजनीतिक समझ के हिसाब से प्रकाश करात की बात अजीब लगती है। जब सैद्घांतिक रूप से उनको प्रधानमंत्री पद पर वही व्यक्ति मंजूर है, जो लोकसभा का सदस्य हो, तो साढ़े चार साल तक मनमोहन सिंह का समर्थन क्यों किया। क्या उनकी पार्टी के किसी मंच पर इस विषय पर चर्चा हुई या प्रधानमंत्री पद पर लोकसभा सदस्य को ही नियुक्त किए जाने वाला विचार उनका अपना है। या कहीं वह अपने ही किसी साथी को चेतावनी दे रहे हैं कि प्रधानमंत्री पद पर बैठने की नौबत आई तो कोई और न उम्मीदवार बन जाय।
कुछ पार्टियों की सीटें कहीं बढ़ेंगी तो इस की जगह बढ़ेंगी। ज़ाहिर है सत्ता के लिए गठजोड़ और जोड़तोड़ बड़े पैमाने पर होगा हर पार्टी ने मिडवे अपनी राजनीति की धार दम करने के उïद्देश्य से बयानों में कुछ एडजस्टमेंट किया है। बीजेपी के अब तक के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लालकृष्ण अडवाणी के सामने संकट के बादल घिरने लगे हैं बीजेपी ने कहना शुरू कर दिया है कि वह मोदी को भी प्रधानमंत्री बना सकती है।
आधिकारिक प्रवक्त्ता ने भी इस बात को औपचारिक ब्रीफिंग में मीडिया से बताकर आडवाणी/मोदी विवाद को शंका के दायरे से बाहर कर दिया है, क्योंकि बीजेपी के मोदी गुट को यह भरोसा है कि आडवाणी से ज्य़ादा मोदी के नाम पर वोट लिए जा सकते हैं। संभवित नतीजों के मद्देनजऱ, राष्टï्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता शरद पवार ने फिर कांग्रेस की जीत की भविष्यवाणी करना शुरु कर दिया है। इस के पहले वह नवीन पटनायक, अमर सिंह, प्रकाश कारात आदि किंग मेकर नेताओं से मेलजोल बढ़ा रहे थे कि अगर गैरकांग्रेस, गैरभाजपा प्रधानमंत्री की सरकार हुई तो उनका नाम चल जाये लेकिन दो दौर के मतदान और बाकी दौर के अनुमान ने उनकी महत्वाकांक्षा की लगाम लगाने में मदद किया है।
एक शिगुफा जो अभी कुछ दिन पहले बीजेपी नेेता लालकृण आडवाणी ने छोड़ा था वह अब माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव प्रकाश करात की ओर से आ रहा है। श्री करात ने कहा है कि प्रधानमंत्री ऐसा हो जो लोकसभा का सदस्य हो। अब कोई प्रकाश करात से पूछे कि इस बयान का क्या सैद्घांतिक आधार है। ज़ाहिर तौर पर यह बयान मनमोहन सिंह को रोकने के उद्देश्य से दिया गया लगता है।
मनमोहन सिंह राज्यसभा के सदस्य हैं और 16 मई के बाद भी वे लोकसभा के सदस्य नहीं बन पाएंगे क्योंकि वह चुनाव ही नहीं लड़ रहे हैं। मनमोहन सिंह को रोकने की प्रकाश करात की कोशिश इतनी मजबूत है कि वे किसी भी हद तक जा सकते हैं। यहां तक कि आडवाणी की लाइन भी ले सकते हैं। आडवाणी ने भी मनमोहन सिंह को रोकने की गरज़ से ही यह बात की थी। बयानों के इस जंगल से एक बात तो समझ में आनी शुरू हो गई है कि मनमोहन सिंह के दो सबसे बड़े शत्रु यह मानने लगे हैं कि कांग्रेस की सरकार बनने की संभावना बाकी राजनीतिक गठबंधंनों से अधिक है और मनमोहन सिंह को रोकने की पेशबंदी शुरू हो गई है।
एक दिलचस्प पहलू और विकासित हो रहा है एक बड़े अखबार के आमतौर पर भरोसेमंद संवाद्दाता ने खबर दी है कि माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी में थोड़ा विवाद है। कांग्रेस पार्टी के प्रति प्रकाश करात के रूख को पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री और पार्टी के मुखिया की मंजूरी नहीं है। अगर यह सच है तो प्रकाश करात के सामने बड़ी मुश्किल पेश आ सकती है उनकी पार्टी की ताकत तो पश्चिम बंगाल से ही आती है और वहां के तो सबसे आदरणीय नेता उनकी बात को ठीक नहीं समझ रहे हैं तो यह राजनीतिक संकट की शुरूआत का संकेत है।
वैसे भी आम राजनीतिक समझ के हिसाब से प्रकाश करात की बात अजीब लगती है। जब सैद्घांतिक रूप से उनको प्रधानमंत्री पद पर वही व्यक्ति मंजूर है, जो लोकसभा का सदस्य हो, तो साढ़े चार साल तक मनमोहन सिंह का समर्थन क्यों किया। क्या उनकी पार्टी के किसी मंच पर इस विषय पर चर्चा हुई या प्रधानमंत्री पद पर लोकसभा सदस्य को ही नियुक्त किए जाने वाला विचार उनका अपना है। या कहीं वह अपने ही किसी साथी को चेतावनी दे रहे हैं कि प्रधानमंत्री पद पर बैठने की नौबत आई तो कोई और न उम्मीदवार बन जाय।
जेल, नरेंद्र मोदी और नरसंहार
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को अब डर लग रहा है कि शायद गुजरात के 2002 के नरसंहार में उनके शामिल होने की बात को छुपाया नहीं जा सकता। अब तक तो जितनी भी जांच हुई है, वह सब मोदी के ही बंदों ने कीं इसीलिए उसमें उनके फंसने का सवाल ही नहीं था। एक और जांच रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव ने करवाई थी, जिसे बीजेपी के नेताओं और पत्रकारों ने मजाक में उड़ा दिया था।
दरअसल लालू प्रसाद की अपनी विश्वसनीयता भी ऐसी नहीं है कि उनकी जांच को गंभीरता से लिया जाता, लेकिन इस बार मामला अलग है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश से जांच होने वाली है और जांच करने वाला अफसर भी ऐसा है जिसे खरीदा नहीं जा सकता। सी बी आई के पूर्व निदेशक राघवन को जांच का जिम्मा सौंपा गया है जिनका अब तक का रिकार्ड एक ईमानदार और आत्म सम्मानी अफसर का है।
यानी अब 2002 के नरसंहार में मोदी के शामिल होने के शक पर सही जांच की संभावना बढ़ गई है। मोदी भी जानते हैं और दुनिया भी जानती है कि गोधरा और उससे संबंधित नरसंहार के मुख्य प्रायोजक नरेंद्र मोदी ही हैं। जब राघवन जैसा ईमानदार अफसर जांच करेगा तो मोदी के बच निकलने की संभावना बहुत कम रहेगी।
इसी सच्चाई के नतीजों से घबरा कर मोदी और बीजेपी के आडवाणी गुट के नेता सुप्रीम कोर्ट के आदेश को राजनीतिक रंग देने की कोशिश कर रहे हैं। बीजेपी के नेता ऐसा माहौल बनाने की कोशिश कर रहे हैं जिससे लगे कि मोदी के खिलाफ जांच का काम कांग्रेस पार्टी और केंद्र सरकार करवा रही है, जबकि जंाच सुप्रीम कोर्ट के आदेश से हो रही है। नरेंद्र मोदी ने एक चुनावी सभा में कहा कि कांग्रेस उन्हें जेल में डालने की साज़िश रच रही है।
हो सकता है कि वे तीन महीनों बाद जेल की सलाखों के अंदर हों। मोदी का यह बयान बहुत ही गैर जिम्मेदार है। इस बयान का भावार्थ यह है कि सुप्रीम कोर्ट के काम को कांग्रेस साजिश करके प्रभावित कर सकती है। शायद मोदी को भी मालूम हो कि यह बयान सुप्रीम कोर्ट की अवमानना है और अगर माननीय सुप्रीम कोर्ट ने उनके इस बयान पर कारवाई करने का फैसला कर लिया तो तीन महीने तो दूर की बात है, मोदी को अभी जेल की सज़ा हो जाएगी। जहां तक मोदी के अपने जेल जाने की बात कहकर सहानुभूति बटोरने की बात है, वह बेमतलब है।
मोदी जैसे व्यक्ति को तो 2002 के बाद ही जेल में बंद कर दिया जाना चाहिए था। राजनीति की बात का न्यायालय के आदेशों पर थोपने की कोशिश हर फासिस्ट पार्टी करती है इसलिए बीजेपी की इस कोशिश के पीछे भी उसकी नीत्शेवादी राजनीतिक सोच ही है।हिटलर की नैशनलिस्ट सोशलिस्ट पार्टी भी ऐसे कारनामों के जरिये, अदालतों पर दबाव डालती थी। जो बात उत्साह वद्र्घक है वह यह कि गुजरात नरसंहार के मामले में सुप्रीम कोर्ट का सकारात्मक दखल बहुत ही अहम है।
अब तक तो दंगों में मारे गए व्यक्तियों का कहीं कोई हिसाब ही नहीं होता था और कभी भी किसी दंगाई को सजा नहीं होई थी। सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद गुजरात के नरसंहार की जांच के नतीजों के बाद शायद दंगाईयों की समझ मे आ जाएगा कि दंगा कराने वालों तक भी कानून की पहुंच होती है और अगर नरेंद्र मोदी को गुजरात नरसंहार 2002 के अपराध में सजा हो गई तो आगे दंगाइयों के हौंसलों को पस्त करने में मदद मिलेगी।
दरअसल लालू प्रसाद की अपनी विश्वसनीयता भी ऐसी नहीं है कि उनकी जांच को गंभीरता से लिया जाता, लेकिन इस बार मामला अलग है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश से जांच होने वाली है और जांच करने वाला अफसर भी ऐसा है जिसे खरीदा नहीं जा सकता। सी बी आई के पूर्व निदेशक राघवन को जांच का जिम्मा सौंपा गया है जिनका अब तक का रिकार्ड एक ईमानदार और आत्म सम्मानी अफसर का है।
यानी अब 2002 के नरसंहार में मोदी के शामिल होने के शक पर सही जांच की संभावना बढ़ गई है। मोदी भी जानते हैं और दुनिया भी जानती है कि गोधरा और उससे संबंधित नरसंहार के मुख्य प्रायोजक नरेंद्र मोदी ही हैं। जब राघवन जैसा ईमानदार अफसर जांच करेगा तो मोदी के बच निकलने की संभावना बहुत कम रहेगी।
इसी सच्चाई के नतीजों से घबरा कर मोदी और बीजेपी के आडवाणी गुट के नेता सुप्रीम कोर्ट के आदेश को राजनीतिक रंग देने की कोशिश कर रहे हैं। बीजेपी के नेता ऐसा माहौल बनाने की कोशिश कर रहे हैं जिससे लगे कि मोदी के खिलाफ जांच का काम कांग्रेस पार्टी और केंद्र सरकार करवा रही है, जबकि जंाच सुप्रीम कोर्ट के आदेश से हो रही है। नरेंद्र मोदी ने एक चुनावी सभा में कहा कि कांग्रेस उन्हें जेल में डालने की साज़िश रच रही है।
हो सकता है कि वे तीन महीनों बाद जेल की सलाखों के अंदर हों। मोदी का यह बयान बहुत ही गैर जिम्मेदार है। इस बयान का भावार्थ यह है कि सुप्रीम कोर्ट के काम को कांग्रेस साजिश करके प्रभावित कर सकती है। शायद मोदी को भी मालूम हो कि यह बयान सुप्रीम कोर्ट की अवमानना है और अगर माननीय सुप्रीम कोर्ट ने उनके इस बयान पर कारवाई करने का फैसला कर लिया तो तीन महीने तो दूर की बात है, मोदी को अभी जेल की सज़ा हो जाएगी। जहां तक मोदी के अपने जेल जाने की बात कहकर सहानुभूति बटोरने की बात है, वह बेमतलब है।
मोदी जैसे व्यक्ति को तो 2002 के बाद ही जेल में बंद कर दिया जाना चाहिए था। राजनीति की बात का न्यायालय के आदेशों पर थोपने की कोशिश हर फासिस्ट पार्टी करती है इसलिए बीजेपी की इस कोशिश के पीछे भी उसकी नीत्शेवादी राजनीतिक सोच ही है।हिटलर की नैशनलिस्ट सोशलिस्ट पार्टी भी ऐसे कारनामों के जरिये, अदालतों पर दबाव डालती थी। जो बात उत्साह वद्र्घक है वह यह कि गुजरात नरसंहार के मामले में सुप्रीम कोर्ट का सकारात्मक दखल बहुत ही अहम है।
अब तक तो दंगों में मारे गए व्यक्तियों का कहीं कोई हिसाब ही नहीं होता था और कभी भी किसी दंगाई को सजा नहीं होई थी। सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद गुजरात के नरसंहार की जांच के नतीजों के बाद शायद दंगाईयों की समझ मे आ जाएगा कि दंगा कराने वालों तक भी कानून की पहुंच होती है और अगर नरेंद्र मोदी को गुजरात नरसंहार 2002 के अपराध में सजा हो गई तो आगे दंगाइयों के हौंसलों को पस्त करने में मदद मिलेगी।
कांग्रेस और राजनीतिक आत्महत्या की प्रवृत्ति
1989 के चुनाव में पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय विश्वनाथ प्रताप सिंह ने बोफोर्स तोप दलाली केस को चुनावी मुद्दा बनाने में सफलता हासिल की थी। नतीजा यह हुआ कि वे विपक्ष की मदद से प्रधानमंत्री बन गए। उनको कांग्रेस विरोधी सभी महत्वपूर्ण पार्टियों का समर्थन मिला था। माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और भारतीय जनता पार्टी ने वी पी सिंह की सरकार को बाहर से समर्थन दिया था।
चुनाव प्रचार के दौरान वीपी सिंह ने दावा किया था कि 100 दिन के अंदर बोफोर्स दलाली केस के अभियुक्तों की शिनाख़्त हो जाएगी और दलाली की रकम प्रधानमंत्री राहत कोष में जमा हो जाएगी। लेकिन कुछ नहीं हुआ। पिछले बीस वर्षो से कई सरकारें आती जाती रहीं लेकिन बोफोर्स का मद्दा ज्यों का त्यों है। जहां तक बोफोर्स दलाली की बात है, आम धारणा है कि इटली के व्यापारी ओतावियो क्वात्रोची ने दलाली ली थी और उनके राजीव गांधी के सुसराल वालों से बहुत अच्छे संबंध थे। यानी ठीकरा राजीव गांधी के परिवार के सिर पर फोड़ा जा सकता है।
बोफोर्स दलाली केस पिछले बीस वर्षो से बीजेपी के नेताओं का बहुत ही प्रिय विषय रहा है। इस चाबुक का इस्तेमाल करके बीजेपी वाले राजीव गांधी की पत्नी और बच्चों को डराते रहते हैं और इस मुद्दे का यही इस्तेमाल है। इस बार भी यह मुद्दा चुनाव प्रचार के मध्य में एक बार फिर उठ गया है। ताज्जुब यह है कि सरकार की तरफ से इसे उठाया गया है। कुछ लोगों को शक है कि कांग्रेस के अंदर ही नेताओं का एक गुट है जो सोनिया गांधी को चेतावनी देना चाह रहा है कि अगर उन्होंने इस गुट को हाशिए पर लाने की कोशिश की तो नतीजा ठीक नहीं होगा।
जाहिर है कि कांग्रेस नेतृत्व जानबूझ कर तो इस मामले को ऐन चुनाव प्रचार के सीजन में सामने नहीं लाना चाहेगा। और अगर कांग्रेस के नेतृत्व ने सोची समझी राजनीति के तहत इस मामले को आगे करने की कोशिश की है, तो इसमे कोई शक नहीं कि कांग्रेस पार्टी में राजनीतिक हत्या करने की इच्छा बहुत ही प्रबल है। जहां तक चुनाव नतीजों की बात है, बोफोर्स केस की अब यह औक़ात नहीं है कि वह उसे प्रभावित कर सके। 1987-88 में जब यह मामला सामने आया था, तो 65 करोड़ रूपये की दलाली बड़ी रकम माना जाता था लेकिन पिछले बीस वर्षो मे सत्ताधारी पार्टियों के नेताओं की दलाली के जो कारनामे सामने आए हैं, उसके सामने 65 करोड़ की कोई अहमियत नहीं रह गई है।
1989 में जब वीपी सिंह और भारतीय जनता पार्टी ने बोफोर्स को चुनावी मुद्दा बनाया था तो बीजेपी भी अपेक्षाकृत ईमानदार पार्टी मानी जाती थी और वीपी सिंह की तो ईमानदार नेता की छवि थी ही। लेकिन आज बीस साल बाद जब बीजेपी के नेताओं की दलाली की कहानियां सुनाई पड़ती हैं तो लगता है कि उनकी घूस लेने की क्षमता बहुत बड़ी है। एक पूर्व प्रधानमंत्री के तथाकथित दामाद और एक स्वर्गीय भाजपाई मंत्री और तिकड़म बाज़ के दलाली संबंधी कारनामों के सामने बोफोर्स दलाली की र$कम फुटकर पैसे की हैसियत रखती है।
इसलिए बीजेपी में यह राजनीतिक ता$कत नहीं है कि वह बोफोर्स या किसी भी दलाली के सौदे को चुनावी मुद्दा बना सके। बीजेपी के अपने दलाली के कारनामे ऐसे हैं कि जिस के सामने बोफोर्स दलाली मामला एक दम बौना लगेगा। हां इस मुद्दे का इस्तेमाल बीजेपी वाले अखबारों और टीवी चैनलों में भगवा पत्रकारों के सहयोग से हड़बोंग मचाने में कर सकते हैं। जहां तक कांग्रेस का सवाल है, इस के नेता इस मामले को वर्तमान चुनाव के अंत तक टाल सकते थे लेकिन उन्होंने राजनीतिक आत्महत्या करने का फैसला किया। वैसे भी इस देश में राजनीतिक आत्माहत्या करने की कोई पाबंदी नहीं है।
चुनाव प्रचार के दौरान वीपी सिंह ने दावा किया था कि 100 दिन के अंदर बोफोर्स दलाली केस के अभियुक्तों की शिनाख़्त हो जाएगी और दलाली की रकम प्रधानमंत्री राहत कोष में जमा हो जाएगी। लेकिन कुछ नहीं हुआ। पिछले बीस वर्षो से कई सरकारें आती जाती रहीं लेकिन बोफोर्स का मद्दा ज्यों का त्यों है। जहां तक बोफोर्स दलाली की बात है, आम धारणा है कि इटली के व्यापारी ओतावियो क्वात्रोची ने दलाली ली थी और उनके राजीव गांधी के सुसराल वालों से बहुत अच्छे संबंध थे। यानी ठीकरा राजीव गांधी के परिवार के सिर पर फोड़ा जा सकता है।
बोफोर्स दलाली केस पिछले बीस वर्षो से बीजेपी के नेताओं का बहुत ही प्रिय विषय रहा है। इस चाबुक का इस्तेमाल करके बीजेपी वाले राजीव गांधी की पत्नी और बच्चों को डराते रहते हैं और इस मुद्दे का यही इस्तेमाल है। इस बार भी यह मुद्दा चुनाव प्रचार के मध्य में एक बार फिर उठ गया है। ताज्जुब यह है कि सरकार की तरफ से इसे उठाया गया है। कुछ लोगों को शक है कि कांग्रेस के अंदर ही नेताओं का एक गुट है जो सोनिया गांधी को चेतावनी देना चाह रहा है कि अगर उन्होंने इस गुट को हाशिए पर लाने की कोशिश की तो नतीजा ठीक नहीं होगा।
जाहिर है कि कांग्रेस नेतृत्व जानबूझ कर तो इस मामले को ऐन चुनाव प्रचार के सीजन में सामने नहीं लाना चाहेगा। और अगर कांग्रेस के नेतृत्व ने सोची समझी राजनीति के तहत इस मामले को आगे करने की कोशिश की है, तो इसमे कोई शक नहीं कि कांग्रेस पार्टी में राजनीतिक हत्या करने की इच्छा बहुत ही प्रबल है। जहां तक चुनाव नतीजों की बात है, बोफोर्स केस की अब यह औक़ात नहीं है कि वह उसे प्रभावित कर सके। 1987-88 में जब यह मामला सामने आया था, तो 65 करोड़ रूपये की दलाली बड़ी रकम माना जाता था लेकिन पिछले बीस वर्षो मे सत्ताधारी पार्टियों के नेताओं की दलाली के जो कारनामे सामने आए हैं, उसके सामने 65 करोड़ की कोई अहमियत नहीं रह गई है।
1989 में जब वीपी सिंह और भारतीय जनता पार्टी ने बोफोर्स को चुनावी मुद्दा बनाया था तो बीजेपी भी अपेक्षाकृत ईमानदार पार्टी मानी जाती थी और वीपी सिंह की तो ईमानदार नेता की छवि थी ही। लेकिन आज बीस साल बाद जब बीजेपी के नेताओं की दलाली की कहानियां सुनाई पड़ती हैं तो लगता है कि उनकी घूस लेने की क्षमता बहुत बड़ी है। एक पूर्व प्रधानमंत्री के तथाकथित दामाद और एक स्वर्गीय भाजपाई मंत्री और तिकड़म बाज़ के दलाली संबंधी कारनामों के सामने बोफोर्स दलाली की र$कम फुटकर पैसे की हैसियत रखती है।
इसलिए बीजेपी में यह राजनीतिक ता$कत नहीं है कि वह बोफोर्स या किसी भी दलाली के सौदे को चुनावी मुद्दा बना सके। बीजेपी के अपने दलाली के कारनामे ऐसे हैं कि जिस के सामने बोफोर्स दलाली मामला एक दम बौना लगेगा। हां इस मुद्दे का इस्तेमाल बीजेपी वाले अखबारों और टीवी चैनलों में भगवा पत्रकारों के सहयोग से हड़बोंग मचाने में कर सकते हैं। जहां तक कांग्रेस का सवाल है, इस के नेता इस मामले को वर्तमान चुनाव के अंत तक टाल सकते थे लेकिन उन्होंने राजनीतिक आत्महत्या करने का फैसला किया। वैसे भी इस देश में राजनीतिक आत्माहत्या करने की कोई पाबंदी नहीं है।
स्कूल प्रशासन का शोषण
दिल्ली उच्च न्यायालय, अभिभावकों और समाचार माध्यमों के दबाव में शिक्षा निदेशालय अब भले ही फीस बढ़ोत्तरी के मुद्दे पर फरमान जारी कर रहा है, लेकिन इसका तब तक कोई मतलब नहीं जब तक कि स्कूल फीस बढ़ाने का अपना कदम वापस नहीं ले लेते। स्कूलों को अपना लेखा-जोखा हर हाल में तीस अप्रैल तक पेश करने के निदेशालय के फरमान से यह स्पष्ट नहीं होता कि क्या इस कदम से फीस वृद्धि पर वाकई कोई अंकुश लग पाएगा?
बेहतर तो यह होता कि निदेशालय पहले बढ़ाई गई फीस को वापस लेने के लिए स्कूलों पर दबाव बनाता। पीड़ित अभिभावकों की मांग भी यही थी, लेकिन ऐसा न होने से यह आशंका गलत नहीं लगती कि कहीं चुनावी माहौल को देखते हुए निदेशालय ने यह कदम लोगों को बरगलाने के लिए तो नहीं उठाया? अगर ऐसा है तो इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि चुनाव खत्म होने के बाद इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया जाएगा। यदि शिक्षा निदेशालय की नीयत वाकई साफ है तो उसे सबसे पहले अभिभावकों को राहत देने वाला कदम उठाना चाहिए।
यहां सवाल उठता है कि क्या निदेशालय स्कूल प्रबंधनों पर ऐसा दबाव बनाने में सक्षम है? शिक्षा माफियाओं के उच्चस्तरीय दबाव को देखते हुए क्या वह ऐसा करना चाहेगा? यह सवाल भी कम पेचीदा नहीं कि जिन अभिभावकों ने स्कूलों के दबाव में पहले ही बढ़ी हुई फीस और एरियर की धनराशि जमा करा दी है क्या उन्हें यह रकम लौटाई जाएगी? फीस वृद्धि के मसले पर आज अभिभावक भले ही आरपार की लड़ाई के मूड में हैं, लेकिन देखा जाए तो आमतौर पर अधिकांश अभिभावक अपने बच्चों को किसी मुसीबत में नहीं डालना चाहते।
यही कारण है कि अधिकांश अभिभावकों ने कोई न कोई जुगत करके बढ़ी फीस स्कूलों के पास जमा करा दी है। ऐसी स्थिति में निदेशालय को इस पर भी गंभीरता से विचार करना चाहिए ताकि राहत मिलने की स्थिति में सभी अभिभावकों को इसका लाभ मिल सके। फिलहाल तो दिल्ली सहित एनसीआर के शहरों से संबंधित राज्यों की सरकारों को भी फीस वृद्धि के मुद्दे पर शिक्षा प्राधिकरणों पर भरपूर दबाव डालना चाहिए जिससे कि वे स्कूलों पर लगाम लगा सकें, अन्यथा उन्हें अभिभावकों के असंतोष का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए।
बेहतर तो यह होता कि निदेशालय पहले बढ़ाई गई फीस को वापस लेने के लिए स्कूलों पर दबाव बनाता। पीड़ित अभिभावकों की मांग भी यही थी, लेकिन ऐसा न होने से यह आशंका गलत नहीं लगती कि कहीं चुनावी माहौल को देखते हुए निदेशालय ने यह कदम लोगों को बरगलाने के लिए तो नहीं उठाया? अगर ऐसा है तो इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि चुनाव खत्म होने के बाद इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया जाएगा। यदि शिक्षा निदेशालय की नीयत वाकई साफ है तो उसे सबसे पहले अभिभावकों को राहत देने वाला कदम उठाना चाहिए।
यहां सवाल उठता है कि क्या निदेशालय स्कूल प्रबंधनों पर ऐसा दबाव बनाने में सक्षम है? शिक्षा माफियाओं के उच्चस्तरीय दबाव को देखते हुए क्या वह ऐसा करना चाहेगा? यह सवाल भी कम पेचीदा नहीं कि जिन अभिभावकों ने स्कूलों के दबाव में पहले ही बढ़ी हुई फीस और एरियर की धनराशि जमा करा दी है क्या उन्हें यह रकम लौटाई जाएगी? फीस वृद्धि के मसले पर आज अभिभावक भले ही आरपार की लड़ाई के मूड में हैं, लेकिन देखा जाए तो आमतौर पर अधिकांश अभिभावक अपने बच्चों को किसी मुसीबत में नहीं डालना चाहते।
यही कारण है कि अधिकांश अभिभावकों ने कोई न कोई जुगत करके बढ़ी फीस स्कूलों के पास जमा करा दी है। ऐसी स्थिति में निदेशालय को इस पर भी गंभीरता से विचार करना चाहिए ताकि राहत मिलने की स्थिति में सभी अभिभावकों को इसका लाभ मिल सके। फिलहाल तो दिल्ली सहित एनसीआर के शहरों से संबंधित राज्यों की सरकारों को भी फीस वृद्धि के मुद्दे पर शिक्षा प्राधिकरणों पर भरपूर दबाव डालना चाहिए जिससे कि वे स्कूलों पर लगाम लगा सकें, अन्यथा उन्हें अभिभावकों के असंतोष का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए।
राजनीति और हवाई नेता
संजय दत्त को समाजवादी पार्टी ने महासचिव बना दिया। समाजवादी पार्टी को इस देश में समाजवादी आंदोलन और लोहिया की विरासत का ट्रस्टी माना जाता है। संयुक्त समाजवादी पार्टी प्रजा सोशलिस्ट पार्टी या अन्य समाजवादी धाराओं के लोग पूरे देश में कहीं न कहीं बिखरे पड़े हैं। कुछ लोग हाशिए पर आ गये हैं। तो बाकी लोग कांग्रेस और भाजपा जैसी पार्टियों की शरण में हैं।
कुछ लोगों ने अपनी राजनीतिक पार्टियां बना रखी हैं। और मौका मिलते ही सत्ता के रथ पर सवार हो जाते हैं। समाजवादी पार्टी के नेता भी इसी ताक में रहते हैं, लेकिन अभी उत्तर प्रदेश के गांवों में कुछ ऐसे लोग मिल जायेंगे जिन्होंने डॉ. राम मनोहर लोहिया के साथ काम किया था और आम आदमी की पक्षधरण के संघर्ष में शामिल हुए थे, जुलूस निकाला था। और लाठियां खाईं थी। हर उस सरकार को निकम्मी घोषित किया था जो रोटी रोज़ी नहीं दे सकती थी।
उसी समाजवादी पार्टी में मुंबई की फिल्मी दुनिया के लोग लाइन लगाकर चले आ रहे हैं। इस बात पर कोई एतराज नहीं हो सकता। लेकिन राजनीतिक पार्टी के संचालन में जिस तरह की अफरातफरी का माहौल समाजवादी पार्टी में शुरू किया किया है, उस पर आश्चर्य होता है।राजनीति फर्म को समाज की सामूहिक सोच और मनीषा का संगम माना जाता है।
विद्वान मानते हैं कि राजनीति अधिकतम संख्या जनता की वैध महत्तवाकांक्षाओं को पूरा करने का ही नाम है और वैध महत्वाकांक्षाओं का वाहक बने। इन्हीं महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए किए गए संघर्ष के दौरान उसी जनता के बीच से राजनीतिक पार्टियों के नेता उभरते हैं मुलायम सिंह यादव, जनेश्वर मिश्र, राम गोपाल यादव, लालू यादव, नीतिश कुमार, वृंदा करात, करूणानिधि शरद पवार, बुद्घदेव भट्टाचार्य आदि ऐसे ही लोग हैं, लेकिन जब ऊपर पहुंच चुके नेताओं की व्यक्तिग कुछ और आशिर्वाद लेकर पैराशूट के जरिए, आम कार्यकर्ता के सिर पर नेता उतार दिए जाते हैं तो पार्टी का जनाधार प्रभावित होता है।
और पार्टी की हैसियत रोज-ब-रोज कम होती जाती है। कांग्रेस पार्टी का पिछले 30 साल का इतिहास इस तथ्य को विधिवत स्पष्टï कर देता है। संजय गांधी के दौर में उपर फट्ट लोगों को भर्ती करने का सिलसिला शुरू हुआ और राजीव गांधी ने दून स्कूल के अपने साथियों से कांग्रेस को भर दिया और वही लोग देश के भाग्य विधाता बन गए। नतीजा दुनिया के सामने हैं। अपनी मां इंदिरा गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति के बल पर चार सौ के आसपास सीट पाने वाले राजीव गांधी पांच साल के अंदर कांग्रेस की हार के जिम्मेदार बने। कांग्रेस पार्टी का जनाधार तितर-बितर हो गया और तबसे आज तक संभल नहीं सकी।
2004 के चुनावों के पहले भारतीय ने भी हवाई नेताओं को बड़े पैमाने पर भरती किया था और उनका भी वही हाल हो रहा है। जो कांग्रेस का हुआ था। आम कार्यकर्ता जो निराश हुआ तो थामे नहीं थम रहा है। और अब समाजवादी पार्टी भी उसी ढर्रे पर चल निकली है। अपनी पार्टी के रामपुर के बड़े नेता आजम खां की मर्जी के खिलाफ जिसे पार्टी चुनाव लड़ा रही है, उसके भी आम कार्यकर्ता तो कभी नहीं कहा जा सकता। संजय दत्त भी इसी श्रेणी में आते हैं। अजीब बात यह है कि समाजवादी पार्टी जैसा जमीन से जुड़ा संगठन संजय दत्त की आपराधिक पृष्ठभूमि को धमकाकर दबाने की कोशिश कर रहा है।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ शक का माहौल पैदा किया जा रहा है। और कांग्रेस पार्टी के खिलाफ लामबंदी की कोशिश की जा रही है। इस सबसे ज्यादा मुश्किल यह है कि इस तरह के संकेत देने की कोशिश हो रही है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला कांग्रेस के दबाव में आया है। वरना संजय दत्त लखनऊ से उम्मीदवार रहते। और जैसे सुप्रीम कोर्ट को ही चिढ़ाने के लिए फैसले के अगले दिन ही संजय दत्त को पार्टी को महासचिव बना दिया गया। समझ में नहीं आता ऐसी हड़बड़ी क्यों है।
आखिर संजयदत्त कोई दूध के धुले तो हैं नहीं। जिस तरह के आरोप उनपर लगे हैं और अदालत ने उन्हें सज़ा दी है, वह कोई साधारण सज़ा तो है नहीं। इसलिए जरूरत इस बात की है कि जिद में कोई काम करने के पहले समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और भाजपा के जनाधार खिसकने की कहानी पर गौर कर ले। जल्दबाजी और जिद में किए गए फैसले कभी भी अपने हित में नहीं होते।
कुछ लोगों ने अपनी राजनीतिक पार्टियां बना रखी हैं। और मौका मिलते ही सत्ता के रथ पर सवार हो जाते हैं। समाजवादी पार्टी के नेता भी इसी ताक में रहते हैं, लेकिन अभी उत्तर प्रदेश के गांवों में कुछ ऐसे लोग मिल जायेंगे जिन्होंने डॉ. राम मनोहर लोहिया के साथ काम किया था और आम आदमी की पक्षधरण के संघर्ष में शामिल हुए थे, जुलूस निकाला था। और लाठियां खाईं थी। हर उस सरकार को निकम्मी घोषित किया था जो रोटी रोज़ी नहीं दे सकती थी।
उसी समाजवादी पार्टी में मुंबई की फिल्मी दुनिया के लोग लाइन लगाकर चले आ रहे हैं। इस बात पर कोई एतराज नहीं हो सकता। लेकिन राजनीतिक पार्टी के संचालन में जिस तरह की अफरातफरी का माहौल समाजवादी पार्टी में शुरू किया किया है, उस पर आश्चर्य होता है।राजनीति फर्म को समाज की सामूहिक सोच और मनीषा का संगम माना जाता है।
विद्वान मानते हैं कि राजनीति अधिकतम संख्या जनता की वैध महत्तवाकांक्षाओं को पूरा करने का ही नाम है और वैध महत्वाकांक्षाओं का वाहक बने। इन्हीं महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए किए गए संघर्ष के दौरान उसी जनता के बीच से राजनीतिक पार्टियों के नेता उभरते हैं मुलायम सिंह यादव, जनेश्वर मिश्र, राम गोपाल यादव, लालू यादव, नीतिश कुमार, वृंदा करात, करूणानिधि शरद पवार, बुद्घदेव भट्टाचार्य आदि ऐसे ही लोग हैं, लेकिन जब ऊपर पहुंच चुके नेताओं की व्यक्तिग कुछ और आशिर्वाद लेकर पैराशूट के जरिए, आम कार्यकर्ता के सिर पर नेता उतार दिए जाते हैं तो पार्टी का जनाधार प्रभावित होता है।
और पार्टी की हैसियत रोज-ब-रोज कम होती जाती है। कांग्रेस पार्टी का पिछले 30 साल का इतिहास इस तथ्य को विधिवत स्पष्टï कर देता है। संजय गांधी के दौर में उपर फट्ट लोगों को भर्ती करने का सिलसिला शुरू हुआ और राजीव गांधी ने दून स्कूल के अपने साथियों से कांग्रेस को भर दिया और वही लोग देश के भाग्य विधाता बन गए। नतीजा दुनिया के सामने हैं। अपनी मां इंदिरा गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति के बल पर चार सौ के आसपास सीट पाने वाले राजीव गांधी पांच साल के अंदर कांग्रेस की हार के जिम्मेदार बने। कांग्रेस पार्टी का जनाधार तितर-बितर हो गया और तबसे आज तक संभल नहीं सकी।
2004 के चुनावों के पहले भारतीय ने भी हवाई नेताओं को बड़े पैमाने पर भरती किया था और उनका भी वही हाल हो रहा है। जो कांग्रेस का हुआ था। आम कार्यकर्ता जो निराश हुआ तो थामे नहीं थम रहा है। और अब समाजवादी पार्टी भी उसी ढर्रे पर चल निकली है। अपनी पार्टी के रामपुर के बड़े नेता आजम खां की मर्जी के खिलाफ जिसे पार्टी चुनाव लड़ा रही है, उसके भी आम कार्यकर्ता तो कभी नहीं कहा जा सकता। संजय दत्त भी इसी श्रेणी में आते हैं। अजीब बात यह है कि समाजवादी पार्टी जैसा जमीन से जुड़ा संगठन संजय दत्त की आपराधिक पृष्ठभूमि को धमकाकर दबाने की कोशिश कर रहा है।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ शक का माहौल पैदा किया जा रहा है। और कांग्रेस पार्टी के खिलाफ लामबंदी की कोशिश की जा रही है। इस सबसे ज्यादा मुश्किल यह है कि इस तरह के संकेत देने की कोशिश हो रही है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला कांग्रेस के दबाव में आया है। वरना संजय दत्त लखनऊ से उम्मीदवार रहते। और जैसे सुप्रीम कोर्ट को ही चिढ़ाने के लिए फैसले के अगले दिन ही संजय दत्त को पार्टी को महासचिव बना दिया गया। समझ में नहीं आता ऐसी हड़बड़ी क्यों है।
आखिर संजयदत्त कोई दूध के धुले तो हैं नहीं। जिस तरह के आरोप उनपर लगे हैं और अदालत ने उन्हें सज़ा दी है, वह कोई साधारण सज़ा तो है नहीं। इसलिए जरूरत इस बात की है कि जिद में कोई काम करने के पहले समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और भाजपा के जनाधार खिसकने की कहानी पर गौर कर ले। जल्दबाजी और जिद में किए गए फैसले कभी भी अपने हित में नहीं होते।
शिव सैनिकों की सनक
यह संतोषजनक है कि शिव सैनिकों की धमकी और पथराव का सामना करने के बावजूद अधिवक्ता अंजलि वाघमारे ने मुंबई हमले के दौरान पकड़े गए पाकिस्तानी आतंकी अजमल आमिर कसाब की वकालत करने की इच्छा जताई। यह निराशाजनक भी है और निंदनीय भी कि शिव सैनिक खुद को प्रखर राष्ट्रभक्त प्रकट करने के फेर में देश की कानूनी प्रक्रिया को अपने हिसाब से चलाने पर आमादा हैं।
उनकी इस सनक भरी जिद का कोई मतलब नहीं कि किसी कानूनी प्रक्रिया का इस्तेमाल किए बगैर कसाब को सीधे फांसी पर लटका दिया जाए। यह न तो 16 वीं सदी है और न ही भारत में जंगलराज है। आखिर शिव सेना इस साधारण सी बात पर विचार करने के लिए क्यों नहीं तैयार कि आतंकियों को सजा देने के मामले में उसके सुझावों पर अमल करना संभव नहीं? सच तो यह है कि आतंकियों को दंडित करने के संबंध में उसके उपाय भारत की बदनामी कराने वाले हैं।
जब भारतीय न्याय प्रक्रिया ही नहीं, नैसर्गिक न्याय का सिद्धांत भी यह कहता है कि किसी को अपने बचाव का मौैका दिए बगैर दंडित करना एक तरह का अन्याय है तब फिर शिव सेना की उछल-कूद का कोई मतलब नहीं। महज प्रचार पाने के लिए शिव सेना जो कुछ कर रही है उससे कुल मिलाकर कसाब सरीखे खूंखार आतंकी को दंडित करने में देरी ही हो रही है।
शिव सेना ने पहले यह सुनिश्चित किया कि कोई भी वकील कसाब की वकालत करने के लिए आगे न आने पाए और फिर जब अदालत ने विवश होकर अपनी ओर से एक वकील का नाम घोषित किया तो शिव सैनिक उसे धमकाने उसके घर तक पहुंच गए। यह निरा पागलपन नहीं तो और क्या है?
माना कि इसे लेकर रंच मात्र भी संदेह नहीं कि कसाब ने मुंबई में बेहद घृणित कृत्य अंजाम दिया, लेकिन क्या उसे दंड का भागीदार बनाने के लिए न्याय प्रक्रिया का उल्लंघन कर दिया जाए? यदि शिव सैनिक अभी भी शिवाजी से प्रेरणा पाते हैं तो बेहतर होगा कि वे उनके आदर्शो से नए सिरे से कुछ सीख लें। इस तरह की मांग का तो औचित्य समझ आता है कि आतंकियों के मामलों की सुनवाई द्रुत गति से हो और ऐसी कोई व्यवस्था भी बनाई जाए जिससे उनके मुकदमे वर्षो तक न खिंचें, लेकिन ऐसे किसी विचार का समर्थन नहीं किया जा सकता कि किसी को भी उनकी वकालत करने का अधिकार न मिले।
यह चिंताजनक है कि पिछले कुछ समय से शिव सेना सरीखे दलों के साथ-साथ वकीलों का एक ऐसा वर्ग भी सामने आ गया है जो न तो स्वयं आतंकियों अथवा अन्य जघन्य अपराधियों की वकालत करता है और न ही किसी को करने देता है। जब कभी अदालत ऐसे तत्वों के लिए सरकारी खर्चे से वकील तय करती है तो उसका विरोध करने के लिए हिंसा का सहारा लेने में भी संकोच नहीं किया जाता।
जो अधिवक्ता यह मानते हैं आतंकियों की वकालत करना अनुचित है वे अपनी इस मान्यता पर दृढ़ रह सकते हैं, लेकिन उन्हें अपनी इस मान्यता को दूसरों पर जबरन थोपने का अधिकार नहीं दिया जा सकता। बेहतर होगा कि बार काउंसिल आफ इंडिया सरीखे संगठन अपने साथियों को यह स्पष्ट संदेश दें कि वे शिव सेना सरीखा दृष्टिकोण अपनाकर न्याय की गरिमा गिराने का काम कर रहे हैं।
उनकी इस सनक भरी जिद का कोई मतलब नहीं कि किसी कानूनी प्रक्रिया का इस्तेमाल किए बगैर कसाब को सीधे फांसी पर लटका दिया जाए। यह न तो 16 वीं सदी है और न ही भारत में जंगलराज है। आखिर शिव सेना इस साधारण सी बात पर विचार करने के लिए क्यों नहीं तैयार कि आतंकियों को सजा देने के मामले में उसके सुझावों पर अमल करना संभव नहीं? सच तो यह है कि आतंकियों को दंडित करने के संबंध में उसके उपाय भारत की बदनामी कराने वाले हैं।
जब भारतीय न्याय प्रक्रिया ही नहीं, नैसर्गिक न्याय का सिद्धांत भी यह कहता है कि किसी को अपने बचाव का मौैका दिए बगैर दंडित करना एक तरह का अन्याय है तब फिर शिव सेना की उछल-कूद का कोई मतलब नहीं। महज प्रचार पाने के लिए शिव सेना जो कुछ कर रही है उससे कुल मिलाकर कसाब सरीखे खूंखार आतंकी को दंडित करने में देरी ही हो रही है।
शिव सेना ने पहले यह सुनिश्चित किया कि कोई भी वकील कसाब की वकालत करने के लिए आगे न आने पाए और फिर जब अदालत ने विवश होकर अपनी ओर से एक वकील का नाम घोषित किया तो शिव सैनिक उसे धमकाने उसके घर तक पहुंच गए। यह निरा पागलपन नहीं तो और क्या है?
माना कि इसे लेकर रंच मात्र भी संदेह नहीं कि कसाब ने मुंबई में बेहद घृणित कृत्य अंजाम दिया, लेकिन क्या उसे दंड का भागीदार बनाने के लिए न्याय प्रक्रिया का उल्लंघन कर दिया जाए? यदि शिव सैनिक अभी भी शिवाजी से प्रेरणा पाते हैं तो बेहतर होगा कि वे उनके आदर्शो से नए सिरे से कुछ सीख लें। इस तरह की मांग का तो औचित्य समझ आता है कि आतंकियों के मामलों की सुनवाई द्रुत गति से हो और ऐसी कोई व्यवस्था भी बनाई जाए जिससे उनके मुकदमे वर्षो तक न खिंचें, लेकिन ऐसे किसी विचार का समर्थन नहीं किया जा सकता कि किसी को भी उनकी वकालत करने का अधिकार न मिले।
यह चिंताजनक है कि पिछले कुछ समय से शिव सेना सरीखे दलों के साथ-साथ वकीलों का एक ऐसा वर्ग भी सामने आ गया है जो न तो स्वयं आतंकियों अथवा अन्य जघन्य अपराधियों की वकालत करता है और न ही किसी को करने देता है। जब कभी अदालत ऐसे तत्वों के लिए सरकारी खर्चे से वकील तय करती है तो उसका विरोध करने के लिए हिंसा का सहारा लेने में भी संकोच नहीं किया जाता।
जो अधिवक्ता यह मानते हैं आतंकियों की वकालत करना अनुचित है वे अपनी इस मान्यता पर दृढ़ रह सकते हैं, लेकिन उन्हें अपनी इस मान्यता को दूसरों पर जबरन थोपने का अधिकार नहीं दिया जा सकता। बेहतर होगा कि बार काउंसिल आफ इंडिया सरीखे संगठन अपने साथियों को यह स्पष्ट संदेश दें कि वे शिव सेना सरीखा दृष्टिकोण अपनाकर न्याय की गरिमा गिराने का काम कर रहे हैं।
रफ्तार पर लगाम
बेलगाम होतीं सडक़ दुर्घटनाएं हर दिन जिंदगियां छीन रही हैं। सडक़ों पर जिस तरह मौत का तांडव चल रहा है, वह यातायात व्यवस्था की कलई खोलने के लिए पर्याप्त है। जिस तरह सडक़ों पर यातायात नियमों का मखौल उड़ाया जाता है उससे इस स्थिति का भय तो हमेशा बना रहता है। इन सब के लिए लोगों का रवैया सबसे अधिक जिम्मेदार है।
सडक़ों पर जिस रफ्तार में वाहन दौड़ाए जाते हैं, मानो हर कोई किसी रेस में भाग ले रहा है। जागरूकता पैदा करने के तमाम उपाय, यातायात नियम व ट्रैफिक पुलिस इस प्रवृत्ति पर लगाम कसने में नाकाम है। सुरक्षित यात्रा के लिए समय-समय पर अदालतें भी दिशा-निर्देश देती रहती हैं, लेकिन जल्दबाजी की मनोवृत्ति हालात में सुधार ही नहीं होने देती।
इसमें यातायात पुलिस का ढीला-ढाला रवैया भी जिम्मेदार है। अकसर देखा जाता है कि ट्रैफिक व्यवस्था में लगे कर्मी सरेआम वाहन चालकों से अवैध वसूली करते हैं। विभिन्न मार्गो पर इन कर्मचारियों की मिलीभगत से अवैध रूप से वाहन चालक सवारियां ढो रहे हैं। यह बताने की जरूरत नहीं है कि बार-बार ऐसे मामले सामने आने के बाद भी कार्रवाई क्यों नहीं होती।
चंडीगढ़ के पास सोमवार को हादसे में 24 श्रद्धालुओं की मौत के बाद सोमवार को भी देर रात महम के पास पिकअप के ट्रैक्टर ट्राली से टकरा जाने से चार साल के बच्चे व पांच महिलाओं की मौत हो गई। 18 श्रद्धालु घायल हो गए। ये हादसे भी वाहनों के तेज रफ्तार की वजह से हुए। दूसरी बात पिकअप में 24 लोग सवार थे, जो कि इसकी क्षमता से बहुत अधिक हैं।
अक्सर देखा जाता है कि वाहनों में क्षमता से अधिक लोग सवार होते हैं, खासकर अवैध रूप से सवारियां ढोने वाली ट्रैक्सियों में। लेकिन यातायात पुलिस की लापरवाही कहें या मिलीभगत इन वाहन चालकों पर कोई कार्रवाई नहीं होती।
लोगों को सोचना चाहिए कि जल्दी पहुंचने से जरूरी है सुरक्षित पहुंचना। जब तक जन जागरूकता नहीं आएगी सडक़ों पर यूं खून बहना बंद न होगा। रफ्तार पर लगाम लगाकर यातायात नियमों का पालन सुनिश्चित करना हर वाहन चालक का दायित्व ही नहीं कर्तव्य भी है। वे सडक़ों को रेस का मैदान न बनाएं। यातायात पुलिस की भाषा में कहें तो सुरक्षित चलें और वाहन सुरक्षित चलाएं।
सडक़ों पर जिस रफ्तार में वाहन दौड़ाए जाते हैं, मानो हर कोई किसी रेस में भाग ले रहा है। जागरूकता पैदा करने के तमाम उपाय, यातायात नियम व ट्रैफिक पुलिस इस प्रवृत्ति पर लगाम कसने में नाकाम है। सुरक्षित यात्रा के लिए समय-समय पर अदालतें भी दिशा-निर्देश देती रहती हैं, लेकिन जल्दबाजी की मनोवृत्ति हालात में सुधार ही नहीं होने देती।
इसमें यातायात पुलिस का ढीला-ढाला रवैया भी जिम्मेदार है। अकसर देखा जाता है कि ट्रैफिक व्यवस्था में लगे कर्मी सरेआम वाहन चालकों से अवैध वसूली करते हैं। विभिन्न मार्गो पर इन कर्मचारियों की मिलीभगत से अवैध रूप से वाहन चालक सवारियां ढो रहे हैं। यह बताने की जरूरत नहीं है कि बार-बार ऐसे मामले सामने आने के बाद भी कार्रवाई क्यों नहीं होती।
चंडीगढ़ के पास सोमवार को हादसे में 24 श्रद्धालुओं की मौत के बाद सोमवार को भी देर रात महम के पास पिकअप के ट्रैक्टर ट्राली से टकरा जाने से चार साल के बच्चे व पांच महिलाओं की मौत हो गई। 18 श्रद्धालु घायल हो गए। ये हादसे भी वाहनों के तेज रफ्तार की वजह से हुए। दूसरी बात पिकअप में 24 लोग सवार थे, जो कि इसकी क्षमता से बहुत अधिक हैं।
अक्सर देखा जाता है कि वाहनों में क्षमता से अधिक लोग सवार होते हैं, खासकर अवैध रूप से सवारियां ढोने वाली ट्रैक्सियों में। लेकिन यातायात पुलिस की लापरवाही कहें या मिलीभगत इन वाहन चालकों पर कोई कार्रवाई नहीं होती।
लोगों को सोचना चाहिए कि जल्दी पहुंचने से जरूरी है सुरक्षित पहुंचना। जब तक जन जागरूकता नहीं आएगी सडक़ों पर यूं खून बहना बंद न होगा। रफ्तार पर लगाम लगाकर यातायात नियमों का पालन सुनिश्चित करना हर वाहन चालक का दायित्व ही नहीं कर्तव्य भी है। वे सडक़ों को रेस का मैदान न बनाएं। यातायात पुलिस की भाषा में कहें तो सुरक्षित चलें और वाहन सुरक्षित चलाएं।
अदालत का फैसला
उच्चतम न्यायालय के निर्णय से अभिनेता संजय दत्त के नेता बनने की उम्मीदों पर जिस तरह पानी फिरा उसका यदि कोई सकारात्मक पक्ष है तो सिर्फ यह कि अब उन अनेक आपराधिक इतिहास वाले बाहुबलियों को अदालत का दरवाजा खटखटाने की हिम्मत नहीं पड़ेगी जो अपनी सजा निलंबित कराने का तानाबाना बुन रहे थे।
इसके लिए वे क्रिकेटर से नेता बने नवजोत सिंह सिद्धू के मामले को एक नजीर की तरह इस्तेमाल कर रहे थे। यदि संजय दत्त को चुनाव लडऩे की अनुमति मिल जाती तो शायद बाहुबलियों की जमात भी अपने लिए ऐसी ही सुविधा की मांग करती। इस पर संतोष जताया जा सकता है कि अब ऐसा नहीं होगा, लेकिन इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि संजय दत्त की आशाओं पर जो तुषारापात हुआ उसके लिए उनके कथित गंभीर अपराध के साथ-साथ वह न्यायिक तंत्र भी जिम्मेदार है जिसने उनसे संबंधित मामले का निपटारा करने में इतना अधिक समय ले लिया।
उन्हें 1993 के मुंबई बम विस्फोट कांड में 2007 में यानी 14 वर्ष बाद सजा सुनाई जा सकी। इस सजा के खिलाफ संजय दत्त की अपील उच्चतम न्यायालय में अभी लंबित है। यदि इस अपील का निपटारा हो गया होता तो यह स्वत: स्पष्ट हो जाता कि वह चुनाव लडऩे के पात्र हैं अथवा नहीं? संजय दत्त को टाडा कोर्ट ने छह वर्ष की सजा सुनाई है। जनप्रतिनिधित्व कानून के तहत दो या इससे अधिक वर्ष की कैद के सजायाफ्ता व्यक्ति के चुनाव में खड़े होने पर रोक का प्रावधान है, लेकिन अभी तो इसका निर्धारण होना शेष है कि संजय दत्त इतनी सजा पाने के हकदार हैं या नहीं?
जिस तरह उच्चतम न्यायालय ने यह माना कि संजय दत्त आदतन अपराधी नहीं हैं उसी तरह टाडा अदालत भी इस निष्कर्ष पर पहुंची थी कि उनका अपराध अमानवीय एवं समाज को क्षति पहुंचाने वाला नहीं है, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से इसका कोई भी लाभ उन्हें नहीं मिल सका। संजय दत्त इस आधार पर स्वयं को दिलासा दे सकते हैं कि उनके राजनीति में सक्रिय होने की संभावनाएं अभी भी बरकरार हैं।
फिलहाल यह कहना कठिन है कि टाडा कोर्ट की सजा के खिलाफ की गई संजय दत्त की अपील पर उच्चतम न्यायालय किस निष्कर्ष पर पहुंचता है, लेकिन यदि वह यह पाता है कि 18 माह की जो सजा वह भुगत चुके हैं वह पर्याप्त है तो फिर यह एक तरह की नाइंसाफी होगी। यह कहना आसान है कि संजय दत्त थोड़ा और इंतजार करें तथा कानून को अपना काम करने दें, लेकिन ध्यान रहे कि वह पिछले 14 वर्षो से यही कर रहे हैं।
नि:संदेह कानून अपनी तरह से अपना रास्ता तय करता है, लेकिन जब उसका रास्ता अनावश्यक रूप से लंबा नजर आने लगे तो फिर सवाल उठने स्वाभाविक हैं। यह न्याय तंत्र के सुगम और सक्रिय न होने का ही परिणाम है कि संजय दत्त आदतन अपराधी न होते हुए भी प्रतीक्षा करने के लिए विवश हैं। यह विवशता तो उनके समक्ष होनी चाहिए जो आदतन अपराधी हैं। यह निराशाजनक है कि अनेक आदतन अपराधी न केवल चुनाव लडऩे, बल्कि विधानमंडलों तक पहुंचने में भी सफल हैं। नि: संदेह ऐसा नहीं होना चाहिए।
इसके लिए वे क्रिकेटर से नेता बने नवजोत सिंह सिद्धू के मामले को एक नजीर की तरह इस्तेमाल कर रहे थे। यदि संजय दत्त को चुनाव लडऩे की अनुमति मिल जाती तो शायद बाहुबलियों की जमात भी अपने लिए ऐसी ही सुविधा की मांग करती। इस पर संतोष जताया जा सकता है कि अब ऐसा नहीं होगा, लेकिन इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि संजय दत्त की आशाओं पर जो तुषारापात हुआ उसके लिए उनके कथित गंभीर अपराध के साथ-साथ वह न्यायिक तंत्र भी जिम्मेदार है जिसने उनसे संबंधित मामले का निपटारा करने में इतना अधिक समय ले लिया।
उन्हें 1993 के मुंबई बम विस्फोट कांड में 2007 में यानी 14 वर्ष बाद सजा सुनाई जा सकी। इस सजा के खिलाफ संजय दत्त की अपील उच्चतम न्यायालय में अभी लंबित है। यदि इस अपील का निपटारा हो गया होता तो यह स्वत: स्पष्ट हो जाता कि वह चुनाव लडऩे के पात्र हैं अथवा नहीं? संजय दत्त को टाडा कोर्ट ने छह वर्ष की सजा सुनाई है। जनप्रतिनिधित्व कानून के तहत दो या इससे अधिक वर्ष की कैद के सजायाफ्ता व्यक्ति के चुनाव में खड़े होने पर रोक का प्रावधान है, लेकिन अभी तो इसका निर्धारण होना शेष है कि संजय दत्त इतनी सजा पाने के हकदार हैं या नहीं?
जिस तरह उच्चतम न्यायालय ने यह माना कि संजय दत्त आदतन अपराधी नहीं हैं उसी तरह टाडा अदालत भी इस निष्कर्ष पर पहुंची थी कि उनका अपराध अमानवीय एवं समाज को क्षति पहुंचाने वाला नहीं है, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से इसका कोई भी लाभ उन्हें नहीं मिल सका। संजय दत्त इस आधार पर स्वयं को दिलासा दे सकते हैं कि उनके राजनीति में सक्रिय होने की संभावनाएं अभी भी बरकरार हैं।
फिलहाल यह कहना कठिन है कि टाडा कोर्ट की सजा के खिलाफ की गई संजय दत्त की अपील पर उच्चतम न्यायालय किस निष्कर्ष पर पहुंचता है, लेकिन यदि वह यह पाता है कि 18 माह की जो सजा वह भुगत चुके हैं वह पर्याप्त है तो फिर यह एक तरह की नाइंसाफी होगी। यह कहना आसान है कि संजय दत्त थोड़ा और इंतजार करें तथा कानून को अपना काम करने दें, लेकिन ध्यान रहे कि वह पिछले 14 वर्षो से यही कर रहे हैं।
नि:संदेह कानून अपनी तरह से अपना रास्ता तय करता है, लेकिन जब उसका रास्ता अनावश्यक रूप से लंबा नजर आने लगे तो फिर सवाल उठने स्वाभाविक हैं। यह न्याय तंत्र के सुगम और सक्रिय न होने का ही परिणाम है कि संजय दत्त आदतन अपराधी न होते हुए भी प्रतीक्षा करने के लिए विवश हैं। यह विवशता तो उनके समक्ष होनी चाहिए जो आदतन अपराधी हैं। यह निराशाजनक है कि अनेक आदतन अपराधी न केवल चुनाव लडऩे, बल्कि विधानमंडलों तक पहुंचने में भी सफल हैं। नि: संदेह ऐसा नहीं होना चाहिए।
पाकिस्तान तबाही की ओर
पाकिस्तान में हालात सुधरने के बजाय बिगड़ रहे हैं, इसका एक और प्रमाण है लाहौर में पुलिस प्रशिक्षण केंद्र पर आतंकियों का हमला। इस हमले के जरिये पाकिस्तान में फल-फूल रहे आतंकियों ने यह स्पष्ट कर दिया कि वे कहीं अधिक दुस्साहसी हो गए हैं और कभी भी कहीं पर भी हमला करने में समर्थ हैं।
इस स्थिति के लिए यदि कोई जिम्मेदार है तो पाकिस्तान का सत्ता तंत्र। जब कभी पाकिस्तान पर उंगलियां उठती हैं तो सरकार के स्तर पर इस तरह के बहादुरी भरे बयान देने की होड़ मच जाती है कि हम एक जिम्मेदार देश हैं, हमारे यहां कानून का शासन है और किसी को हमारे आंतरिक मामले में हस्तक्षेप करने की इजाजत नहीं दी जा सकती, लेकिन जब आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई का सवाल उठता है तो यह प्रतीति कराई जाती है कि उन पर किसी का जोर नहीं-यहां तक कि उस तथाकथित शक्तिशाली सेना का भी नहीं जो खुद को आदर्श सैन्य बल के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश करती रहती है।
स्पष्ट है कि या तो पाकिस्तान में आतंकवाद से लडऩे का इरादा नहीं या फिर वह आतंकी संगठनों को नियंत्रित करने के नाम पर दुनिया की आंखों में धूल झोंक रहा है। यदि ऐसा नहीं होता तो सरकारी स्तर पर आतंकी संगठनों का बचाव नहीं किया जाता और न ही उन्हें नाम बदलकर सक्रिय होने की सुविधा प्रदान की जाती। क्या यह एक तथ्य नहीं कि पिछले कुछ वर्षो में पाकिस्तान ने हर उस आतंकी संगठन पर लगाम लगाने के बजाय उसे नए नाम से सक्रिय होने की छूट दी जिस पर विश्व समुदाय और विशेष रूप से अमेरिका ने नजर टेढ़ी की?
वैसे तो इस तथ्य से अमेरिका भी परिचित है, लेकिन ऐसा लगता है कि उसे पाकिस्तान के बहाने सुनने में विशेष सुख मिलता है। अभी तक बुश प्रशासन पाकिस्तान के बहाने सुन रहा था। अब यही काम ओबामा प्रशासन कर रहा है और वह भी तब जब एक के बाद एक अमेरिकी अधिकारी इस निष्कर्ष पर पहुंच रहे हैं कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई अभी भी अलकायदा, तालिबान आदि आतंकी संगठनों के साथ है। यदि पाकिस्तान तबाही के रास्ते पर जा रहा है तो इसमें जितना हाथ उसके अपने नेताओं का है उतना ही अमेरिकी नेताओं का भी है।
जिस तरह मुशर्रफ अमेरिका को धोखा देने में समर्थ थे उसी तरह आसिफ अली जरदारी भी हैं। जरदारी पर भरोसा करने का मतलब है, खुद को धोखा देना। वह अपनी कुर्सी मजबूत करने के लिए उन आतंकियों को भी गले लगा सकते हैं जिन पर बेनजीर भुंट्टो की हत्या का संदेह है। यह संभव है कि अमेरिका को पाकिस्तान के मौजूदा सत्ता तंत्र की असलियत समझने में देर लगे, लेकिन आखिर भारत को अब क्या समझना शेष है? जब इसके कहीं कोई संकेत भी नहीं हैं कि पाकिस्तान अपने यहां के आतंकी संगठनों के खिलाफ कोई कदम उठाएगा तब फिर उसे ऐसा करने की नसीहत देते रहने और हाथ पर हाथ रखकर बैठने का क्या मतलब?
समझदारी का तकाजा यह है कि भारत एक ऐसे पाकिस्तान का सामना करने के लिए तैयार रहे जो विफल होने की कगार पर है। भारत को और अधिक सतर्कता इसलिए भी दिखानी चाहिए, क्योंकि उसकी सीमा के निकट आतंकियों की गतिविधियां कुछ ज्यादा ही बढ़ती जा रही हैं।
इस स्थिति के लिए यदि कोई जिम्मेदार है तो पाकिस्तान का सत्ता तंत्र। जब कभी पाकिस्तान पर उंगलियां उठती हैं तो सरकार के स्तर पर इस तरह के बहादुरी भरे बयान देने की होड़ मच जाती है कि हम एक जिम्मेदार देश हैं, हमारे यहां कानून का शासन है और किसी को हमारे आंतरिक मामले में हस्तक्षेप करने की इजाजत नहीं दी जा सकती, लेकिन जब आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई का सवाल उठता है तो यह प्रतीति कराई जाती है कि उन पर किसी का जोर नहीं-यहां तक कि उस तथाकथित शक्तिशाली सेना का भी नहीं जो खुद को आदर्श सैन्य बल के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश करती रहती है।
स्पष्ट है कि या तो पाकिस्तान में आतंकवाद से लडऩे का इरादा नहीं या फिर वह आतंकी संगठनों को नियंत्रित करने के नाम पर दुनिया की आंखों में धूल झोंक रहा है। यदि ऐसा नहीं होता तो सरकारी स्तर पर आतंकी संगठनों का बचाव नहीं किया जाता और न ही उन्हें नाम बदलकर सक्रिय होने की सुविधा प्रदान की जाती। क्या यह एक तथ्य नहीं कि पिछले कुछ वर्षो में पाकिस्तान ने हर उस आतंकी संगठन पर लगाम लगाने के बजाय उसे नए नाम से सक्रिय होने की छूट दी जिस पर विश्व समुदाय और विशेष रूप से अमेरिका ने नजर टेढ़ी की?
वैसे तो इस तथ्य से अमेरिका भी परिचित है, लेकिन ऐसा लगता है कि उसे पाकिस्तान के बहाने सुनने में विशेष सुख मिलता है। अभी तक बुश प्रशासन पाकिस्तान के बहाने सुन रहा था। अब यही काम ओबामा प्रशासन कर रहा है और वह भी तब जब एक के बाद एक अमेरिकी अधिकारी इस निष्कर्ष पर पहुंच रहे हैं कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई अभी भी अलकायदा, तालिबान आदि आतंकी संगठनों के साथ है। यदि पाकिस्तान तबाही के रास्ते पर जा रहा है तो इसमें जितना हाथ उसके अपने नेताओं का है उतना ही अमेरिकी नेताओं का भी है।
जिस तरह मुशर्रफ अमेरिका को धोखा देने में समर्थ थे उसी तरह आसिफ अली जरदारी भी हैं। जरदारी पर भरोसा करने का मतलब है, खुद को धोखा देना। वह अपनी कुर्सी मजबूत करने के लिए उन आतंकियों को भी गले लगा सकते हैं जिन पर बेनजीर भुंट्टो की हत्या का संदेह है। यह संभव है कि अमेरिका को पाकिस्तान के मौजूदा सत्ता तंत्र की असलियत समझने में देर लगे, लेकिन आखिर भारत को अब क्या समझना शेष है? जब इसके कहीं कोई संकेत भी नहीं हैं कि पाकिस्तान अपने यहां के आतंकी संगठनों के खिलाफ कोई कदम उठाएगा तब फिर उसे ऐसा करने की नसीहत देते रहने और हाथ पर हाथ रखकर बैठने का क्या मतलब?
समझदारी का तकाजा यह है कि भारत एक ऐसे पाकिस्तान का सामना करने के लिए तैयार रहे जो विफल होने की कगार पर है। भारत को और अधिक सतर्कता इसलिए भी दिखानी चाहिए, क्योंकि उसकी सीमा के निकट आतंकियों की गतिविधियां कुछ ज्यादा ही बढ़ती जा रही हैं।
पद की गरिमा
पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एन. गोपाल स्वामी ने जाते जाते एक और कारनामा कर दिखाया है जिससे उनके बारे में जो शक शुरू था, उसके सच्चाई में बदलने के आसार बढ़ गए हैं इसके पहले भी चुनाव आयुक्त नवीन चावला को हटाने की सिफारिश करके श्री गोपाल स्वामी, विवादों में घिर चुके हैं। बीजेपी के नेताओं की शिकायत पर उन्होंने नवीन चावला के खिलाफ कार्रवाई की शुरूआत कर दी थी।
उस वक्त आम धारणा यह बनी थी कि मुख्य चुनाव आयुक्त ने फैसला करने के लिए कुछ ऐसे तथ्यों पर भी विचार किया था जो फाइल में नहीं थे। इस बार भी उन्होंने कांगेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के खिलाफ कार्रवाई करने की इच्छा जता कर, एक खास राजनीतिक दल के लिए अपनी मुहब्बत का खुलासा कर दिया है।
वर्तमान मामला ऐसा नहीं था जिसमें बहुत कुछ किया जा सके। मामला 2006 का है जब बेल्जियम की सरकार ने सोनिया गांधी को एक नागरिक सम्मान देकर उनका अभिनंदन किया था। यह वह दौरा था जब बीजेपी वाले यह मानते थे कि सोनिया गांधी बहुत मामूली राजनीतिक नेता हैं उसके दो साल पहले ही बीजेपी नेता सुषमा स्वराज ने धमकी दे रखी थी कि अगर सोनिया गांधी, प्रधानमंत्री बनीं तो सुषमा जी सिर मुंडवा लेंगी। 2006-07 तक भी बीजेपी के सोनिया गांधी के प्रति रूख में यही हल्कापन नजर आता था।
इसी सोच के तहत सोनिया गांधी को फूंक कर उड़ा देने की मंशा के तहत यह कदम उठाया गया था शायद दिमाग में कहीं यह विचार भी रहा हो कि गोपाल स्वामी साहब से अच्छे रसूखा के चलते सोनिया गांधी को अपमानित करने का एक मौका हाथ आ जाएगा। चुनाव आयोग में इस तरह की बहुत सारी शिकायतें आती रहती हैं और उनका निपटारा होता रहता है, लेकिन गोपाल स्वामी ने न केवल मामले को महत्व दिया बल्कि इस पर कार्रवाई करने के अपने मंसूबे का भी इजहार किया। यह अलग बात है कि अपने रिटायर होने के ठीक एक दिन पहले इस तरह का आचरण करके उन्होंने अपनी प्रतिबद्घता का साफ संकेत दिया है।
और निर्वाचन आयोग की गरिमा पर ठेस पहुंचाने की कोशिश की है। माना जाता है कि संवैधानिक मर्यादा सुनिश्चित करने वाले संगठनों के खिलाफ आम तौर पर बयान नहीं दिया जाना चाहिए ऐसा करना लोकतंत्र के हित में नहीं हैं। यहां यह बात दिलचस्प है कि चुनाव आयोग जैसे संवैधानिक संगठनों की मार्यादा को सर्वोच्च रखने का जिम्मा उन लोगों पर भी तो है जो वहां बड़े पदों पर बैठे हुए हैं अगर सर्वोच्च पद पर बैठे हैं। व्यक्ति के कार्यकलाप से ही यह संकेत मिलने लगे कि वह अपने पद की गरिमा को नहीं संभाल पा रहा है तो यह देश का दुर्भाग्य है।
यहां यह कहने की बिल्कुल मंशा नहीं है कि पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त का किसी खास राजनीतिक पार्टी से संबंध है लेकिन इस बात पर हैरत जरूर है कि उनके ज्यादातर फैसलों से देश की राजनीति में एक खास सोच के लोगों का फायदा होता था। बहरहाल अब तो वे रिटायर हो गए लेकिन अपने पद की गरिमा के साथ उन्होंने जो ज्यादती की है उसे दुरूस्त होने में बहुत समय लगेगा।
उस वक्त आम धारणा यह बनी थी कि मुख्य चुनाव आयुक्त ने फैसला करने के लिए कुछ ऐसे तथ्यों पर भी विचार किया था जो फाइल में नहीं थे। इस बार भी उन्होंने कांगेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के खिलाफ कार्रवाई करने की इच्छा जता कर, एक खास राजनीतिक दल के लिए अपनी मुहब्बत का खुलासा कर दिया है।
वर्तमान मामला ऐसा नहीं था जिसमें बहुत कुछ किया जा सके। मामला 2006 का है जब बेल्जियम की सरकार ने सोनिया गांधी को एक नागरिक सम्मान देकर उनका अभिनंदन किया था। यह वह दौरा था जब बीजेपी वाले यह मानते थे कि सोनिया गांधी बहुत मामूली राजनीतिक नेता हैं उसके दो साल पहले ही बीजेपी नेता सुषमा स्वराज ने धमकी दे रखी थी कि अगर सोनिया गांधी, प्रधानमंत्री बनीं तो सुषमा जी सिर मुंडवा लेंगी। 2006-07 तक भी बीजेपी के सोनिया गांधी के प्रति रूख में यही हल्कापन नजर आता था।
इसी सोच के तहत सोनिया गांधी को फूंक कर उड़ा देने की मंशा के तहत यह कदम उठाया गया था शायद दिमाग में कहीं यह विचार भी रहा हो कि गोपाल स्वामी साहब से अच्छे रसूखा के चलते सोनिया गांधी को अपमानित करने का एक मौका हाथ आ जाएगा। चुनाव आयोग में इस तरह की बहुत सारी शिकायतें आती रहती हैं और उनका निपटारा होता रहता है, लेकिन गोपाल स्वामी ने न केवल मामले को महत्व दिया बल्कि इस पर कार्रवाई करने के अपने मंसूबे का भी इजहार किया। यह अलग बात है कि अपने रिटायर होने के ठीक एक दिन पहले इस तरह का आचरण करके उन्होंने अपनी प्रतिबद्घता का साफ संकेत दिया है।
और निर्वाचन आयोग की गरिमा पर ठेस पहुंचाने की कोशिश की है। माना जाता है कि संवैधानिक मर्यादा सुनिश्चित करने वाले संगठनों के खिलाफ आम तौर पर बयान नहीं दिया जाना चाहिए ऐसा करना लोकतंत्र के हित में नहीं हैं। यहां यह बात दिलचस्प है कि चुनाव आयोग जैसे संवैधानिक संगठनों की मार्यादा को सर्वोच्च रखने का जिम्मा उन लोगों पर भी तो है जो वहां बड़े पदों पर बैठे हुए हैं अगर सर्वोच्च पद पर बैठे हैं। व्यक्ति के कार्यकलाप से ही यह संकेत मिलने लगे कि वह अपने पद की गरिमा को नहीं संभाल पा रहा है तो यह देश का दुर्भाग्य है।
यहां यह कहने की बिल्कुल मंशा नहीं है कि पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त का किसी खास राजनीतिक पार्टी से संबंध है लेकिन इस बात पर हैरत जरूर है कि उनके ज्यादातर फैसलों से देश की राजनीति में एक खास सोच के लोगों का फायदा होता था। बहरहाल अब तो वे रिटायर हो गए लेकिन अपने पद की गरिमा के साथ उन्होंने जो ज्यादती की है उसे दुरूस्त होने में बहुत समय लगेगा।
अब ठोस मुद्दों पर वोट
लोकसभा पहले चरण के चुनाव के बाद चुनाव प्रचार के तरी$के में कुछ बदलाव नज़र आ रहा है। जातियों में बंटे समाज में कुछ परिवरर्तन के संकेत नजर आ रहे हैं। बिहार में नेता और केंद्र में रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव के भाषणों का रूख बदला हुआ है। पिछले 20 वर्षो से मुसलमानों के समर्थन के बल पर राजनीति में सफल रहे लालू प्रसाद यादव की चिंता का रंग बदल गया है।
अब तक लालू यह मान बैठे थे कि मुसलमानों के वोट पर उनका एकाधिकार है लेकिन 16 अप्रैल को जब पहले दौर के वोट पड़े और जो संकेत मिले, उससे लालू यादव यादव परेशान हो गए। केंद्र में अपनी साथी पार्टी, कांग्रेस को बिहार में तीन सीटें देकर लालू प्रसाद यादव ने कांग्रेस को उसकी औक़ात बताने की कोशिश की थी लेकिन कांग्रेस ने सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार उतार कर लालू-राम विकास की राजनीति को ज़बरदस्त झटका दिया है। पहले दौर में मुसलमानों ने कई क्षेत्रों में कांग्रेस को वोट दिया, उनका तर्क है कि लालू यादव अब तक केवल भावनत्तमक अपील के सहारे मुसलमानों का समर्थन लेते रहे हैं, मुसलिम समाज के विकास के लिए कुछ नहीं किया।
ज़ाहिर है कि विकास की दिशा में कोई ठोस काम न किया जाए तो बहुत दिन तक किसी को भी साथ नहीं रखा जा सकता। उत्तर प्रदेश में भी मुसलमानों का वोट महत्तवपूर्ण है और अधिकतर सीटों पर निर्णायक भूमिका निभाता है। यहां मुसलमानों का वोट आमतौर पर पिछले बीस वर्षो से मुलायम सिंह यादव को मिलता रहा है। इसके ठोस कारण हैं। भावनातमक स्तर पर भी मुसलमानों के बीच मुलायम सिंह की इज़्ज़त है। आज भी 1990 मेें बाबरी मस्जिद की हिफाज़त की मुलायम सिंह सरकार की कोशिश को न केवल मुसलमान बल्कि पूरी दुनिया के सही सोच वाले लोग सम्मान से याद करते हैं। लेकिन उसके बाद भी जब उन्हें उत्तर प्रदेश में सरकार चलाने का मौ$का मिला तो उन्होंने मुसलमानों के हित में काम दिया।
आर्थिक क्षेत्र में विकास की कोशिश मुसलमानों को सरकारी नौकरियों में बेहतर अवसर की कोशिश कुछ ऐसे काम हैं, जिन की वजह से मुसलमान आज मुलायम सिंह के साथ हैं। वर्तमान लोकसभा चुनाव में जहां कांग्रेस को मदद करने से धर्मनिरपेक्ष ता$कतों को मज़बूती मिलने के आसार हैं मुसलमान वहां कांग्रेस के साथ हैं। मुलायम सिंह यादव ने ऐसी परिस्थितियां भी पैदा कीं हैं जहां उनका उम्मीदवार कमज़ोर है, वहां कांग्रेस को मज़बूत करने का संकेत साफ नज़र आता है। उत्तर प्रदेश की गाजि़याबाद सीट पर तो लगता है कि मुलायम सिंह की कोशिश के नतीजे में बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह चुनाव हार जाएंगे।
मुसलमानों में मुलायम सिंह की लोकप्रियता को कमज़ोर करने की कोशिश चल रही है। मायावती ने राज्य में मुसलमानों को उम्मीदवार बनाकर धर्मनिरपेक्ष ताकतों को अपनी तरफ़ खींचने की कोशिश की है। मुलायम सिंह के पुराने साथी और रामपुर के विधायक आज़म ख़ान भी आजकल रामपुर के कांग्रेस उम्मीदवार की मदद में लगे हैं। मुलायम सिंह इससे बहुत नाराज़ हैं। समाजवादी पार्टी के उत्तर प्रदेश स्तर के एक नेता ने तो यहां तक कह दिया है कि आज़म खान अभी तक कांग्रेस की सेवा में थे अब बीजेपी से भी संपर्क में हैं। बहर हाल सचाई यह है कि मुसलमानों में भावनात्मक अपीलों के अलावा ठोस मुद्दों पर राजनीतिक $फैसले लेने की बात ज़ोर पकड़ चुकी है और बीजेपी के साथियों को हराने के लिए कुछ भी कर सकते हैं।
अब तक लालू यह मान बैठे थे कि मुसलमानों के वोट पर उनका एकाधिकार है लेकिन 16 अप्रैल को जब पहले दौर के वोट पड़े और जो संकेत मिले, उससे लालू यादव यादव परेशान हो गए। केंद्र में अपनी साथी पार्टी, कांग्रेस को बिहार में तीन सीटें देकर लालू प्रसाद यादव ने कांग्रेस को उसकी औक़ात बताने की कोशिश की थी लेकिन कांग्रेस ने सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार उतार कर लालू-राम विकास की राजनीति को ज़बरदस्त झटका दिया है। पहले दौर में मुसलमानों ने कई क्षेत्रों में कांग्रेस को वोट दिया, उनका तर्क है कि लालू यादव अब तक केवल भावनत्तमक अपील के सहारे मुसलमानों का समर्थन लेते रहे हैं, मुसलिम समाज के विकास के लिए कुछ नहीं किया।
ज़ाहिर है कि विकास की दिशा में कोई ठोस काम न किया जाए तो बहुत दिन तक किसी को भी साथ नहीं रखा जा सकता। उत्तर प्रदेश में भी मुसलमानों का वोट महत्तवपूर्ण है और अधिकतर सीटों पर निर्णायक भूमिका निभाता है। यहां मुसलमानों का वोट आमतौर पर पिछले बीस वर्षो से मुलायम सिंह यादव को मिलता रहा है। इसके ठोस कारण हैं। भावनातमक स्तर पर भी मुसलमानों के बीच मुलायम सिंह की इज़्ज़त है। आज भी 1990 मेें बाबरी मस्जिद की हिफाज़त की मुलायम सिंह सरकार की कोशिश को न केवल मुसलमान बल्कि पूरी दुनिया के सही सोच वाले लोग सम्मान से याद करते हैं। लेकिन उसके बाद भी जब उन्हें उत्तर प्रदेश में सरकार चलाने का मौ$का मिला तो उन्होंने मुसलमानों के हित में काम दिया।
आर्थिक क्षेत्र में विकास की कोशिश मुसलमानों को सरकारी नौकरियों में बेहतर अवसर की कोशिश कुछ ऐसे काम हैं, जिन की वजह से मुसलमान आज मुलायम सिंह के साथ हैं। वर्तमान लोकसभा चुनाव में जहां कांग्रेस को मदद करने से धर्मनिरपेक्ष ता$कतों को मज़बूती मिलने के आसार हैं मुसलमान वहां कांग्रेस के साथ हैं। मुलायम सिंह यादव ने ऐसी परिस्थितियां भी पैदा कीं हैं जहां उनका उम्मीदवार कमज़ोर है, वहां कांग्रेस को मज़बूत करने का संकेत साफ नज़र आता है। उत्तर प्रदेश की गाजि़याबाद सीट पर तो लगता है कि मुलायम सिंह की कोशिश के नतीजे में बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह चुनाव हार जाएंगे।
मुसलमानों में मुलायम सिंह की लोकप्रियता को कमज़ोर करने की कोशिश चल रही है। मायावती ने राज्य में मुसलमानों को उम्मीदवार बनाकर धर्मनिरपेक्ष ताकतों को अपनी तरफ़ खींचने की कोशिश की है। मुलायम सिंह के पुराने साथी और रामपुर के विधायक आज़म ख़ान भी आजकल रामपुर के कांग्रेस उम्मीदवार की मदद में लगे हैं। मुलायम सिंह इससे बहुत नाराज़ हैं। समाजवादी पार्टी के उत्तर प्रदेश स्तर के एक नेता ने तो यहां तक कह दिया है कि आज़म खान अभी तक कांग्रेस की सेवा में थे अब बीजेपी से भी संपर्क में हैं। बहर हाल सचाई यह है कि मुसलमानों में भावनात्मक अपीलों के अलावा ठोस मुद्दों पर राजनीतिक $फैसले लेने की बात ज़ोर पकड़ चुकी है और बीजेपी के साथियों को हराने के लिए कुछ भी कर सकते हैं।
भाजपा से भागते नेता
झारखंड के पूर्व मुख्य मंत्री और कभी बीजेपी के नेता रहे बाबू लाल मरांडी ने कहा है कि वह भाजपा में वापस कभी नहीं जाएंगे। उन्होंने अपनी पार्टी झारखंड विकास मोर्चा बना ली है। आजकल झाडखंड में हर सीट पर खड़े हुए अपने प्रत्याशियों के लिए वे चुनाव प्रचार कर रहे हैं। झारखंड के इलाके में बीजेपी के काम को आगे बढ़ाने में बाबू लाल मरांडी का योगदान सबसे ज्यादा है।
इस बात की जांच करना दिलचस्प होगा कि बाबूलाल मरांडी जैसा आदमी उस पार्टी से इतना नाराज क्यों है कि वह मर जाना बेहतर समझते हैं लेकिन पार्टी में वापस जाने को राजी नहीं है। बीजेपी के वर्ग चरित्र को समझे बिना इस गुत्थी को समझ पाना मुमकिन नहीं है। बीजेपी एक ऐसी पार्टी है जो पूरी तरह से आर एस एस के नियंत्रण में है और राजनीतिक क्षेत्र में आरएसएस के लक्ष्य को हासिल करना ही बीजेपी या उसके पहले वाली भारतीय जन संघ का उद्देश्य है। इस तरह हम देखते हैं कि बीजेपी कहने को तो राजनीतिक पार्टी है लेकिन असल में वह एक ऐसा संगठन है जिसकी प्रोप्राइटर आरएसएस है।
बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के दावेदार लालकृष्ण आडवाणी ने कई बार स्वीकार किया कि राजनीतिक में वो जो कुछ भी करते हैं, आरएसएस के मकसद को हासिल करने के लिए करते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि बीजेपी में जो भी रहेगा उसे हिंदुत्व का लक्ष्य हासिल करने के लिए काम करना पड़ेगा। ऐसा लगता है कि बाबू लाल मरांडी को बीजेपी की राजनीति का यह पहलू साफ तौर पर समझ में आ गया है और वे अब वापस बीजेपी में किसी भी कीमत पर जाने को तैयार नहीं। बीजेपी की हिंदुत्व की राजनीतिक का उद्देश्य हिंदू समाज के अभिजात वर्ग को सत्ता दिलाना है और उसमें बाबू लाल मरांडी के समाज के आदिवासी लोग तो सेवक की भूमिका में ही रहेंगे।
यह समझना बहुत जरूरी है कि हिंदू धर्म और हिंदुत्व में बहुत फर्क है। हिंदू धर्म को मोटे तौर पर सनातन धर्म से जोड़कर जाना जाता है। यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें कोई सख्त नियम कानून नहीं हैं पूजा करने की आज़ादी है, कोई पूजा पाठ न भी करे तो हिंदू बना रह सकता है। आमतौर पर हिंदू धर्म व्यक्तिगत आस्था का विषय होता है और उसका प्रदर्शन सार्वजनिक क्षेत्र में नहीं किया जाता। अगर हिंदू परिवार में जन्म हुआ हो और आदमी पूजा पाठ न भी करे तो वह हिंदू बना रह सकता है। कहा जा सकता है कि असली हिंदू धर्म एक लिबरल धर्म है।
इसके पलट हिंदुत्व वह सिद्घांत है जो हिंदुओं की एकता करके और उस एकता के सहारे राजनीतिक सत्ता हासिल करने की बात करता है। हिंदूत्व की विचारधारा की शुरूआत 1924 में सावरकर ने की थी। और आरएसएस के संस्थापक, हेडगेवार से अपील की थी कि हिंदू समाज को हिंदुत्व की विचारधारा की घुट्टी पिलाकर एक राजनीतिक ताकत में बदल दें। पिछले 85 वर्षो से आरएसएस यही कोशिश कर रहा है। जितने भी दंगे हुए हैं उनमें आरएसएस के वे लोग शामिल होते हैं जो हिन्दुत्वादी विचारधारा के शिकंजे में फंस चुके होते हैं। बाद में हिंदुत्व के प्रचार-प्रसार के लिए आरएसएस भारतीय जनसंघ, विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल जैसे संगठनों की स्थापना की ओर हिंदूत्व को पूरी तरह आक्रामक बना दिया है।
बाबरी मस्जिद की शहादत भी इन्हीं हिंदुत्ववादियों की राजनीतिक सोच का नतीजा है। गुजरात में नरेंद्र मोदी ने 2002 में जिस तरह से चुन-चुन कर मरवाया वह भी हिंदूत्व की राजनीति का ही नतीजा है। जाहिर है कि कोई भी हिंदू खासकर आदिवासी, दलित, पिछड़ा वर्ग या उदारवादी सोच के स्वर्ण, हिन्दुत्व की विचारधरा का पक्षधर नहीं हो सकता और इन्हीं कारणों से बाबू लाल मरांडी वापस बीजेपी में जाने को तैयार नहीं हैं।
इस बात की जांच करना दिलचस्प होगा कि बाबूलाल मरांडी जैसा आदमी उस पार्टी से इतना नाराज क्यों है कि वह मर जाना बेहतर समझते हैं लेकिन पार्टी में वापस जाने को राजी नहीं है। बीजेपी के वर्ग चरित्र को समझे बिना इस गुत्थी को समझ पाना मुमकिन नहीं है। बीजेपी एक ऐसी पार्टी है जो पूरी तरह से आर एस एस के नियंत्रण में है और राजनीतिक क्षेत्र में आरएसएस के लक्ष्य को हासिल करना ही बीजेपी या उसके पहले वाली भारतीय जन संघ का उद्देश्य है। इस तरह हम देखते हैं कि बीजेपी कहने को तो राजनीतिक पार्टी है लेकिन असल में वह एक ऐसा संगठन है जिसकी प्रोप्राइटर आरएसएस है।
बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के दावेदार लालकृष्ण आडवाणी ने कई बार स्वीकार किया कि राजनीतिक में वो जो कुछ भी करते हैं, आरएसएस के मकसद को हासिल करने के लिए करते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि बीजेपी में जो भी रहेगा उसे हिंदुत्व का लक्ष्य हासिल करने के लिए काम करना पड़ेगा। ऐसा लगता है कि बाबू लाल मरांडी को बीजेपी की राजनीति का यह पहलू साफ तौर पर समझ में आ गया है और वे अब वापस बीजेपी में किसी भी कीमत पर जाने को तैयार नहीं। बीजेपी की हिंदुत्व की राजनीतिक का उद्देश्य हिंदू समाज के अभिजात वर्ग को सत्ता दिलाना है और उसमें बाबू लाल मरांडी के समाज के आदिवासी लोग तो सेवक की भूमिका में ही रहेंगे।
यह समझना बहुत जरूरी है कि हिंदू धर्म और हिंदुत्व में बहुत फर्क है। हिंदू धर्म को मोटे तौर पर सनातन धर्म से जोड़कर जाना जाता है। यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें कोई सख्त नियम कानून नहीं हैं पूजा करने की आज़ादी है, कोई पूजा पाठ न भी करे तो हिंदू बना रह सकता है। आमतौर पर हिंदू धर्म व्यक्तिगत आस्था का विषय होता है और उसका प्रदर्शन सार्वजनिक क्षेत्र में नहीं किया जाता। अगर हिंदू परिवार में जन्म हुआ हो और आदमी पूजा पाठ न भी करे तो वह हिंदू बना रह सकता है। कहा जा सकता है कि असली हिंदू धर्म एक लिबरल धर्म है।
इसके पलट हिंदुत्व वह सिद्घांत है जो हिंदुओं की एकता करके और उस एकता के सहारे राजनीतिक सत्ता हासिल करने की बात करता है। हिंदूत्व की विचारधारा की शुरूआत 1924 में सावरकर ने की थी। और आरएसएस के संस्थापक, हेडगेवार से अपील की थी कि हिंदू समाज को हिंदुत्व की विचारधारा की घुट्टी पिलाकर एक राजनीतिक ताकत में बदल दें। पिछले 85 वर्षो से आरएसएस यही कोशिश कर रहा है। जितने भी दंगे हुए हैं उनमें आरएसएस के वे लोग शामिल होते हैं जो हिन्दुत्वादी विचारधारा के शिकंजे में फंस चुके होते हैं। बाद में हिंदुत्व के प्रचार-प्रसार के लिए आरएसएस भारतीय जनसंघ, विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल जैसे संगठनों की स्थापना की ओर हिंदूत्व को पूरी तरह आक्रामक बना दिया है।
बाबरी मस्जिद की शहादत भी इन्हीं हिंदुत्ववादियों की राजनीतिक सोच का नतीजा है। गुजरात में नरेंद्र मोदी ने 2002 में जिस तरह से चुन-चुन कर मरवाया वह भी हिंदूत्व की राजनीति का ही नतीजा है। जाहिर है कि कोई भी हिंदू खासकर आदिवासी, दलित, पिछड़ा वर्ग या उदारवादी सोच के स्वर्ण, हिन्दुत्व की विचारधरा का पक्षधर नहीं हो सकता और इन्हीं कारणों से बाबू लाल मरांडी वापस बीजेपी में जाने को तैयार नहीं हैं।
Wednesday, June 24, 2009
राजनीति की विश्वसनीयता और मतदान
तीसरे दौर के मतदान के बाद यह बात बिलकुल साफ हो गई है कि इस बार के लोकसभा चुनाव में मतदाता का कोई उत्साह नहीं है। वोट प्रतिशत ऐसा है जिसको देखकर किसी तरह की लहर की बात तो दूर, बुनियादी रुचि की कमी लगती है।
वैसे गर्मी के मौसम में जब भी चुनाव होता है, अपेक्षाकृत कम लोग बूथ तक जाने की ज़हमत उठाते हैं। देश की अगली सरकार को चुनने के लिए आधी से भी कम आबादी की शिरकत चिंता का विषय है। वास्तव में लोकतंत्र की सफलता की बुनियादी शर्त है कि उसमें अधिक से अधिक लोग शामिल हों और अगर ऐसा न हुआ तो दिन ब दिन लोकशाही की ता$कत कम होती जायगी।
इस बार चुनाव प्रक्रिया में कम लोगों के शामिल होने पर चिंता की बात इस लिए भी है कि चुनाव आयोग ने पूरे देश में अखबार, रेडियो और टेलीविज़न के जरिये अभियान चला रखा था। संदेश यह था कि ज्यादा से ज्यादा लोग वोट देने पहुंचें। चुनाव आयोग के विज्ञापनों में वोट न देने वालों को लगभग फटकारा तक गया था कि वोट ना देने वाले लोग अपनी महत्वपूर्ण डयूटी से किनारा कर लेते है। उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए।
कई गैर सरकारी संगठनों ने भी नागरिकों से अपील की थी कि वोट देना राष्ट्ररीय कर्तव्य है लेकिन बड़ी संख्या में लोगों ने उनकी इस भावना की परवाह नहीं की। आर एस एस के पराने मुखिया को बदल दिया गया है, जो नए महानुभाव आए हैं उन्होंने भी आते ही नारा दिया कि अधिक से अधिक हिंदुओं को वोट देना चाहिए। उनको मुग़ालता है कि उनकी पार्टी को ही वोट देगा। भारत में रहने वाले आम हिन्दू की मानसिकता की इससे गलत समझ हो ही नहीं सकती।
इस देश में रहने वाला हिंदू आमतौर पर सहनशील है क्योंकि अगर वह सहनशील न होता तो जनसंघ हिंदू महासभा और भारतीय जनता पार्टी आजादी के 50 साल बाद तक हाशिए पर न बैठे रहते। इस देश के हिन्दू ने महात्मा गांधी और जवाहर लाल नहरू में हमेशा विश्वास किया और अगर 1980 में दुबारा सत्ता में आने के बाद इंदिरा गांधी और उनके बेटे संजय गांधी ने साफ्ट हिंदुत्व की आर एस एस वाली लाइन को न अपना लिया होता तो आर एस एस के हिन्दुत्व वाले मंसूबे कभी न पूरे होते।
इंदिरा गांधी के बाद कांग्रेस का नेतृत्व ऐसे लोगों के हाथ में चला गया जिनकी राजनीति की समझ पर ही सवालिया निशान लगा हुआ था। राजीव गांधी के शासन के दौरान पब्लिक स्कूल टाइप ऐसे लोग कांग्रेस के नीति नियामक बन गये जो दूर तक भी राष्ट्रहित की बात सोच ही नहीं सकते थे। लेकिन उन्होंने इस देश की एकता की भावना का बहुत नुकसान किया और देश में हिन्दुत्ववादी शक्तियों के विकास के लिए जगह मिल गई। राजीव गांधी की मंडली के ज्यादातर लोग कहीं गायब हो गए है लेकिन देश के मत्थे हलकी राजनीतिक सोच की विरासत मढ़ गये हैं।
देश में मुख्यधारा की सभी पार्टियां भी हल्की राजनीतिक सोच की बीमारी की चपेट में हैं। इसीलिए अब नताओं की सभा में वैसी भीड़ नहीं जुटती जैसी महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, जय प्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया और अटल बिहारी वाजपेयी की सभाओं में जुटती थी। अब भीड़ जुटाने के लिए किसी हेमा मालिनी, संजय दत्त, सलमान खां, या अज़हरूद्दीन की तलाश की जाती है।
इन लोगों को देखने के लिए भीड़ उमड़ पड़ती है लेकिन उसका राजनीतिक दिशा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता और इसीलिए चुनाव के प्रति लोगों की रुचि घट रही है और मतदान का प्रतिशत लगातार कम हो रहा है।
वैसे गर्मी के मौसम में जब भी चुनाव होता है, अपेक्षाकृत कम लोग बूथ तक जाने की ज़हमत उठाते हैं। देश की अगली सरकार को चुनने के लिए आधी से भी कम आबादी की शिरकत चिंता का विषय है। वास्तव में लोकतंत्र की सफलता की बुनियादी शर्त है कि उसमें अधिक से अधिक लोग शामिल हों और अगर ऐसा न हुआ तो दिन ब दिन लोकशाही की ता$कत कम होती जायगी।
इस बार चुनाव प्रक्रिया में कम लोगों के शामिल होने पर चिंता की बात इस लिए भी है कि चुनाव आयोग ने पूरे देश में अखबार, रेडियो और टेलीविज़न के जरिये अभियान चला रखा था। संदेश यह था कि ज्यादा से ज्यादा लोग वोट देने पहुंचें। चुनाव आयोग के विज्ञापनों में वोट न देने वालों को लगभग फटकारा तक गया था कि वोट ना देने वाले लोग अपनी महत्वपूर्ण डयूटी से किनारा कर लेते है। उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए।
कई गैर सरकारी संगठनों ने भी नागरिकों से अपील की थी कि वोट देना राष्ट्ररीय कर्तव्य है लेकिन बड़ी संख्या में लोगों ने उनकी इस भावना की परवाह नहीं की। आर एस एस के पराने मुखिया को बदल दिया गया है, जो नए महानुभाव आए हैं उन्होंने भी आते ही नारा दिया कि अधिक से अधिक हिंदुओं को वोट देना चाहिए। उनको मुग़ालता है कि उनकी पार्टी को ही वोट देगा। भारत में रहने वाले आम हिन्दू की मानसिकता की इससे गलत समझ हो ही नहीं सकती।
इस देश में रहने वाला हिंदू आमतौर पर सहनशील है क्योंकि अगर वह सहनशील न होता तो जनसंघ हिंदू महासभा और भारतीय जनता पार्टी आजादी के 50 साल बाद तक हाशिए पर न बैठे रहते। इस देश के हिन्दू ने महात्मा गांधी और जवाहर लाल नहरू में हमेशा विश्वास किया और अगर 1980 में दुबारा सत्ता में आने के बाद इंदिरा गांधी और उनके बेटे संजय गांधी ने साफ्ट हिंदुत्व की आर एस एस वाली लाइन को न अपना लिया होता तो आर एस एस के हिन्दुत्व वाले मंसूबे कभी न पूरे होते।
इंदिरा गांधी के बाद कांग्रेस का नेतृत्व ऐसे लोगों के हाथ में चला गया जिनकी राजनीति की समझ पर ही सवालिया निशान लगा हुआ था। राजीव गांधी के शासन के दौरान पब्लिक स्कूल टाइप ऐसे लोग कांग्रेस के नीति नियामक बन गये जो दूर तक भी राष्ट्रहित की बात सोच ही नहीं सकते थे। लेकिन उन्होंने इस देश की एकता की भावना का बहुत नुकसान किया और देश में हिन्दुत्ववादी शक्तियों के विकास के लिए जगह मिल गई। राजीव गांधी की मंडली के ज्यादातर लोग कहीं गायब हो गए है लेकिन देश के मत्थे हलकी राजनीतिक सोच की विरासत मढ़ गये हैं।
देश में मुख्यधारा की सभी पार्टियां भी हल्की राजनीतिक सोच की बीमारी की चपेट में हैं। इसीलिए अब नताओं की सभा में वैसी भीड़ नहीं जुटती जैसी महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, जय प्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया और अटल बिहारी वाजपेयी की सभाओं में जुटती थी। अब भीड़ जुटाने के लिए किसी हेमा मालिनी, संजय दत्त, सलमान खां, या अज़हरूद्दीन की तलाश की जाती है।
इन लोगों को देखने के लिए भीड़ उमड़ पड़ती है लेकिन उसका राजनीतिक दिशा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता और इसीलिए चुनाव के प्रति लोगों की रुचि घट रही है और मतदान का प्रतिशत लगातार कम हो रहा है।
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