Friday, January 29, 2021

वैष्णव जन तो तेने रे कहिए जे पीड़ पराई जाणे रे।’ ‘पर दु:खे उपकार करे तोये, मन अभिमान ना आणे रे "

 


 

शेष नारायण सिंह

 

 

गुजरात के संत कवि नरसी मेहता का लगभग वही समय है जब गंगा सारजू के बीच संत तुलसीदास विचरण कर रहे थे .नरसी मेहता का भजन," वैष्णव जन तो तेने रे कहिए " महात्मा गांधी को बहुत प्रिय था। यह भजन गांधी जी की दैनिक प्रार्थना का अंग बन गया था।

मेरा विश्वास है कि अगर कोई भी व्यक्ति इस भजन में बताये गए किसी भी पद्यांश को अपने जीवन में उतारने की कोशिश कर ले तो उसका जीवन सफल हो जाएगा और उसको मन की शान्ति मिलेगी . कोई भी एक पद उठा लीजिये और उसको जीवन में उतार दीजिये या कोशिश ही करिए तो जीवन बहुत ही अच्छा अनुभव देगा . मैंने एक छात्र के रूप में अपने दर्शन शास्त्र के प्राध्यापक , डॉ अरुण कुमार सिंह को इस भजन के पहले छंद का अभ्यास करते देखा है . बाद में मैंने भी कोशिश शुरू की और आज भरोसे के साथ कह सकता हूँ कि उस कोशिश के  कारण ही जीवन के प्रति एक निश्चित दिशा इस भजन से मिली है . नरसी मेहता जब कहते हैं कि ,

 

" वैष्णव जन तो तेने रे कहिए जे पीड़ पराई जाणे रे।

पर दु:खे उपकार करे तोये, मन अभिमान ना आणे रे "



तो वे मानवीयता का एक बहुत बड़ा सन्देश दे रहे होते हैं . वैष्णव जन को आम तौर पर भले आदमी के रूप में माना जा सकता है . जब वे कहते हैं कि वैष्णव जन तो वही है जो दूसरों की तकलीफ को जानता हो वह तो आधी ही बात होती है . पूरी और असली बात दूसरे वाक्य में है और वह यह है कि दूसरे के दुःख में उपकार करे लेकिन अपने मन में भी अभिमान न आने दे .यानी किसी दुखी व्यक्ति के प्रति उपकार करने के बाद अपने मन में भी यह भावना न आने दे कि मैंने किसी का उपकार किया . अगर यह भावना आ गयी तो नरसी मेहता के अनुसार आप वैष्णव जन नहीं हैं और गांधी जी के अनुसार आप भले आदमी नहीं हैं .

देखा यह गया है कि बहुत सारे लोग दुखी लोगों का उपकार करते हैं , उसको पैसे देते हैं , वस्त्र भोजन आदि देते हैं . किसी की परेशानी में मदद करते हैं ,उसके इलाज के लिए सहायता करते हैं यानी उसके दुःख में उपकार करते हैं लेकिन उसका प्रचार करने लगते हैं . या तो बकरी की तरह मैं मैं मैं करने लगते हैं ,जो भी उनका प्रलाप सुनने को तैयार हो उसको बताते रहते हैं या एक दर्जन केला देते हुए फोटो खिंचवाते हैं, या सबसे सस्ता कम्बल खरीद करकर ठण्ड के मौसम में वितरित करते हुए फोटो अखबार में छपवाते हैं और आत्मप्रचार में लग जाते हैं . यह भलमनसी नहीं है ,महात्मा गांधी या नरसी मेहता के पैमाने वे लोग न तो वैष्णव हैं और नहीं भले आदमी हैं क्योंकि उनके यहाँ तो किसी और को बताने की बात तो दूर अपने मन में भी अभिमान नहीं आने देना है .अगर अपने मन में भी अभिमान आ गया तो फिर आप वैष्णव जन नहीं रहे .

इस साधना का अभ्यास बहुत ही कठिन काम है . आपको ज्यादातर लोग ऐसे मिल जायेंगें जो लोगों की मदद करते हैं ,जिसकी मदद करते हैं उसकी ज़िंदगी में निश्चत बदलाव आता  है लेकिन हर आम-ओ-ख़ास को बताते रहते हैं कि उन्होंने खुद अपने दस्ते-पाक से फलाने की मदद की है . ऐसा करते ही वे महात्मा जी की कसौटी पर खरे उतरने में नाकाम रह जाते हैं .

नरसी मेहता की इसी बात को उर्दू के शायर मुबारक सिद्दीकी ने भी कहने की कोशिश की है .जब वे कहते हैं कि ,

“ किसी की रह से ख़ुदा की ख़ातिर उठा के काँटे, हटा के पत्थर

फिर उस के आगे, निगाह अपनी झुका के रखना ,कमाल ये है .”

तो वे भी लगभग वही बात कह रहे होते  हैं जो  संत तुलसीदास के समकालीन संत नरसी मेहता ने कही थी .महात्मा गांधी के प्रिय भजन की हर  पंक्ति में जीवन को पुरसुकून बनाने के मन्त्र देखे जा सकते हैं .

 

 

 

No comments:

Post a Comment