Sunday, February 9, 2020

नतीजे कुछ भी हों दिल्ली विधानसभा के चुनाव में प्रचार का नया व्याकरण गढ़ा गया है


शेष नारायण सिंह

दिल्ली विधान सभा २०२० के चुनाव के लिए मतदान हो गया . नतीजे अभी नहीं आये लेकिन एग्जिट पोल आ गया है. एग्जिट  पोल के संकेतों पर अगर विश्वास किया जाए तो साफ़ है कि दिल्ली की जनता ने फैसला केजरीवाल सरकार के काम काज को ध्यान में रखकर ही किया है . वर्तमान सरकार के मुख्यमंत्री की पार्टी को निश्चित जीत का संकेत एग्जिट पोल ने  दे दिया है . जनता ने चुनाव के दौरान केंद्र  सरकार के मंत्रियों , बीजेपी के कार्यकर्ताओं और आर एस एस के स्वयंसेवकों की उन बातों पर विश्वास नहीं किया जो दिन रात उनके कान में कही जा रही थीं.  पिछले पचास वर्षों से  देश के चुनावों को देखने के अनुभव के आधार पर बता सकता हूं कि इतना अजीबोगरीब चुनाव  मैंने  कभी नहीं देखा . दिल्ली जैसे अधूरे राज्य की विधान सभा में ३५ सीटें जीतने  के लिए सत्ताधारी पार्टी ने पूरी ताक़त लगा दी. पार्टी के मौजूदा और पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष दिन रात प्रचार के काम में लगे रहे . बीजेपी शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों को दिल्ली तलब कर लिया गया था. सबको चुनाव प्रचार करने के काम में लगा दिया  गया था . जिन राज्यों में कभी बीजेपी का शासन था वहां के उन नेताओं को मोहल्ले मोहल्ले जाकर प्रचार करने को कह दिया गया था जो कभी मुख्यमंत्री थे.  दिल्ली के प्रत्येक परिवार से संपर्क का काम आर एस एस के कार्यकताओं  के जिम्मे था . केंद्र सरकार के बहुत सारे  मंत्री दिल्ली  विधानसभा में चुनाव प्रचार की ड्यूटी पर थे .जब करीब २४० संसद सदस्यों की ड्यूटी उन बस्तियों में लगा दी गयी जहां कोई भी बुनियादी सुविधाएं नहीं हैं .  चुनाव के आखिरी दौर में उन संसद सदस्यों को वहीं झुग्गियों में जाकर रहना था, वहीं सोना था और वहीं खाना था.   सत्ताधारी पार्टी के वफादार पत्रकारों को भी ज़िम्मा दे दिया गया था कि दिल्ली चुनाव की अवधि में  पाकिस्तान, हिन्दू- मुस्लिम टकराव , देशप्रेम , राष्ट्रवाद , कश्मीर, राम मंदिर आदि मुद्दों के अलावा कोई भी असली मुद्दा चर्चा में न आने पाए . प्रधानमंत्री ने स्वयं  दिल्ली में चुनाव सभाएं कीं. टेलिविज़न पर उनका एक घंटा चालीस मिनट का  वह भाषण भी लाइव दिखाया गयाजो उन्होंने  लोकसभा में बहस के दौरान दिया था  . कई टीवी चैनलों के कान्क्लेव  हुए. वहां भी सभी पार्टियों के नेताओं के साथ  हुयी चर्चा को दिखाया गया . बीजेपी नेताओं की बातों को ख़बरों की हेडलाइन बनाई गयी. उनके विवादित बयानों पर बहसें हुईं . टीवी की बहसों का अगर एक महीने का रिकार्ड देखा जाय तो यह बात समझ में साफ़ साफ़ आ जायेगी .  नागरिकता कानून में हुए संशोधन ( सी ए ए ) के  खिलाफ देश में चल रहे विरोध को भी मुस्लिम रंग देने की पूरी कोशिश टीवी की बहसों में की गयी . जामिया विश्वविद्यालय में छात्रों पर हुए पुलिस के हिंसक हमलों के खिलाफ जब अपने मोहल्ले ,शाहीन बाग़ के सामने की  सड़क पर कुछ  महिलाओं ने  विरोध  प्रदर्शन किया तो उसको प्रशासन ने शुरू में नज़रंदाज़ किया . वह प्रदर्शन इतना बड़ा हो गया कि शाहीन बाग़ अब एक मुहावरा बन चुका है . शाहीन बाग़ दिल्ली के मुस्लिम बहुल इलाकों में से एक है . शायद इसी बात को  ध्यान में रखकर  उसको केवल मुसलमानों के आन्दोलन की तरह  चित्रित करने की कोशिश की गयी . अगर किसी ने किसी टीवी  चैनल पर यह कह दिया कि शाहीन बाग़ में सभी धर्मों के लोग इकठ्ठा हो रहे हैं तो  उसको चुप  करा दिया गया . वफादार पत्रकारों और चैनलों को वहां भेजकर बाकायदा  रिपोर्टिंग का आयोजन किया  गया .लेकिन दिल्ली की जनता के बीच नेताओं के प्रति तो अविश्वसनीयता है ही ,मीडिया के प्रति भी भारी अविश्वसनीयता देखी गयी.  चुनाव के दौरांन एक गुमनाम पत्रकार के रूप  में घूमते हुए मैंने खुद देखा कि जनता अपनी सूचना के लिए मीडिया पर निर्भर नहीं थी. सभी लोग अपने तरीके से  सूचना इकठ्ठा कर रहे थे .
 बीजेपी के सभी बड़े-छोटे  नेताओं के  भाषणों में कांग्रेस के खिलाफ ज़बरदस्त फोकस रखा जा रहा था. बीजेपी की रणनीति का हिस्सा था कि अगर कांग्रेस मजबूती से  चुनाव लडेगी तो आम आदमी पार्टी के उम्मीदवारों को नुक्सान होगा . लेकिन ऐसा हुआ नहीं . लगता है कि कांग्रेस ने मन बना लिया था कि अपनी कुरबानी पेश करके वे बीजेपी को फायदा नहीं पंहुचाना चाहते थे. शायद इसीलिये उन्होंने चुनाव के पहले दिल्ली प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष एक ऐसे आदमी को बनाया जो संजय गांधी युग में सक्रिय था . बाद में भी  सक्रिय तो रहे लेकिन कभी भी ज़मीनी नेता नहीं रहे .उधर आम आदमी पार्टी वाले ऐसे  किसी भी मुद्दे पर चर्चा करने को तैयार ही नहीं होते थे जो उनकी कमजोरी को रेखांकित कर दे . आम आदमी पार्टी के तीनों बड़े नेता, अरविन्द  केजरीवाल, मनीष सिसोदिया और संजय  सिंह ने शाहीन बाग़ , हिन्दू-मुस्लिम, कश्मीर जैसे मुद्दों को छुआ तक नहीं . अरविन्द केजरीवाल ने पूरे चुनाव को अपने कार्यकाल के काम से जोड़ दिया  लेकिन बीजेपी के गली मोहल्ले के नेता से लेकर शीर्ष नेता तक हिन्दू भावनाओं को ही संबोधित कर रहे थे .  इस बार  दिल्ली की जनता की प्राथमिकताएं शिक्षा स्वास्थ्यपीने का पानी और बिजली  रहीं  . आम आदमी पार्टी के नेता इन्हीं  बिन्दुओं पर मतदाता को केन्द्रित करने की रणनीति पर काम करते  रहे . उधर  बीजेपी वाले   हिंदुस्तान-पाकिस्तानशाहीन बाग़ ,  कश्मीर और राम मंदिर पर चर्चा करने की कोशिश  कर रहे थे .बीजेपी वाले आम आदमी पार्टी को शाहीन बाग़ वाला बताकर उनको हिन्दू विरोधी साबित करने के प्रोजेक्ट पर भी बहुत मेहनत  कर  रहे थे .लेकिन अरविन्द केजरीवाल ने एक टीवी कार्यक्रम में सस्वर हनुमान  चालीसा का पाठ करके  अपने को हिन्दू विरोधी साबित करने वाले अभियान को नाकाम कर दिया  .
 चुनाव के ऐन पहले राम मंदिर  निर्माण के ट्रस्ट की घोषणा करके बीजेपी ने चुनावी विमर्श में एक और बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दा जोड़ दिया था  . अगर इस घोषणा के बाद आम आदमी पार्टी वाले चुनाव आयोग जाते और आचार संहिता की अनदेखी का मामला उठाते तो उनको राम मंदिर विरोधी साबित करने में मदद मिल सकती थी . लेकिन अरविन्द केजरीवाल ने उस पर  भी कोई उल्टी टिप्पणी नहीं की . घोषणा के समय का विरोध असदुद्दीन ओवैसी जैसे कुछ लोगों ने ही किया जिनके बारे में जानकारों के एक वर्ग की अजीब राय है. बहुत सारे ऐसे लोग मिल जायेंगे जो यह  कहते पाए जाते हैं कि असुदुद्दीन ओवैसी की राजनीति से उत्तर भारत में बीजेपी को बहुत फ़ायदा होता  है . जब असुदूद्दीन ओवैसी का बयान आया तो आर एस एस के पत्रकारों और मीडिया संगठनो ने उस बयान को पूरी मुस्लिम बिरादरी की राय साबित करने के लिए बहुत मेहनत  की लेकिन किसी ने उन बातों को तवज्जो नहीं दी . सबको मालूम  है कि उनके  बयानों से आजकल बीजेपी का चुनावी फायदा होता है .
अब चुनाव  प्रचार ख़त्म हो गया है . भरोसे के साथ कहा जा सकता है कि सारी कोशिशों के बावजूद  दिल्ली विधानसभा का चुनाव सांप्रदायिक नहीं हुआ . दूसरी ज़रूरी बात यह रही कि शाहीन बाग़ के सत्याग्रह आन्दोलन के बहाने देश में मुसलमानों के खिलाफ साम्प्रदायिक ज़हर घोलने की कोशिश की गयी लेकिन ऐसा  करने में  किसी को सफलता नहीं मिली.  शाहीन बाग़ की अपनी कई यात्राओं  में  मैंने खुद ही देखा कि वह आन्दोलन मुसलमानों का आन्दोलन नहीं था. वहां सभी धर्मों के लोग थे . सबसे बड़ी बात यह थी कि उसकी  क़यादत औरतों के हाथ में थी. जो लडकियां वहां रजिस्टर लेकर खड़ी रहती थीं , उनकी फर्राटेदार  हिंदी ,उर्दू और अंग्रेज़ी प्रभावित करती थी. शाहीन बाग़ वास्तव में एक ऐसा आन्दोलन है जिसमे औरतों की भागीदारी ने यह उम्मीद जता दी है कि आने वाले दौर में औरतें भी उसी तरह से सियासत की अगली सफ में मौजूद  होंगीं जैसे उत्तरी यूरोप के देशों में देखा जाता है .  स्वीडन , डेनमार्क,  नार्वे  आदि में सरकार में बहुमत औरतों का ही है . शांतिपूर्ण तरीके से आन्दोलन चलाने की  जो मिसाल दिल्ली के शाहीन बाग़ की ख़वातीन ने क़ायम की है उसको आदर्श मानकर लखनऊ मुंबई आदि शहरों में  औरतों ने मोर्चा संभाल लिया है. इस आन्दोलन ने एक ख़ास और साबित कर दिया है  कि अपने हक के  लिए लड़ने के लिए किसी भी पार्टी में शामिल होना  बिलकुल ज़रूरी नहीं है .
 दिल्ली विधानसभा के चुनाव  में नतीजे अभी नहीं आये हैं . एकाध दिन में आ जायेंगे लेकिन इस चुनाव ने यह साबित कर दिया है कि अगर केजरीवाल जैसा संतुलित नेता  मुकाबिल खड़ा हो तो  आर एस एस और बीजेपी  किसी भी   सूरत में राजनीति को साम्प्रदायिक रंग नहीं दे सकेंगे . 

1 comment:

  1. दिल्ली ने देश को एक बार फिर एक नई राह दिखाई है. 2014 में बीजेपी के प्रचंड जीत के बाद दिल्ली ने हीं उसे रोकने का काम किया था. और ऐसे रोका था कि एक नया इतिहास कायम करते हुए 70 विधानसभा सीटों में से 67 विधान सभा सीट जीती थी. 2020 में आप की जीत तो तय मानी जा रही थी. बस अंदाजा यह लगाया जा रहा था कि आप 67 से कितना कम होगी. https://giribipinpolitical.blogspot.com/2020/02/blog-post_10.html

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