Sunday, December 22, 2019

कहते हैं के माँ के पाँव के नीचे बहिश्त है


शेष नारायण सिंह


23 दिसंबर 2005. 82 साल की उम्र पूरी कर के वह अंतिम यात्रा पर निकल पड़ी थीं . अपने छोटे बेटे की गोद में उन्होंने अंतिम सांस ली .उनका बड़ा बेटा घर की आमदनी बढाने के लिए दिल्ली आ गया था , दो ब्याहता बेटियाँ अपने अपने घरों पर थीं . 22 तारीख की रात को एकाएक तबियत बिगड़ी और रात बीत नहीं पाई थी कि उन्होंने अपने उस घर से विदाई ले ली जहां वे सन 1937 में दुलहिन के रूप में आई थीं .वह मेरी मां हैं . उनकी पुण्यतिथि पर उनकी याद के साथ वे बहुत सी बातें भी याद आ रही हैं जो उन्होंने खुद बताई थीं , वे बातें भी याद रही हैं जिनको उन्होंने मुझसे या अपने बच्चों से नहीं बताई थीं लेकिन अन्य लोगों से मालूम पड़ गयी थीं.
जौनपुर सिटी रेलवे स्टेशन ,सैदन पुर और नई गंज गाँवों के बीच बना है . आज से करीब साठ साल पहले वहां कोई रेलवे स्टेशन नहीं था. इन्हीं दोनों गाँवों की ज़मीन अधिग्रहण करके स्टेशन बनाया गया . मेरी मां के पिताजी इसी सैदन पुर गाँव के थे . यह गाँव बहुत ही पुराना गाँव है . लखौरी ईंट से बने बहुत सारे खंडहर मैंने ही साठ और सत्तर के दशक में इन गाँव में देखे हैं . इस गाँव में माली, कोइरी, अहीर, कुम्हार, दर्जी ,दलित आदि जातियों के लोग रहते हैं . मियाँ साहबान भी थे. मेरे मामा के दोस्त मिर्ज़ा फीरोज़ बेग बड़े किसान थे , जैदी परिवार भी था लेकिन ज़ैदी परिवार के लोगों ने खेती को बहुत पहले छोड़ दिया था . मुझे बहुत बाद में पता चला कि गाँव में रहने वाले जैदी वे लोग थी जिनको जौनपुर शहर में ही कहीं नौकरी मिल गयी थी . बाकी लोग गाँव छोड़कर जा चुके थे .दिल्ली, लखनऊ,अलीगढ, मुंबई आदि शहरों में मुझे मेरे ननिहाल के जैदी लोग कभी न कभी मिलते रहे हैं . गाँव में पढ़े लिखे लोगों की दूसरी जाति कायस्थों की थी. लगभग सभी जौनपुर की कचहरी या किसी सरकारी दफ्तर में बाबू थे. उन लोगों के यहाँ खेती भी होती थी लेकिन खुद नहीं करते थे , कोइरी या अहीर लोगों को अधिया पर दे रखा था. मैं जब जौनपुर पढने के लिए 1967 में गया तो यही ढांचा था गाँव का . गाँव के बिलकुल पश्चिम  में ठाकुरों और ब्राह्मणों का घर था. एक ही खानदान के दो तीन परिवार थे . अब तो अलग विलग होकर कई परिवार हो गए हैं .
मेरी मां के पिता, स्व ठाकुर द्वारिका सिंह  संपन्न किसान थे. जौनपुर जिले में अंग्रेज़ी राज शुरू होने के पहले से ही कैश क्राप का चलन था . शर्की सुल्तानों की राजधानी था जौनपुर. मेरे नाना भी कैश फसलों के किसान थे .चमेली और परवल उनके कई खेतों में होता था . उनके गाँव में 1955 में सरकारी ट्यूबवेल लग गया था. इसी गाँव में मेरे पूर्वज 1937 में बारात लेकर गए थे . उस समय मेरे पिताजी की उम्र 13 साल की थी. मकसूदन के ज़मींदारों की पट्टी पिरथी सिंह के इकलौते वारिस थे . शान से बारात गयी थी. उनके ननिहाल .हमीनपुर से उनके नाना साहब दल बल सहित आये थे .हाथी ,घोड़े और बैलगाड़ियों से बराती गए थे , ऊंटों से लदकर तम्बू शामियाने गए थे . बैलगाड़ियों से भी सामान गया था .बारात सुबह कौवा बोले चल पड़ी थी और करीब सोलह कोस की दूरी तय करके शाम द्वार पूजा तक यह लोग पंहुच गए थे. हमारे बाबू के काका , स्व ठाकुर राम आधार सिंह नौजवान थे . उन्होंने मुझसे बताया था कि बच्चा की शादी का सारा इंतज़ाम उनके ही कंधे पर था . पुद्दन दर्जी बताते थे कि बच्चा की शादी में बहुत लोगों को कपडे दिए गए थे और वे अपने अब्बा के साथ सिलाई मशीन आदि लेकर करीब पन्द्रह दिन पहले से ही आकर जम गए थे. मुराद यह कि बारात बहुत ही शान शौकत से गयी थी .
ज़मींदारों का ज़िक्र होने पर आम तौर पर बहुत धनवान और राजसी शान का तसव्वुर होता है लेकिन हमारे पुरखों के यहाँ रईसी नहीं थी. हर शादी ब्याह के समय कुछ न कुछ ज़मीन ज़रूर बिकती थी . लगान भी कम इकट्ठा होती थी क्योंकि ज्यादातर रियाया ब्राहमण थे और उनसे जोर ज़बरदस्ती नहीं की जा सकती थी . मेरे माता पिता की शादी होने के तीन साल के अन्दर ही परिवार में कलह शुरू हो गयी थी. मेरे पिताजी के बाबा दो भाई थे . दोनों भाइयों में बहुत ही अपनापा था लेकिन उनके बच्चों की बहुओं में बात बात पर झगड़ा होता रहता था. 1944 आते आते दोनों भाइयों में अलगौझी हो गयी . छोटे भाई की तो उसी साल मृत्यु ही हो गयी . मेरे समझदार होने पर मेरे गाँव के ही बुज़ुर्ग चश्मा बाबा ने बताया कि अलग होने के बाद वे बहुत ही दुखी रहते थे और कुछ महीने बाद ही उनकी मृत्यु हो गयी .
ज़मींदारों के परिवार में विवाह होने के बाद भी मेरी मां की ज़िंदगी अभावों में बीती . बताती थीं कि जब उनकी शादी हुयी तो देश में गान्हीं का राज आ चुका था. यानी गवर्नमेंट आफ इण्डिया एक्ट 1935 के बाद हुए चुनावों में कांग्रेस की सरकार यू पी में बन चुकी थी. मेरे परिवार में लोगों ने पढाई लिखाई नहीं की थी . मेरी मां के गाँव में कायस्थ और मियाँ लोगों को पढाई करके तरक्की करते मेरी माँ ने देखा था. इसलिए वह अपने बच्चों को पढ़ाना चाहती थी. बड़ी लडकी को तो स्कूल नहीं भेज सकीं लेकिन बाद की औलादों को भेजा. पिताजी पढ़ाई लिखाई को फालतू की चीज़ मानते थे लेकिन मां की जिद चली और मैं पढ़ लिख गया .
उसी मां की याद हमेशा आती रहती हैं . कोशिश करता हूँ कि उनके बच्चों के बच्चे दिसंबर के आख़िरी हफ्ते में गाँव में रहें , उनकी यादें की जाएँ और उनको सही मायनों में श्रद्धांजलि दी जाए .लेकिन बच्चों को नहीं मालूम कि क्या क्या पापड़ बेलकर मेरी मां ने अशिक्षा के उस शिकंजे से अपनी भावी पीढ़ियों को निकाला है . उनको नहीं मालूम कि एक अकेली औरत की जिद के कारण ही इस परिवार में शिक्षा आयी है . हम भाई बहनों की सभी लड़कियां उच्च शिक्षा प्राप्त हैं , सभी बहुएं ग्रेजुएट या उससे ऊपर हैं . लड़के भी उच्च शिक्षित हैं . सब सम्माननीय काम कर रहे हैं . लेकिन सब की अपनी अपनी प्राथमिकता है . मैं यहाँ महानगर में बैठा हूँ और देवतुल्य मां को याद कर रहा हूँ

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