शेष नारायण सिंह 
बनारसी संस्कृति , धर्म, परंपरा और लंठई की
बुलंदी को फिर से स्थापित करने वाली एक किताब हाथ लगी है .नाम है , " साधो ये
उत्सव का गाँव " अभिषेक उपाध्याय, अजय सिंह और रत्नाकर चौबे ने इस किताब का
संपादन किया है .यह  काशी की पंचक्रोशी
यात्रा की यादों का एक बेहतरीन संकलन है .सभी यात्रियों की यादें इसमें लिखी गयी
हैं. हुआ यह कि बनारसी ठलुओं की एक अड़ी के कुछ नक्षत्रों को यह बताया  गया कि तुम बनारस को ठीक से नहीं जानते ,
लिहाजा बनारस को समझने की एक यात्रा करते हैं .इन सबों ने मिलकर अगस्त के अंतिम दिनों
में काशी की पंचक्रोशी यात्रा की और अपने अनुभवों को कलमबंद कर दिया  . सारी यादें भाइयों ने व्हाट्सप पर लिखीं और इसको
पुस्तक के रूप  छाप दिया गया .  यात्रा का घोषित उद्देश्य था कि काशी को ठीक से
समझा जाएगा  . लेकिन कई यात्रियों ने
लिखा  है कि उनकी हालत कोलंबस वाली हो गयी.
कोलंबस खोजने निकले थे भारत और खोज  निकाला
अमरीका ,लगभग उसी तरह कुछ  ठलुओं ने कुबूल
किया है उन्होंने यात्रा शुरू की थी , बनारस को पूरा खोजने के लिए लेकिन अंत में
अपने  आपको ही समझकर  संतुष्ट हो गए . विख्यात पत्रकार हेमंत शर्मा
इस टोली के मुख्य संयोजक थे , भांति  भांति
के संतों को इस यात्रा में शामिल होने की 
प्रेरणा दी और सब को लेकर चल पड़े. जनसत्ता के आदिकाल से बहुत बाद तक उसके
उत्तर प्रदेश के संवाददाता के रूप में हेमंत ने अपने आपको मेरे जैसे लोगों के
दिमाग में स्थापित किया था . जनसत्ता की 
भाषा का जो विकास हुआ उसमें हेमंत के बनारस की   भाषा के भी बहुत से लक्षन थे. इस यात्रा के
संकलन का जो परिचय उन्होंने लिखा है उसमें उस विकासमान भाषा के कुछ विकसित तत्व भी
शामिल हैं . पंचक्रोशी यात्रा, काशी, अड़ी, ठलुआ और लंठई की बाकी दुनिया में अबूझ
सत्ता को उनके चरैवेति चरैवेति को पढने से समझने में बहुत सुविधा होगी .उनके उसी
लेख से कुछ उधार लेकर बात को साफ़ करने की कोशिश की जायेगी .
बहुत सारे लोग काशी को जानते हैं या जानने
का दावा करते हैं लेकिन उनके मानसिक विकास के क्रम में एक मुकाम ऐसा आता  है जब उनको लगता है कि उन्होंने  काशी की गलियाँ देखीं , घाट देखे  , खानपान देखा, बोली बानी देखी ,पहनावा देखा,
हर हर महादेव की  बारीकियां समझीं , नाटी
इमली का भरत मिलाप देखा, चेतगंज की नक्कटइया देखी, सांड और सन्यासी देखे ,वह
गलियाँ देखीं जहाँ से अपने अपने वक़्त के बड़े बड़े सूरमा विश्वनाथ दरबार में हाजिरी
लगाने आते रहे थे  लेकिन  उन्होंने वह काशी नहीं देखी जहां कबीर को रामानंद
मिले थे  ,जहां रामबोला को उनके  आक़ा ने तुलसीदास बना दिया था , कलकत्ता जाते हुए
जहां  ग़ालिब ठहरे थे और उन्होंने एक बार तो
बनारस को ही अपना ठिकाना बनाने  का मन बना
लिया था . उसी बनारस में ग़ालिब ने चराग़-ए-दैर लिखा था . हेमंत शर्मा लिखते हैं कि
सब कुछ नज़रों के सामने था, बस , 'नज़र' नहीं थी. 
जो कुछ दिख रहा था ,उससे बस एक कदम बढ़ाना था और काशी के भूगोल से निकलकर बस
अगला क़दम उसके इतिहास में ,उसकी परम्पराओं में पड़ने वाला था. 
तो जनाब इस तलाश में ठलुओं की अड़ी के यह लोग
निकला पड़े . जो यात्रा आमतौर पर पांच दिन में की जाती है उसको तीन दिन में पूरी की
. करीब अस्सी  किलोमीटर की यात्रा  यानी पचीस किलोमीटर रोज़ का पैदल चलना . शहराती
बाबुओं के लिए यह टेढ़ी खीर है . लेकिन इन लोगों ने इस यात्रा को पूरा किया क्योंकि
अगर असंभव को संभव बनाने  की क्षमता न हो
तो बनारसी कैसा और ठलुआ कैसा . ठलुआ काशी की 
संस्कृति का स्थाई भाव तो है ही सदियों से यह संचारी भाव भी  है .चरैवेति चरैवेति में ही ठलुआ की प्रबोधिनी
लिख दी गयी है .लिखते हैं "  ठलुवत्व
एक बनारसी जीवनदर्शन है ,जीने की कला है , समाज को देखने की दृष्टि है ,दुनिया को
ठेंगे पर रखकर अपनी बात को बेलौस कहने की जिद 
है , ' उधो क लेना ,न माधो का देना ' उसका मकसद है . ठलुवा दुखी हो सकता है
,पर रोता नहीं है . वह रोने में भी हंसने का आनंद लेता है . ठलुए में चार कहने और
चार सुनने की क्षमता होती है . वह खुद के अलावा समूची दुनिया को मूर्ख समझता है.
वह जीवन के राग-रंग से  चुस्त-दुरुस्त होने
के साथ ही औघड़पन का दिव्य रस पैदा करने देने वाली भांग-ठंडाई का भी  शौक़ीन होता है . भगवान भोले का यह परम भक्त, धन
कमाने के कौशल को मूर्खता नहीं , तो धूर्तता तो ज़रूर  समझता है . ठलुवा भूखा रहेगा पर किसी के आगे
हाथ नहीं पसारेगा , अगर कभी पसारेगा तो भी शेर की तरह गुर्राते हुए . " ऐसे ही  ठलुवों ने अपनी काशी की पंचक्रोशी यात्रा की और
उस यात्रा के अपने अनुभव हम जैसे लोगों के लिए लिख दिया जिनके बचपन का सपना है कि
काश हम भी कभी बनारस में रह पाते  . उम्र
के चौथेपन में आ गए लेकिन वह सपना अधूरा ही 
रह गया .
यह ठलुवे एक  अड़ी के सदस्य हैं .बंगाल में जिस संस्था को
अड्डा कहते हैं उसका आदिस्वरूप बनारस शहर की अड़ी से ही लिया गया है.  किताब में पिछले सौ दो सौ साल की प्रमुख अड़ियों
का ज़िक्र भी है. यह भी बताया गया है कि बनारस से 
निकलकर जिन लोगों पूरे देश में अपनी मौजूदगी की धाक बनाई , वे बनारस
की  किसी न किसी अड़ी के सदस्य थे और वहीं
उन्होंने अपनी मेधा , ज्ञान और तर्कशक्ति का 
विकास  किया था.  शिव 
प्रसाद सिंह, केदारनाथ सिंह , नामवर सिंह, धूमिल, चंद्रशेखर मिश्र ,बेधडक
बनारसी , भैयाजी बनारसी  सभी किसी न किसी
अड़ी के सदस्य रह चुके  हैं. बनारस में एक
ठलुवा क्लब भी है जहां अपने क्षेत्र के बड़े बड़े 
महारथियों और  साहित्यकारों को
आमंत्रित करके उनका मुंडन करने की सांस्कृतिक परम्परा रही है .
" साधो ये उत्सव का गाँव " में सभी
यात्रियों ने अपने अपने अनुभव को  कलमबंद
किया है . कुछ ऐसे भी लोगों ने इस यात्रा से जुडी अपनी यादों को  लिखा 
है जो इस यात्रा में किन्हीं कारणों से शामिल  नहीं हो सके थे . किसी के परिवार में कोई  ग़मी हो गयी और किसी को छुट्टी नहीं मिली . उनके
लेख से यह बात समझ में आ जाती  है कि
यात्रा में न जाकर क्या क्या मिस किया था 
ठलुवों ने .
शरद शर्मा ने  पंचक्रोश के इतिहास और महिमा पर जो लिखा है वह
जानकारी के लिहाज से बहुत उपयोगी है .ब्रह्मवैवर्त पुराण और स्कन्द पुराण के हवाले
से काशी के प्राचीन भूगोल के बारे में ज़रूरी सूचना उनके लेख में उपलब्ध है .मुनीश
मिश्रा ने सत्यं ,शिवं ,सुन्दरम के हवाले से पंचक्रोशी की यात्रा को ऐतिहासिक नज़र
को लिपिबद्ध कर दिया है .
अभिषेक उपाध्याय और रत्नाकर चौबे ने
यात्रा का वृत्तान्त लिखा है . रास्ते के गाँव, कस्बे ,मंदिर  , तालाबों का अच्छा परिचय है .उन्होंने बनारस
से जुडी बहुत सारी ऐतिहासिक जानकारी भी शामिल किया है . मणिकर्णिका से मणिकर्णिका तक
की यह यात्रा उन्होंने संभालकर लिखा है .प्रेमचंद की कहानी ' बड़े भाई साहब ' का
एकल मंचन जो अभिषेक उपाध्याय ने किया उसकी तारीफ़ लगभग सभी रिपोर्टों में है . ममता
शर्मा का गायन और बिरहा का मुकाबला भी ठलुवों के दिल में समाया  हुआ  है
. 
बहुत ही दिलचस्प किताब . ठलुवा कल्चर के
हिसाब से लगभग सभी लेखकों ने अपनी लेख में किसी न किसी की खिंचाई ज़रूर की  है . मसलन वृत्तान्त में ही बब्बू राय पर तंज
है कि ' बिना कुछ किये श्रेय लेने की धरतीफाड़ कोशिश " . यह अभिव्यक्ति का तरीका
अच्छा लगा . बब्बू  विनय राय की रिपोर्ट
मनमोहक  है .' जब बाहुबली ने पहली बार देखी
माहिष्मती ' मुझे बहुत अच्छी लगी. उस पर रत्नाकर चौबे की टिप्पणी , " जौ
विनायक का दर्शन कर सब लोग 'सशरीर ' मणिकर्णिका घाट जाकर यात्रा पूरी किये  " लाजवाब है.    उस पर सवा सेर है हेमंत शर्मा की टिप्पणी .
लिखते हैं ," वाह रे बब्बू ! अभई तक हम तोहके बाहुबलिये जानत रहली. पर तू त
विद्वानौ हउआ ."
सभी लेखकों के लेख अंत में उनका परिचय भी है.
कुछ परिचय ऐसे हैं जो आनंद की धार से भरपूर हैं. ठलुवों की अड़ी के स्तम्भ नवीन
तिवारी के परिचय की एक बानगी  देखिये
," नवीन तिवारी ठलुवों की इस अड़ी के आमरण अध्यक्ष हैं. वे बहुमत के विरोध के
बावजूद इस पद पर  ' निर्विरोध ' चुने गये .
ऐसी उपलब्धि हासिल करने वाले देश के पहले 
अध्यक्ष हैं . " 
किताब को  दिल्ली के प्रभात प्रकाशन ने छापा है.
 
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