Thursday, April 11, 2019

कश्मीर से आतंक का सफाया करने के लिए नेहरू जैसी बड़ी सोच अपनाना होगा



शेष नारायण सिंह


कश्मीर के बारे में वहां के कुछ नेताओं के अजीबोगरीब बयानों के बाद कश्मीर फिर चर्चा में हैं .. देश की हर समस्या के लिए जवाहरलाल नेहरू को ज़िम्मेदार ठहराने वालों के सामने भी दुविधा  है . जब जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल के सामने कश्मीर समस्या आई थी तो देश की आर्थिक और सैनिक  तैयारी बिलकुल नहीं थी. इंग्लैण्ड और अमरीका  भारत का विरोध कर रहे थे .अंग्रेजों से वफादारी  के इनाम के रूप में मुहम्मद अली जिन्नाह को पाकिस्तान की  बख्शीश मिल चुकी थी , जिन्ना किसी भी कीमत पर जम्मू-कश्मीर पर कब्जा करने के चक्कर में थे और जम्मू-कशमीर के तत्कालीन राजा पाकिस्तान के साथ जाने के बारे में विचार कर रहे थे . लेकिन सरदार पटेल ने न केवल जम्मू-कश्मीर का भारत में बिना  शर्त विलय करवाया ,बल्कि अमरीका और इंग्लैण्ड की मर्जी के खिलाफ पाकिस्तान को भी उसकी औकात दिखा दी .  आज  भारत दुनिया में एक बड़ी अर्थशक्ति ,सैन्य शक्ति, परमाणु शक्ति और अंतरिक्ष शक्ति के रूप में स्थापित हो चुका है .अमरीका और ब्रिटेन से भारत की दोस्ती है लेकिन फिर भी कश्मीर में एक बड़ी समस्या पैदा हो गयी  है. अलगाववादी नेताओं की जमात ,हुर्रियत कान्फरेन्स के लोग तो पाकिस्तान का जयकारा लगाते ही रहते थे ,अब भारत के साथ रहने की बात करने वाले नेता भी भारत से अलग होने की धमकी देने लगे  हैं . जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्रियों. महबूबा मुफ्ती, फारूक अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला के ताज़ा बयान बहुत ही निराशाजनक हैं .  यह तीनों ही नेता बीजेपी के साथ कई अवसरों पर सरकार में  शामिल रह चुके  हैं . संविधान के अनुच्छेद 35 ए के मामले ने इतना  तूल पकड लिया है कि जम्मू-कश्मीर के होशमंद नेता भी अलग होने की बात करने लगे  हैं. इसके लिए काफी हद तक मौजूदा सत्ताधारी पार्टी और उसके नेता ज़िम्मेदार हैं. बीजेपी के नेता  चुनावों के समय कश्मीर को मुद्दा बनाते हैं, उसके कारण उनको पाकिस्तान और मुसलमान को निशाने पर लेने में आसानी होती है . बाद में उसका ज़िक्र उतनी शिद्दत से नहीं करते .लगता  है कि इस बार भी कोशिश  वही थी लेकिन मामला बहुत आगे बढ़ गया . जम्मू-कश्मीर के वे नेता भी भारत विरोधी बयान देने लगे जो कल तक राज्य में बीजेपी के साथ सरकार चला रहे थे . देश की हर समस्या के लिये जवाहरलाल नेहरू को ज़िम्मेदार बताने वाले नेताओं को अब यह समझ लेने की ज़रूरत है कि कश्मीर में अगर   हालात सामान्य करना  है तो नेहरू की किताब के पन्ने  ही पढ़ने पड़ेंगें . आज की सत्ताधारी पार्टी बीजेपी  जब भी विपक्ष में रही है कश्मीर में संविधान के आर्टिकिल ३७० का  विरोध करती रही है लेकिन जब भी सत्ता में आई  है अलग बात करती  है . इस  बार मामला थोड़ा अटक गया है . बीजेपी केंद्र में सत्ता में है और राज्य में भी राष्ट्रपति शासन के  रास्ते उसी की सत्ता है . चुनाव के चक्कर में कश्मीर के नाजुक मसलों को उठा दिया और अब कश्मीर की राजनीति एक बहुत ही संवेदनशील मुकाम पर पंहुच गयी  है . कश्मीर को भारत का अखंड हिस्सा मानने वाले कश्मीरी नेता भी अब अपना प्रधानमंत्री बनाने और  आज़ादी की बात करने लगे हैं .हालत इतनी चिंताजनक है कि फ़ौरन से पेशतर केंद्र सरकार को ज़रूरी क़दम उठाने पड़ेंगे. कहीं ऐसा न हो कि हर भाषण में कश्मीर की बात करके और प्रेस कान्फरेन्स करके ध्रुवीकरण तो हो जाये लेकिन कश्मीर की हालात बद से बदतर हो जाएँ .


इन हालात में ज़रूरी यह  है कि कश्मीर की समस्या के समाधान के लिए जवाहरलाल नेहरू की राह को अपनाया जाय जिन्होंने २७ मई १९६४ को अपने मृत्यु के दिन भी कश्मीर  समस्या के समाधान के लिए लगातार प्रयास किया था . हालांकि उन्होंने शेख अब्दुल्ला को १९५३ में गिरफ्तार कर लिया था लेकिन उनको मामूल था कि कश्मीर की समस्या के हल के लिए कश्मीर के सबसे बड़े नेता को शामिल करना ज़रूरी होगा . इसी सोच के तहत उन्होंने  शेख अब्दुल्ला को रिहा किया और पाकिस्तान जाकर समाधान की संभावना तलाशने का काम सौंपा था.  शेख अब्दुल्ला पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर गए और वहां लोगों से बातचीत का सिलसिला शुरू किया . २७ मई १९६४ के ,दिन जब मुमुज़फ्फराबाद में उनके लिए दोपहर के भोजन के लिए की गयी व्यवस्था में उनके पुराने दोस्त मौजूद थेजवाहरलाल नेहरू की मौत की खबर आ गयी . सब किया धरा बर्बाद हो गया ,.उसके बाद कश्मीर के हालात बहुत तेज़ी से बिगड़ने लगे . कश्मीर के मामलों में नेहरू के बाद के नेताओं ने कानूनी हस्तक्षेप की तैयारी शुरू कर दी,..वहां संविधान की धारा ३५६ और ३५७ लागू कर दी गयी. इसके बाद शेख अब्दुल्ला को एक बार फिर गिरफ्तार कर लिया गया. इस बीच पाकिस्तान ने एक बार फिर कश्मीर पर हमला करके उसे कब्जाने की कोशिश की लेकिन पाकिस्तानी फौज ने मुंह की खाई और ताशकेंत में जाकर रूसी दखल से सुलह हुई. .
सवाल यह है कि  कश्मीर का मसला  इस मुकाम तक कैसे पंहुचा . जिस कश्मीरी अवाम ने कभी पाकिस्तान और उसके नेता मुहम्मद अली जिन्नाह को धता बता दी थी और जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन राजा की पाकिस्तान के साथ मिलने की कोशिशों को फटकार दिया थाऔर भारत के साथ विलय के लिए चल रही शेख अब्दुल्ला की कोशिश को अहमियत दी थी , आज वह भारतीय नेताओं से इतना नाराज़ क्यों है. कश्मीर में पिछले ३० साल से चल रहे आतंक के खेल में लोग भूलने लगे हैं कि जम्मू-कश्मीर की मुस्लिम बहुमत वाली जनता ने पाकिस्तान के खिलाफ भारतीय नेताओंमहात्मा गाँधी , जवाहर लाल नेहरू और जयप्रकाश नारायण को अपना रहनुमा माना था.इसको समझने के लिए थोड़े पीछे के इतिहास में जाना पडेगा  .भारत-पाक विभाजन के वक़्त ,जम्मू-कश्मीर के महाराजा ,हरि सिंह ने पाकिस्तान के सामने  स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट का प्रस्ताव रखा जिसके तहत लाहौर सर्किल के केंद्रीय विभाग पाकिस्तान सरकार के अधीन काम करेगें . १५ अगस्त को पाकिस्तान की सरकार ने जम्मू-कश्मीर के महाराजा के स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया जिसके बाद पूरे राज्य के डाकखानों पर पाकिस्तानी झंडे फहराने लगे . भारत सरकार को इस से चिंता हुई और जवाहर लाल नेहरू ने अपनी चिंता का इज़हार इन शब्दों में किया."पाकिस्तान की रणनीति यह है कि अभी ज्यादा से ज्यादा घुसपैठ कर ली जाए और जब जाड़ों में कश्मीर अलग थलग पड़ जाए तो कोई बड़ी कार्रवाई की  जाए ." नेहरू ने सरदार पटेल को एक पत्र भी लिखा कि ऐसे हालात बन रहे हैं कि महाराजा के सामने और कोई विकल्प नहीं बचेगा और वह नेशनल कान्फरेन्स और शेख अब्दुल्ला से मदद मागेगा और भारत के साथ विलय कर लेगा.अगर ऐसा हो गया गया तो पाकिस्तान के लिए कश्मीर पर किसी तरह का हमला करना इस लिए मुश्किल हो जाएगा कि उसे सीधे भारत से मुकाबला करना पडेगा.अगर राजा ने नेहरू की बात को मान लिया होता तो कश्मीर समस्या का जन्म ही न होता..इस बीच जम्मू में साम्प्रदायिक दंगें भड़क उठे थे . बात अक्टूबर तक बहुत बिगड़ गयी और महात्मा गाँधी ने इस हालत के लिए महाराजा को व्यक्तिगत तौर पर ज़िम्मेदार ठहराया . पाकिस्तान ने महाराजा पर दबाव बढाने के लिए लाहौर से आने वाली कपडेपेट्रोल और राशन की सप्प्लाई रोक दी. संचार व्यवस्था पाकिस्तान के पास स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट के बाद आ ही गयी थी. उसमें भी भारी अड़चन डाली गयी.. हालात तेज़ी से बिगड़ रहे थे .कबायली हमला हुआ और राजा अपनी मनमानी पर अड़ा रहा . राजा की गलतियों के कारण ही कश्मीर का मसला बाद में संयुक्त राष्ट्र में ले जाया गया और उसके बाद बहुत सारे ऐसे काम हुए कि अक्टूबर १९४७ वाली बात नहीं रही. संयुक्त राष्ट्र में एक प्रस्ताव पास हुआ कि कश्मीरी जनता से पूछ कर तय किया जाय कि वे किधर जाना चाहते हैं . भारत ने इस प्रस्ताव का खुले दिल से समर्थन किया लेकिन पाकिस्तान वाले भागते रहे , शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के हीरो थे और वे जिधर चाहते उधर ही कश्मीर जाता और वे भारत के साथ थे . लेकिन १९५३ के बाद यह हालात भी बदल गए. . बाद में पाकिस्तान जनमत संग्रह के पक्ष में हो गया और भारत उस से पीछा छुडाने लगा . इन हालात के पैदा होने में बहुत सारे कारण हैं. राजा के वफादार नेताओं की टोली जिसे प्रजा परिषद् के नाम से जाना जाता थाने हालात को बहुत बिगाड़ा . उसके बाद इंदिरा गांधी के दौर में भी बात बिगाड़ी गयी. १९८० में जब वे दोबारा  सत्ता में आईं तो अपने परिवार के ही  अरुण नेहरू पर वे बहुत भरोसा करने लगी थीं, . अरुण नेहरू ने जितना नुकसान कश्मीरी मसले का किया शायद ही किसी ने नहीं किया हो . उन्होंने डॉ फारूक अब्दुल्ला से निजी खुन्नस में उनकी सरकार गिराकर उनके बहनोई गुल शाह को मुख्यमंत्री बनवा दिया . हुआ यह था कि फारूक अब्दुल्ला ने श्रीनगर में कांग्रेस के विरोधी नेताओं का एक सम्मलेन कर दिया .और अरुण नेहरू नाराज़ हो गए . अगर अरुण नेहरू को मामले की मामूली समझ भी होती तो वे खुश होते कि चलो कश्मीर में बाकी देश भी इन्वाल्व हो रहा है लेकिन उन्होंने पुलिस के थानेदार की तरह का आचरण किया और सब कुछ खराब कर दिया . इतना ही नहीं . कांग्रेस ने घोषित मुस्लिम दुश्मन , जगमोहन को जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल बनाकर भेज दिया . उसके बाद तो हालात बिगड़ते ही गए. उधर पाकिस्तानी राष्ट्रपति जनरल जिया उल हक लगे हुए थे. उन्होंने बड़ी संख्या में आतंकवादी कश्मीर घाटी में भेज दिया . बची खुची बात उस वक़्त बिगड़ गयी . जब १९९० में तत्कालीन गृह मंत्रीमुफ्ती मुहम्मद सईद की बेटी का पाकिस्तानी आतंकवादियों ने अपहरण कर लिया यही दौर है जब  कश्मीर में खून बहना शुरू हुआ . और आज हालात जहां तक पंहुच गए हैं किसी के समझ में नहीं आ रहा है कि वहां से वापसी कब होगी.
ज़रूरत इस बात की है कि नेहरू जैसी बड़ी सोच अपनाई जाय और  कश्मीर से आतंक को खतम करने की कोशिश गंभीरता से की जाए.

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