Saturday, December 16, 2017

समाज और राजनीति का फ़र्ज़ है लड़कियों को आत्मनिर्णय का अधिकार देना



शेष नारायण सिंह

केरल की हादिया के प्रेम और विवाह करने एक अधिकार के मामले में सुप्रीम कोर्ट में केस चल रहा है . हाई कोर्ट में उसके अपनी पसंद के पुरुष से शादी करने के  अधिकार को अनुपयुक्त पाया गया था जिसके खिलाफ  देश के सर्वोच्च न्यायलय में अपील की गयी है . फैसला अभी नहीं आया है इसलिए उस मामले में कोई टिप्पणी करना उचित नहीं   है. हादिया पहले अखिला थी , इस्लाम  क़ुबूल कर लिया और अपनी पसंद के मुस्लिम लड़के से शादी कर ली . उसके विवाह करने के अधिकार पर जब सुप्रीम कोर्ट का आदेश आ जाएगा तब उस पर चर्चा की जायेगी . सुनवाई के दौरान माननीय सुप्रीम कोर्ट ने उचित  समझा कि उसकी शिक्षा को जारी रखा जाना  चाहिए तो उसके लिए ज़रूरी निर्देश दे दिए गए हैं और वह तमिलनाडु के अपने मेडिकल कालेज में अपनी पढ़ाई से सम्बंधित कार्य कर रही है . लेकिन लव जिहाद के बारे में बात की जा सकती  है ,उसपर समाजशास्त्रीय  विमर्श और टिप्पणी की जा सकती है .
वास्तव में एक लडकी और एक लड़के के बीच होने वाले प्रेम को लव जिहाद का नाम देना और इसको मुद्दा बनाना समाज में पुरुष आधिपत्य की मानसिकता का एक  नमूना है . लव  जिहाद वाले ज़्यादातर मामलों में यह देखा गया है कि जो गरीब या मध्य वर्ग के लोग हैं , उनको ही अपमानित करने के लिए लक्षित किया जाता है . यह नया भी नहीं है . हिन्दू लडकी और मुस्लिम लड़के के बीच प्रेम को हमेशा ही आर एस एस और उसके अधीन  संगठनों की राजनीति में हिकारत की नज़र से देखा जाता रहा   है .  बीजेपी के पूर्व उपाध्यक्ष सिकंदर बख्त को भी आर एस एस के इस क्रोध  को झेलना पड़ा था. बाद में तो वे बीजेपी की कृपा से केंद्रीय मंत्री  और राज्यपाल भी हुए लेकिन आर एस एस के अखबार आर्गनाइज़र के २ जून १९५२ के  अंक में उनके बारे में जो लिखा है उससे साफ़ हो जाता है कि आर एस एस ने  उनको शक की नज़र से देखा . सिकंदर बख्त एंड कंपनी शीर्षक के लेख में उनके बारे में जो बातें लिखीं थीं ,वे किसी को भी आपत्तिजनक लग सकती हैं. अखबार को शक था कि तब के कांग्रेसी नेता  सिकंदर बख्त किसी बड़ी कांग्रेसी महिला नेता के प्रेम में हैं और उसके साथ रह रहे हैं . इसी को केंद्र में रख कर काफी कुछ लिखा गया था . बाद में जब उन्होंने एक हिन्दू लडकी से शादी कर लिया तो दिल्ली शहर में भारी हल्ला  गुल्ला किया गया था . इसलिए यह कहना ठीक नहीं है कि हिन्दू-मुस्लिम प्रेम और विवाह पर आर एस एस के संगठन अब ज्यादा आक्रामक हो गए हैं . यह हमेशा से ही ऐसे ही थे. इनकी राजनीतिक  ताक़त बढ़ गयी  है और अब उनके  इस तरह के कारनामों को सरकारी संरक्षण मिलता है इसलिए वे  ज़्यादा मुखर  हो गए हैं .
एक और दिलचस्प बात गौर करने लायक है . लव जिहाद और  उससे जुडी हिंसा का शिकार आम तौर पर गरीब या  सम्पन्नता के निचले पायदान पर  मौजूद लोग ही होते हैं .  सम्पन्न या राजनीतिक रूप से  ताक़तवर लोगों पर लव जिहाद के हमलावर कुछ नहीं बोलते .  देश  भर में ऐसे  लाखों जोड़े हैं जो हिन्दू  मुस्लिम विवाह के उदाहरण हैं लेकिन उनपर कभी किसी लव जिहादी ने जिहाद नहीं छेड़ा .शाहरुख ख़ानआमिर ख़ानसैफ़ अली ख़ानइरफान ख़ानसलीम ख़ानन नसीरूद्दीन शाहसाजिद नाडियावाला, , इमरान हाशमीमुज़फ़्फ़र अलीइम्तियाज़ अलीअज़ीज़ मिर्ज़ाफ़रहान अख़्तरआदि बाहुत सारे  फ़िल्मी लोगों की पत्नियां हिन्दू हैं . यह ताक़तवर लोग हैं . शायद  इसीलिये इनके खिलाफ कभी कोई बयान भी नहीं आया है . बीजेपी के नेता  मुख्तार अब्बास नक़वीशहनवाज़ हुसैन और एम  जे अकबर की पत्नियां भी हिन्दू लडकियां   हैं .  इनकी भी कभी चर्चा नहीं होती ,शायद  इसलिए कि यह तो अपने लोग हैं .
असल मुद्दा सामाजिक और आर्थिक है . जो लोग समाज के सबसे गरीब तबके से हैं उनको सभी ब्रांड के राजनीतिक और धार्मिक शमशीर  चमकाने वाले निशाना  बनाते हैं . और यह समस्या केवल हिन्दू मुस्लिम जोड़ों  तक की सीमित नहीं है.  पिछले कई वर्षों से लगभग रोज़ ही अखबार में ऐसी कोई खबर नज़र आ जाती है   जिसमें पता  चलता है कि किसी लडकी की इसलिए हत्या कर दी गयी कि उसने अपने परिवार वालों की मर्जी के खिलाफ जाकर शादी  कर ली थी . इसी हफ्ते एक हैरतअंगेज़ खबर पढने को मिली जिसमे लिखा था  कि एक लडकी अपने  किसी पुरुष सजातीय दोस्त के साथ  सिनेमा देखने चली गयी . लडकी के पिता और भाई को वह लड़का पसंद नहीं था . बाप और भाइयों ने अपनी ही लडकी और बहन का गैंग रेप किया और उसको सबक सिखाने की कोशिश की . यह हैवानियत क्यों है ? यह  सवाल सरकार के दायरे में जाएगा ,तो वह इसको कानून व्यवस्था की नज़र से देखेगी . इस खबर  में भी पुलिस का पक्ष ही अखबार में छपा था लेकिन इसका असली हल पुलिस नहीं निकाल  सकती  है . इस समस्या के हल के लिए समाज को आगे आना पडेगा . इसका गहराई से  अध्ययन करना पड़ेगा और कोई सूरत सुझानी पड़ेगी . अब  तक तो जो भी तरीके बताये गए है वे ठीक नहीं हैं . शायद समाज और राष्ट्र ने इस समस्या की गहराई को समझा ही नहीं है .
बहुत पहले सब इस  तरह  की खबरें   सार्वजनिक चर्चा में  आने लगी थीं तो कुछ हलकों से सुझाव आये थे कि शिक्षा के स्तर में तरक्की होने पर यह सब बदल जाएगा लेकिन अब देखा जा रहा  है कि आम तौर पर ऊंची औपचारिक शिक्षा प्राप्त लोग  इस तरह के असमाजिक और अमानवीय कार्यों में लगे हुए हैं . ज़ाहिर है केवल शिक्षा से  समस्या का हल   नहीं निकलने वाला है . इसके लिए    सम्पन्नता भी चाहिए और उससे भी  ज्यादा राजनीतिक स्तर पर सुरक्षा की व्यवस्था भी चाहिए .  न्यायपालिका की सुरक्षा तभी प्रभावी होगी जब  राजनीतिक स्तर पर उसको लागू करने की इच्छा शक्ति मौजूद हो . राजनीतिक इच्छा  शक्ति का तभी विकास होगा जब एक समाज के रूप में राजनीति कर्मियों को सामाजिक ज़िम्मेदारी और दायित्व से  बांधा जा सके .
देश की राजधानी  के एक सौ किलोमीटर के दायरे में लगभग प्रति  दिन ' हानर किलिंग ' के नाम पर  लड़कियों को हलाल किया जा रहा है . अजीब बात यह है कि  इलाके के सभी मुकामी नेता इन हत्यारों का ही साथ देते हैं. इसका  कारण यह है कि नेताओं को वोट से मतलब है और  ग्रामीण समाजों में  परिवार का वोट देने का फैसला पुरुष ही करते  हैं . वोटबाज़ी की तिकड़म की राजनीति में लड़कियों की कोई भूमिका नहीं होती . ऐसा इलसिए होता है कि वे  लडकियां राजनीतिक शक्ति से संपन्न नहीं होती हैं .उनको शक्ति सम्पन्न बनाये बिना  समाज का भला नहीं होने वाला है .सरकार ने  लड़कियों को सक्षम बनाने के लिए कई योजनायें चला रखी हैं . बेटी बचाओ, बेटी पढाओ  , उज्जवला, स्वाधार ,महिलाओं के प्रशिक्षण और उनको जिम्मेवारी देने संबंधी योजनाएं कागजों में उपलब्ध हैं लेकिन उनको सही अर्थों में लागू करने के लिए राजनीतिक इच्छा शक्ति चाहिए . जिसकी भारी कमी है .
संविधान के ७३ वें और ७४ वें   संसोधन के बाद पंचायतों के चुनावों में कुछ सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित कर दी गयी थीं लेकिन नतीजा क्या हुआ ? महिलाओं का पर्चा भरवाकर उनके पति गाँव पंचायत के प्रधान  बन बैठे . प्रधानपति नाम के एक अलग  किस्म के जीव  ग्रामीण भारत में विचरण करने लगे . ऐसा इसलिए हुआ कि लड़कियों की  शिक्षा पर ज़रूरी ध्यान नहीं दिया गया था. लेकिन अब  बहुत बड़े पैमाने पर बदलाव हो रहे हैं . ग्रामीण इलाकों की लडकियां उच्च और प्रोफेशनल शिक्षा के ज़रिये सफलता हासिल करने की कोशिश में लगे हुए हैं . अभी २५ साल पहले तक जिन गावों की लड़कियों को उनके माता पिता दसवीं की पढ़ाई करने के लिए २ मील दूर नहीं जाने देते थे उन इलाकों की लडकियां दिल्लीपुणेबंगलोर नोयडा ,ग्रेटर नोयडा में स्वतन्त्र रूप से रह रही हैं और शिक्षा हासिल कर रही हैं . उनके माता पिता को भी मालूम है कि बच्चे पढ़ लिख कर जीवन में कुछ हासिल करने लायक बन जायेंगें . लेकिन अभी भारत के मध्यवर्गीय समाज में यह जागरूकता नहीं है कि शिक्षा के विकास के बाद जब पश्चिमी देशों की तरह बच्चे आत्म निर्भर होंगें तो उनको अपनी निजी ज़िंदगी में भी स्पेस चाहिए . उनको अपनी ज़िंदगी के अहम फैसले खुद लेने की आज़ादी उन्हें देनी पड़ेगी लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है .छः साल पहले की बात है . झारखण्ड की पत्रकार निरुपमा पाठक के मामले ने मुझको विचलित कर दिया था .  उसके माता पिता ने उसे पत्रकारिता की शिक्षा के लिए दिल्ली भेजालड़की कुशाग्रबुद्धि की थीउसने अपनी कोशिश से नौकरी हासिल की और अपनी भावी ज़िंदगी की तैयारियां करने लगी. अपने साथ पढने वाले एक लडके को पसंद किया और उसके साथ घर बसाने का सपना देखने लगी. जब वह घर से चली थी तो उसके माता पिता अपने दोस्तों के बीच हांकते थे कि उनकी बेटी बड़ी सफल है और वे उसकी इच्छा का हमेशा सम्मान करते हैं . लेकिन  वे तभी तक अपनी बच्ची की इज्ज़त करते थे जब तक वह उनकी हर बात मानती थी लेकिन जैसे ही उसने उनका हुक्म मानने से इनकार किया उन्होंने उसे मार डाला . यह तो बस एक मामला है . ऐसे बहुत सारे मामले हैं .. इसके लिए बच्चों के माँ बाप को कसाई मान लेने से काम नहीं चलने वाला है . वास्तव में यह एक सामाजिक समस्या है . अभी लोग अपने पुराने सामाजिक मूल्यों के साथ जीवित रहना चाहते हैं . इसका यह मतलब कतई नहीं है कि वे नए मूल्यों को अपनाना नहीं चाहते . शायद वे चाहते हों लेकिन अभी पूंजीवादी रास्ते पर तो विकास आर्थिक क्षेत्र में पींगें मार रहा है लेकिन परिवार और समाज के स्तर पर किसी तरह का मानदंड विकसित नहीं हो रहा है . नतीजा यह हो रहा है कि पूंजीवादी आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था में भारत के ग्रामीण समाज के लोग सामन्ती मूल्यों के साथ जीवन बिताने के लिए मजबूर हैं . खाप पंचायतों के मामले को भी इसी सांचे में फिट करके समझा जा सकता है . सूचना क्रान्ति के चलते गाँव गाँव में लडके लड़कियां वह सब कुछ देख रहे हैं जो पश्चिम के पूंजीवादी समाजों में हो रहा है . वह यहाँ भी हो सकता है . दो नौजवान एक दूसरे को पसंद करने लगते हैं लेकिन फिर उन्हें उसके आगे बढ़ने की अनुमति सामंती इंतज़ाम में नहीं मिल पाती .
समाज और राजनीति को ऐसी ही परिस्थितियों में हस्तक्षेप करना पडेगा . समाज में  लड़के लड़कियों को सम्मान की ज़िंदगी देने के लिए उनको खुदमुख्तारी के अधिकार देने पड़ेगें . और यह  कम सरकार और राजनीतिक  बिरादरी ही कर सकती है 

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