Friday, June 23, 2017

१९७५ की इमरजेंसी देश की राजनीति का काला और क्रूर अध्याय है



शेष नारायण सिंह 

४२ साल पहले अपनी सत्ता बचाए  रखने के लिए  तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी लगा दिया था.  संविधान में लोकतंत्र के  लिए बनाए गए सभी प्रावधानों को सस्पेंड कर दिया  गया था और देश में तानाशाही निजाम  कायम कर दिया गया  था. राजनीति शास्त्र के विद्यार्थी के लिए इमरजेंसी की घटनाओं को समझना हमेशा से ही बहुत ही दिलचस्प  कार्य रहा है . इमरजेंसी के बारे में पिछले  ४० वर्षों में बहुत कुछ लिखा पढ़ा  गया है लेकिन एक विषय के रूप में इसकी उत्सुकता कभी कम नहीं होती.  १९७५ के जून में इमरजेंसी इसलिए लगाई गयी थी कि इंदिरा गांधी को लग गया था की जनता का गुस्सा उनके खिलाफ फूट पड़ा है और उसको रोका नहीं जा सकता  . इसके बहुत सारे कारक थे लेकिन जब १९७४ में इलाहाबाद हाई कोर्ट के एक फैसले ने  लोकसभा की सदस्य के रूप में उनके चुनाव को ही खारिज कर दिया तो हालात बहुत जल्दी से इंदिरा गांधी के खिलाफ बन गए . इमरजेंसी वास्तव में स्थापित सत्ता के खिलाफ जनता की आवाज़ को दबाने के लिए किया  गया एक असंवैधानिक प्रयास था जिसको जनता के समर्थन से इकठ्ठा हुए राजनीतिक विपक्ष की क्षमता  ने सफल नहीं होने दिया .१९७१ में हुए मध्यावधि चुनाव में  इंदिरा गांधी को पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने का अवसर मिल गया था. लेकिन चार साल के अन्दर ही उनको  इमरजेंसी  लगाकर अपनी सत्ता बचानी  पडी,यह राजनीति का बहुत ही दिलचस्प आख्यान है . आज इमरजेंसी की बरसी पर इसी  गुत्थी को समझने की कोशिश की जायेगी .

१९७१ में भारी बहुमत से जीतने के बाद इंदिरा गांधी ने इस इरादे से काम करना शुरू कर दिया था कि अब उनके राज को कोई हटाने वाला नहीं है. बहुमत की सरकार बन जाने के बाद उन्होने जो सबसे बड़ा काम किया वह था , पाकिस्तान के  पूर्वी भाग को एक अलग देश के रूप  में मान्यता दिलवा देना.
बंगलादेश की आज़ादी में भारत का योगदान  बहुत की अधिक है . पकिस्तान के साथ भारत की सेना की जीत का श्रेय इंदिरा गांधी को मिला  जोकि जायज़ भी है क्योंकि उन्होंने उसका कुशल नेतृत्व किया था .  बंगलादेश में पाकिस्तान को ज़बरदस्त शिकस्त देने के बाद इंदिरा गांधी की पार्टी  के सामने  विपक्ष की कोई हैसियत नहीं थी , जनसंघ के नेता अटल बिहारी वाजपेयी  ने तो उनको दुर्गा तक कह दिया था . शास्त्री जी द्वारा शुरू की गयी हरित क्रान्ति को  इंदिरा गांधी ने बुलंदी तक पंहुचाया था , इसलिए ग्रामीण भारत में  भी थोड़ी बहुत सम्पन्नता आ गयी थी.  कुल मिलाकर १९७२-७३ में माहौल इंदिरा गांधी के पक्ष  में था . लेकिन १९७४   आते आते  सब कुछ  गड़बड़ाने लगा .  और इसी गुत्थी को  समझने में इंदिरा गांधी की राजनीतिक विफलता और इमरजेंसी की समस्या  का हल छुपा हुआ है .
 इसी दौर में इंदिरा गांधी के दोनों बेटे बड़े हो गए थे . बड़े बेटे  राजीव गांधी थे जिनको इन्डियन एयरलाइंस में पाइलट की नौकरी मिल गयी थी और वे अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ  संतुष्टि का जीवन बिता रहे थे . छोटे बेटे संजय गांधी थे जिनकी पढाई लिखाई ठीक से  नहीं  हो पाई थी और वे पूरी तरह से माता पर ही  निर्भर थे . इस बीच उनकी शादी भी हो गयी थी . कोई काम नहीं था . इंदिरा जी के एक दरबारी  बंसी लाल थे जो हरियाणा के  मुख्यमंत्री थे. उन्होंने संजय गांधी को एक छोटी कार कंपनी शुरू करने की प्रेरणा दी. मारुति लिमिटेड नाम की इस कंपनी को उन्होंने दिल्ली से सटे  गुडगाँव में ज़मीन अलाट कर दी .संजय गाँधी की शुरुआती योजना यह थी कि उद्योग जगत में सफलता हासिल करने के बाद राजनीति का रुख किया जायेगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ . मारुति के  कारोबार में वे बुरी तरह से असफल रहे. उसी दौर में दिल्ली के उस वक़्त के काकटेल सर्किट में सक्रिय लोगों ने उनसे मित्रता कर ली .संजय  गांधी के नए  मित्रों ने उन्हें कमीशन खोरी के धंधे में लगा दिया .इस सिलसिले में वे इंदिरा गाँधी के कुछ चेला टाइप अफसरों के सम्पर्क में आये और नेता बन गए. भारतीय राजनीति का सबसे काला अध्याय संजय गाँधी के साथ ही शुरू होता है. इसी के साथ ही इमरजेंसी  की भूमिका बनी और संविधान को दरकिनार करके इमरजेंसी लगा दी गयी .

इमरजेंसी के राज में बहुत ज्यादतियां हुईं नतीजा यह  हुआ कि १९७७ का चुनाव कांग्रेस बुरी तरह से हार गयी .  कांग्रेस ने बार बार इमर्जेंसी की ज्यादतियों के लिए माफी माँगी लेकिन इमरजेंसी को सही ठहराने से बाज़ नहीं आये . २०१० में  कांग्रेस के 125 पूरा करने के बाद इमरजेंसी को गलत कहते हुए कांग्रेस ने दावा किया कि  उसके लिए संजय गाँधी ज़िम्मेदार थे इंदिरा गाँधी नहीं .  ऐसा शायद इसलिए किया जा रहा है कि संजय गांधी के परिवार के  लोग आजकल बीजेपी में हैं .  उनकी पत्नी तो केंद्रीय मंत्री  हैं जबकि बेटा भी सांसद है और पार्टी के  महामंत्री पद भी रह चुका  है .जहां तक इमरजेंसी का सवाल है ,उसके लिए मुख्य रूप से इंदिरा गाँधी ही ज़िम्मेदार हैं और इतिहास यही मानेगा . इमरजेंसी को लगवाने और उस दौर में अत्याचार करने के लिए संजय गाँधी इंदिरा से कम ज़िम्मेदार नहीं है लेकिन यह ज़िम्मेदारी उनकी अकेले की नहीं है . वे गुनाह में इंदिरा गाँधी के पार्टनर हैं .यह इतिहास का तथ्य है . अब इतिहास की फिर से व्याख्या करने की कोशिश न केवल हास्यास्पद है बल्कि अब्सर्ड भी है .

 नरेंद्र मोदी के आने के बाद तो खैर विमर्श की भाषा बदल गेई है और संजय गांधी के पक्ष  या विपक्ष में  कोई ख़ास तर्क वितर्क नहीं दिए जाते लेकिन इसके पहले अडवाणी युग में संजय गांधी को इमर्जेंसी के अपराधों से मुक्त करने की कोशिश बहुत   ही गंभीरता से चल रही थी.  इसको विडंबना ही माना जाएगा क्योंकि  दुनिया जानती है कि इंदिरा गांधी के खिलाफ जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन को उन प्रदेशों में ही सबसे ज्यादा ताक़त मिली थी जहां आर एस एस का संगठन मज़बूत था . आज की बीजेपी को उन दिनों जनसंघ के नाम से जाना जाता था. इमरजेंसी की प्रताड़ना के शिकार आज की बीजेपी वाले ही हुए थे. अटल बिहारी वाजपेयी ,लालकृष्ण आडवाणी , अरुण जेटली आदि  बीजेपी नेता  जेल में थे . यह सज़ा उन्हें संजय गाँधी की कृपा से ही मिली थी. यह बात बिलकुल सच है और इसे कोई भी नहीं झुठला सकता . बाद में  लाल कृष्ण आडवानी के नेतृव में बीजेपी वालों ने संजय गाँधी को इमरजेंसी की बदमाशी से बरी करने की कोशिश बड़े पैमाने पर की थी. लाल कृष्ण आडवाणी ने तो यहाँ तक कह दिया था कि इमरजेंसी अपराधों के लिए संजय गाँधी को बलि का बकरा बनाने की कोशिश की जा रही है ..अपने बयान में आडवाणी ने कहा था कि , 'अपने मंत्रिमंडल या यहां तक कि अपने कानून मंत्री और गृहमंत्री से संपर्क किए बगैर उन्होंने [इंदिरा गांधी ने] लोकतंत्र को अनिश्चितकाल तक निलंबन में रखने के लिए राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद से अनुच्छेद 352 लगवाया।उनका कहना है कि इंदिरा गांधी इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला पचा नहीं पाईं और उन्होंने आपातकाल लगा दिया।

 इमरजेंसी  में सारे नागरिक अधिकारों को ख़त्म कर दिया गया था . जेल में डाले गए लोगों की संख्या एक लाख 10 हजार आठ सौ छह थी। उनमें से 34 हजार 988 आतंरिक सुरक्षा अधिनियम के तहत हिरासत में लिए गए लेकिन कैदी को उसका कोई आधार नहीं बताया जाता था . पिछले ४२ वर्षों में इमरजेंसी , उसकी ज्यादतियों और उसके पक्ष और  विपक्ष में बहुत कुछ लिखा पढ़ा जा चुका है . बीजेपी की योजना है कि कांग्रेस मुक्त भारत के अपने  सपने को पूरा  करने के लिए पार्टी पूरी तरह से  राहुल गांधी की दादी की इतनी कमियाँ  गिनाएगी कि जनता इन्दिरा गांधी को ही इमर्जेंसी  की ज़िम्मेदार माने . जनता और इतिहास उनको ज़िम्मेदार मानता है लेकिन इमरजेंसी की बात जब भी होगी इंदिरा गांधी के साथ संजय गांधी का नाम जरूर लिया जाएगा. अब  संजय गांधी का परिवार बीजेपी में बड़े  पदों पर  है तो उनके खिलाफ  बोलने से बीजेपी वाले कैसे बच सकेंगे

इमरजेंसी का सबक यह है कि चाहे जितना भारी बहुमत हो अगर केवल नारों का सहारा लिया जाएगा तो जनता १९७१ की भारी जीत और बांग्लादेश  की विजय के तमगे को भी नज़रंदाज़ कर देती है. इमरजेंसी के बाद जब जनता पार्टी आई तो वह किसी पार्टी की जीत  नहीं थी. वह जनता की ताक़त थी जिसने आपस में  लड़ रहे विपक्ष को एक साथ खड़े होने को मजबूर कर दिया , उनकी नई पार्टी को   जिता दिया, सरकार बनवा दी  और जनता के  साथ किए गए वायदों को पूरा न करने की सज़ा इंदिरा गांधी और उनकी पार्टी को दे दी. सच्ची बात यह  है कि जब  जनता पार्टी की जीत हुयी थी तब तक पार्टी भी नहीं बनी थी और १९७७ के दौरान जिस चुनाव निशान से  जनता  पार्टी के लोग चुनाव जीत कर आये थे वह चौधरी चरण सिंह   की भारतीय लोकदल का चुनाव निशान, " हलधर किसान " था. इमरजेंसी का सबसे बड़ा सबक यही  है , जनता को गरीबी हटाने के वायदा करके इंदिरा गांधी ने १९७१ में  भारी बहुमत पाया था और जब उन्होंने  वायदा पूरा करने की कोशिश   भी नहीं की और अलग तरह से देश की अवाम को प्राभावित करने की  कोशिश की तो खंडित विपक्ष के बावजूद भी देश ने राजनीति संन्यास ले चुके जयप्रकाश नारायण को सन्यास से बाहर आने को मजबूर किया और  इंदिरा गांधी की स्थापित सत्ता के खिलाफ एक मज़बूत  विपक्ष  तैयार कर दिया 

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