Monday, May 29, 2017

सहारनपुर के हवाले से जाति के विनाश की पहल की जा सकती है .

शेष नारायण सिंह
उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में आजकल जाति के नाम पर खूनी संघर्ष जारी है .जिले  में जातीय हिंसा एक बार फिर भड़क गई है . दोनों पक्षों की ओर से हिंसा और आगज़नी करने की घटनाएं जारी हैं .सारे विवाद के केंद्र में शब्बीर पुर गाँव है . वहां बड़ी संख्या में पुलिस बल तैनात किए गए हैं और लखनऊ के अफसर वहां पहुंच गए हैं और जो समझ में आ रहा है ,कर रहे हैं .पुलिस ने हिंसक घटनाओं की पुष्टि हर स्तर  पर  की है लेकिन समस्या इतनी विकट है कि कहीं कोई हल नज़र नहीं आ रहा है .ताज़ा हिंसा भड़कने से इलाक़े में ज़बरदस्त तनाव की स्थिति है. मंगलवार की सुबह बीएसपी नेता मायावती ने शब्बीरपुर गांव का दौरा किया. खबर है कि मायावती के शब्बीरपुर पहुंचने से पहले ही कुछ दलितों ने ठाकुरों के घर पर पथराव करने के बाद आगजनी की थी.जबकि  मायावती की बैठक के बाद  ठाकुरों ने दलितों के घरों पर कथित तौर पर हमला बोल दिया.

अब तक की सरकारी कार्यवाही को देख कर साफ़ लग रहा है कि सरकार सहारनपुर की स्थिति की गंभीरता को नहीं समझ रही है . जैसा कि आम तौर पर होता है , सभी सरकारें  बड़ी राजनीतिक और सामाजिक समस्याओं को कानून व्यवस्था की समस्या मानकर काम करना शुरू कर देती हैं . सहारनपुर में भी वही हो रहा है . पिछले करीब तीन दशकों  ने उत्तर प्रदेश में ऐसी सरकारें आती रही हैं जिनके गठन में दलित जातियों की खासी भूमिका रहती रही है . लेकिन इस बार उत्तर प्रदेश में ऐसी सरकार आई है जिसके गठन में सरकारी पार्टी के समर्थकों के अनुसार दलित जातियों का कोई योगदान नहीं है . विधान सभा चुनाव में बीजेपी को भारी बहुमत मिला था जिसके बाद योगी आदित्य नाथ को उत्तर प्रदेश का मुख्य मंत्री बनाया गया . ज़मीनी स्तर पर उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं को मालूम है  कि विधान सभा चुनावों में दलित वर्गों ने बीजेपी की धुर विरोधी मायावती की पार्टी को वोट दिया था. इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि बीजेपी के समर्थन में  रही जातियों के लोगों ने अपनी पार्टी के खिलाफ वोट देने वालों को सबक सिखाने के उद्देश्य से उनको दण्डित करने के  लिए यह कारनामा किया हो . हालांकि यह भी सच है कि दलित जातियां अब उतनी कमज़ोर नहीं हैं जितनी महात्मा गांधी या डॉ आम्बेडकर के समय में हुआ करती थीं. वोट के लालच में ही सही लेकिन उनके वोट की याचक जातियों ने उनका सशक्तीकरण किया है और वह साफ़ नज़र भी आता है . इसलिए सहारनपुर में राजपूतों ने अगर हमला किया  है तो  कुछ मामलों में दलितों ने भी हमला किया है .
 आजकल उत्तर प्रदेश समेत ज़्यादातर राज्यों में चुनाव का सीज़न जातियों की गिनती का होता है . इ सबार के चुनाव में यह कुछ ज़्यादा ही था. मायावती को मुगालता था कि उनकी अपनी जाति के लोगों  के साथ साथ अगर मुसलमान भी उनको  वोट कर दें तो वे फिर एक बार मुख्यमंत्री बन जायेंगी  ऐसा नहीं हुआ लेकिन चुनाव ने एक बार मोटे तौर पर साबित कर दिया कि दलित जातियों के लोग अभी भी मायावती को समर्थन देते हैं और उनके साथ हैं .
उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों की सवर्ण जातियों में अभी भी यह भावना है कि मायावती ने दलितों को बहुत मनबढ़ कर दिया है. इस  भावना की सच्चाई पर चर्चा करने का कोई मतलब नहीं है क्यों जब समाज में एकता लाने वाली राजनीतिक शक्तियों का ह्रास हो जाए तो इस तरह की भावनाएं बहुत जोर मारती हैं . सहारनपुर में वही हो रहा है . सहारनपुर में जिला प्रशासन ने वही गलती की जो २०१३ के मुज़फ्फरनगर दंगों के शुरुआती  दौर में वहां के जिला अधिकारियों ने की थी . उस दंगे की ख़ास बात तो यह थी कि ज़्यादातर राजनीतिक पार्टियाँ यह उम्मीद लगाए बैठी थीं कि पश्चिम उत्तर प्रदेश में धार्मिक ध्रुवीकरण का फायदा उनको ही होगा . जिसको फायदा होना था , हो गया , बाकी लोगों को और राष्ट्र और समाज को भारी नुक्सान हुआ . ऐसा लगता है कि सहारनपुर में जातीय विभेद की जो चिंगारी शोला बन गयी है , अगर उसको राजनीतिक स्तर पर संभाल न लिया गया तो वह समाज का मुज़फ्फरनगर के साम्प्रदायिक दंगों से ज़्यादा नुक्सान करेगी. जाति के हिंसक  स्वरूप का अनुमान आज़ादी की लड़ाई के दौरान ही महात्मा गांधी और डॉ भीमराव आंबेडकर  को था . इसीलिये  दोनों ही दार्शनिकों ने साफ़ तौर पर बता दिया था कि जाति की बुनियाद पर होने वाले सामाजिक बंटवारे को ख़त्म किये जाने की ज़रूरत है और उसे ख़त्म किया जाना चाहिए . महात्मा गांधी ने छुआछूत को खत्म करने की बात की जो उस दौर में जातीय पहचान का सबसे मज़बूत आधार था लेकिन डॉ आंबेडकर ने जाति की संस्था के विनाश की ही बात की और बताया कि वास्तव  में हिन्दू समाज कोई एकीकृत समाज नहीं है , वह वास्तव  में बहुत सारी जातियों का जोड़ है . इन जातियों में कई बार आपस में बहुत विभेद भी देखा जाता है .  शायद इसीलिये उन्होंने जाति संस्था को ही खत्म करने की बात की और अपने राजनीतिक दर्शन को जाति के विनाश के  आधार पर स्थापित किया .

डॉ आंबेडकर के राजनीतिक दर्शनशास्त्र में महात्मा फुले के चिंतन का साफ़ असर देखा जा सकता है .महात्मा गांधी के समकालीन रहे अंबेडकर ने अपने दर्शन की बुनियादी सोच का आधार जाति प्रथा के विनाश को माना था उनको विश्वास था कि तब तक न तो राजनीतिक सुधार लाया जा सकता है और न ही आर्थिक सुधार लाया जा सकता है।  जाति के विनाश के सिद्धांत को प्रतिपादित करने वाली उनकी किताब,"जाति का विनाश " , ने   हर तरह की राजनीतिक सोच  को प्रभावित किया है. पश्चिम और दक्षिण भारत में सामाजिक परिवर्तन के जो भी आन्दोलन चले हैं उसमें इस किताब का बड़ा  योगदान  है. यह  काम महाराष्ट्र में उन्नीसवीं सदी में ज्योतिबा फुले ने शुरू किया था . उनके बाद के क्रांतिकारी सोच के नेताओं ने उनसे बहुत कुछ सीखा .. डॉ अंबेडकर ने महात्मा फुले की शिक्षा संबंधी  सोच को परिवर्तन की राजनीति के केंद्र में रख कर काम किया और आने वाली नस्लों को जाति के विनाश के रूप में एक ऐसा गुरु मन्त्र दिया जो सही मायनों  में परिवर्तन का वाहक बनेगा.  डॉ अंबेडकर ने ब्राह्मणवाद के खिलाफ शुरू किये गए ज्योतिबा फुले के अभियान को एक अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य दिया.

अपनी किताब में डा.अंबेडकर ने बहुत ही साफ शब्दों में कह दिया है कि जब तक जाति प्रथा का विनाश नहीं हो जाता तो  समतान्याय और भाईचारे की शासन व्यवस्था नहीं कायम हो सकती। अंबेडकर के जीवन काल में किसी ने नहीं सोचा होगा कि उनके दर्शन को आधार बनाकर राजनीतिक सत्ता हासिल की जा सकती है। लेकिन ऐसा हुआ और मायावती उत्तर प्रदेश की एक मज़बूत नेता के रूप में  उभरीं .मायावती और उनके राजनीतिक गुरू कांशीराम ने अपनी राजनीति के विकास के लिए अंबेडकर का सहारा लिया और सत्ता भी पायी लेकिन अंबेडकर के नाम पर सत्ता का सुख भोगने वाली  सरकार ने उनके सबसे प्रिय सिद्धांत को आगे बढ़ाने के लिए कोई क़दम नहीं उठाया .इस बात  के भी पुख्ता सबूत हैं कि मायावती जाति प्रथा का विनाश चाहती ही नहीं हैं क्योंकि उनका वोट बैंक एक ख़ास जाति से आता है .इसके उलट वे जातियों के आधार पर पहचान बनाए रखने की पक्षधर है.  जब मुख्यमंत्री थीं तो हर  जाति की भाईचारा कमेटियाँ बना दी थीं और उन कमेटियों को उनकी पार्टी का कोई बड़ा नेता संभालता था .डाक्टर भीम राव आंबेडकर ने साफ कहा था कि जब तक जातियों के बाहर शादी ब्याह की स्थितियां नहीं पैदा होती तब तक जाति का इस्पाती सांचा तोड़ा नहीं जा सकता। चार बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजने वाली मायावती जी ने एक बार भी सरकारी स्तर पर ऐसी कोई पहल नहीं की जिसकी वजह से जाति प्रथा पर कोई मामूली सी भी चोट लग सके। जाहिर है जब तक समाज जाति के बंधन के बाहर नहीं निकलता आर्थिक विकास का लक्ष्य भी नहीं हासिल किया जा सकता।
" जाति का विनाश " नाम की अपनी पुस्तक में अंबेडकर ने अपने आदर्शों का जिक्र किया है। उन्होंने कहा कि जातिवाद के विनाश के बाद जो स्थिति पैदा होगी उसमें स्वतंत्रताबराबरी और भाईचारा होगा। एक आदर्श समाज के लिए अंबेडकर का यही सपना था। एक आदर्श समाज को गतिशील रहना चाहिए और बेहतरी के लिए होने वाले किसी भी परिवर्तन का हमेशा स्वागत करना चाहिए। एक आदर्श समाज में विचारों का आदान-प्रदान होता रहना चाहिए।अंबेडकर के आदर्श समाज में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा हैबराबरी . बराबरी के लक्ष्य को हासिल करने के लिए आज से सौ साल पहले डॉ आंबेडकर ने जो दर्शन कोलंबिया विश्वविद्यालय के अपने पर्चे में प्रतिपादित किया था , आज सहारनपुर के जातीय दंगों ने उनको बहुत निर्दय तरीके से नकारने की दिशा में महत्वपूर्ण क़दम उठा लिया है .
ग्रामीण समाज में गरीबी स्थाई भाव  है और दलित शोषित वर्ग उसका सबसे बड़ा शिकार है . यह  भी सच  है कि तथाकथित सवर्ण जातियों के लोगों में भी बड़ी संख्या में लोग गरीबी का शिकार हैं . कल्पना कीजिये कि अगर ग्रामीण भारत में लोग अपनी पहचान जाति के रूप में न मानकर आर्थिक आधार पर मानें तो गरीब आदमियों का एक बड़ा हुजूम तैयार हो जाएगा जो राजनीतिक स्तर पर अपनी समस्याओं के समाधान के लिए प्रयास करेगा लेकिन शासक वर्गों ने ऐसा नहीं होने दिया . जाति के सांचों में बांधकर ही उनको अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकनी थीं और वे लगातार सेंक रहे  हैं .



No comments:

Post a Comment