शेष नारायण सिंह 
डा.अंबेडकर के 55वे  निर्वाण दिवस के मौके पर  ज़रूरी  है कि उनकी सोच और दर्शन के सबसे अहम पहलू पर गौर किया जाए. सब को मालूम है कि डा. अंबेडकर के दर्शन ने २० वीं सदी के भारत के राजनीतिक आचरण  को बहुत ज्यादा प्रभावित किया था . लेकिन उनके दर्शन की सबसे ख़ास बात पर  जानकारी की  भारी कमी है. यह बात कई बार कही जा चुकी है कि  उनके नाम पर राजनीति करने वालों को  इतना तो मालूम है कि बाबा साहेब जाति व्यवस्था के खिलाफ थे लेकिन बाकी चीजों पर  ज़्यादातर लोग अन्धकार में  हैं. उन्हीं कुछ बातों का ज़िक्र करना आज के  दिन सही रहेगा. डा. अंबेडकर को इतिहास एक ऐसे राजनीतिक चिन्तक के रूप में याद रखेगा जिन्होंने जाति के विनाश  को सामाजिक ,आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन की  बुनियाद माना था. यह बात किसी से छुपी नहीं है कि उनकी राजनीतिक विरासत का सबसे ज्यादा फायदा उठाने वाली पार्टी की नेता, आज जाति की संस्था को संभाल कर रखना चाहती  हैं ,उसके विनाश में उनकी कोई रूचि नहीं है . वोट बैंक राजनीति के चक्कर में पड़ गयी अंबेडकरवादी पार्टियों को अब वास्तव में इस बात की चिंता सताने लगी है कि अगर जाति का विनाश हो जाएगा तो उनकी वोट बैंक की राजनीति का क्या होगा. डा अंबेडकर की राजनीतिक सोच को लेकर कुछ और भ्रांतियां भी हैं . कांशीराम और मायावती ने इस क़दर प्रचार कर रखा है कि जाति की पूरी व्यवस्था का ज़हर मनु ने ही फैलाया था, वही इसके संस्थापक थे और मनु की सोच को ख़त्म कर देने मात्र से सब ठीक हो जाएगा.  लेकिन बाबा साहेब ऐसा नहीं मानते थे . उनके एक बहुचर्चित, और अकादमिक भाषण के  हवाले से कहा जा सकता है कि जाति व्यवस्था की सारी बुराइयों को लिए मनु को ही ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता .मनु के बारे में  उन्होंने  कहा कि अगर कभी मनु रहे भी होंगें तो बहुत ही हिम्मती रहे होंगें  . डा. अंबेडकर का कहना है कि ऐसा कभी नहीं होता कि जाति जैसा शिकंजा  कोई एक व्यक्ति बना दे और बाकी पूरा समाज उसको स्वीकार कर ले. उनके अनुसार इस बात की कल्पना करना भी बेमतलब है कि कोई एक आदमी कानून बना देगा और पीढियां दर पीढियां  उसको मानती रहेंगीं. . हाँ इस बात की कल्पना की जा सकती है  कि मनु नाम के कोई तानाशाह रहे होंगें  जिनकी ताक़त के नीचे पूरी आबादी दबी रही होगी और वे जो कह देंगे ,उसे सब मान लेंगें और  उन लोगों की आने वाली नस्लें भी उसे मानती रहेंगी.उन्होंने कहा कि , मैं इस बात को जोर दे कर कहना चाहता हूँ  कि  मनु ने जाति की व्यवस्था की स्थापना नहीं की क्योंकि यह उनके  बस की  बात नहीं था. . मनु के जन्म  के पहले भी जाति की व्यवस्था कायम  थी. . मनु का  योगदान बस  इतना है कि उन्होंने इसे एक दार्शनिक आधार दिया. . जहां तक हिन्दू समाज के स्वरुप  और  उसमें जाति के मह्त्व की बात है, वह मनु की हैसियत के बाहर था और उन्होंने  वर्तमान हिन्दू समाज की दिशा तय करने में कोई भूमिका नहीं निभाई. उनका योगदान बस इतना ही है उन्होंने जाति को एक धर्म के रूप में स्थापित करने की कोशिश की  . जाति का दायरा इतना बड़ा है कि उसे एक आदमी, चाहे वह जितना ही बड़ा ज्ञाता या शातिर  हो, संभाल ही नहीं सकता. . इसी तरह से यह कहना भी ठीक  नहीं होगा कि ब्राह्मणों ने जाति  की संस्था की स्थापना की. मेरा मानना है कि ब्राह्मणों ने बहुत सारे गलत  काम किये हैं लेकिन उनकी औक़ात यह कभी नहीं थी कि वे पूरे समाज  पर जाति व्यवस्था को थोप सकते. . हिन्दू समाज में यह धारणा आम है कि के जाति की संस्था का आविष्कार शास्त्रों  ने किया और शास्त्र  तो कभी गलत हो नहीं सकते. बाबा साहेब ने अपने इसी भाषण में एक चेतावनी और दी थी कि  उपदेश देने से जाति की स्थापना नहीं हुई थी और इसको ख़त्म भी उपदेश के ज़रिये नहीं किया जा सकता.. यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना ज़रूरी है अपने इन विचारों के बावजूद भी , डा अंबेडकर ने समाज सुधारकों के खिलाफ कोई बात नहीं  कही. ज्योतिबा फुले का वे हमेशा सम्मान करते रहे. . हाँ उन्हें  यह पूरा विश्वास था कि जाति प्रथा को किसी महापुरुष से जोड़ कर उसकी तार्किक  परिणति  तक नहीं  ले जाया  जा सकता. 
 
डा अंबेडकर के अनुसार हर समाज का वर्गीकरण और उप वर्गीकरण होता है लेकिन परेशानी की बात यह है कि इस वर्गीकरण के चलते वह  ऐसे सांचों में फिट हो जाता है कि एक दूसरे वर्ग के लोग इसमें न अन्दर  जा सकते हैं और न बाहर आ सकते हैं .  यही जाति का शिकंजा है और इसे ख़त्म किये बिना कोई तरक्की नहीं हो सकती.  सच्ची बात यह है  कि शुरू में अन्य समाजों की तरह हिन्दू समाज भी  चार वर्गों में बंटा हुआ था . ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र . यह वर्गीकरण  मूल रूप से जन्म के आधार पर नहीं था, यह कर्म के आधार पर था .एक वर्ग से दूसरे वर्ग में आवाजाही थी लेकिन  हज़ारों वर्षों की  निहित स्वार्थों कोशिश के बाद इसे जन्म के आधार पर कर दिया गया और एक दूसरे वर्ग में आने जाने की रीति ख़त्म हो गयी. और यही जाति की संस्था के रूप में बाद के युगों में पहचाना जाने लगा. . अगर आर्थिक विकास की गति को तेज़ किया जाय  और उसमें सार्थक हस्तक्षेप करके कामकाज के बेहतर अवसर उपलब्ध कराये जाएँ तो जाति व्यवस्था को जिंदा रख पाना बहुत ही मुश्किल होगा. और जाति के सिद्धांत पर आधारित व्यवस्था का बच पाना  बहुत ही मुश्किल होगा..  अगर ऐसा हुआ तो जाति के विनाश के ज्योतिब अफुले, डा. राम मनोहर लोहिया और डा. अम्बेडकर की राजनीतिक और सामाजिक सोच और दर्शन का मकसद हासिल किया जा सकेगा..
 
हमें यह समझने की कोशिश करनी चाहिए कि एक समाज जातियों में कैसे बंट गया? वे क्या भौतिक परिस्थितियाँ थीं जिन के कारण ऐसा हुआ? और जाति या वर्गों की समाप्ति कैसे हो सकती है?
ReplyDelete'मनु स्मृति'के अनुसार जाति-व्यवस्था नहीं थी,उसमे वर्णों का वर्णन है जो ज्ञान एवं कर्म पर आधारित थे। एक ही परिवार मे अलग-अलग वर्णों के लोग होते थे। किन्तु समाज मे आर्थिक शोषण को स्थाई बनाने हेतु ढाई प्रतिशत आबादी के पूर्वजों ने 'जाति -प्रथा'को 'जन्मगत'आधार प्रदान किया।
ReplyDelete