शेष नारायण सिंह 
गोधरा  में ट्रेन के एक डिब्बे में लगी आग के बाद जिस तरह से  खून खराबा हुआ, उस से दुनिया भर में  तकलीफ महसूस की गयी थी. उसके बाद से लोकतंत्र  के औचित्य पर  सवाल  उठाने लगे थे . कई पुरस्कारों से सम्मानित लेखिका , अरुंधती रॉय ने पहला हमला किया था . उन्होंने लोकतांत्रिक तरीके से चुने गए मुख्यमंत्री, नरेन्द्र मोदी के  गोधरा के बाद के काम को निशाने में लेकर यह तर्क दिया था कि  कल्याणकारी राज्य की स्थापना कर सकना लोकतंत्र के बूते की बात नहीं है .. यहाँ नरेंद्र मोदी को सही ठहराने का कोई इरादा नहीं है लेकिन उनके बहाने से पूरे लोकतंत्र को खारिज करने की कोशिश को भी रोके जाने की  ज़रुरत है .. अरुंधती रॉय एक विद्वान् लेखिका मानी जाती हैं , उनका मीडिया प्रोफाइल बहुत ही ऊंचा है और उन्हें हम लोगों की तरह अपनी रोटी-पानी के लिए रोज़ संघर्ष नहीं करना पड़ता . उनके पास जुगाड़ है,  कई साल तक  के भोजन-भजन का इंतज़ाम है . लेकिन इस देश में आबादी का एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है जिसे लोकतंत्र बहुत कुछ देता है. लोकतंत्र के बड़े बड़े ठेकेदार गरीब आदमी की रोटी-पानी की  बात करते देखे गए हैं. आजकल भी सत्ताधारी पार्टी, राग ' आम आदमी ' में अपनी बात कह रही है लिहाज़ा लोक तंत्र के खिलाफ लाठी भांजने का वक़्त शायद अभी नहीं आया है . २००२ में जब अरुंधती रॉय का लोकतंत्र विरोधी लेख छपा था तो मुझे एक महात्मा जी का प्रवचन  बहुत याद आया था जो मेरे  कस्बे में वर्षों पहले पधारे थे . उन्होंने  रामराज्य का ज़िक्र किया था और कहा था कि वर्तमान राज-काज बिलकुल बेकार है ,हमें रामराज्य के लिए प्रयास करना चाहिए जिस से चारों तरफ दूध-दही की  नदियाँ बहेंगीं , लोग सुखी रहेंगें और कहीं कोई कष्ट नहीं होगा. महात्मा जी का प्रवचन ख़त्म हुआ , तम्बू उखड गया , वहां बिछी हुई दरी वगैरह हटा दी गयी. जो मजदूर इस काम में लगे थे उनको न्यूनतम मजदूरी मिली, उन लोगों ने दुकान वाले को  पिछला बकाया अदा  किया और नया उधार  लेकर अपने घर  चले गए.सूखी रोटी ,प्याज के साथ खाई और सो गए. महात्मा जी प्रवचन के आयोजकों के यहाँ पधारे , वहां दिव्य  भोजन किया, भक्तों ने उनके चरण की सेवा की और वे सो गए.. उनके लिए तो रामराज्य  के सुख का बंदोबस्त हो चुका था लेकिन उन मजदूरों के लिए रामराज्य अभी बहुत दूर था . उनका संघर्ष  लम्बा चलेगा तब कहीं उन्हें रामराज्य के सुख का दर्शन होगा ..अरुंधती रॉय जैसे लोगों का लोकतंत्र के खिलाफ दिया गया प्रवचन  उन्हीं महात्मा जी के प्रवचन जैसा है जो हकीकत से दूर रह कर अपने ख्याली पुलाव को वाताविकता की तरह  स्वीकार करने का आग्रह करता नज़र आता है ..अरुंधती रॉय अपने उस आग्रह पर आज भी कायम हैं क्योंकि  एक नामी पत्रिका में छपे अपने उस लेख को उन्होंने अपनी ताज़ा किताब में  ज्यों का त्यों छाप दिया है. उनके अलावा भी कुछ चिंतकों ने लोकतंत्र के खिलाफ तर्क देना शुरू कर दिया है और एकाधिकारवादी पूंजी और गुंडों की राजनीतिक सफलता का उदाहरण दे कर वे लोकतंत्र के खिलाफ तर्क देने की कोशिश करते हैं. यह सच है कि सत्ता के सबसे ऊंचे मुकाम  पर बैठे लोगों तक पूंजीवादी  शक्ति के प्रतिनिधियों की पंहुच आसानी से हो जाती है , वे कई बार ऐसे  फैसले भी करवा लेते हैं जो जनविरोधी होते हैं . यह भी सच है कि आजकल चुनाव जीतने वालों में ऐसे लोग भी शामिल हो जाते हैं जो अपराधी हैं या जिनका सामाजिक उत्थान से कोई लेना देना नहीं होता .कई बार यह अपराधी लोग विकास के लिए निर्धारित  रक़म को अपने निजी स्वार्थ के लिए हड़प भी लेते हैं . इन अपराधियों, नेताओं, अफसरों और बड़ी पूंजी वालों के गठजोड़ का हवाला देकर भी लोकतंत्र के खिलाफ  माहौल बनाया जा रहा है  लेकिन इस सबके बावजूद अभी लोकतंत्र के खिलाफ सुनी जा रही  खुसुर-फुसुर को समर्थन देना ठीक नहीं होगा . ज़रुरत इस बात की है कि सार्थक बहस की शुरुआत की जाए और लोकतांत्रिक व्यवस्था के खिलाफ बन रहे माहौल को दबाने की कोशिश की जाए. लोक तंत्र के पक्ष में सबसे बड़ी बात तो यही है कि इस व्यवस्था में अपराधी और जनविरोधी टाइप लोगों को बेदखल करने के अवसर उपलब्ध हैं . दूसरी बात यह है कि जो लोग भी लोकतंत्र के खिलाफ माहौल बना रहे हैं उनके पास कोई वास्तविक विकल्प नहीं है. उनके पास विकल्प के नाम पर वही महात्मा जी वाला कार्यक्रम है . .
सच्ची बात यह है कि लोकतंत्र की अवधारणा किसी की कृपा से नहीं आई है . इसके लिए आम आदमी ने सैकड़ों वर्षों तक संघर्ष किया है .और अभी लोकशाही के सभी पक्ष सामने नहीं आये हैं . लोकतंत्र के बड़े केंद्र अमरीका में अभी लोकतंत्र की बुनियादी बातें भी नहीं आई हैं .  चुनाव व्यवस्था शुरू होने  के कई सौ  वर्षों की परंपरा के बाद पिछले चुनाव में वहां यह सोचा गया कि क्या कोई काला यानी दलित आदमी राष्ट्रपति  हो सकता है  या कि कोई महिला  सर्वोच्च पद पर पंहुच सकती है . अभी ५० साल पहले तक अमरीका में सभी  नागरिकों को वोट देने का अधिकार नहीं था . उन्होंने अपने दलितों को चुनाव प्रणाली से बाहर रखा था, महिलाओं को भी बहुत देर से  वोट देने का अधिकार मिला . इसी तरह से बाकी देशों एक लोकतंत्र में भी विकास की अलग अलग अवस्थाएं हैं ... लेकिन एक बात पक्की है कि जो कुछ भी हासिल होगा उसके लिए संघर्ष करना पडेगा.आज जो भी लोकतंत्र  का स्वरुप है उसके विकास में एक लम्बा  वक़्त लगा है  इस में दो राय नहीं है कि लोकतंत्र की अभी बहुत सी संभावनाएं खुलना बाकी हैं .लोकशाही के जो बुनियादी सिद्धांत हैं वे फ्रांसीसी क्रान्ति के  बराबरी, भाईचारा और स्वतंत्रता के नारों से विकसित हुए हैं . आज दुनिया के किसी भी लोकतंत्र में यह लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सका है .ज़ाहिर है कि उसे हासिल  करने के लिए राजनीतिक प्रक्रिया में शामिल होकर ही  कोशिश करनी पड़ेगी . उसके खिलाफ माहौल बना कर नहीं. 
हमारे अपने लोकतंत्र में भी अभी बहुत सारी संभावनाएं हैं . सही बात यह है कि अभी तक  दलितों और मुसलमानों को लोकशाही की मुख्यधारा में शामिल होने का मौक़ा नहीं मिला है.एक मायावती को मुख्यमंत्री पद मिला है लेकिन उसकी वजह  से दलितों की मुक्ति की लड़ाई एक इंच भी आगे नहीं बढ़ी है .. आज़ादी के साथ वर्षों बाद भी पिछड़ी और दलित महिलाओं को राजनीतिक सत्ता में भागीदारी दिलाने के लिए संघर्ष चल रहा है . पंचायतों में कुछ भागीदारी का काम हुआ है लेकिन मर्दवादी  सोच के पुरुषों ने वहां भी स्त्री को सत्ता के बाहर रखने की सारे गोटें बिछा रखी हैं ..आजकल जो नक्सलवाद के खिलाफ सारी सत्ता जुटी हुई है , उस नक्सलवाद को शुरू होने से ही रोका जा सकता था .अगर दलितों और आदिवासियों को  उनका हक दिया गया होता तो वे कभी भी वह  राह न अपनाते . वरना आज वे लोग ही दिग्भ्रमित मार्क्सवादियों  की राजनीतिक डिजाइन को पूरा करने के लिए आगे कर दिए  गए हैं .वे अति वामपंथी आंतंकवादी सोच के लिए शील्ड का काम कर रहे हैं .. उनके खिलाफ तोप चलाने वाली सरकारों को चाहिए कि उनका इस्तेमाल करने वाले हिंसक वामपंथियों और उनका राजनीतिक लाभ लेने वाली जमातों को अलग थलग करें.
यह भी सच है कि राजनीतिक लोकतंत्र की सीमाएं हैं . वह पूरी तरह से  कल्याणकारी निजाम नहीं कायम कर सकता लेकिन लोकतंत्र को कम करने के नतीजे भी भयानक होंगें . लोकतंत्र को कम करने का नतीजा यह होगा कि तानाशाही प्रवृत्तियाँ  बढ़ेगी . इसलिए लोकतंत्र  की मात्रा बढ़ा कर चाहे थोड़ी तकलीफ भी हो लेकिन उसको ही आगे किया जाना चाहिए और  राजनीतिशास्त्र के बारे में शौकिया प्रवचन करने वाले महात्मा टाइप लोगों की बात को गंभीरता से नहीं  लिया जाना चाहिए .
 
nice
ReplyDeleteसही किया सुमन जी , इस गड़े मुर्दे वाले लेख में nice कहने के सिवाय नया है भी कुछ नहीं !
ReplyDeleteमोदी के सुशासन कि बदौलत ही आज गुजरात शीर्ष स्थान पर है। यह भी एक सचाई है कि लोकतंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारन आज ७०% जनता गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन को मजबूर है। १५७७ में हिंदुस्तान की आर्थिक स्थिति बर्तानिया से कहीं बेहतर थी। यह लोकतंत्र के कारण नहीं बल्कि सुशासन के कारन संभव हुआ था। गाँधी जी राम राज्य सा लोकतंत्र चाहते थे .लेकिन उनके अनुयायिओं ने इसे घूस तंत्र बना डाला। आपने एक महात्मा का ज़िक्र किया। अपने महात्मा जी पर भी बिरला उस वक्त ५० रूपया रोज़ खर्च करते थे।
ReplyDeleteआपकी टिप्पणी से मैं प्रभावित हूँ. ख़ासकर मोदी के 'सुशासन' को मुग़ल काल के सुशासन से मिलाकर आपने मोदी को बहुत खुश कर दिया होगा. मेरी बधाई स्वीकार करें. आप जैसे विद्वानों पर मुग़ल सम्राट अकबर को भी गर्व रहा होगा और मोदी को भी . आप वंदनीय हैं.
ReplyDeletetoo good sir both post as well as your comment :-)
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