Friday, December 18, 2009

आर्थिक उदारीकरण और गावों को शहर बनाने के सपने की वजह से है महंगाई

शेष नारायण सिंह


बुधवार को संसद में विपक्ष ने महंगाई को राजनीतिक मुद्दा बनाने की कोशिश की . इसके पहले इस मुद्दे पर बहस हो चुकी थी लेकिन बहस का कोई नतीजा नहीं निकला . सरकार ने बहस में हिस्सा लिया और सब अपने अपने घर चले गए . जो बातें चर्चा में उठायी गयी थीं सब नोट कर ली गयीं और कहीं कोई कार्यवाही नहीं हुई. लेकिन जब चारों तरफ से त्राहि त्राहि के स्वर दिल्ली के सत्ता के गलियारों में पहुचने लगे तो विपक्ष को भी लगा कि महंगाई को मुद्दा बनाया जा सकता है .. शायद इसी भावना के वशीभूत होकर वामपंथी पार्टियों और समाजवादी पार्टी ने बढ़ती कीमतों के खिलाफ एक संयुक्त मोर्चानुमा कुछ पेश करने की कोशिश की .. संसद के अन्दर और बाहर फोटो खिंचवाई और बात को नक्की कर दिया. लेकिन कहीं भी किसी तरफ से नहीं लगा कि विपक्ष महंगाई को कम करने के लिए गंभीर है. जहां तक कांग्रेस और बी जे पी का सवाल है उनकी गलत और पूंजीपति परस्त नीतियों की वजह से ही महंगाई उस हद को पार कर गयी हैं जहां से उसे वापस ला पाना बहुत ही मुश्किल होगा..इस लिए उनसे जनता की पक्षधरता की उम्मीद करने का कोई मतलब नहीं


भारत इकलौता ऐसा निकास शील देश है जहां कीमतें बढ़ रही हैं ..पूरी दुनिया मंदी के दौर से गुज़र रही है और इस चक्कर में हर जगह खाने पीने की चीज़ों और ईंधन की कीमत घट रही है .लेकिन अपने यहाँ बढ़ रही है . यह सत्ताधारी पार्टियों की असफलता का सबूत है...खाने के सामान की जो कीमतें बढ़ रहीहैं उसके लिए बड़ी कंपनियां ज़िम्मेदार हैं . राजनीतिक पार्टियों को मोटा चंदा देने वाली लगभग सभी पूंजीपति घराने उपभोक्ता चीज़ों के बाज़ार में हैं .. खराब फसलकी वजह से होने वाली कमी को यह घराने और भी विकराल कर दे रहे हैं क्योंकि उनके पास जमाखोरी करने की आर्थिक ताक़त है . उनके पैसे से चुनाव लड़ने वाली पार्टियों के नेताओं की हैसियत नहीं है कि उनकी जमाखोरी और मुनाफाखोरी पर कुछ बोल सकें..जब केंद्र सरकार ने मुक्त बाज़ार की अर्थव्यवस्था की बात शुरू की थी तो सही आर्थिक सोच वाले लोगों ने चेतावनी दी थी कि ऐसा करने से देश पैसे वालों के रहमो करम पर रह जाएगा और मध्य वर्ग को हर तरफ से पिसना पडेगा.आज भी महंगाई घटाने का एक ही तरीका है कि केंद्र और राज्य सरकारें राजनीतिक इच्छा शक्ति दिखाएँ और कला बाजारियों और जमाखोरों के खिलाफ ज़बरदस्त अभियान चलायें. खाद्यान में फ्यूचर ट्रेड को फ़ौरन रोकें. सार्वजनिक वितरण पर्नाली को मज़बूत करें और राशन की दुकानों के ज़रिये सकारात्मक हस्तक्षेप करके कीमतों को फ़ौरन कण्ट्रोल करें.. राशन की दुकानों के ज़रिये ही खाद्य तेल, चीनी और दालों की बिक्री का मुकम्मल बंदोबस्त किया जाना चाहिए.. . सच्ची बात यह है कि जब बाज़ार पर आधारित अर्थव्यवस्था के विकास की योजना बना कर देश का आर्थिक विकास किया जा रहा हो तो कीमतों के बढ़ने पर सरकारी दखल की बात असंभव होती है.. एक तरह से पूंजीपति वर्ग की कृपा पर देश की जनता को छोड़ दिया गया है . अब उनकी जो भी इच्छा होगी उसे करने के लिए वे स्वतंत्र हैं .. करोड़ों रूपये चुनाव में खर्च करने वाले नेताओं के लिये यह बहुत ही कठिन फैसला होगा कि जमाखोरों के खिलाफ कोई एक्शन ले सकें.


इसे देश का दुर्भाग्य ही माना जाएगा कि शहरी मध्यवर्ग के लिए हर चीज़ महंगी है लेकिन इसे पैदा करने वाले किसान को उसकी वाजिब कीमत नहीं मिल रही है . किसान से जो कुछ भी सरकार खरीद रही है उसका लागत मूल्य भी नहीं दे रही है ..अभी पिछले दिनों दिल्ली में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों का जमावड़ा हुआ था तो दिल्ली के मीडिया और अन्य लोगों को पता चला था कि किसान को उतनी रक़म भी गन्ने की कीमत के रूप में नहीं मिलती जितनी उसकी लागत आती है... यही हाल बाकी फसलों का भी है . यानी किसान को उसकी लागत नहीं मिल रही है और शहर का उपभोक्ता कई गुना ज्यादा कीमत दे रहा है. इसका मतलब यह हुआ कि बिचौलिया मज़े ले रहा है . किसान और शहरी मध्यवर्ग की मेहनत का एक बाद हिस्सा वह हड़प रहा है.और यह बिचौलिया गल्लामंडी में बैठा कोई आढ़ती नहीं है . वह देश का सबसे बड़ा पूंजीपति भी हो सकता है और किसी भी बड़े नेता का व्यापारिक पार्टनर भी .इस हालत को संभालने का एक ही तरीका है कि जनता अपनी लड़ाई खुद ही लड़े. उसके लिए उसे मैदान लेना
पड़ेगा और सरकार की पूजीपति परस्त नीतियों का हर मोड़ पर विरोध करना पड़ेगा..


महंगाई एक ऐसी मुसीबत है जिसकी इबारत हमारे राजनेताओं ने उसी वक़्त दी थी जब उन्होंने आज़ादी के बाद महात्मा गाँधी की सलाह को नज़र अंदाज़ कर दिया था. गाँधी जी ने बताया था कि स्वतंत्र भारत में विकास की यूनिट गावों को रखा जाएगा. उसके लिए सैकड़ों वर्षों से चला आ रहा परंपरागत ढांचा उपलब्ध था . आज की तरह ही गावों में उन दिनों भी गरीबी थी .गाँधी जी ने कहा कि आर्थिक विकास की ऐसी तरकीबें ईजाद की जाएँ जिस से ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लोगों की आर्थिक दशा सुधारी जा सके और उनकी गरीबी को ख़त्म करके उन्हें संपन्न बनाया सके.. अगर ऐसा हो गया तो गाँव आत्म निर्भर भी हो जायेंगें और राष्ट्र की संपत्ति और उसके विकास में बड़े पैमाने पर योगदान भी करेंगें . उनका यह दृढ विश्वास था कि जब तक भारत के लाखों गाँव स्वतंत्र ,शक्तिशाली और स्वावलंबी बनकर राष्ट्र के सम्पूर्ण जीवन में पूरा भाग नहीं लेते ,तब तक भारत का भावी उज्जवल हो ही नहीं सकता ( ग्राम स्वराज्य)...


लेकिन ऐसा हुआ नहीं. महात्मा गाँधी की सोच को राजकाज की शैली बनाने की सबसे ज्यादा योग्यता सरदार पटेल में थी . देश की बदकिस्मती ही कही जायेगी कि आज़ादी के कुछ महीने बाद ही महात्मा गाँधी की मृत्यु हो गयी और करीब २ साल बाद सरदार पटेल चले गए.. उस वक़्त के देश के नेता और प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरु ने देश के आर्थिक विकास की नीति ऐसी बनायी जिसमें गावों को भी शहर बना देने का सपना था. उन्होंने ब्लाक को विकास की यूनिट बना दी और महात्मा गाँधी के बुनियादी सिद्धांत को ही दफ़न कर दिया..यहीं से गलती का सिलसिला शुरू हो गया..ब्लाक को विकास की यूनिट मानने का सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ कि गाँव का विकास गाँव वालों की सोच और मर्जी की सीमा से बाहर चला गया और सरकारी अफसर ग्रामीणों का भाग्यविधाता बन गया. फिर शुरू हुआ रिश्वत का खेल और आज ग्रामीण विकास के नाम पर खर्च होने वाली सरकारी रक़म ही राज्यों के अफसरों की रिश्वत का सबसे बड़ा साधन है .. उसके बाद जब १९९१ में पी वी नरसिंह राव की सरकार आई तो आर्थिक और औद्योगिक विकास पूरी तरह से पूंजीवादी अर्थशास्त्र की समझ पर आधारित हो गया . बाद की सरकारें उसी सोच कोआगे बढाती रहीं और आज तो हालात यह हैं कि अगर दुनिया के संपन्न देशों में बैंक फेल होते हैं तो अपने देश में भी लोग तबाह होते हैं . तथाकथित खुली अर्थव्यवस्था और वैश्वीकरण के चक्कर में हमने अपने मुल्क को ऐसे मुकाम पर ला कर खड़ा कर दिया है जब हमारी राजनीतिक स्थिरता भी दुनिया के ताक़तवर पूंजीवादी देशों की मर्जी पर हो गयी है ..


इस लिए ज़रुरत इस बात की है कि हमारी राजनीतिक बिरादरी एक दिन के लिए संसद में हल्ला गुला करके और संसद भवन के बाहर फोटो खिंचवा कर ही संतुष्ट न हो जाए बल्कि ऐसी राजनीतिक सोच को विकसित करने की कोशिश करे जिस से पराये मुल्कों का मुंह ताक़ने की हालत ख़त्म हों और देश गाँधी जी वाली आत्मनिर्भर सोच के सहारे अपने लोगों और अपने देश का विकास कर सके..( दैनिक जागरण से साभार )

3 comments:

  1. एक दम सही सोच है।
    लेकिन राजनेता एक नई सोच की तरफ न बढ़ें तो क्या?

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  2. बहुत ही सुन्दर लिखा है आपने

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  3. Shesh ji, Political class is mostly the coopted one. NGOs r behaving like middle-man of the corruption cycle. Aware masses can raise the decisive movement, but for that we need to overcome regional, linguistic, communal and caste cleavages, which are paradoxcically strengthend by political formations of all hues and shades. We bother about cultural/symbolic/and ritualistic issues rather, when its the 'square meal' to all tht shud grab our attention in public protests and movements.
    We tolerate syphoning off of thousand millions in the name of Common wealth games, Development, Beautification over beautification of just single metro that is New Delhi.
    Oh so many pertinent issues i want to mention here but for breivity's sake leavin 'em.

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