Thursday, June 25, 2009

शिव सैनिकों की सनक

यह संतोषजनक है कि शिव सैनिकों की धमकी और पथराव का सामना करने के बावजूद अधिवक्ता अंजलि वाघमारे ने मुंबई हमले के दौरान पकड़े गए पाकिस्तानी आतंकी अजमल आमिर कसाब की वकालत करने की इच्छा जताई। यह निराशाजनक भी है और निंदनीय भी कि शिव सैनिक खुद को प्रखर राष्ट्रभक्त प्रकट करने के फेर में देश की कानूनी प्रक्रिया को अपने हिसाब से चलाने पर आमादा हैं।

उनकी इस सनक भरी जिद का कोई मतलब नहीं कि किसी कानूनी प्रक्रिया का इस्तेमाल किए बगैर कसाब को सीधे फांसी पर लटका दिया जाए। यह न तो 16 वीं सदी है और न ही भारत में जंगलराज है। आखिर शिव सेना इस साधारण सी बात पर विचार करने के लिए क्यों नहीं तैयार कि आतंकियों को सजा देने के मामले में उसके सुझावों पर अमल करना संभव नहीं? सच तो यह है कि आतंकियों को दंडित करने के संबंध में उसके उपाय भारत की बदनामी कराने वाले हैं।

जब भारतीय न्याय प्रक्रिया ही नहीं, नैसर्गिक न्याय का सिद्धांत भी यह कहता है कि किसी को अपने बचाव का मौैका दिए बगैर दंडित करना एक तरह का अन्याय है तब फिर शिव सेना की उछल-कूद का कोई मतलब नहीं। महज प्रचार पाने के लिए शिव सेना जो कुछ कर रही है उससे कुल मिलाकर कसाब सरीखे खूंखार आतंकी को दंडित करने में देरी ही हो रही है।

शिव सेना ने पहले यह सुनिश्चित किया कि कोई भी वकील कसाब की वकालत करने के लिए आगे न आने पाए और फिर जब अदालत ने विवश होकर अपनी ओर से एक वकील का नाम घोषित किया तो शिव सैनिक उसे धमकाने उसके घर तक पहुंच गए। यह निरा पागलपन नहीं तो और क्या है?

माना कि इसे लेकर रंच मात्र भी संदेह नहीं कि कसाब ने मुंबई में बेहद घृणित कृत्य अंजाम दिया, लेकिन क्या उसे दंड का भागीदार बनाने के लिए न्याय प्रक्रिया का उल्लंघन कर दिया जाए? यदि शिव सैनिक अभी भी शिवाजी से प्रेरणा पाते हैं तो बेहतर होगा कि वे उनके आदर्शो से नए सिरे से कुछ सीख लें। इस तरह की मांग का तो औचित्य समझ आता है कि आतंकियों के मामलों की सुनवाई द्रुत गति से हो और ऐसी कोई व्यवस्था भी बनाई जाए जिससे उनके मुकदमे वर्षो तक न खिंचें, लेकिन ऐसे किसी विचार का समर्थन नहीं किया जा सकता कि किसी को भी उनकी वकालत करने का अधिकार न मिले।

यह चिंताजनक है कि पिछले कुछ समय से शिव सेना सरीखे दलों के साथ-साथ वकीलों का एक ऐसा वर्ग भी सामने आ गया है जो न तो स्वयं आतंकियों अथवा अन्य जघन्य अपराधियों की वकालत करता है और न ही किसी को करने देता है। जब कभी अदालत ऐसे तत्वों के लिए सरकारी खर्चे से वकील तय करती है तो उसका विरोध करने के लिए हिंसा का सहारा लेने में भी संकोच नहीं किया जाता।

जो अधिवक्ता यह मानते हैं आतंकियों की वकालत करना अनुचित है वे अपनी इस मान्यता पर दृढ़ रह सकते हैं, लेकिन उन्हें अपनी इस मान्यता को दूसरों पर जबरन थोपने का अधिकार नहीं दिया जा सकता। बेहतर होगा कि बार काउंसिल आफ इंडिया सरीखे संगठन अपने साथियों को यह स्पष्ट संदेश दें कि वे शिव सेना सरीखा दृष्टिकोण अपनाकर न्याय की गरिमा गिराने का काम कर रहे हैं।

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