शेष नारायण सिंह
पिछले छः वर्षों से चीन से अच्छे सम्बन्ध बनाने की प्रधानमंत्री की कोशिश
बेकार होती नज़र आ रही है . नियंत्रण रेखा पर चीनी सैनिकों के साथ हुई हाथापाई में भारत के बीस सैनिकों के शहीद होने के बाद प्रधानमन्त्री ने सार्वजनिक प्रतिक्रिया दी है .
बुधवार को मुख्यमंत्रियों को संबोधित करते हुए प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि,' मैं राष्ट्र को भरोसा दिलाना चाहता हूँ कि हमारे
जवानों का बलिदान व्यर्थ नहीं होने दिया जाएगा. हमारे लिए भारत की एकता और
संप्रभुता सबसे महत्वपूर्ण है . कोई भी हमें उसकी रक्षा करने से रोक नहीं सकता.
किसी को भी इसके बारे में कोई संदेह नहीं होना चाहिए . भारत शान्ति चाहता है लेकिन
किसी भी परिस्थिति में सही और माकूल जवाब देने की उसकी क्षमता है और सही समय पर वह
जवाब दिया जाएगा .' यह बहुत ही सख्त बयान माना
जाएगा इसके पहले विदेश मंत्री जयशंकर ने चीन के विदेशमंत्री स्तर के नेता
से फोन पर बात की
थी. भारत ने चीन को बता दिया था कि गलवान घाटी में चीन को वास्तविक नियंत्रण रेखा ( एल ए सी ) की पवित्रता का सम्मान करना चाहिए
लेकिन ऐसा लगता है कि चीन उस क्षेत्र को अपना इलाका मानता है और वहां से हटने को तैयार नहीं है . विदेशमंत्री ने चीन को यह भी बता दिया कि भारत
के सैनिकों पर हमला सोची समझी योजना के तहत किया गया था . ' यह गंभीर बात है और यह
आपसी संबंधों की मजबूती में बड़ी बाधा साबित हो सकता है. सीमा पर तनाव कम करने के
लिए बुधवार को हुई मेजर जनरल स्तर की बातचीत भी बेनतीजा
रही है . इसका मतलब यह हुआ कि अभी उस इलाके में शान्ति
की कोई उम्मीद नहीं की जानी चाहिए . छः जून को लेफ्टीनेंट जनरल स्तर की बातचीत में
यह तय हो गया था कि अपनी मौजूदा पोजीशन से दोनों ही सेनाएं एक एक किलोमीटर पीछे
चली जायेंगीं और बीच में बफर ज़ोन बना दिया जाएगा . बफर ज़ोन इसलिए बनाया जा रहा था
कि दोनों सेनाओं के सैनिक आपने सामने न आयें .भारत ने इस फैसले का तुरंत पालन किया
.लेकिन १५ जून को देखा गया कि चीन ने जिस क्षेत्र पर क़ब्ज़ा किया हुआ था , वहां कोई ढांचा मौजूद था . वहां तैनात बटालियन के कमांडिंग अफसर कर्नल संतोष बाबू यह सुनिश्चित
करने गए थे कि उस ढाँचे को भी हटा दिया जाए . इसी बीच
वहां बड़ी संख्या में मौजूद चीनी सैनिकों ने लाठी डंडों से हमला कर दिया . पुराने समझौतों के कारण
वास्तविक नियंत्रण रेखा ( एल ए सी ) पर तैनात सैनिक बन्दूक आदि हथियार साथ नहीं रख
सकते . इस हमले में कर्नल संतोष बाबू शहीद हो गए. उनके अलावा १७ और भारतीय सैनिक
वीरगति को प्राप्त हुए . उसके बाद से ही
हालात बिगड़े हुए हैं. गौर तलब है कि कुछ दो साल पहले ऊरी सेक्टर में पाकिस्तानी हमले
में १९ भारतीय सैनिक मारे गए थे और भारत ने सर्जिकल स्ट्राइक कर दिया था लेकिन चीन के साथ वैसा आचरण नहीं किया जा सकता . चीन आज अमरीका का
मुकाबला कर रहा है और विश्व की सबसे मज़बूत
अर्थव्यवस्था बनने के सपने संजो रहा है . उनकी सेना भी बहुत ही मज़बूत है ,पाकिस्तान की तरह लुंज पुंज अर्थव्यवस्था वाले देश की सेना नहीं है . मेजर जनरल स्तर की बातचीन के असफल होने के पहले भारत के विदेश मंत्रालय से एक बयान आया था
जिसमें कहा गया था कि ," दोनों पक्ष इस बात पर सहमत हो
गए हैं कि गलवान घाटी के हालात को समग्रता में देखा
जायेगा और छः जून की बातचीत की समझदारी के मद्देनजर
स्थिति को बहुत ही ज़िम्मेदारी से संभाला जाएगा . कोई
भी हालात को बिगाड़ने के लिए कोई भी कार्रवाई नहीं करेगा ." जहां तक गलवान
घाटी के आसपास की स्थिति है ,वह निश्चित रूप से चिंताजनक है
. लदाख आटोनामस हिल डेवलपमेंट कौंसिल के मुख्य कार्यकारी अधिकारी, ग्याल वांग्याल ने अखबारों को बताया कि आसपास के गाँवों से सभी संपर्क कट
चुके हैं . ग्याल वांग्याल ने बताया कि उस इलाके के
पार्षदों से भी संपर्क नहीं हो पा रहा है .
भारत और चीन के बीच संबंधों के खराब होने की आशंका से दुनिया की बड़ी ताक़तें
चिंतित हैं . सभी ने चिंता जताई है
लेकिन सबकी भाषा में बहुत ही अधिक सावधानी है. रूस ने तनाव कम करने की दोनों देशों
की कोशिश का स्वागत किया है . ब्रिटेन ने भारत और चीन को आपसी बातचीत से समस्या को
सुलझाने के लिए प्रोत्साहित करने की बात की गयी है .
अमरीका के विदेश विभाग से आये बयान में सावधानी पूर्वक कहा गया है कि ' वह वर्तमान स्थिति के शान्तिपूर्ण हल '
का समर्थन करता है . इसके पहले अमरीका की तरफ से बयान आया था कि वह
हालात पर नज़र रखे हुए है . इस साधारण सी बात का भी चीन
ने बहुत बुरा माना था और चीन के लगभग सरकारी अखबार, ग्लोबल टाइम्स में सम्पादकीय टिप्पणी की थी कि अमरीका अगर भारत-चीन के विवाद में
दखलंदाजी करेगा तो हालात और खराब होंगे. चीन की विदेशनीति पर नज़र रखने वालों को मालूम है कि चीन की सरकार से बयान
न भी आये तो ग्लोबल टाइम्स में छपे सम्पादकीय को चीन
की सरकार का बयान ही माना जाता है. इसके कई फायदे हैं , एक तो चीन अपनी मंशा भी साफ़ कर देता है
और अगर किसी अंतरराष्ट्रीय मंच पर कोई अखबार के हवाले
से बात करने की कोशिश करे तो साफ़ तौर पर कह दिया जाता
है कि वह तो अखबार की राय है. विदेशमंत्री एस जयशंकर की चीनी मंत्री से हुयी
बातचीत पर टिप्पणी करते हुए अखबार , ग्लोबल टाइम्स ने जो
लिखा है उससे यह अनुमान नहीं किया जा सकता कि हालात जल्दी सुधरने वाले हैं.लगभग
चेतावनी देते हुए बताया गया है कि ' भारत को अपनी भू-राजनीतिक फैंटसी से बाहर आना चाहिए और चीन के साथ अपने
सीमा विवाद को व्यावहारिकता के साथ हल करना चाहिए .' पिछले सत्तर वर्षों में चीन का अजीब रवैया रहा है . हिंदी-चीनी भाई भी
करते करते १९६२ में चीन ने भारत के विश्वास को झटका दिया था और हमला कर दिया था .
जवाहरलाल नेहरू और तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन लाइ के बीच बहुत ही दोस्ताना
रिश्ते थे लेकिन युद्ध हुआ और भारत को बड़ी कीमत चुकानी पडी . नवस्वतंत्र देश भारत
किसी भी युद्ध की मार झेलने के लिए तैयार नहीं था.
नेहरू के नेतृत्व में देश में आर्थिक विकास के लिए ज़रूरी बुनियादी ढांचा बनाने का
काम चल रहा था. आई आई टी और आई आई एम जैसी संस्थाओं की स्थापना की जा रही थी .
शिक्षा ,उद्योग और स्वास्थय के लिए संस्थाओं की बुनियाद डाली
जा रही थी . बताते हैं कि १९६२ में तत्कालीन चीन के
सुप्रीम लीडर माओत्से तुंग ने भांप लिया था कि भारत आर्थिक विकास के मज़बूत डगर पर
चल पडा है. उसी को कमज़ोर करने के लिए चीन ने हमला कर दिया था .
मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से चीन के सर्वोच्च
नेता , शी जिनपिंग के व्यक्तिगत रिश्ते बहुत ही अच्छे हैं . भारत में बहुत बड़े पैमाने पर चीनी माल की खपत भी हो रही है .
बहुत सारे क्षेत्रों में चीन ने भारत में निवेश भी किया है . चीन की साझेदारी वाली बहुत सारी कम्पनियां भारत में
कारोबार कर रही हैं . इस के बावजूद चीन ने
ऐसे मौके पर भारत को सीमा विवाद में घेरने की साज़िश
रची है जब कोरोना के आतंक के चलते भारत की अर्थव्यवस्था एक मुश्किल दौर से गुज़र
रही है. ज़ाहिर है अगर आज युद्ध की स्थिति बनती
है तो अर्थव्यवस्था पर बहुत ही उलटा असर पडेगा ..आज ही चीन के सरकारी अखबार ग्लोबल
टाइम्स ने एक सम्पाकीय का शीर्षक लगाया है कि, " सीमा
पर तनाव कम करने के लिए मोदी को एक मज़बूत अर्थव्यवस्था चाहिए " चीन का यह
उपदेश देने का लहजा निश्चित रूप से भारत की जनता को
स्वीकार्य नहीं है . अजीब बात है कि सीमा पर हमारे
सैनिकों पर हमले करते
रहेंगे और अपने सरकारी अखबार के ज़रिए भारत में अपने कारोबार को बढ़ाने की अपील भी
करते रहेंगे. चीन अमरीका के साथ भारत के बढ़ते संबंधों
को भी संबंधों में सुधार लाने की दिशा में बाधक मानता
है .उसका दावा है कि इस इलाके में अपनी ताक़त को मज़बूत करने के लिए अमरीका की
विदेशनीति के करता धरता भारत को मोहरा बना रहे हैं.अमरीकी विदेशनीति के लिए चीन एक बड़ी चुनौती है.चीन और भारत में १९६२ से ही सीमा
का विवाद है , युद्ध भी हुए हैं, झडपें
भी होती रहती हैं .सबको मालूम है कि अमरीका कभी किसी देश के साथ वफादारी के रिश्ते
नहीं रखता .उससे कोई उम्मीद करने का मतलब नहीं है .
वैसे भी युद्ध किसी समस्या का हल नहीं होता और शान्ति की भारत की कोशिश में वह
किसी तरह की मदद में आगे आने को तैयार नहीं है. संयुक्त राष्ट्र में अमरीका की
मनमानी चलती रही है लेकिन उस दौर में भी उसने भारत की कोई मदद नहीं की .. चीन के
मुकाबिल भारत को खड़ा करना अमरीकी हुक्मरान का सपना रहा
है . आज हालात ऐसे हो गए हैं कि भारत और चीन आमने सामने खड़े हैं . अमरीकी
राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भारत के प्रधानमंत्री को अपनी निजी दोस्त कहते हैं .
उनको चुनाव जीतना है और आम तौर पर भारतीय मूल के अमरीकी नागरिक उनकी रिपब्लिकन पार्टी को वोट नहीं देते . उन लोगों में नरेंद्र मोदी का बहुत
ही अच्छा प्रभाव है . डोनाल्ड ट्रंप अमरीका में नरेंद्र मोदी की सभा करवा भी चुके
हैं कुल मिलकर हालात ऐसे बन गए हैं कि भारत अब अमरीका कैम्प का देश माना जा रहा है .इसीलिये जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चीन के नेता शी जिनपिंग से व्यक्तिगत दोस्ती
बढाकर उसके राजनयिक इस्तेमाल की तरफ बढ़ रहे थे तो
विद्वानों ने उनको चेतावनी दी थी कि कोई भी देश
व्यक्तिगत संबंधों के आधार पर डिप्लोमेसी नहीं करता. डिप्लोमेसी का आधार हमेशा ही
राष्ट्रहित होता है . यही बात अमरीका के बारे में भी चेताई गयी थी कि भारत को डोनाल्ड ट्रंप से दोस्ती बढाने के चक्कर में उसका फ्रंटमैन बनने
से बचना चाहिए . आज चीन के साथ विवाद सुलझाना डिप्लोमेसी की सर्वोच्च प्राथमिकता होनी
चाहिए क्योंकि अगर डिप्लोमेसी ख़तम होगी तो
युद्ध का ख़तरा बढ़ जाएगा और अर्थव्यवस्था के हित में ज़रूरी है कि युद्ध से बचा जाए
.