शेष नारायण सिंह
“अस्सी-भदैनी में ऐसा कोई भी घर नहीं जिसमें पंडे, पुरोहित,और पंचांग न हों और ऐसे कोई गली नहीं जिसमें कूड़ा,कुत्ते और किरायेदार न हों “. फिल्म मोहल्ला अस्सी में तन्नी गुरू जब यह डायलाग भांजते हैं तो लगता है कि बनारस का इतिहास भूगोल सब बयान कर दिया हो. हिंदी के आला मेयार के उपन्यासकार , प्रो काशीनाथ सिंह के उपन्यास ," काशी का अस्सी " पर बनी फिल्म ' मोहल्ला अस्सी ' एक ऐसी फिल्म है जिसे अवध की गोली में 'बेला का बियाह 'कहा जा सकता है या ज्यादा प्रचलित मुहावरे में 'बीरबल की खिचड़ी ' .ऐसा इसलिए कि इस फिल्म को बनाने में तो कोई दिक्क़त नहीं हुयी लेकिन योजना शुरू होने के करीब नौ साल बाद यह फिल्म परदे पर आयी है . अमृता प्रीतम के उपन्यास पिंजर पर बनी कालजयी फिल्म के निर्माता , डॉ चंद्र प्रकाश द्विवेदी ने 2009 में यह फिल्म बनाने का मंसूबा बांधा था लेकिन तरह तरह की अडचनें आती रहीं . कभी फिल्म के प्रोड्यूसर महोदय खेल करने लगे तो कभी सेंसर बोर्ड ने अपनी कारस्तानी दिखाई . प्रोड्यूसर तो लालच और कंजूसी का शिकार हुआ लेकिन सेंसर बोर्ड में निहलानी इफेक्ट काम कर रहा था. आखिर में मामला हाई कोर्ट में गया और दिल्ली हाई कोर्ट ने अपने फैसले में सेंसर बोर्ड के स्वयंभू महाप्रभुओं को फटकारा और समझाया कि आपके पास मनमानी का अधिकार नहीं है और आपको कलाकार को रचनात्मक आज़ादी देनी ही पड़ेगी . दिल्ली हाई कोर्ट का 36 पेज का यह फैसला आने वाले समय में फिल्मों की क्रिएटिव आज़ादी के लिए नजीर साबित होने वाला है . फिल्म की रलीज के पहले जब फिल्म प्रेस को दिखाई गयी तो दर्शकों में डॉ काशीनाथ सिंह और डॉ गया सिंह भी मौजूद थे. सभी प्रसन्न थे.
डॉ काशी नाथ सिंह का 'काशी का अस्सी' एक ऐसा उपन्यास है जिसमें एक कालखंड का बनारस का इतिहास भूगोल सब कुछ है . उस पर कई फ़िल्में बनाई जा सकती हैं लेकिन इस फिल्म में मूल रूप से उपन्यास के चौथे खंड, ' पांडे कौन कुमति तोहें लागी ' को विषय बनाया गया है और पांडेय धर्मनाथ शात्री के चरित्र को केंद्र में रखा गया है . धर्मनाथ पाण्डेय का रोल बालीवुड के नामवर अभिनेता , सनी देओल कर रहे हैं . फिल्म के मुख्य पात्र भी वही हैं . हालांकि और चरित्रों की भूमिका गौड़ नहीं है . तन्नी गुरू की भूमिका भोजपुरी के बड़े कलाकार ,रवि किशन कर रहे हैं . मुझे लगता है कि तन्नी गुरू और गया सिंह के इर्द गिर्द ही सारी फिल्म घूमनी चाहिए थी लेकिन फ़िल्मी हीरो के होने से थोडा बहुत बदलाव किया गया है. बनारस में जब फिल्म दिखाई गयी उपन्यास के ज्यादातर चरित्र वहां मौजूद थे . डॉ काशी नाथ सिंह के इस उपन्यास में काल्पनिक चरित्र नहीं हैं. सब वही लोग हैं जो अस्सी और नब्बे के दशक में वहीं अस्सी पर पाए जाते थे और पप्पू की चाय की दूकान की शोभा बढाते थे या उन लोगों से सम्बंधित तह. . फिल्म को देखने के बाद डॉ काशीनाथ सिंह ने कहा कि फिल्म इतनी अच्छी बन गयी है कि यह आने वाले समय में साहित्य पर आधारित फिल्मों के लिए माडल साबित होगी . डॉ काशीनाथ सिंह की इस बात का बहुत ही अधिक महत्व है क्योंकि ज्यादातर बड़ी साहित्यिक रचनाओं पर बनने वाली फ़िल्में व्यापारिक सफलता नहीं पा सकी हैं .शायद इसीलिये अपने देश में साहित्यिक रचनाओं को आधार बनाकर फ़िल्में बनाने का फैशन नहीं है लेकिन हर दौर में कोई फिल्मकार ऐसा आता है जो यह पंगा लेता है और साहित्यकार की रचना पर फिल्म बनाता है.. ज़्यादातर फ़िल्में बाज़ार में पिट जाती हैं लेकिन कला की दुनिया में उनका नाम होता है . मुंशी प्रेमचंद, सआदत हसन मंटो , अमृत लाल नागर, फणीश्वर नाथ रेणु, अमृता प्रीतम जैसे बड़े लेखकों की कहानियों पर फ़िल्में बन चुकी हैं . कुछ फ़िल्में तो बाज़ार में भी बहुत लोकप्रिय हुईं लेकिन कुछ कला के मोहल्ले में ही नाम कमा सकीं . जब अमृतलाल नागर मुंबई गए थे तो बहुत खुश होकर गए थे लेकिन जब वहां देखा कि फ़िल्मी कहानी लिखने वाले को किरानी कहते थे और वह आमतौर पर फिल्म के हीरो का चापलूस होता था , तो बहुत मायूस हुए. किरानी बिरादरी का मुकाबला अमृतलाल नागर तो नहीं ही कर सकते थे क्योंकि इन किरानियों की खासियत यह होती थी कि उन पर हज़ारों कमीने न्योछावर किये जा सकते थे . नागर जी वापस लौट आये अपने लखनऊ की गोद में और दोबारा उधर का रुख नहीं किया .लेकिन साहित्यकारों की कृतियों पर फ़िल्में बनती रहीं . इसी सिलसिले में काशीनाथ सिंह के उपन्यास काशी के अस्सी पर इस फिल्म को रखना उपयुक्त होगा. डॉ चन्द्र प्रकाश द्विवेदी ने जो फिल्म बनाई है उसके सफल होने में कोई शक नहीं है. देखकर लगता है कि अस्सी के पप्पू की दुकान ही पर शूटिंग हुयी है लेकिन शूटिंग मुंबई में फिल्म सिटी में हुयी. मुंबई में ही अस्सी की वह पप्पू की दुकान , पांडे जी का घर, वह मोहल्ला जिंदा कर दिया गया था. फिल्मकार ने अस्सी वाले पप्पू की पूरी दुकान खरीद कर उसे ट्रक में लाद कर मुंबई की फिल्म सिटी में फिर से स्थापित कर दिया था. पप्पू भी खुश कि उसकी टुटही दुकान को नए सिरे से सजाने का लिए पैसा मिल गया. और डॉ द्विवेदी भी खुश कि उनकी फिल्म का सेट एकदम सही बन गया ..कलाकारों ने काम भी बहुत अच्छा किया है. डॉ काशीनाथ सिंह ने बताया कि ,पड़ाइन और रामदेई का चरित्र सबसे महत्वपूर्ण स्त्री कैरेक्टर है ,.पंडाइन का काम साक्षी तंवर ने किया है और रामदेई का काम सीमा आज़मी ने . पड़ाइन और रामदेई के चरित्र में जो बनारसी मस्ती और शोखी हैं उसकी एक्टिंग कर पाना बहुत ही मुश्किल था लेकिन फिल्म देखकर लगता है कि यह रोल किसी अभिनेत्री ने नहीं , वहीं बनारस की किसी महिला ने किया है . पाण्डेय के रोल में सनी देओल भी प्रभावशाली हैं . कमीज़ ,धोती,चप्पल और मूंछधारी सनी देओल को अगर एकाएक देखें तो लगेगा ही नहीं कि वह मुंबई का इतना बड़ा फ़िल्मी कलाकार है . उनकी शख्शियत पूरी तरह से बदल गयी है इस फिल्म में . डॉ द्विवेदी ने बताया कि सनी देओल ने फिल्म में पांडे जी का रोल तैयार करने में बहुत मेहनत की है .भोजपुरी फिल्मों के बड़े कलाकार रवि किशन और सौरभ शुक्ला ने अच्छा काम किया है . दर असल डॉ गया सिंह का चरित्र ही कहानी को लगातार खींचता रहता है .हालाँकि फिल्म देखने के बाद डॉ गया सिंह ने कहा कि उनका फ़िल्मी वर्ज़न थोडा झुक कर चल रहा है. अब अस्सी के डीह ,डॉ गया सिंह को कौन बताये कि बाबू साहेब आप अब बूढ़े हप गए हैं और आप भी थोडा झुक गए हैं .यह फिल्म बनारस की गरीबी को केंद्र में रखकर शहर की सम्पन्नता को मुख्य धारा में ला देती है .बनारस में संपन्न लोगों की भी खासी संख्या है लेकिन शहर के मिजाज़ का स्थाई भाव गरीबी ही है . यहाँ गरीबी को भी धकिया कर मज़ा लेने की परम्परा है . कमर में गमछा, कंधे पर लंगोट और बदन पर जनेऊ डाले अपने आप में मस्त रहने वाले लोगों का यह शहर किसी की परवाह नहीं करता. कहते हैं कि लंगोट और जनेऊ तो आजकल कमज़ोर पड़ गए हैं लेकिन गमछा अभी भी बनारसी यूनीफार्म का अहम हिस्सा है . बिना किसी की परवाह किये मस्ती में घूमना इस शहर का पहचान पत्र है . अस्सी घाट की ज़िंदगी को केंद्र में रख कर लिखा गया काशी नाथ सिंह का उपन्यास और उसकी शुरुआत के कुछ पन्ने बनारस की ज़िंदगी का सब कुछ बयान कर देते हैं लेकिन उन सारे शब्दों का प्रयोग एक पत्रकार के लेख में नहीं किया जा सकता . वास्तव में अस्सी बनारस का मुहल्ला नहीं है ,अस्सी वास्तव में " अष्टाध्यायी " है और बनारस उसका भाष्य . पिछले पचास वर्षों से 'पूंजीवाद ' से पगलाए अमरीकी यहाँ आते हैं और चाहते हैं कि दुनिया इसकी टीका हो जाए ..मगर चाहने से क्या होता है ?
काशी नाथ सिंह हिन्दी के बेहतरीन लेखक हैं . ज़रुरत से ज्यादा ईमानदार हैं और लेखन में अपने गाँव जीयनपुर की माटी की खुशबू के पुट देने से बाज नहीं आते. हिन्दी साहित्य के बहुत बड़े भाई के सबसे छोटे भाई हैं . उनके भइया का नाम दुनिया भर में इज्ज़त से लिया जाता है. और स्कूल से लेकर आज तक हमेशा अपने भइया से उनकी तुलना होती रही है .उनके भइया को उनकी कोई भी कहानी पसंद नहीं आई , अपना मोर्चा जैसा कालजयी उपन्यास भी नहीं . यह अलग बात है कि उस उपन्यास का नाम दुनिया भर में है . कई विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है ' साठ और सत्तर के दशक की छात्र राजनीति पर लिखा गया वह सबसे अच्छा उपन्यास है . काशीनाथ सिंह फरमाते हैं कि शायद ही उनकी कोई ऐसी कहानी हो जो भइया को पसंद हो लेकिन ऐसा संस्मरण और कथा-रिपोर्ताज भी शायद ही हो जो उन्हें नापसंद हो . शायद इसीलिये काशीनाथ सिंह जैसा समर्थ लेखक कहानी से संस्मरण और फिर संस्मरण से कथा रिपोर्ताज की तरफ गया . इसीलिये काशी का अस्सी उपन्यास भी है और रिपोर्ताज भी .और फिल्म रचना के साथ पूरी ईमानदारी दिखती हैं . हां ,साहित्य में में सवाल छोड़ देने का रिवाज़ है लेकिन काशीनाथ सिंह ने बताया कि फिल्म में फैसला सुना दिया गया है की मंदिर भी रहेंगे और अँगरेज़ भी रहेंगें . दरअसल कथानक में ब्राह्मणों के घरों में पेइंग गेस्ट न रखने और अन्य जातियों के यहाँ पेइंग गेस्ट रखने की दुविधा से जुड़े पूंजीवादी बदलाव के सवाल को फिल्म ने बहुत ही करीने से स्थापित कर दिया है .फिल्म सफल होनी चाहिए क्योंकि उपन्यास के लेखक डॉ काशीनाथ सिंह अभिभूत हैं और दावा कर रहे हैं कि इस फिल्म की सफलता के बाद साहित्यिक कृतियों पर फिल्मो के निर्माण का सिलसिला एक बार फिर शुरू होगा और यह सिलसिला चलता रहेगा
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