Monday, November 26, 2018

जम्मूकश्मीर में राजनीति को दरकिनार कर नौकरशाही का एजेंडा लागू करने की कोशिश


शेष नारायण सिंह


 यह क्या कर दिया सत्यपाल मलिक ने ! जम्मू कश्मीर के राज्यपाल ने उन लोगों को निराश किया है जिनको  उस दिन बहुत खुशी हुई थी जिन दिन वे जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल बनाए  गए थे . उनमें से कुछ पत्रकारों ने जो लिखा था आज ठीक उसका उलटा हो गया है . सत्यपाल मलिक की तैनाती वाले हफ्ते में कुछ इस तरह की बातें अखबारों में लिखी गयी थीं .
 " सत्यपाल मलिक को जम्मू कश्मीर में बतौर राज्यपाल नियुक्त करके केंद्र सरकार ने अपनी मंशा ज़ाहिर कर दी है कि अब कश्मीर समस्या का हाल बातचीत के ज़रिये ही  निकाला जाएगा . वहां किसी राजनेता को पहली बार राज्यपाल नियुक्त किया गया है . हालांकि कुछ लोग यह कहते भी पाए जाते हैं कि डॉ करन सिंह राज्य के पहले राजनेता राज्यपाल थे लेकिन यह बात सही नहीं है . जब वे राज्यपाल थे तो वे नेता नहीं थे . वे जम्मू-कश्मीर के राजा के बेटे थेशुरू में रेजेंट रहे बाद में सदरे-रियासत बने  और जब १९६५ में  राज्यपाल के पद का सृजन हुआ तो उनको राज्यपाल बना दिया गया. वे वहां वास्तव में इसलिए  थे कि वे जम्मू-कश्मीर के राजा थे. १९६७ में जब उनको केंद्र में मंत्री बनाया गया तो उनकी उम्र कुल ३६ साल की थी . उनके केंद्र में आने के बाद जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल एक आई सी एस अफसर ,भगवान सहाय को बनाया गया . उसके बाद रिटायर सरकारी नौकरों को जम्मू-कश्मीर में राज्यपाल बनाने का सिलसिला जारी रहा . एल के झाबी के नेहरू ,जगमोहन जनरल के वी कृष्ण राव गैरी सक्सेना,लेफ्टीनेंट जनरल  एस के सिन्हा और एन एन वोहरा राज्य के राज्यपाल  बनाए  गए . जगमोहन जनरल राव और सक्सेना से तो एक से अधिक बार भी उस पद पर बैठाए  थे . " इन सारी बातों को अभी तीन महीने भी नहीं हुए लेकिन राज्यपाल महोदय ने राजनीतिक  प्रक्रिया पर ज़बरदस्त चोट  कर दिया  है  . एक राजनीतिक जोड़ घटाव से राज्य में लोकप्रिय और बहुमत वाली  गठबंधन सरकार बनने वाली थी. लेकिन राज्यपाल ने विधान सभा को ही भंग कर दिया .

जो कुछ जम्मू कश्मीर में राज्यपाल ने किया है उसमें गैर  कानूनी या असंवैधानिक कुछ भी   नहीं है . कानून के हिसाब से सब ठीक है .राज्यपाल ने जम्मू-कश्मीर के संविधान के अनुच्छेद ५३ के सेक्शन 2 के पैरा (b ) में प्रदत्त अधिकारों का प्रयोग करते हुए आदेश जारी करके जम्मू-कश्मीर की विधान सभा को  भंग कर दिया है .भारत के संविधान में जो व्यवस्था अनुच्छेद 356 में है , जम्मू-कश्मीर के संविधान में वही व्यवस्था अनुच्छेद 53 में है .विधान सभा भंग करके राज्यपाल ने नए चुनावों के बिना किसी तरह की लोकप्रिय सरकार के गठन की संभावना को समाप्त कर  दिया है . हालांकि यह भी सच है कि महबूबा मुफ्ती के नेतृव में बनने जा रही सरकार को  नैतिक नहीं कहा जा सकता . क्योंकि उसी कांग्रेस और नैशनल कान्फरेन्स के साथ मिलकर वे सरकार बनाने का दावा कर रही थीं जिसने उनको सत्ता से बेदखल करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया था . लेकिन यह भी सच है कि जोड़ गाँठ कर उनके पास 56  विधायकों की संख्या थी और वह बहमत के आंकड़े से बहुत ऊपर था .ऐसी स्थिति में नई सरकार की राजनीतिक संभावना पर ब्रेक लगाकर राज्यपाल ने वही किया है जो पिछले पैंतीस साल से सरकारें करती रही हैं .  समकालीन राजनीति का कोई मामूली जानकार भी बता देगा कि एक राजनेता के रूप में सत्यपाल मलिक जम्मू-कश्मीर में केन्द्र सरकार की मनमानी पूर्ण दखलंदाजी का विरोध करते रहे  हैं .उन्होंने हमेशा राज्य में राजनीतिक प्रक्रिया के  रास्ते ही वांछित नतीजों की बात की है . इस बार राज्यपाल महोदय यह तर्क दे  सकते हैं कि विधायकों की तोड़फोड़ और राजनीतिक सौदेबाजी पर लगाम लगाने के लिए उन्होंने विधानसभा भंग की  है . उनको भी मालूम है और जो लोग उनसे राजनीतिक प्रक्रिया के बहाल होने की उम्मीद लगाए बैठे लोगों  को भी मालूम है कि  जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक शुचिता १९५३ के बाद कभी भी मुद्दा नहीं रही . जब जब केंद्र सरकार के असुरक्षा बोध के कारण राज्य की नैसर्गिक राजनीतिक प्रक्रिया पर दिल्ली के  डंडे का इस्तेमाल हुआ है तब तब जम्मू-कश्मीर की राजनीतिक प्रकिया में बाधा आयी है और  राज्य की शान्ति व्यवस्था दांव पर लगी है . आज जो हालात हैं वहां तह पंहुचने में केंद्र की गैर ज़रूरी दखलंदाजी का एक बड़ा योगदान है .  हमने देखा है जब भी जम्मू-कश्मीर में केंद्रीय हस्तक्षेप हुआ है नतीजे भयानक हुए हैं . शेख अब्दुल्ला की १९५३ की सरकार हो या फारूक अब्दुल्ला को हटाकर गुल शाह को मुख्यमंत्री बनाने की बेवकूफीकेंद्र की गैर ज़रूरी दखलंदाजी के बाद कश्मीर में हालात खराब होते हैं . कश्मीर में केन्द्रीय दखल के नतीजों के इतिहास पर नज़र डालने से तस्वीर और साफ़ हो जायेगी. सच्ची बात यह है कि जम्मू-कश्मीर की जनता हमेशा से ही बाहरी दखल को अपनी आज़ादी में गैरज़रूरी मानती रही है .

जम्मू-कश्मीर में पहला गैर ज़रूरी हस्तक्षेप तो वही था जब १९५३ में  जवाहरलाल नेहरू ने शेख अब्दुल्ला को  मुख्यमंत्री पद से हटाकर गिरफ्तार कर  लिया था . शेख अब्दुल्ला के कुछ बेतुका बयानों और अमरीकी ख़ुफ़िया संस्था सी आई ए की गतिविधियों के कारण कुछ ऐसा माहौल बना कि शेख अब्दुल्ला की सरकार भी बर्खास्त की गयी और उनको जेल में भी डाला गया .उसके बाद राज्य में  जो भी सरकारें आयीं वे कश्मीरी अवाम की उस तरह की प्रतिनिधि नहीं रहीं जैसी शेख अब्दुल्ला की हुआ करती थी . बख्शी गुलाम मुहम्मद  की सरकार या गुलाम मुहम्मद सादिक की सरकार रही हो ,कोई भी कश्मीर की अवाम की नुमाइंदगी का दावा नहीं कर सकतीं . बख्शी को नेहरू का तो सादिक को इंदिरा गांधी का चेला माना  जाता रहा. दोनों ही  हालात को संभाल नहीं पाए . कश्मीर के मामले में समझौते का राजनीतिक एजेंडा डालने के इरादे से  इंदिरा गाँधी ने एक बार फिर हस्तक्षेप किया , शेख साहेब को रिहा किया और उन्हें सत्ता दी. लेकिन इंदिरा गांधी की कश्मीर नीति फेल ही रही . कहते हैं कि १९७७ में जब  जनता पार्टी की मोरारजी देसाई की सरकार बनी तो जम्मू-कश्मीर में एक बड़ी उम्मीद जागी थी . १९७७ के चुनाव के बाद  शेख अब्दुला मुख्य मंत्री बने और राज्य में राजनीतिक प्रक्रिया सामान्य होने की दिशा में चल पडी लेकिन 1982  में शेख अब्दुल्ला की मृत्यु हो गयी.  उनकी मौत के बाद उनके बेटे फारूक अब्दुल्ला को मुख्य मंत्री बनाया गया. यह इंदिरा गांधी की  वापसी के बाद का समय है .  इंदिरा गाँधी निजी तौर पर बहुत कमज़ोर हो गयी थीं , एक बेटा खो चुकी थीं और उनके फैसलों को प्रभावित किया जा सकता था . अपने परिवार के करीबी , अरुण नेहरू पर वे बहुत भरोसा करने लगी थीं, . अरुण नेहरू ने जितना नुकसान कश्मीरी मसले का किया शायद ही किसी ने  किया हो . उन्होंने डॉ फारूक अब्दुल्ला से निजी खुन्नस में उनकी सरकार गिराकर उनके बहनोई गुल शाह को मुख्यमंत्री बनवा दिया . यह कश्मीर में केंद्रीय दखल का सबसे मूर्खतापूर्ण उदाहरण माना जाता है . हुआ यह था कि फारूक अब्दुल्ला ने श्रीनगर में कांग्रेस के विरोधी नेताओं का एक सम्मलेन कर दिया .और अरुण नेहरू नाराज़ हो गए . अगर अरुण नेहरू को मामले की मामूली समझ भी होती तो वे खुश होते कि चलो कश्मीर के मामलों में बाकी देश भी शामिल हो रहा है लेकिन उन्होंने पुलिस के थानेदार की तरह का आचरण किया और सब कुछ खराब कर दिया . इतना ही नहीं . कांग्रेस ने घोषित मुस्लिम दुश्मन , जगमोहन को जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल बनाकर भेज दिया . उसके बाद तो हालात बिगड़ते ही गए. उधर पाकिस्तानी राष्ट्रपति जनरल जिया उल हक लगे हुए थे. उन्होंने बड़ी संख्या में आतंकवादी कश्मीर घाटी में भेज दिया . बची खुची बात उस वक़्त बिगड़ गयी जब  विश्वनाथ प्रताप सिंह के प्रधानमंत्रित्व के समय तत्कालीन गृह मंत्रीमुफ्ती मुहम्मद सईद की बेटी और पी डी एफ की मौजूदा नेता महबूबा मुफ्ती की बहन का पाकिस्तानी आतंकवादियों ने अपहरण कर लिया . उस समय सत्यपाल मलिक  मुफ्ती मुहम्मद सईद के दोस्त थे और वी पी सिंह की सरकार की राजनीति के बहुत ही प्रभावशाली हस्ताक्षर थे . हमें यह भी देखा है कि सत्यपाल मलिक ने  जब जब केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर की राजनीति में बेजा हस्तक्षेप किया है ,उसका विरोध किया है . लेकिन आज वे उसी हस्तक्षेप के साधन बन  गए.
राजनीतिक जानकारों को पता है कि जम्मू-कश्मीर को एक समस्या ग्रस्त राज्य की श्रेणी से बाहर लाने का एक ही तरीका है कि संविधान की सीमाओं में रहते हुए उसकी जनता  को बाकी देश से राजनीतिक और भावनात्मक स्तर पर जोड़ा जाए. ऐसा तभी संभव होगा जब उसी राजनीतिक परिपक्वता का परिचय दिया जाए जिसकी सत्यपाल मलिक ने अपने पूरे राजनीतिक जीवन में पक्षधरता की है . जब अरुण नेहरू ने फारूक अब्दुल्ला को हटवाकर गुल शाह को जम्मू-कश्मीर पर थोपा था तो उसका देश की राजनीतिक पार्टियों ने घोर विरोध किए था . लोक दल के महत्वपूर्ण नेता के रूप में सत्यपाल मलिक ने भी उसका विरोध किया था. यह अलग बात है कि बाद में उन्हीं अरुण नेहरू के दोस्त भी बन गए थे और १९८९ में राजीव गांधी की सरकार को हटाने के लिए जो अभियान चला उसमें दोनों साथ साथ थे . उसके बाद वे केंद्र में पर्यटन और संसदीय  कार्य के मंत्री भी बने . १९९० में जब जम्मू-कश्मीर में  पाकिस्तानी आई एस आई नौजवानों को बरगलाने के अभियान को धार दे रही थी उस वक़्त सरकार के मंत्री के रूप में  उन्होंने वे सारी जानकारियाँ इकट्ठा की हैं जिनके कारण कश्मीर में हालात बिगड़े हैं . जब वे राज्यपाल  बने थे तो यह उम्मीद जगी थी कि कश्मीर की बिगडती दशा में वे केंद्र को सही राजनीतिक सूझ बूझ देंगें लेकिन उनके मौजूदा क़दम से साफ़ हो गया है कि वे केंद्र सरकार की नौकरशाही के एजेंडे को  लागू  करने के निमित्त बन गए हैं . हालांकि उनसे उम्मीद की  गयी थी कि वे वहां राजनीतिक एजेंडा लागू  करने में  सफलता पायेंगे .

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