इंदिरा गांधी की राजनीति का पुनर्मूल्यांकन
शेष नारायण सिंह
इंदिरा गांधी अगर जिंदा होतीं तो 101 साल की हो गयी होतीं. दो टुकड़ों में वे 16 साल देश की प्रधानमंत्री रहीं. उनकी इमरजेंसी और वंशवाद की राजनीति के कारण उनके खिलाफ बहुत सारे आरोप लगते रहे हैं . इसमें दो राय नहीं कि देश के प्रथम प्रधानमंत्री और उनके पिता ,जवाहरलाल नेहरू की तुलना में वे कहीं नहीं ठहरतीं लेकिन उनकी मृत्यु के 34 साल बाद उनकी राजनीति के मूल्यांकन का समय आ गया है. ऐसा इसलिए भी कि एक राजनीतिक पार्टी के रूप में कांग्रेस उतार पर है . कभी देश के हर हिस्से में सत्ता पर काबिज़ रही पार्टी आज अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है . देश की सत्ताधारी राजनीतिक पार्टी का हर सदस्य उनको केवल इमरजेंसी के कारण याद रखना चाहता है लेकिन यह पूरा सच नहीं है . उनके कार्यकाल में कुछ ऐसे काम भी हुए हैं जिनके कारण देश की आबादी के एक बड़े हिस्से को लाभ हुआ और देश को गौरव मिला. दुनिया में भारत को एक बहुत ही महत्वपूर्ण देश के रूप में स्थापित करने का जो काम जवाहरलाल नेहरू ने शुरू किया था उसको इंदिरा गांधी ने बुलंदी तक पंहुचाया . जवाहरलाल नेहरू देश की आज़ादी को कंसालीडेट करने में जुटे थे लेकिन इंदिरा गांधी ने भारत को एक ताक़तवर देश के रूप में पहचान दिलाया . बंगलादेश की स्थापना और उसकी पाकिस्तान से आज़ादी में भारत का योगदान बहुत ही अधिक है . पाकिस्तान पर भारत की सेना की जीत का श्रेय इंदिरा गांधी को मिला क्योंकि उन्होंने उसका कुशल नेतृत्व किया था . बंगलादेश में पाकिस्तान को ज़बरदस्त शिकस्त देने के बाद इंदिरा गांधी की पार्टी के सामने विपक्ष की कोई हैसियत नहीं थी , जनसंघ के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने तो यहाँ तक कह दिया था कि इंदिरा गांधी देश की सबसे बड़ी नेता हैं . 1971 के युद्ध के दौरान उनसे किसी ने पूछा कि कांग्रेस से आपके मतभेद हैं क्या आप उनकी पकिस्तान नीति का समर्थन करते हैं . मुझे उनके वाक्य अब तक याद हैं . उन्होंने कहा था " हम युद्ध के बीच में हैं . अब कोई विपक्ष नहीं है . अब केवल एक दल है ,उसका नाम है भारत और केवल एक नेता है और उसका नाम है इंदिरा गांधी ". उस दौर में अमरीकी दादागीरी और वहां के राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन और विदेश मंत्री हेनरी कीसिंजर को इंदिरा गांधी ने औकात बोध भी करवा दिया था . उन्होंने देश को और कांग्रेस को ऐसा नेतृत्व दिया जिसके बाद पूरी दुनिया में उनकी नेतृत्व शक्ति का डंका बज रहा था. शास्त्री जी द्वारा शुरू की गयी हरित क्रान्ति को इंदिरा गांधी ने कार्यरूप दिया और पूरी गंभीरता से लागू किया . नतीजा यह हुआ कि ग्रामीण भारत में थोड़ी बहुत सम्पन्नता आ गयी थी. इसके पहले बैंकों के राष्ट्रीयकरण के ज़रिये उन्होंने देश की संपदा को कुछ साहूकारों से चंगुल से निकालकर देश की संपत्ति बना दिया था . देश में लोकतंत्र के बावजूद देसी राजाओं के प्रिवी पर्स और विशेषाधिकार की मौजूदगी लोकशाही की भावना के खिलाफ थी . इंदिरा गांधी ने उसको ख़त्म करके देश के आम इंसान में बराबरी का एहसास दिलाने का काम भी किया था . देश में धार्मिक आंदोलनों को दबाकर उन्होंने देश में धर्मनिरपेक्षता की राजनीति को मज़बूत किया था और पूरी दुनिया में सन्देश दिया था कि भारत की एकता को कोई भी नहीं तोड़ सकता . १९७२-७३ में माहौल इंदिरा गांधी के पक्ष में था . लेकिन १९७४ आते आते सब कुछ गड़बड़ाने लगा . यहाँ तक कि उनको इमरजेंसी लगानी पडी . ऐसा क्यों हुआ ? यह एक कठिन सवाल है लेकिन इसी सवाल के जवाब में इंदिरा गांधी की राजनीतिक विफलता का हल छुपा हुआ है. सब को मालूम है कि 1975 में अपनी सत्ता बचाए रखने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी लगा दिया था. संविधान में लोकतंत्र के लिए बनाए गए सभी प्रावधानों को सस्पेंड कर दिया गया था और देश में तानाशाही निजाम कायम कर दिया गया था. १९७५ के जून में इमरजेंसी इसलिए लगाई गयी थी कि इंदिरा गांधी को लग गया था कि जनता का गुस्सा उनके खिलाफ फूट पड़ा है और उसको रोका नहीं जा सकता . १९७४ में इलाहाबाद हाई कोर्ट के एक फैसले ने लोकसभा की सदस्य के रूप में उनके चुनाव को ही खारिज कर दिया तो हालात बहुत जल्दी से इंदिरा गांधी के खिलाफ बन गए . इमरजेंसी वास्तव में स्थापित सत्ता के खिलाफ जनता की आवाज़ को दबाने के लिए किया गया एक असंवैधानिक प्रयास था जिसको जनता के समर्थन से इकठ्ठा हुए राजनीतिक विपक्ष की क्षमता ने सफल नहीं होने दिया .
इसी दौर में इंदिरा गांधी के दोनों बेटे बड़े हो गए थे . बड़े बेटे राजीव गांधी थे जिनको इन्डियन एयरलाइंस में पाइलट की नौकरी मिल गयी थी और वे अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ संतुष्टि का जीवन बिता रहे थे . छोटे बेटे संजय गांधी थे जिनकी पढाई लिखाई ठीक से नहीं हो पाई थी और वे पूरी तरह से अपनी माता पर ही निर्भर थे . इस बीच उनकी शादी भी हो गयी थी . कोई काम नहीं था . इंदिरा जी के एक दरबारी बंसी लाल थे जो हरियाणा के मुख्यमंत्री थे. उन्होंने संजय गांधी को एक छोटी कार कंपनी शुरू करने की प्रेरणा दी. मारुति लिमिटेड नाम की इस कंपनी को उन्होंने दिल्ली से पास गुडगाँव में ज़मीन अलाट कर दी .संजय गाँधी की योजना उद्योग जगत में सफलता हासिल करने की थी लेकिन ऐसा नहीं हुआ . मारुति के कारोबार में वे बुरी तरह से असफल रहे. उसी दौर में दिल्ली के उस वक़्त के काकटेल सर्किट में सक्रिय लोगों ने उनसे मित्रता कर ली .इस सिलसिले में वे इंदिरा गाँधी के कुछ चेला टाइप अफसरों के सम्पर्क में आये और नेता बन गए. इसी के साथ ही इमरजेंसी की भूमिका बनी और संविधान को दरकिनार करके इमरजेंसी लगा दी गयी .
इंदिरा गांधी के राजनीतिक पतन के लिए उनका आज़ादी की लड़ाई के स्थाई भाव , सेकुलरिज्म से दूर होना बताया जाता है . कांग्रेस में सेकुलर राजनीति केंद्रीय विचारधारा रही है .महात्मा गांधी, सरदार पटेल , मौलाना आज़ाद और जवाहरलाल नेहरू आज़ादी के पहले और उसके बाद के सबसे बड़े नेता थे .उन्होंने बार बार कहा था कि धर्मनिरपेक्षता इस राष्ट्र की स्थापना और संचालन का बुनियादी आधार रहेगा . देखा गया है कि कांग्रेस ने जब भी धर्मनिरपेक्षता की राजनीति को कमज़ोर किया उसे चुनाव में हार का सामना करना पड़ा. इमरजेंसी के दौरान भी कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्षता की राह को छोड़ने की कोशिश की . उस वक़्त के आर एस एस के मुखिया बालासाहेब देवरस ने इंदिरा गांधी को कई पत्र लिखे और कांग्रेस के साथ मिलकर काम करने का भरोसा दिया . १० नवंबर 1975 को येरवदा जेल से लिखे एक पत्र में बालासाहेब देवरस ने इंदिरा गांधी को बधाई दी थी कि सर्वोच्च न्यायालय की पाँच सदस्यीय बेंच ने उनके रायबरेली वाले चुनाव को वैध ठहराया है. इसके पहले 22 अगस्त 1975 को लिखे एक अन्य पत्र में आर एस एस प्रमुख ने लिखा कि ''मैंने आपके 15 अगस्त के भाषण को काफी ध्यान से सुना। आपका भाषण आजकल के हालात के उपयुक्त था और संतुलित था।'' इसी पत्र में उन्होने इंदिरा गांधी को भरोसा दिलाया था कि संघ के कार्यकर्ता पूरे देश में फैले हुए हैं जो निस्वार्थ रूप से काम करते हैं। वह आपके कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में तन-मन से सहयोग करेगें.. इसके बाद ही कांग्रेस में मुसलमानों के विरोध का माहौल शुरू हुआ . संजय गांधी ने अपने खास अफसरों को लगाकर मुसलमानों के खिलाफ हिंसक कार्रवाई की और कोशिश की कि देश के बहुसंख्यक हिंदू उनको मुस्लिमविरोधी के रूप में स्वीकार कर लें .कांग्रेस ने पहली बार साफ्ट हिंदुत्व को अपनी राजनीति का आधार बनाने की कोशिश की थी. कांग्रेस की १९७७ की हार में अन्य कारणों के अलावा यह भी एक अहम कारण था .1977 की हार के बाद इंदिरा गांधी ने फिर धर्मनिरपेक्षता की बात शुरू कर दी और जनता पार्टी में फूट डाल दी . उन्होंने देश को बताना शुरू कर दिया कि जनता पार्टी वास्तव में आर एस एस की पार्टी है उसमें समाजवादी तो बहुत कम संख्या में हैं . जनता पार्टी के बड़े नेता और समाजवादी विचारक मधु लिमये ने भी साफ़ ऐलान कर दिया कि आर एस एस वास्तव में एक राजनीतिक पार्टी है और उसके सदस्य जनता पार्टी के सदस्य नहीं रह सकते . कई महीने चली बहस के बाद जनता पार्टी टूट गयी और १९८० में कांग्रेस पार्टी दुबारा सत्ता में आ गयी.
आज फिर इंदिरा गांधी के नाती राहुल गांधी सेकुलर राजनीति से हटकर काम कर रहे हैं और अपनी पार्टी को बीजेपी की क्लोन के रूप में पेश कर रहे हैं. उनके पिता राजीव गांधी भी बाबरी मस्जिद के ताले खुलवाकर और शिलान्यास करके साफ्ट हिंदुत्व के प्रयोग कर चुके हैं . यह देखना दिलचस्प होगा कि कांग्रेस के वर्तमान नेता लोग इंदिरा गांधी की राजनीति के वारिस रहते हैं या नई राजनीतिक सोच अपना कर अपनी राजनीति को नुक्सान पंहुचाते हैं .
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