Friday, November 9, 2018

9 नवम्बर , हुमायूँ के मक़बरे की यात्रा ,अगस्त्य के साथ

मैंने अकेले फिल्म कभी नहीं देखा. इनके पाँव में तकलीफ हो गयी तो कहीं आना जाना ही बंद हो गया . फ़िल्में देखना ही बंद हो गया . फिर इसी मई में बेटी ने दोनों घुटने बदलवा दिए , सर्जरी हुयी , फिज़ियोथिरैपी चली और अब फिर से घूमना फिरना चालू हुआ है . आज बेटे जी सपरिवार दिल्ली में थे उनके साथ दिल्ली पर्यटन पर निकलीं . और हुमायूं के मकबरे की यात्रा की . लगता है कि अब फिर से ज़िंदगी नार्मल ढर्रे पर चलने वाली है . १९७९ में यह दिल्ली आयी थीं ,तब दो ही बच्चे थे . उनको उंगली पकड़ाकर हम दोनों घूमने निकल पड़ते थे. घुटना बदलने के बाद पहली यात्रा थी आज . हमारी ज़िंदगी में कपडे लत्ते, घर के सामान आदि की बहुत सारी हमारी दमित इच्छाएं थीं जिनका हम ज़िक्र नहीं करते थे लेकिन हमारे बच्चों को अंदाज़ था . वे हर मामूली आमदनी वाले इंसान के सपने होते हैं. औरों की तरह हमारे भी बहुत सारे सपने अधूरे रह गए थे जिनको अब हमारे चुन चुन कर पूरा कर रहे हैं. पहली बार जब 1999 में मेरी बेटी ने नौकरी लगने पर अपनी पहली तनखाह से मेरे लिए पैंट-कमीज़ बनवाई थी तो हम दोनों खुशी से फूले नहीं समाये थे अब तो हमें वे चीजें मिल जाती हैं जो अपनी कमाई में कभी संभव नहीं थीं. जब छोटी बेटी इनके लिए बढ़िया साड़ी लेती है तो वह दिन याद आ जाते हैं जब अच्छे लाल की दूकान से पंजी खरीदकर लाया था. जब बेटा मेरे लिये महँगा जूता लेता है तो उसकी मां की आँख में खुशी के आंसू चालक पड़ते हैं . जब बड़ी बेटी घर का सारा सामान लाती है तो हमें लगता है कि बच्चे आपकी ज़िंदगी भर की म्हणत का इनाम हैं. मेरी दुआ है कि हमारी औलादों के बच्चे उनका उसी तरह से ख्याल रखें जैसा यह मेरा रख रहे हैं.
इनके पाँव की तकलीफ के बाद लगता था ज़िंदगी रुक जायेगी लेकिन अब खुशी है कि अपने पाँव से चल रही हैं . माई होतीं तो कहतीं चौंड़रा मार रही हैं . ज़ाहिर हैं उनको भी बहुत खुशी होती.

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