Thursday, November 29, 2018

26/11 की बरसी के दिन हमको पाकिस्तानी मसूबों को सफल नहीं होने देना चाहिए था



शेष नारायण सिंह

अपनी विदेशनीति की अजीब स्थिति हो गयी है .  पाकिस्तान जैसा एक असफल राष्ट्र हमारी विदेशनीति का एजेंडा फिक्स करने की कोशिश कर रहा है. कश्मीर में लगातार आतंकवादी भेजकर वह दुनिया के सामने हमको कमज़ोर दिखाने की कोशिश कर रहा  है. वहां पर पाकिस्तानी डिजाइन को काबू में करने का काम हमारा विदेश विभाग नहीं कर  रहा है . पाकिस्तानी  मंसूबों को लगाम  लगाने का काम हमारे सुरक्षा बल कर रहे हैं . १९४७ से अब तक भारत की विदेशनीति का स्थाई भाव हमेशा ही शान्ति रहा है. भारत हमेशा शान्ति के लिए पहल करता रहा है और शान्ति की हर कोशिश का अगुवा रहा है लेकिन पहली बार करतारपुर साहिब के मामले में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान दुनिया  के सामने शान्ति की पहल करने की कोशिश करता नज़र आने की कोशिश कर  रहा  है और हम खड़े ताली बजा रहे हैं . करतारपुर साहिब में बाबा गुरु नानक के आस्ताने पर जाना हमारी बड़ी आबादी का सपना होता है और उसके लिए पहल करता पाकिस्तान अपने को आतंकवादी सांचे से निकाल कर शान्ति की तरफ जाते हुए दिखने की कोशिश कर रहा है और हम पाकिस्तान को यह भी नहीं बता पा रहे हैं  कि तुम्हारी नीयत में खोट है ,पाकिस्तान जो कश्मीर में मासूम अवाम को क़त्ल कर रहा है वह शान्ति का  दूत नहीं हो सकता . हमारी तो दुर्दशा यह है कि 26/11 जैसी खूंखार घटना के दिन हम करतारपुर के प्रोजेक्ट का उद्घाटन कर देते हैं . 26/11 के लिए हम पाकिस्तान को ज़िम्मेदार मानते हैं और उसी की  बरसी के दिन हमारे उप राष्ट्रपति महोदय पाकिस्तान को दोषमुक्त करने के पाकिस्तान सरकार के अभियान को नैतिक बल देने डेरा बाबा नानक पंहुच कर भाषण करते देखे गए . एक देश के रूप में 26/11 के गुनाहगार को हमें कभी नहीं  भूलना चाहिए .

सवाल यह है कि ऐसा क्यों   हो रहा है . हमारी विदेशनीति का सञ्चालन करने वालों में ऐसे लोगों की भीड़ क्यों जमा हो गयी है  जो पहल करना ही भूल गए  हैं.  विदेशनीति की असफलता  ही है कि पाकिस्तान के एजेंडा के हम हिस्सा बनते नज़र आ रहे हैं. ऐसा शायद इसलिए है कि मौजूदा सत्ताधारी पार्टी में आधुनिक भारत की विदेशनीति के संस्थापक ,जवाहरलाल नेहरू को बौना साबित करने की इतनी जल्दी है कि वे किसी भी मुकाम तक जा सकते हैं . सत्ताधारी पार्टी के एक प्रवक्ता ने तो किसी टेलिविज़न के डिबेट में जवाहरलाल नेहरू को " ठग" कह दिया . एकाएक तो कानों पर विश्वास नहीं हुआ लेकिन जब उसने  बार बार अपनी बात को दोहराया तो मुझे लग गया कि सत्ता प्रतिष्ठान में अज्ञानियों का जमावड़ा हो गया है . जवाहरलाल की विदेशनीति का ही  जलवा था कि सभी पड़ोसी देश भारत को अपना मानते थे और आज स्थिति यह है कि बांगलादेश के अलावा कोई भी भारत को अपना नहीं मान रहा है .नेपाल जैसा देश अब हमारे दुश्मन चीन को अपना दोस्त मानता  है . यह हमारी विदेशनीति के संचालकों की बहुत बड़ी  असफलता है . ऐसा इसलिए है कि  वे लोग जिनकी पार्टियां आज़ादी की लड़ाई के दौरान अंग्रेजों की मददगार थीं वे आज सरकार में हैं और वे पार्टियां जवाहरलाल नेहरू को बहुत ही मामूली नेता बताने की कोशिश कर रही हैं .  दिल्ली के काकटेल सर्किट में होने वाली गपबाज़ी से इतिहास और राजनीति की जानकारी ग्रहण करने वाले कुछ पत्रकार भी १९४७ के पहले और बाद के अंग्रेजों के वफादार बुद्धिजीवियों की जमात की मदद से जवाहरलाल नेहरू को बौना बताने की कोशिश में जुट गए हैं . यहाँ किसी का नाम लेकर बौने नेताओं दलालों और अज्ञानी पत्रकारों को महत्व नहीं दिया जाएगा लेकिन यह ज़रूरी है कि आज़ादी की लड़ाई और उसके बाद की भारत की आर्थिकसामाजिक और राजनीतिक तरक्की में जवाहरलाल नेहरू की हैसियत को कम करने वालों की कोशिशों पर लगाम लगाई जाए.

 नेहरू की विदेश नीति या राजनीति में कमी बताने वालों को यह ध्यान रखना चाहिए कि यह नेहरू की दूरदर्शिता का ही नतीजा है कि आज भारत एक महान देश माना जाता है और ठीक उसी दिन आज़ादी पाने वाला पाकिस्तान आज एक बहुत ही पिछड़ा मुल्क है.. एक अच्छी बात यह है कि आज भी पूरी दुनिया में नेहरू युग की विदेशनीति के प्रशंसक मिल जाते हैं. एक राष्ट्र के रूप में हमको भी चाहिए की अपनी विदेशनीति की बुलंदियों से अपनी मौजूदा और आने वाली पीढ़ियों को अवगत कराएं . लेकिन इसके लिए ज़रूरी है कि  सत्ताधारी पार्टी के नेताओं को अपनी महान नेहरूवियन विरासत पर गर्व करना सिखाएं . उसके लिए जवाहरलाल नेहरू की विदेश नीति की बुनियाद को समझना ज़रूरी है ..१९४६ में जब कांग्रेस ने अंतरिम सरकार में शामिल होने का फैसला किया उसी वक़्त जवाहरलाल ने स्पष्ट कर दिया था कि भारत की विदेशनीति विश्व के मामलों में दखल रखने की कोशिश करेगी स्वतंत्र विदेशनीति होगी और अपने राष्ट्रहित को सर्वोपरि महत्व देगी .. लेकिन यह बात भी गौर करने की है कि किसी नवस्वतंत्र देश की विदेशनीति एक दिन में नहीं विकसित होती. जब विदेशनीति के मामले में नेहरू ने काम शुरू किया तो बहुत सारी अडचनें आयीं लेकिन वे जुटे रहे और एक एक करके सारे मानदंड तय कर दिया जिसकी वजह से भारत आज एक महान शक्ति है .. सच्चाई यह है कि भारत की विदेशनीति उन्ही आदर्शों का विस्तार है जिनके आधार पर आज़ादी की लड़ाई लड़ी गयी थी और आज़ादी की लड़ाई को एक महात्मा ने नेतृत्व प्रदान किया था जिनकी सदिच्छा और दूरदर्शिता में उनके दुश्मनों को भी पूरा भरोसा रहता था. आज़ादी के बाद भारत की आर्थिक और राजनयिक क्षमता बहुत ज्यादा थी लेकिन अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में ताक़त कुछ नहीं थी. जब भारत को आज़ादी मिली तो शीतयुद्ध शुरू हो चुका था और ब्रितानी साम्राज्यवाद के भक्तगण नहीं चाहते थे कि भारत एक मज़बूत ताक़त बने और अंतरराष्ट्रीय मंच पर उसकी आवाज़ सुनी जाए . जबकि जवाहरलाल नेहरू की विदेशनीति का यही लक्ष्य था. अमरीका के पास परमाणु हथियार थे लेकिन उसे इस बात से डर लगा रहता था कि कोई नया देश उसके खिलाफ न हो जाए जबकि सोविएत रूस के नेता स्टालिन और उनके साथी हर उस देश को शक की नज़र से देखते थे जो पूरी तरह उनके साथ नहीं था. नेहरू से दोनों ही देश नाराज़ थे क्योंकि वे किसी के साथ जाने को तैयार नहीं थे,भारत को किसी गुट में शामिल करना उनकी नीति का हिस्सा कभी नहीं रहा . दोनों ही महाशक्तियों को नेहरू भरोसा दे रहे थे कि भारत उनमें से न किसी के गुट में शामिल होगा और न ही किसी का विरोध करेगा. यह बात दोनों महाशक्तियों को बुरी लगती थी. यहाँ यह समझने की चीज़ है कि उस दौर के अमरीकी और सोवियत नेताओं को भी अंदाज़ नहीं था कि कोई देश ऐसा भी हो सकता है जो शान्तिपूर्वक अपना काम करेगा और किसी की तरफ से लाठी नहीं भांजेगा . जब कश्मीर का मसला संयुक्तराष्ट्र में गया तो ब्रिटेन और अमरीका ने भारत की मुखालिफत करके अपने गुस्से का इज़हार किया ..नए आज़ाद हुए देश के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अमरीकियों को कुछ इन शब्दों में फटकारा था . उन्होंने कहा कि ,"'यह हैरतअंगेज़ है कि अपनी विदेशनीति को अमरीकी सरकार किस बचकाने पन से चलाती है .वे अपनी ताक़त और पैसे के बल पर काम चला रहे हैं उनके पास न तो अक्ल है और न ही कोई और चीज़.सोवियत रूस ने हमेशा नेहरू के गुटनिरपेक्ष विदेशनीति का विरोध किया और आरोप लगाया कि वह ब्रिटिश साम्राज्यवाद को समर्थन देने का एक मंच है ..सोवियत रूस ने कश्मीर के मसले पर भारत की कोई मदद नहीं की और उनकी कोशिश रही कि भारत उनके साथ शामिल हो जाए . जवाहरलाल ने कहा कि भारत रूस से दोस्ती चाहता है लेकिन हम बहुत ही संवेदंशील लोग हैं . हमें यह बर्दाश्त नहीं होगा कि कोई हमें गाली दे या हमारा अपमान करे. रूस को यह मुगालता है कि भारत में कुछ नहीं बदला है और हम अभी भी ब्रिटेन के साथी है . यह बहुत ही अहमकाना सोच है ..और अगर इस सोच की बिना पर कोई नीति बनायेगें तो वह गलत ही होगी जहां तक भारत का सवाल है वह अपने रास्ते पर चलता रहेगा. "'
जो लोग समकालीन इतिहास की मामूली समझ भी रखते हैं उन्हें मालूम है कि कितनी मुश्किलों से भारत की आज़ादी के बाद की नाव को भंवर से निकाल कर जवाहरलाल लाये थे और आज जो लोग अपने पूर्वाग्रहों के आधार पर टी वी चैनलों पर बैठ कर मूर्खतापूर्ण प्रलाप करते हैं उन पर कोई भी केवल दया ही कर सकता है. और इन प्रलापियों को यह भी नहीं मालूम है कि दुनिया बड़ा से बड़ा आदमी भी जवाहरलाल नेहरू से मिलकर गर्व का अनुभव करता था. यूरोप में एक विश्वविजेता की हैसियत रखने वाले चर्चिल को जब जवाहरलाल नेहरू एक घटिया आदमी कहते थे तो उनका विश्वास किया जाता था.  और आज हमारी स्थिति यह  हो गयी है कि आतंकवाद की सैरगाह बन चुके पाकिस्तान का प्रधानमंत्री ऐसी  हालात पैदा कर दे रहा  है कि हम अपने देश की एक बहुत बड़ी ट्रेजेडी के दिन 26/11 के दिन पाकिस्तानी शान्ति की पहल में शामिल हो जाते हैं ,.

Monday, November 26, 2018

मोहल्ला अस्सी एक फिल्म है लेकिन बनारसी तहजीब का एक दस्तावेज़ भी



शेष नारायण सिंह

अस्सी-भदैनी में ऐसा कोई भी घर नहीं जिसमें पंडेपुरोहित,और पंचांग न हों और ऐसे कोई गली नहीं जिसमें कूड़ा,कुत्ते और किरायेदार न हों “. फिल्म मोहल्ला  अस्सी में तन्नी गुरू जब यह डायलाग भांजते हैं  तो लगता है कि बनारस का इतिहास भूगोल सब बयान कर दिया हो. हिंदी के आला मेयार के उपन्यासकार , प्रो काशीनाथ सिंह के उपन्यास ," काशी का अस्सी " पर बनी फिल्म ' मोहल्ला अस्सी ' एक ऐसी फिल्म है जिसे  अवध की गोली में 'बेला का बियाह 'कहा जा सकता है  या ज्यादा प्रचलित मुहावरे में 'बीरबल की खिचड़ी ' .ऐसा इसलिए कि इस फिल्म को बनाने में तो कोई दिक्क़त नहीं हुयी लेकिन योजना शुरू होने के करीब  नौ साल बाद यह फिल्म परदे पर आयी है . अमृता प्रीतम के उपन्यास पिंजर पर बनी कालजयी फिल्म के  निर्माता , डॉ चंद्र प्रकाश द्विवेदी ने 2009 में यह फिल्म बनाने का मंसूबा बांधा था लेकिन तरह  तरह की अडचनें आती रहीं . कभी फिल्म के प्रोड्यूसर महोदय खेल करने लगे तो कभी सेंसर बोर्ड ने अपनी कारस्तानी दिखाई . प्रोड्यूसर तो लालच और कंजूसी का शिकार हुआ लेकिन सेंसर बोर्ड में निहलानी इफेक्ट काम कर रहा था. आखिर में मामला  हाई  कोर्ट में गया और दिल्ली  हाई कोर्ट ने अपने फैसले में सेंसर बोर्ड के स्वयंभू महाप्रभुओं को फटकारा और समझाया कि आपके पास मनमानी का अधिकार नहीं है और आपको कलाकार को रचनात्मक आज़ादी देनी ही पड़ेगी .   दिल्ली हाई कोर्ट का 36 पेज का यह फैसला आने  वाले समय में  फिल्मों की क्रिएटिव आज़ादी के लिए नजीर साबित होने वाला है . फिल्म की रलीज के पहले जब फिल्म प्रेस को दिखाई गयी तो दर्शकों में  डॉ काशीनाथ सिंह और डॉ गया सिंह भी मौजूद थे. सभी प्रसन्न  थे.

डॉ काशी नाथ सिंह का 'काशी का अस्सीएक ऐसा उपन्यास है जिसमें एक कालखंड का बनारस का  इतिहास भूगोल सब कुछ है . उस पर  कई फ़िल्में बनाई जा सकती हैं  लेकिन इस फिल्म  में मूल रूप से उपन्यास के चौथे खंड, ' पांडे कौन कुमति तोहें लागी ' को विषय बनाया  गया है और पांडेय धर्मनाथ शात्री के चरित्र को केंद्र में रखा गया  है . धर्मनाथ पाण्डेय का रोल बालीवुड के नामवर अभिनेता , सनी देओल कर रहे हैं . फिल्म के मुख्य  पात्र भी वही  हैं . हालांकि और चरित्रों की भूमिका गौड़ नहीं  है . तन्नी गुरू की भूमिका भोजपुरी  के बड़े कलाकार ,रवि  किशन कर रहे हैं . मुझे लगता है कि तन्नी गुरू और गया सिंह के इर्द गिर्द ही सारी फिल्म  घूमनी चाहिए थी  लेकिन फ़िल्मी हीरो के होने से थोडा बहुत बदलाव किया  गया है. बनारस में जब फिल्म दिखाई गयी उपन्यास के ज्यादातर चरित्र वहां मौजूद थे . डॉ काशी नाथ सिंह के इस उपन्यास में काल्पनिक चरित्र नहीं हैं. सब वही लोग हैं जो   अस्सी और नब्बे के दशक में वहीं अस्सी पर पाए जाते थे   और पप्पू की चाय की दूकान की शोभा बढाते थे या उन लोगों  से सम्बंधित तह. . फिल्म को देखने के बाद डॉ काशीनाथ सिंह ने कहा कि फिल्म इतनी अच्छी बन गयी है कि यह आने वाले समय में साहित्य पर आधारित फिल्मों के लिए माडल साबित होगी . डॉ काशीनाथ सिंह की इस  बात का बहुत ही अधिक महत्व है क्योंकि ज्यादातर बड़ी साहित्यिक रचनाओं पर बनने वाली फ़िल्में व्यापारिक सफलता नहीं पा सकी हैं .शायद इसीलिये अपने देश में साहित्यिक रचनाओं को आधार बनाकर फ़िल्में बनाने का फैशन नहीं है लेकिन हर दौर में कोई फिल्मकार ऐसा आता है जो यह पंगा लेता है और साहित्यकार की रचना पर फिल्म बनाता है.. ज़्यादातर फ़िल्में बाज़ार में पिट जाती हैं लेकिन कला की दुनिया में उनका नाम होता है . मुंशी प्रेमचंदसआदत हसन मंटो , अमृत लाल नागरफणीश्वर नाथ रेणुअमृता प्रीतम जैसे बड़े लेखकों की कहानियों पर फ़िल्में बन चुकी हैं . कुछ फ़िल्में तो बाज़ार में भी बहुत लोकप्रिय हुईं लेकिन कुछ कला के मोहल्ले में ही नाम कमा सकीं . जब अमृतलाल नागर मुंबई गए थे तो बहुत खुश होकर गए थे लेकिन जब वहां देखा कि फ़िल्मी कहानी लिखने वाले को किरानी कहते थे और वह आमतौर पर फिल्म के हीरो का चापलूस होता था , तो बहुत मायूस हुए. किरानी बिरादरी का मुकाबला अमृतलाल नागर तो नहीं ही कर सकते थे क्योंकि इन किरानियों की खासियत यह होती थी कि उन पर हज़ारों कमीने न्योछावर किये जा सकते थे . नागर जी वापस लौट आये अपने लखनऊ की गोद में और दोबारा उधर का रुख नहीं किया .लेकिन साहित्यकारों की कृतियों पर  फ़िल्में बनती रहीं . इसी सिलसिले में काशीनाथ सिंह के उपन्यास काशी के अस्सी पर इस  फिल्म को रखना उपयुक्त होगा.  डॉ चन्द्र प्रकाश द्विवेदी ने जो फिल्म बनाई है उसके सफल  होने में कोई शक नहीं है. देखकर लगता  है कि अस्सी के पप्पू की दुकान ही पर शूटिंग हुयी  है लेकिन शूटिंग मुंबई में फिल्म सिटी में हुयी. मुंबई में ही अस्सी की वह पप्पू की दुकान , पांडे जी का घरवह मोहल्ला जिंदा कर दिया गया था. फिल्मकार ने अस्सी वाले पप्पू की पूरी दुकान खरीद कर उसे ट्रक में लाद कर मुंबई की फिल्म सिटी में फिर से स्थापित कर दिया था.  पप्पू भी खुश कि उसकी टुटही दुकान को नए सिरे से सजाने का लिए पैसा मिल गया. और डॉ द्विवेदी भी खुश कि उनकी फिल्म का सेट एकदम सही बन गया ..कलाकारों ने काम भी बहुत अच्छा किया है. डॉ काशीनाथ सिंह ने बताया कि ,पड़ाइन और रामदेई का  चरित्र सबसे  महत्वपूर्ण स्त्री कैरेक्टर है ,.पंडाइन का काम साक्षी तंवर ने किया  है और रामदेई का काम सीमा आज़मी ने . पड़ाइन और रामदेई के चरित्र में जो बनारसी मस्ती और शोखी हैं उसकी एक्टिंग कर पाना बहुत ही मुश्किल था लेकिन फिल्म देखकर लगता  है कि यह रोल किसी अभिनेत्री ने नहीं , वहीं बनारस की किसी महिला ने किया है . पाण्डेय के रोल में सनी देओल भी प्रभावशाली हैं .  कमीज़ ,धोती,चप्पल और मूंछधारी सनी देओल को अगर एकाएक देखें तो लगेगा ही नहीं कि वह मुंबई का इतना बड़ा फ़िल्मी कलाकार है . उनकी शख्शियत पूरी तरह से बदल गयी है इस फिल्म में . डॉ द्विवेदी ने बताया कि सनी देओल ने फिल्म में पांडे जी का रोल तैयार करने में बहुत मेहनत की है .भोजपुरी फिल्मों के बड़े कलाकार रवि किशन और सौरभ शुक्ला ने अच्छा काम किया है . दर असल डॉ गया सिंह का चरित्र ही कहानी को लगातार खींचता रहता है .हालाँकि फिल्म देखने के बाद डॉ गया सिंह ने कहा कि उनका फ़िल्मी वर्ज़न थोडा झुक कर चल रहा है. अब अस्सी के डीह ,डॉ गया सिंह को कौन बताये कि  बाबू साहेब आप  अब बूढ़े हप गए हैं और आप भी थोडा झुक गए हैं .यह फिल्म बनारस की गरीबी को केंद्र में  रखकर शहर की सम्पन्नता को मुख्य धारा में ला देती है .बनारस में संपन्न लोगों की भी खासी संख्या है लेकिन शहर के मिजाज़ का स्थाई भाव गरीबी ही है . यहाँ गरीबी को भी धकिया कर मज़ा लेने की परम्परा है . कमर में गमछाकंधे पर लंगोट और बदन पर जनेऊ डाले अपने आप में मस्त रहने वाले लोगों का यह शहर किसी की परवाह नहीं करता.  कहते हैं कि लंगोट और जनेऊ तो आजकल कमज़ोर पड़ गए हैं लेकिन गमछा अभी भी बनारसी यूनीफार्म का अहम हिस्सा है . बिना किसी की परवाह किये मस्ती में घूमना इस शहर का पहचान पत्र है . अस्सी घाट की ज़िंदगी को केंद्र में रख कर लिखा गया काशी नाथ सिंह का उपन्यास  और उसकी शुरुआत के कुछ पन्ने बनारस की ज़िंदगी का सब कुछ बयान कर देते हैं लेकिन उन सारे शब्दों का प्रयोग एक पत्रकार  के लेख में नहीं किया जा सकता . वास्तव में अस्सी बनारस का  मुहल्ला नहीं है ,अस्सी वास्तव में " अष्टाध्यायी " है और बनारस उसका भाष्य . पिछले पचास वर्षों से 'पूंजीवाद ' से पगलाए अमरीकी यहाँ आते हैं और चाहते हैं कि दुनिया इसकी टीका हो जाए ..मगर चाहने से क्या होता है ?

 काशी नाथ सिंह हिन्दी के बेहतरीन लेखक हैं . ज़रुरत से ज्यादा ईमानदार हैं और लेखन में अपने गाँव जीयनपुर की माटी की खुशबू के पुट देने से बाज नहीं आते. हिन्दी साहित्य के बहुत बड़े भाई के सबसे छोटे भाई हैं . उनके भइया का नाम दुनिया भर में इज्ज़त से लिया जाता है. और स्कूल से लेकर आज तक हमेशा अपने भइया से उनकी तुलना होती रही है .उनके भइया को उनकी कोई भी कहानी पसंद नहीं आई , अपना मोर्चा जैसा कालजयी उपन्यास भी नहीं . यह अलग बात है कि उस उपन्यास का नाम दुनिया भर में है . कई विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है ' साठ और सत्तर के दशक की छात्र राजनीति पर लिखा गया वह सबसे अच्छा उपन्यास है . काशीनाथ सिंह फरमाते हैं कि शायद ही उनकी कोई ऐसी कहानी हो जो भइया को पसंद हो लेकिन ऐसा संस्मरण और कथा-रिपोर्ताज भी शायद ही हो जो उन्हें नापसंद हो . शायद इसीलिये काशीनाथ सिंह जैसा समर्थ लेखक कहानी से संस्मरण और फिर संस्मरण से कथा रिपोर्ताज की तरफ गया . इसीलिये काशी का अस्सी उपन्यास भी है और रिपोर्ताज भी .और फिल्म रचना के साथ पूरी ईमानदारी दिखती हैं . हां ,साहित्य में में सवाल  छोड़ देने का रिवाज़ है लेकिन काशीनाथ सिंह ने बताया कि फिल्म में फैसला सुना दिया गया है की मंदिर भी रहेंगे और अँगरेज़ भी  रहेंगें . दरअसल कथानक में  ब्राह्मणों के  घरों में पेइंग गेस्ट न रखने और अन्य जातियों के यहाँ पेइंग गेस्ट रखने की दुविधा से जुड़े पूंजीवादी बदलाव के सवाल को फिल्म ने बहुत ही करीने से स्थापित कर दिया है .फिल्म सफल होनी चाहिए क्योंकि उपन्यास के लेखक डॉ काशीनाथ सिंह अभिभूत हैं और दावा कर रहे हैं कि इस फिल्म की सफलता के बाद साहित्यिक कृतियों पर फिल्मो के निर्माण का सिलसिला एक बार फिर शुरू होगा और यह सिलसिला चलता रहेगा

जम्मूकश्मीर में राजनीति को दरकिनार कर नौकरशाही का एजेंडा लागू करने की कोशिश


शेष नारायण सिंह


 यह क्या कर दिया सत्यपाल मलिक ने ! जम्मू कश्मीर के राज्यपाल ने उन लोगों को निराश किया है जिनको  उस दिन बहुत खुशी हुई थी जिन दिन वे जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल बनाए  गए थे . उनमें से कुछ पत्रकारों ने जो लिखा था आज ठीक उसका उलटा हो गया है . सत्यपाल मलिक की तैनाती वाले हफ्ते में कुछ इस तरह की बातें अखबारों में लिखी गयी थीं .
 " सत्यपाल मलिक को जम्मू कश्मीर में बतौर राज्यपाल नियुक्त करके केंद्र सरकार ने अपनी मंशा ज़ाहिर कर दी है कि अब कश्मीर समस्या का हाल बातचीत के ज़रिये ही  निकाला जाएगा . वहां किसी राजनेता को पहली बार राज्यपाल नियुक्त किया गया है . हालांकि कुछ लोग यह कहते भी पाए जाते हैं कि डॉ करन सिंह राज्य के पहले राजनेता राज्यपाल थे लेकिन यह बात सही नहीं है . जब वे राज्यपाल थे तो वे नेता नहीं थे . वे जम्मू-कश्मीर के राजा के बेटे थेशुरू में रेजेंट रहे बाद में सदरे-रियासत बने  और जब १९६५ में  राज्यपाल के पद का सृजन हुआ तो उनको राज्यपाल बना दिया गया. वे वहां वास्तव में इसलिए  थे कि वे जम्मू-कश्मीर के राजा थे. १९६७ में जब उनको केंद्र में मंत्री बनाया गया तो उनकी उम्र कुल ३६ साल की थी . उनके केंद्र में आने के बाद जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल एक आई सी एस अफसर ,भगवान सहाय को बनाया गया . उसके बाद रिटायर सरकारी नौकरों को जम्मू-कश्मीर में राज्यपाल बनाने का सिलसिला जारी रहा . एल के झाबी के नेहरू ,जगमोहन जनरल के वी कृष्ण राव गैरी सक्सेना,लेफ्टीनेंट जनरल  एस के सिन्हा और एन एन वोहरा राज्य के राज्यपाल  बनाए  गए . जगमोहन जनरल राव और सक्सेना से तो एक से अधिक बार भी उस पद पर बैठाए  थे . " इन सारी बातों को अभी तीन महीने भी नहीं हुए लेकिन राज्यपाल महोदय ने राजनीतिक  प्रक्रिया पर ज़बरदस्त चोट  कर दिया  है  . एक राजनीतिक जोड़ घटाव से राज्य में लोकप्रिय और बहुमत वाली  गठबंधन सरकार बनने वाली थी. लेकिन राज्यपाल ने विधान सभा को ही भंग कर दिया .

जो कुछ जम्मू कश्मीर में राज्यपाल ने किया है उसमें गैर  कानूनी या असंवैधानिक कुछ भी   नहीं है . कानून के हिसाब से सब ठीक है .राज्यपाल ने जम्मू-कश्मीर के संविधान के अनुच्छेद ५३ के सेक्शन 2 के पैरा (b ) में प्रदत्त अधिकारों का प्रयोग करते हुए आदेश जारी करके जम्मू-कश्मीर की विधान सभा को  भंग कर दिया है .भारत के संविधान में जो व्यवस्था अनुच्छेद 356 में है , जम्मू-कश्मीर के संविधान में वही व्यवस्था अनुच्छेद 53 में है .विधान सभा भंग करके राज्यपाल ने नए चुनावों के बिना किसी तरह की लोकप्रिय सरकार के गठन की संभावना को समाप्त कर  दिया है . हालांकि यह भी सच है कि महबूबा मुफ्ती के नेतृव में बनने जा रही सरकार को  नैतिक नहीं कहा जा सकता . क्योंकि उसी कांग्रेस और नैशनल कान्फरेन्स के साथ मिलकर वे सरकार बनाने का दावा कर रही थीं जिसने उनको सत्ता से बेदखल करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया था . लेकिन यह भी सच है कि जोड़ गाँठ कर उनके पास 56  विधायकों की संख्या थी और वह बहमत के आंकड़े से बहुत ऊपर था .ऐसी स्थिति में नई सरकार की राजनीतिक संभावना पर ब्रेक लगाकर राज्यपाल ने वही किया है जो पिछले पैंतीस साल से सरकारें करती रही हैं .  समकालीन राजनीति का कोई मामूली जानकार भी बता देगा कि एक राजनेता के रूप में सत्यपाल मलिक जम्मू-कश्मीर में केन्द्र सरकार की मनमानी पूर्ण दखलंदाजी का विरोध करते रहे  हैं .उन्होंने हमेशा राज्य में राजनीतिक प्रक्रिया के  रास्ते ही वांछित नतीजों की बात की है . इस बार राज्यपाल महोदय यह तर्क दे  सकते हैं कि विधायकों की तोड़फोड़ और राजनीतिक सौदेबाजी पर लगाम लगाने के लिए उन्होंने विधानसभा भंग की  है . उनको भी मालूम है और जो लोग उनसे राजनीतिक प्रक्रिया के बहाल होने की उम्मीद लगाए बैठे लोगों  को भी मालूम है कि  जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक शुचिता १९५३ के बाद कभी भी मुद्दा नहीं रही . जब जब केंद्र सरकार के असुरक्षा बोध के कारण राज्य की नैसर्गिक राजनीतिक प्रक्रिया पर दिल्ली के  डंडे का इस्तेमाल हुआ है तब तब जम्मू-कश्मीर की राजनीतिक प्रकिया में बाधा आयी है और  राज्य की शान्ति व्यवस्था दांव पर लगी है . आज जो हालात हैं वहां तह पंहुचने में केंद्र की गैर ज़रूरी दखलंदाजी का एक बड़ा योगदान है .  हमने देखा है जब भी जम्मू-कश्मीर में केंद्रीय हस्तक्षेप हुआ है नतीजे भयानक हुए हैं . शेख अब्दुल्ला की १९५३ की सरकार हो या फारूक अब्दुल्ला को हटाकर गुल शाह को मुख्यमंत्री बनाने की बेवकूफीकेंद्र की गैर ज़रूरी दखलंदाजी के बाद कश्मीर में हालात खराब होते हैं . कश्मीर में केन्द्रीय दखल के नतीजों के इतिहास पर नज़र डालने से तस्वीर और साफ़ हो जायेगी. सच्ची बात यह है कि जम्मू-कश्मीर की जनता हमेशा से ही बाहरी दखल को अपनी आज़ादी में गैरज़रूरी मानती रही है .

जम्मू-कश्मीर में पहला गैर ज़रूरी हस्तक्षेप तो वही था जब १९५३ में  जवाहरलाल नेहरू ने शेख अब्दुल्ला को  मुख्यमंत्री पद से हटाकर गिरफ्तार कर  लिया था . शेख अब्दुल्ला के कुछ बेतुका बयानों और अमरीकी ख़ुफ़िया संस्था सी आई ए की गतिविधियों के कारण कुछ ऐसा माहौल बना कि शेख अब्दुल्ला की सरकार भी बर्खास्त की गयी और उनको जेल में भी डाला गया .उसके बाद राज्य में  जो भी सरकारें आयीं वे कश्मीरी अवाम की उस तरह की प्रतिनिधि नहीं रहीं जैसी शेख अब्दुल्ला की हुआ करती थी . बख्शी गुलाम मुहम्मद  की सरकार या गुलाम मुहम्मद सादिक की सरकार रही हो ,कोई भी कश्मीर की अवाम की नुमाइंदगी का दावा नहीं कर सकतीं . बख्शी को नेहरू का तो सादिक को इंदिरा गांधी का चेला माना  जाता रहा. दोनों ही  हालात को संभाल नहीं पाए . कश्मीर के मामले में समझौते का राजनीतिक एजेंडा डालने के इरादे से  इंदिरा गाँधी ने एक बार फिर हस्तक्षेप किया , शेख साहेब को रिहा किया और उन्हें सत्ता दी. लेकिन इंदिरा गांधी की कश्मीर नीति फेल ही रही . कहते हैं कि १९७७ में जब  जनता पार्टी की मोरारजी देसाई की सरकार बनी तो जम्मू-कश्मीर में एक बड़ी उम्मीद जागी थी . १९७७ के चुनाव के बाद  शेख अब्दुला मुख्य मंत्री बने और राज्य में राजनीतिक प्रक्रिया सामान्य होने की दिशा में चल पडी लेकिन 1982  में शेख अब्दुल्ला की मृत्यु हो गयी.  उनकी मौत के बाद उनके बेटे फारूक अब्दुल्ला को मुख्य मंत्री बनाया गया. यह इंदिरा गांधी की  वापसी के बाद का समय है .  इंदिरा गाँधी निजी तौर पर बहुत कमज़ोर हो गयी थीं , एक बेटा खो चुकी थीं और उनके फैसलों को प्रभावित किया जा सकता था . अपने परिवार के करीबी , अरुण नेहरू पर वे बहुत भरोसा करने लगी थीं, . अरुण नेहरू ने जितना नुकसान कश्मीरी मसले का किया शायद ही किसी ने  किया हो . उन्होंने डॉ फारूक अब्दुल्ला से निजी खुन्नस में उनकी सरकार गिराकर उनके बहनोई गुल शाह को मुख्यमंत्री बनवा दिया . यह कश्मीर में केंद्रीय दखल का सबसे मूर्खतापूर्ण उदाहरण माना जाता है . हुआ यह था कि फारूक अब्दुल्ला ने श्रीनगर में कांग्रेस के विरोधी नेताओं का एक सम्मलेन कर दिया .और अरुण नेहरू नाराज़ हो गए . अगर अरुण नेहरू को मामले की मामूली समझ भी होती तो वे खुश होते कि चलो कश्मीर के मामलों में बाकी देश भी शामिल हो रहा है लेकिन उन्होंने पुलिस के थानेदार की तरह का आचरण किया और सब कुछ खराब कर दिया . इतना ही नहीं . कांग्रेस ने घोषित मुस्लिम दुश्मन , जगमोहन को जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल बनाकर भेज दिया . उसके बाद तो हालात बिगड़ते ही गए. उधर पाकिस्तानी राष्ट्रपति जनरल जिया उल हक लगे हुए थे. उन्होंने बड़ी संख्या में आतंकवादी कश्मीर घाटी में भेज दिया . बची खुची बात उस वक़्त बिगड़ गयी जब  विश्वनाथ प्रताप सिंह के प्रधानमंत्रित्व के समय तत्कालीन गृह मंत्रीमुफ्ती मुहम्मद सईद की बेटी और पी डी एफ की मौजूदा नेता महबूबा मुफ्ती की बहन का पाकिस्तानी आतंकवादियों ने अपहरण कर लिया . उस समय सत्यपाल मलिक  मुफ्ती मुहम्मद सईद के दोस्त थे और वी पी सिंह की सरकार की राजनीति के बहुत ही प्रभावशाली हस्ताक्षर थे . हमें यह भी देखा है कि सत्यपाल मलिक ने  जब जब केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर की राजनीति में बेजा हस्तक्षेप किया है ,उसका विरोध किया है . लेकिन आज वे उसी हस्तक्षेप के साधन बन  गए.
राजनीतिक जानकारों को पता है कि जम्मू-कश्मीर को एक समस्या ग्रस्त राज्य की श्रेणी से बाहर लाने का एक ही तरीका है कि संविधान की सीमाओं में रहते हुए उसकी जनता  को बाकी देश से राजनीतिक और भावनात्मक स्तर पर जोड़ा जाए. ऐसा तभी संभव होगा जब उसी राजनीतिक परिपक्वता का परिचय दिया जाए जिसकी सत्यपाल मलिक ने अपने पूरे राजनीतिक जीवन में पक्षधरता की है . जब अरुण नेहरू ने फारूक अब्दुल्ला को हटवाकर गुल शाह को जम्मू-कश्मीर पर थोपा था तो उसका देश की राजनीतिक पार्टियों ने घोर विरोध किए था . लोक दल के महत्वपूर्ण नेता के रूप में सत्यपाल मलिक ने भी उसका विरोध किया था. यह अलग बात है कि बाद में उन्हीं अरुण नेहरू के दोस्त भी बन गए थे और १९८९ में राजीव गांधी की सरकार को हटाने के लिए जो अभियान चला उसमें दोनों साथ साथ थे . उसके बाद वे केंद्र में पर्यटन और संसदीय  कार्य के मंत्री भी बने . १९९० में जब जम्मू-कश्मीर में  पाकिस्तानी आई एस आई नौजवानों को बरगलाने के अभियान को धार दे रही थी उस वक़्त सरकार के मंत्री के रूप में  उन्होंने वे सारी जानकारियाँ इकट्ठा की हैं जिनके कारण कश्मीर में हालात बिगड़े हैं . जब वे राज्यपाल  बने थे तो यह उम्मीद जगी थी कि कश्मीर की बिगडती दशा में वे केंद्र को सही राजनीतिक सूझ बूझ देंगें लेकिन उनके मौजूदा क़दम से साफ़ हो गया है कि वे केंद्र सरकार की नौकरशाही के एजेंडे को  लागू  करने के निमित्त बन गए हैं . हालांकि उनसे उम्मीद की  गयी थी कि वे वहां राजनीतिक एजेंडा लागू  करने में  सफलता पायेंगे .

इंदिरा गांधी की : लोकत्रंत्र के पालने में जन्मी एक बेटी जो तानाशाह बन गयी

इंदिरा गांधी  की राजनीति का पुनर्मूल्यांकन

शेष नारायण सिंह


इंदिरा गांधी अगर जिंदा होतीं तो 101 साल की हो गयी होतीं. दो  टुकड़ों में वे  16 साल देश की प्रधानमंत्री रहीं.  उनकी इमरजेंसी और वंशवाद की राजनीति के कारण उनके खिलाफ बहुत सारे आरोप लगते रहे हैं . इसमें दो राय नहीं कि देश के प्रथम प्रधानमंत्री और उनके पिता ,जवाहरलाल नेहरू की तुलना में वे कहीं नहीं ठहरतीं लेकिन उनकी मृत्यु के 34 साल बाद उनकी राजनीति के मूल्यांकन का समय आ गया है. ऐसा इसलिए भी कि एक राजनीतिक पार्टी के रूप में कांग्रेस उतार पर है . कभी देश के हर हिस्से में सत्ता पर काबिज़ रही पार्टी आज अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है . देश की सत्ताधारी राजनीतिक पार्टी का हर सदस्य उनको  केवल इमरजेंसी के कारण याद रखना चाहता है लेकिन यह पूरा सच नहीं है . उनके कार्यकाल  में कुछ ऐसे काम भी हुए  हैं जिनके कारण देश की आबादी के एक बड़े हिस्से को लाभ हुआ और देश  को गौरव मिला. दुनिया में भारत को एक बहुत ही महत्वपूर्ण देश के रूप में स्थापित करने का जो काम जवाहरलाल नेहरू  ने शुरू किया था उसको इंदिरा गांधी ने  बुलंदी तक पंहुचाया .  जवाहरलाल नेहरू देश की आज़ादी को कंसालीडेट करने में जुटे थे लेकिन इंदिरा  गांधी ने भारत को एक ताक़तवर देश के रूप में पहचान दिलाया . बंगलादेश की स्थापना और उसकी पाकिस्तान से आज़ादी में भारत का योगदान  बहुत ही अधिक है . पाकिस्तान पर  भारत की सेना की जीत का श्रेय इंदिरा गांधी को मिला क्योंकि उन्होंने उसका कुशल नेतृत्व किया था .  बंगलादेश में पाकिस्तान को ज़बरदस्त शिकस्त देने के बाद इंदिरा गांधी की पार्टी  के सामने  विपक्ष की कोई हैसियत नहीं थी जनसंघ के नेता अटल बिहारी वाजपेयी  ने तो यहाँ तक कह दिया था कि इंदिरा गांधी देश की सबसे बड़ी नेता हैं  . 1971 के युद्ध के दौरान उनसे किसी ने पूछा कि कांग्रेस से आपके मतभेद हैं क्या आप उनकी पकिस्तान नीति का समर्थन करते हैं . मुझे उनके वाक्य अब तक याद हैं  . उन्होंने कहा था " हम युद्ध के बीच में हैं . अब कोई विपक्ष नहीं है . अब केवल एक दल है ,उसका नाम है भारत और केवल एक नेता  है और उसका नाम है इंदिरा गांधी ". उस दौर में अमरीकी  दादागीरी और वहां के राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन और विदेश मंत्री हेनरी कीसिंजर को इंदिरा गांधी ने औकात बोध भी करवा दिया था .  उन्होंने देश को और कांग्रेस को ऐसा नेतृत्व दिया जिसके बाद पूरी दुनिया में उनकी नेतृत्व शक्ति का डंका बज रहा था.  शास्त्री जी द्वारा शुरू की गयी हरित क्रान्ति को  इंदिरा गांधी ने कार्यरूप दिया और पूरी गंभीरता से लागू किया . नतीजा यह हुआ कि  ग्रामीण भारत में  थोड़ी बहुत सम्पन्नता आ गयी थी.  इसके पहले बैंकों के राष्ट्रीयकरण के ज़रिये उन्होंने देश की  संपदा को कुछ  साहूकारों से चंगुल से निकालकर देश की   संपत्ति बना दिया था . देश में लोकतंत्र के बावजूद देसी राजाओं के प्रिवी पर्स और विशेषाधिकार की मौजूदगी लोकशाही की भावना के खिलाफ थी . इंदिरा  गांधी ने उसको ख़त्म करके देश के आम इंसान में बराबरी का एहसास दिलाने का काम भी किया था . देश में धार्मिक आंदोलनों को दबाकर उन्होंने देश में धर्मनिरपेक्षता की राजनीति को मज़बूत किया था और पूरी दुनिया में सन्देश दिया था कि भारत की एकता को कोई भी नहीं तोड़ सकता .  १९७२-७३ में माहौल इंदिरा गांधी के पक्ष  में था . लेकिन १९७४   आते आते  सब कुछ  गड़बड़ाने लगा .  यहाँ तक कि उनको इमरजेंसी लगानी पडी  . ऐसा क्यों  हुआ ? यह एक कठिन सवाल है लेकिन इसी सवाल के जवाब में इंदिरा गांधी की राजनीतिक विफलता का  हल छुपा हुआ है. सब को मालूम है कि 1975 में अपनी सत्ता बचाए  रखने के लिए  तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी लगा दिया था.  संविधान में लोकतंत्र के  लिए बनाए गए सभी प्रावधानों को सस्पेंड कर दिया  गया था और देश में तानाशाही निजाम  कायम कर दिया गया  था. १९७५ के जून में इमरजेंसी इसलिए लगाई गयी थी कि इंदिरा गांधी को लग गया था कि जनता का गुस्सा उनके खिलाफ फूट पड़ा है और उसको रोका नहीं जा सकता  . १९७४ में इलाहाबाद हाई कोर्ट के एक फैसले ने  लोकसभा की सदस्य के रूप में उनके चुनाव को ही खारिज कर दिया तो हालात बहुत जल्दी से इंदिरा गांधी के खिलाफ बन गए . इमरजेंसी वास्तव में स्थापित सत्ता के खिलाफ जनता की आवाज़ को दबाने के लिए किया  गया एक असंवैधानिक प्रयास था जिसको जनता के समर्थन से इकठ्ठा हुए राजनीतिक विपक्ष की क्षमता  ने सफल नहीं होने दिया .

 इसी दौर में इंदिरा गांधी के दोनों बेटे बड़े हो गए थे . बड़े बेटे  राजीव गांधी थे जिनको इन्डियन एयरलाइंस में पाइलट की नौकरी मिल गयी थी और वे अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ  संतुष्टि का जीवन बिता रहे थे . छोटे बेटे संजय गांधी थे जिनकी पढाई लिखाई ठीक से  नहीं  हो पाई थी और वे पूरी तरह से अपनी माता पर ही  निर्भर थे . इस बीच उनकी शादी भी हो गयी थी . कोई काम नहीं था . इंदिरा जी के एक दरबारी  बंसी लाल थे जो हरियाणा के  मुख्यमंत्री थे. उन्होंने संजय गांधी को एक छोटी कार कंपनी शुरू करने की प्रेरणा दी. मारुति लिमिटेड नाम की इस कंपनी को उन्होंने दिल्ली से पास  गुडगाँव में ज़मीन अलाट कर दी .संजय गाँधी की योजना  उद्योग जगत में सफलता हासिल करने की थी लेकिन ऐसा नहीं हुआ . मारुति के  कारोबार में वे बुरी तरह से असफल रहे. उसी दौर में दिल्ली के उस वक़्त के काकटेल सर्किट में सक्रिय लोगों ने उनसे मित्रता कर ली .इस सिलसिले में वे इंदिरा गाँधी के कुछ चेला टाइप अफसरों के सम्पर्क में आये और नेता बन गए. इसी के साथ ही इमरजेंसी  की भूमिका बनी और संविधान को दरकिनार करके इमरजेंसी लगा दी गयी .

इंदिरा गांधी के राजनीतिक पतन के लिए उनका आज़ादी की लड़ाई के स्थाई भाव , सेकुलरिज्म से दूर होना बताया जाता है . कांग्रेस में सेकुलर राजनीति केंद्रीय विचारधारा रही है .महात्मा गांधीसरदार पटेल मौलाना आज़ाद और जवाहरलाल नेहरू आज़ादी के पहले और उसके बाद के  सबसे बड़े नेता थे .उन्होंने बार बार कहा था कि  धर्मनिरपेक्षता इस राष्ट्र की स्थापना और संचालन का बुनियादी आधार रहेगा . देखा गया है कि  कांग्रेस ने जब भी धर्मनिरपेक्षता की राजनीति को  कमज़ोर किया उसे चुनाव में हार का सामना करना पड़ा.  इमरजेंसी के दौरान भी कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्षता की राह को छोड़ने की कोशिश की . उस वक़्त के आर एस एस के मुखिया बालासाहेब  देवरस ने इंदिरा गांधी को कई पत्र लिखे और कांग्रेस के साथ मिलकर काम करने का भरोसा दिया . १० नवंबर 1975 को येरवदा जेल से लिखे एक पत्र में बालासाहेब देवरस ने इंदिरा गांधी को बधाई दी थी कि सर्वोच्च न्यायालय की पाँच सदस्यीय बेंच ने उनके रायबरेली वाले चुनाव को वैध ठहराया है.  इसके पहले 22 अगस्त 1975 को लिखे एक अन्य पत्र में आर एस एस प्रमुख ने लिखा कि ''मैंने आपके 15 अगस्त के भाषण को काफी ध्यान से सुना। आपका भाषण आजकल के हालात के उपयुक्त था और संतुलित था।'' इसी पत्र में उन्होने इंदिरा गांधी को भरोसा दिलाया था कि संघ के कार्यकर्ता पूरे देश में फैले हुए हैं जो निस्वार्थ रूप से काम करते हैं। वह आपके कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में तन-मन से सहयोग करेगें.. इसके बाद ही कांग्रेस में  मुसलमानों के विरोध का माहौल शुरू हुआ . संजय गांधी ने अपने खास अफसरों को लगाकर मुसलमानों के खिलाफ हिंसक कार्रवाई की और कोशिश की कि देश के बहुसंख्यक हिंदू  उनको मुस्लिमविरोधी के रूप में स्वीकार कर लें .कांग्रेस ने पहली बार साफ्ट हिंदुत्व को अपनी राजनीति का आधार बनाने की कोशिश की थी. कांग्रेस की १९७७ की हार में अन्य कारणों के अलावा यह भी एक अहम कारण था .1977 की हार के बाद  इंदिरा गांधी ने फिर धर्मनिरपेक्षता की बात शुरू कर दी और जनता पार्टी में  फूट डाल दी . उन्होंने देश को बताना शुरू कर दिया कि जनता पार्टी वास्तव में आर एस एस की पार्टी है उसमें समाजवादी तो बहुत कम संख्या में हैं . जनता पार्टी के बड़े नेता और समाजवादी विचारक मधु लिमये ने भी साफ़ ऐलान कर दिया कि आर एस एस वास्तव में एक राजनीतिक पार्टी है और उसके सदस्य जनता पार्टी के सदस्य नहीं रह सकते . कई महीने चली बहस के बाद जनता पार्टी टूट गयी और १९८० में कांग्रेस पार्टी दुबारा सत्ता में आ गयी.

आज फिर इंदिरा गांधी के नाती राहुल गांधी सेकुलर राजनीति से हटकर काम कर  रहे हैं और अपनी पार्टी को बीजेपी की क्लोन के रूप में पेश कर रहे हैं. उनके पिता राजीव गांधी भी  बाबरी मस्जिद के  ताले खुलवाकर और शिलान्यास करके साफ्ट हिंदुत्व के प्रयोग कर चुके  हैं . यह देखना दिलचस्प होगा कि कांग्रेस के वर्तमान नेता लोग इंदिरा गांधी की राजनीति के वारिस  रहते हैं  या नई राजनीतिक सोच अपना कर अपनी राजनीति को नुक्सान पंहुचाते हैं . 

Tuesday, November 13, 2018

भारत छोड़ो आन्दोलन का ड्राफ्ट भी जवाहरलाल नेहरू ने लिखा था और पेश भी उन्होंने किया था .




शेष नारायण सिंह
महात्मा गांधी की अगुवाई में देश ने १९४२ में ' अंग्रेजों भारत छोड़ो ' का नारा दिया था . उसके पहले क्रिप्स मिशन भारत आया था जो भारत को ब्रितानी साम्राज्य के अधीन किसी तरह का डामिनियन स्टेटस देने की पैरवी कर रहा था. देश की अगुवाई की लड़ाई लड़ रही कांग्रेस ने स्टफोर्ड क्रिप्स को साफ़ मना कर दिया था. कांग्रेस ने १९२९ की लाहौर कांग्रेस में ही फैसला कर लिया था कि देश को पूर्ण स्वराज चाहिए . लाहौर में रावी नदी के किनारे हुए कांग्रेस के अधिवेशन में तय किया गया था कि पार्टी का लक्ष्य अब पूर्ण स्वराज हासिल करना है .उस अधिवेशन में जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस अध्यक्ष थे . १९३० से ही देश में २६ जनवरी के दिन स्वराज दिवस का जश्न मनाया जा  रहा  था. इसके पहले कांग्रेस का उद्देश्य होम रूल था लेकिन अब पूर्ण स्वराज चाहिए था . कांग्रेस के इसी अधिवेशन की परिणति थी की देश में १९३० का महान आन्दोलन , सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू हुआ. नमक सत्याग्रह या गांधी जी का दांडी मार्च इसी कांग्रेस के इसी फैसले को लागू करने के लिए किए  गए थे .वास्तव में १९४२ का भारत छोड़ो आन्दोलन एक सतत प्रक्रिया थी जो १९३० में शुरू हो गयी थी. जब १९३० के आन्दोलन के बाद अँगरेज़ सरकार ने भारतीयों को ज्यादा गंभीरता से लेना शुरू किया लेकिन वादाखिलाफी से बाज़ नहीं आये तो आन्दोलन लगातार चलता रहा . इतिहास के विद्यार्थी के लिए यह जानना ज़रूरी है कि जिस कांग्रेस के अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू थे उसी अधिवेशन में देश ने पूर्ण स्वराज की तरफ पहला क़दम उठाया था .


आजकल एक दिलचस्प बात देखी जा रही है . जब से केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनी है तब से देश के निर्माण और आज़ादी की लड़ाई में जवाहरलाल नेहरू के योगदान को नज़रंदाज़ करने का फैशन हो गया है . सवाल उठता है कि जवाहरलाल नेहरू के योगदान का उल्लेख किये बिना भारत के १९३० से १९६४ तक के इतिहास की बात कैसे की जा सकती है. जिस व्यक्ति को महात्मा गांधी ने अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था , जिस व्यक्ति की अगुवाई में देश की पहली सरकार बनी थी, जिस व्यक्ति ने मौजूदा संसदीय लोकतंत्र  की बुनियाद रखी, जिस व्यक्ति ने संसाधनों के अभाव में भी अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भरता की डगर पर डाल कर दुनिया में गौरव का मुकाम हासिल किया उसको अगर आज़ाद  भारत के राजनेता भुलाने का अभियान चलाते हैं तो यह उनके ही व्यक्तित्व पर  प्रकाश डालता है . आजकल कुछ  तथाकथित इतिहासकारों के सहारे  भारत के इतिहास के पुनर्लेखन का कार्य चल रहा है जिसमें बच्चों के दिमाग से नेहरू सहित बहुत सारे लोगों के नाम गायब कर दिए जायेंगें जो बड़े होकर नेहरू के बारे में कुछ जानेंगें ही नहीं . लेकिन ऐसा संभव नहीं है क्योंकि गांधी और नेहरू विश्व इतिहास के विषय हैं और अगर हमें अपनी आने वाले पीढ़ियों को नेहरू के बारे में अज्ञानी रखा तो हमारा भी हाल उतर कोरिया जैसा होगा जहां के स्कूलों में मौजूदा  शासक के दादा किम इल सुंग को आदि पुरुष बताया जाता है . अब कोई उनसे पूछे कि क्या किम इल सुंग के पहले उत्तरी कोरिया में शून्य था .दुनिया जानती है कि उत्तरी कोरिया के शासकों की इसी बेवकूफी के कारण आज वह देश दुनिया सबसे गरीब देश है, वहां के लोग भूखों तड़पने को अभिशप्त हैं .

महात्मा गांधी की अगुवाई में आज़ादी की  जो लड़ाई लड़ी गयी उसमें नेहरू रिपार्ट का अतुल्य योगदान है . यह रिपोर्ट २८-३० अगस्त  १९२८ के दिन हुयी आल पार्टी कान्फरेंस में तैयार की गयी थी . यही रिपोर्ट महात्मा गांधी की होम रुल की मांग को ताक़त देती थी. इसी के आधार पर डामिनियन स्टेटस की मांग की जानी थी  इस रिपोर्ट को एक कमेटी ने बनाया था जिसके अध्यक्ष मोतीलाल नेहरू थे . इस कमेटी के सेक्रेटरी जवाहरलाल नेहरू थे .अन्य सदस्यों में अली इमाम , तेज बहादुर सप्रू, , माधव श्रीहरि अणे ,मंगल सिंह ,सुहैब कुरेशी , सुभाष चन्द्र बोस और जी आर प्रधान थे .सुहैब कुरेशी ने रिपोर्ट की सिफारिशों से असहमति जताई थी . इसके बारे में लिखने का मतलब केवल इतना है कि राहुल गांधी, राजीव गांधी और  संजय गांधी जैसे नाकाबिल लोगों को देश की राजनीति पर थोपने का अपराध तो जवाहरलाल की बेटी इंदिरा गांधी ने ज़रूर किया है  लेकिन इंदिरा गांधी की गलतियों के लिए क्या हम अपनी आज़ादी के लड़ाई के शिल्पी महात्मा गांधी और  उनके सबसे भरोसे के  साथी जवाहरलाल नेहरू को नज़रंदाज़ करने की गलती कर सकते हैं .एक बात और हमेशा ध्यान रखना होगा कि महात्मा गांधी के सन बयालीस के आन्दोलन के लिए  बम्बई में कांग्रेस कमेटी ने जो प्रस्ताव पास किया था , उसका डाफ्ट भी जवाहलाल नेहरू ने बनाया था और उसको विचार के लिए प्रस्तुत भी नेहरू ने ही किया था .

जवाहरलाल नेहरू को नकारने की कोशिश करने वालों को यह भी जान लेना चाहिए कि उनकी पार्टी के पूर्वजों ने जिन जेलों में जाने के डर से जंगे-आज़ादी में हिस्सा नहीं लिया था ,  आज़ादी की लड़ाई में उन्हीं जेलों में जवाहरलाल नेहरू १०४० दिन रहे थे. .भारत छोडो आन्दोलन के दिन ९ अगस्त १९४२ को उनको मुंबई  से गिरफ्तार किया गया था और १५ जून १८४५ को रिहा किया गया था . यानी उस आन्दोलं में भी  ३४ महीने से ज्यादा वे जेल में रहे थे. इसके पहले भी अक्सर  जाते रहते थे .जो लोग उनको खलनायक बनाने की कोशिश कर रहे हैं ,ज़रा कोई उनसे पूछे कि उनके राजनीतिक पूर्वज  सावरकर , जिन्नाह आदि उन दिनों ब्रिटिश हुकूमत की वफादारी के इनाम के रूप में  कितने अच्छे दिन बिता रहे थे . सावरकर तो माफी मांग कर जेल से रिहा  हुए थे .अंडमान की जेल में वी. डी .सावरकर सजायाफ्ता कैदी नम्बर ३२७७८ के रूप में जाने जाते थे . उन्होंने अपने माफीनामे में साफ़ लिखा था कि अगर उन्हें रिहा कर दिया गया तो वे आगे से अंग्रेजों के हुक्म को मानकर ही काम करेंगें .और इम्पायर के हित में ही काम करेंगे. इतिहास का कोई भी विद्यार्थी बता देगा कि वी डी सावरकर ने जेल से छूटने के बाद ऐसा कोई काम नहीं किया जिससे  महात्मा गांधी के आन्दोलन को ताक़त मिलती हो . बल्कि हिन्दू  महासभा के नेता के रूप में अंग्रेजों के हित में ही काम किया .
भारत छोड़ो आन्दोलन की एक और  उपलब्धि है . अहमदनगर फोर्ट जेल में जब जवाहरलाल  बंद थे उसी दौर में उनकी किताब ' डिस्कवरी आफ इण्डिया ' लिखी गयी थी .जब अंग्रेज हुक्मरान को पता लगा कि कांग्रेस वर्किंग कमेटी के बारह सदस्य एक ही जगह रहते हैं और वहां राजनीतिक मीटिंग करते हैं तो सभी नेताओं को अपने राज्यों की जेलों में भेजा जाने लगा. मार्च १९४५ में गोविंद वल्लभ पन्त, आचार्य नरेंद्र देव और जवाहरलाल नेहरू को अहमदनगर से हटा दिया गया .बाकी  गिरफ्तारी का समय इन लोगों ने यू पी की जेलों ,बरेली , नैनी  अल्मोड़ा में काटीं . जब इन लोगों को गिरफ्तार किया गया  था तो किसी तरह की चिट्ठी  पत्री लिखने की अनुमति नहीं थी और न ही कोई चिट्ठी आ सकती थी .बाद में नियम थोडा बदला . हर  हफ्ते  इन कैदियों को अपने परिवार के लोगों के लिए दो पत्र लिखने की अनुमति मिल गयी . परिवार के सदस्यों के चार पत्र आ सकते थे . लेकिन जवाहर लाल नेहरू को यह सुविधा नहीं मिल सकी क्योंकि उनके परिवार में उनकी बहन विजयलक्ष्मी पंडित और बेटी इंदिरा गांधी ही थे . वे लोग भी  यू पी की जेलों में बंद थे और वहां की जेलों में बंदियों को कोई भी चिट्ठी न मिल सकती थी और न ही वे लिख सकते थे.
इसलिए भारत  छोडो आन्दोलन का ज़िक्र होगा तो महात्मा  गांधी के साथ इन बारह कांग्रेसियों का ज़िक्र ज़रूर होगा . हां यह अलग बात  है कि जब भारत में इतिहास को पूरी तरह से दफना दिया जाएगा और शुर्तुर्मुगी सोच हावी हो जायेगी तो जवाहरलाल नेहरू को भुला देना संभव होगा और अहमदनगर के बाकी कैदियों को भी भुलाया जा सकेगा .लेकिन अभी तो यह संभव नहीं नज़र है .

Friday, November 9, 2018

9 नवम्बर , हुमायूँ के मक़बरे की यात्रा ,अगस्त्य के साथ

मैंने अकेले फिल्म कभी नहीं देखा. इनके पाँव में तकलीफ हो गयी तो कहीं आना जाना ही बंद हो गया . फ़िल्में देखना ही बंद हो गया . फिर इसी मई में बेटी ने दोनों घुटने बदलवा दिए , सर्जरी हुयी , फिज़ियोथिरैपी चली और अब फिर से घूमना फिरना चालू हुआ है . आज बेटे जी सपरिवार दिल्ली में थे उनके साथ दिल्ली पर्यटन पर निकलीं . और हुमायूं के मकबरे की यात्रा की . लगता है कि अब फिर से ज़िंदगी नार्मल ढर्रे पर चलने वाली है . १९७९ में यह दिल्ली आयी थीं ,तब दो ही बच्चे थे . उनको उंगली पकड़ाकर हम दोनों घूमने निकल पड़ते थे. घुटना बदलने के बाद पहली यात्रा थी आज . हमारी ज़िंदगी में कपडे लत्ते, घर के सामान आदि की बहुत सारी हमारी दमित इच्छाएं थीं जिनका हम ज़िक्र नहीं करते थे लेकिन हमारे बच्चों को अंदाज़ था . वे हर मामूली आमदनी वाले इंसान के सपने होते हैं. औरों की तरह हमारे भी बहुत सारे सपने अधूरे रह गए थे जिनको अब हमारे चुन चुन कर पूरा कर रहे हैं. पहली बार जब 1999 में मेरी बेटी ने नौकरी लगने पर अपनी पहली तनखाह से मेरे लिए पैंट-कमीज़ बनवाई थी तो हम दोनों खुशी से फूले नहीं समाये थे अब तो हमें वे चीजें मिल जाती हैं जो अपनी कमाई में कभी संभव नहीं थीं. जब छोटी बेटी इनके लिए बढ़िया साड़ी लेती है तो वह दिन याद आ जाते हैं जब अच्छे लाल की दूकान से पंजी खरीदकर लाया था. जब बेटा मेरे लिये महँगा जूता लेता है तो उसकी मां की आँख में खुशी के आंसू चालक पड़ते हैं . जब बड़ी बेटी घर का सारा सामान लाती है तो हमें लगता है कि बच्चे आपकी ज़िंदगी भर की म्हणत का इनाम हैं. मेरी दुआ है कि हमारी औलादों के बच्चे उनका उसी तरह से ख्याल रखें जैसा यह मेरा रख रहे हैं.
इनके पाँव की तकलीफ के बाद लगता था ज़िंदगी रुक जायेगी लेकिन अब खुशी है कि अपने पाँव से चल रही हैं . माई होतीं तो कहतीं चौंड़रा मार रही हैं . ज़ाहिर हैं उनको भी बहुत खुशी होती.

Thursday, November 8, 2018

अमरीका में नए चुनाव के नतीजे ,राष्ट्रपति ट्रंप की मनमानी पर लगाम



शेष नारायण  सिंह

 अमरीका में तो खेल हो गया. डोनाल्ड ट्रंप की रिपब्लिकन पार्टी  अमरीकी संसद के निचले  सदन में अल्पमत में आ गयी .  पिछले दो वर्षों में अमरीकी राष्ट्रपति की  नौटंकी से परेशान लोग  गुस्से में थे और उसी गुस्से को विपक्षी डेमोक्रेटिक पार्टी ने हवा दी और राष्ट्रपति डोनाल्ड  ट्रंप की मनमानी का युग  ख़त्म हो गया . अमरीकी सेनेट में हालांकि  रिपब्लिकन पार्टी का बहुमत बना रहेगा लेकिन अब राष्ट्रपति अपने अहमकाना फैसले नहीं लागू कर पायेंगें . निचले सदन की हैसियत  राष्ट्रपति पर लगाम लगाने की ही होती है . इस बार जो लोग प्रतिनधि सभा में पंहुचे हैं ,उनकी  पृष्ठभूमि ऐसी है जो सही अर्थों में अमरीकी समाज की विविधता की अगुवाई करते हैं . जीतने वालों में महिलायें हैं ,अल्पसंख्यक हैं , राजनीतिक नौसिखिये हैं और वे सभी ऐसे लोग हैं जो मीडिया की चहल पहल से दूर नौजवानों  में ट्रंप के प्रति बढ़ रहे  गुस्से को हवा दे रहे थे .नतीजा हुआ कि प्रतिनिधि सभा में तो लिबरल ताकतें जीत सकीं जिसका इस्तेमाल ट्रंप की  तानाशाही प्रवृत्तियों को रोकने के लिए किया जाएगा लेकिन अभी अमरीकी समाज में वह ज़हर ख़त्म नहीं हुआ है जिसको  डोनाल्ड ट्रम्प ने अपने चुनाव में  बिखेरा था. ट्रंप  के प्रति अमरीकी समाज के एक बड़े हिस्से में लगभग नफरत का भाव है लेकिन तथाकथित अमरीकी गौरव के चक्कर में  कम पढ़े लिखे अमरीकियों की एक बहुत बड़ी आबादी अभी भी उनको वही सम्मान देती है जो किसी भी बददिमाग राष्ट्रपति को मिलता है . शायद इसी वजह से कई ऐसे लोग चुनाव हार गए जिनकी जीत में अमरीका की उदारवादी जनता की रूचि थी . डेमोक्रेटिक माइनारिटी नेता नैन्सी पेलोसी ने  ट्रंप की कुछ इलाकों में लोकप्रियता के मद्दे-नज़र ही जीत के साथ साथ यह ऐलान कर दिया कि ट्रंप पर महाभियोग चलाने की कोई योजना नहीं है .
अमरीका में सभी मानते हैं कि ट्रंप को काबू करने के लिए ज़रूरी था कि संसद में उनकी मनमानी वाले फैसलों को रोका जाये और अब उम्मीद की जानी चाहिए कि अमरीकी अवाम को एक खुलीपारदर्शी  और जवाबदेह सरकार मिलेगी और ट्रंपपंथी से निजात मिलेगी . संसद में डेमोक्रेटिक पार्टी की जीत का यह सन्देश है कि अमरीकी जनता यह चाहती है कि जो दो साल ट्रंप के बचे हैं उसमें उनकी जिद्दी सोच पर आधारित नीतियों पर रोक लगाई जा सके.   अभी राबर्ट स्वान मलर की जांच चल ही रही है जिसके लपेट में डोनाल्ड ट्रंप के आने की पूरी संभावना है . उनकी जांच का विषय बहुत ही गंभीर है जिसमें आरोप है कि रूस की सरकार ने अमरीकी राष्ट्रपति पद के चुनाव में दखलंदाजी की थी और ट्रंप की विरोधी उम्मीदवार हिलरी क्लिंटन को हराने के लिये  काम किया था . बॉब मलर कोई  लल्लू पंजू इंसान नहीं हैं .वे अमरीका की सबसे बड़ी जाँच एजेंसी , एफ बी आई के बारह साल तक निदेशक रह चुके  हैं . प्रिंसटन  विश्वविद्यालय के छात्र रहे हैं और डिप्टी अटार्नी जनरल रह चुके हैं . वे जो जांच कर रहे हैं  उससे ट्रंप के प्रभावित होने की पक्की संभावना है . ट्रंप की घबडाहट नतीजों के बाद  हुई उनकी प्रेस कान्फरेंस में साफ़ देखी जा सकती थी.  वे पत्रकारों से भिड़ गए और कहा कि वे चाहें तो राबर्ट मलर को बर्खास्त कर सकते हैं लेकिन अभी करेंगे नहीं  हालांकि उन्होंने यह साफ़ कर दिया कि वे रूस की दखलंदाजी वाली जांच को सफल नहीं होने देंगें . नतीजे आने के तुरंत बाद राष्ट्रपति के रूप में जो पहला काम डोनाल्ड ट्रंप ने किया वह यह कि उन्होंने अटार्नी जनरल जेफ़ सेशंस को हटा दिया और दावा किया कि अगर डेमोक्रेट बहुमत वाली अमरीकी संसद, कांग्रेस उनके खिलाफ कोई जांच शुरू करेगी तो उसका मुकाबला करेंगें . जेफ़ सेशंस को हटाने का कारण समझ में नहीं आया .  वे राष्ट्रपति ट्रंप के समर्थक माने जाते  हैं , उन्होंने रूस की दखल वाली जाँच से खुद को अलग कर लिया था  लेकिन नतीजे आते ही व्हाइट हाउस के चीफ आफ स्टाफ , जॉन केली ने उनको फोन करके उनका इस्तीफा मांग लिया . डेमोक्रेटिक पार्टी की सदन में नेता, नैन्सी पेलोसी ने आरोप  लगाया कि जेफ़ सेशंस का हटाया जाना इस बात का संकेत है कि  ट्रंप रूसी दखल वाली जाँच को नाकाम  करने के लिए कटिबद्ध हैं .राष्ट्रपति ट्रंप ने दावा किया कि सेनेट और गवर्नर पद  के चुनाव में रिपब्लिकन उम्मीदवारों की जीत में उनका ही योगदान सबसे ज़्यादा  है . पत्रकारों के सवालों के जवाब में उन्होंने बताया कि अगर  डेमोक्रेटिक पार्टी ने जांच करने की कोशिश  की तो वाशिंटन में युद्ध जैसी हालात बन जायेंगें .
हालांकि सच्चाई यह  है कि  सदन की समितियों की अध्यक्षता अब डेमोकेटिक पार्टी वाले  ही करेंगे . इन कमेटियों को ही राष्ट्रपति महोदय की कथित टैक्स चोरी की जांच करनी है . इसके अलावा रूस की दखल वाली जाँच भी अब डेमोक्रेटिक पार्टी के सदस्यों की निगरानी में  ही होगी. अभी इसकी जांच राबर्ट मलर कर रहे हैं लेकिन राष्ट्रपति  ने उनके बॉस के  बॉस जेफ़ सेशंस को हटाकर यह संकेत दे दिया  है कि वे जाँच को अपने खिलाफ किसी भी हालत में नहीं जाने देंगे, . उन्होंने प्रेस कान्फरेस में कहा कि वे डेमोक्रेट नेताओं से मिलकर काम करने को तैयार हैं लेकिन उनके खिलाफ जांच होने से सद्भाव की भावना को ठेस लगेगी .अब अमरीकी राजनीति में सत्ता पर ट्रंप का एकाधिकार नहीं है और वे अपने को सर्वाधिकार संपन्न मानने के लिए अभिशप्त हैं . ऐसी हालत में  इस बात की पूरी संभावना है कि ट्रंप के कार्यकाल के अगले दो साल बहुत ही संघर्ष के दौर से गुजरने वाले   हैं .
इन नतीजों के बाद अब ट्रंप की मनमानी पर तो ब्रेक लग ही जायेगी. अभी जो मेक्सिको की सीमा पर वे बहुत बड़ी रक़म खर्च करके दीवाल बनाने की  बात कर रहे हैं , वह तो रुक ही जायगी .इसके अलावा वे अजीबो गरीब शर्तों पर जापान और यूरोपीय यूनियन से व्यापारिक समझौते करने की जो योजना बना रहे हैं वह भी अब संभव नहीं लगता . कांग्रेस के निचले सदन की संभावित अध्यक्ष नैन्सी पेलोसी ने बताया कि यह नतीजे , डेमोक्रेट और रिपब्लिकन पार्टी के बारे में उतना नहीं हैं जितना संविधान की रक्षा के  लिए हैं.  उनका आरोप है कि ट्रंप लोकतांत्रिक संस्थाओं का सम्मान नहीं करते . एक  उदाहरण काफी होगा.  उन्होंने अपनी रिपब्लिकन पार्टी की एक नेता का मखौल उड़ाया और कहा कि सेनेटर बारबरा  वर्जीनिया से इसलिए हार गयीं  क्योंकि उन्होंने ट्रंप की नीतियों का विरोध किया था. उन्होंने डींग मारी की कि उनका विरोध करने वाले उनकी पार्टी के लोग ही हार गए . 

ट्रंप की मनमानी का शिकार अमरीकी अर्तव्यवस्था भी हो रही थी. जब चुनाव नतीजों के बाद  निचले सदन में डेमोक्रेटिक पार्टी के बहुमत की खबर आयी तो शेयर बाज़ार ने उसका स्वागत किया . डाव  जोन्स और एस एंड पी ,दोनों ही इंडेक्स में करीब २ प्रतिशत का उछाल बुधवार को ही  दर्ज हो गया. अब अमरीकी शेयर बाज़ार को भरोसा है कि ट्रंप के सनकीपन के  फैसलों पर विधिवत नियंत्रण स्थापित हो जाएगा . जानकार बता रहे  हैं  सदन में  विपक्ष के बहुमत के बाद सत्ता का विकेंद्रीकरण हो गया है . आम तौर पर जब सत्ता एक ही जगह केन्द्रित नहीं रहती तो शेयर बाज़ार में माहौल अच्छा रहता है .
अमरीकी राजनीति में इस बदलाव का विदेशनीति पर भी असर पडेगा . अब सबको मालूम है कि डोनाल्ड  ट्रंप की रूस्सी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ ख़ास दोस्ती  है  आरोप तो यहाँ तक लग चुके  हैं कि डोनाल्ड ट्रंप अपने प्रापर्टी  डीलरी के धंधे के दौरान, सोवियत यूनियन की जासूसी संस्था केजीबी के लिये काम करते थे. कुछ अखबारों में छपा था कि जब डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति के रूप में रूस गए थे और रूसी राष्ट्रपति से मिले थे तो  दो राष्ट्रपतियों के बीच औपचारिक मुलाक़ात तो हो ही रही थी , पुराने साथियों के बीच भी मुलाक़ात थी क्योंकि अखबार के मुताबिक़  जब पुतिन केजीबी में काम करते थे तो अमरीकी असेट , डोनाल्ड ट्रंप के वे ही हैंडलर  हुआ करते  थे. ज़ाहिर है कि वे  रूस के साथ नरमी  का दृष्टिकोण रखते  हैं  .अमरीकी विदेशनीति पर नज़र रखने वाले उम्मीद कर रहे हैं कि रूस के साथ संबंधों में अमरीकी हितों को सर्वोपरि रखा जाएगा अब साउदी अरब और उत्तर कोरिया के साथ भी शुद्ध राजनय के हिसाब से बातचीत की जायेगी. विदेशनीति में ट्रंप का रवैया निहायत ही बचकाना रहा है . मसलन उन्होंने बिना किसी कारण या औचित्य के पारंपरिक साथी कनाडा को नाराज़ कर दिया . उनकी एक अजीब बात यह भी रही है कि जो देश अमरीकी हितों के मुकाबिल खड़े हैं उनसे  भी दोस्ती के चक्कर में रहते हैं . यहाँ तक की अमरीका के घोर विरोधियों से भी हाथ मिलाने के लिए लालायित रहते  हैं .  
इन मध्यावधि चुनावों में सेनेट में रिपब्लिकन पार्टी की स्थिति मज़बूत हुयी है. रिप्बलिकन टिकट से कुछ गवर्नर भी ज़्यादा चुने गए हैं लेकिन अमरीकी राजनीति में राष्ट्रपति की मनमानी पर लगाम लगाने का काम निचला सदन ही करता है . अमरीकी राजनीति का मिजाज़ ऐसा  है कि अगर को समझदार आदमी राष्ट्रपति बन जाए तो सेनेट या प्रतिनधि सभा को साथ लेकर चलने में बहुत दिक्क़त नहीं आती . बराक ओबामा ने अपनी विपक्षी पार्टी के बहुमत के बावजूद अपनी नीतियों को लागू किया ही . लेकिन उनकी खासियत यह थी कि वे सब को साथ लेकर चलने में विश्वास रखते थे. जबकि राष्ट्रपति ट्रंप को मनमानी की आदत  है . और इस  चुनाव के नतीजे डोनाल्ड ट्रंप की मनमानी से परेशान दुनिया के लिए ताज़ी हवा का एक झोंका साबित होंगे .

Wednesday, November 7, 2018

पत्रकारिता भारत में एक खतरनाक काम है .





शेष नारायण सिंह

पत्रकारों के लिए भारत एक खतरनाक देश है. संविधान के मौलिक अधिकारों के सेक्शन में अभिव्यक्ति की आज़ादी को गारंटी दी गयी है . संविधान के अनुच्छेद १९ (१) में जो अभिव्यक्ति की आजादी  है उसी के तहत प्रेस और मीडिया  को अपनी बात और सही ख़बरें  बिना  किसी रोक टोक के कहने की स्वतन्त्रता है . लेकिन यह बात केवल संविधान में ही सिमट कर रह गयी है.  प्रेस की आज़ादी  की  गारंटी के मद्दे-नज़र ही इसको लोकतंत्र का चौथा खम्भा कहा जाता है और उम्मीद की जाती है कि लोकतंत्र के  अन्य तीन खम्भों - विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका- पर प्रेस और मीडिया की नज़र रहेगी . लेकिन  व्यवहार में ऐसा नहीं हो रहा है . हमारा दुर्भाग्य है  कि दुनिया भर के १८० देशों का जो विश्व प्रेस फ्रीडम  इंडेक्स  इस साल जारी हुआ है , उसमें भारत का नाम १३८ नंबर पर है . हालांकि इस बात पर संतोष किया जा सकता है कि पाकिस्तान की स्थिति हमसे भी खराब है . वह १३९ पर है लेकिन पाकिस्तान में लोकतंत्र वास्तव में एक ढोंग है , वहां तो सब कुछ सेना के कंट्रोल में हैं . पाकिस्तान से एक  पायदान ऊपर रहना ही अपने आप में बहुत ही अपमानजनक   है.  इतना अपमान ही काफी नहीं था , अभी एक और रिपोर्ट आई है  जो हमारी  मीडिया की आज़ादी पर बहुत बड़ा सवाल खड़ा कर देती है . इंटरनैशनल प्रेस इंस्टीटयूट की  डेथ वाच  रिपोर्ट आई है . उसमें बताया गया  है कि पिछले साल भारत में  घात लागाकर १२ पत्रकारों की ह्त्या की गयी लेकिन अभी  हत्यारों के बारे में कोई  पक्का पता नहीं है . जांच चल  रही है और अभी तक केवल छः गिरफ्तारियां हुयी हैं . वैसे भी भारत में  जाँच और  न्याय में  देरी की  कहानियां पूरी दुनिया में  सुनी जा  सकती  हैं लेकिन  पत्रकारों के बारे में यह आंकड़े बहुत ही तकलीफदेह और निराशाजनक हैं .
 देश के हर कोने से पत्रकारों को धमकाए जाने की ख़बरें आती रहती  हैं . अभी सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश संबंधी सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद की स्थिति की   रिपोर्ट कर रही  इण्डिया टुडे की पत्रकार मौसमी सिंह को भी मार डालने की  कोशिश की गयी . गुंडों ने उसको मारा पीटा, उसको  अपमानित किया और उसके  कैमरे आदि को नुक्सान पंहुचाया .   छतीसगढ़ में  दूरदर्शन के पत्रकार अच्युतानंद साहू को मार डाला गया और उसके सहायक ने हमले की जो रिपोर्ट भेजी है ,वह दिल दहला देने वाली है . पूरी दुनिया में युद्ध की रिपोर्ट करते हुए पत्रकारों की मृत्यु की ख़बरें आती रहती  हैं लेकिन राजनीतिक खबरों को कवर  करने वाले पत्रकारों के मामले में भारत दुनिया के उन घटिया देशों की श्रेणी में आ जाता है जहां  प्रेस की आजादी नाम की कोई चीज़ ही नहीं है . अपने यहाँ भी हालात उन देशों के जैसे होना चिंता की बात है . स्थानीय स्तर पर तो ख़बरों का गला घोंटने के लिए हर जिले में तैयार नेता मिल जायेंगे, पत्रकारों को धमका कर अपने मन माफिक ख़बरें लिखवाना तो लगभग सामान्य बात हो गयी   है . जब कहीं कोई पत्रकार मुकामी नेता की बात  नहीं मानते तो उन पत्रकारों का  गला  ही घोंट दिया जाता है .
पत्रकारों के ऊपर हो रही हिंसा  का उद्देश्य सही ख़बरों को जनता तक पंहुचने से रोकना होता है . ज्यादातर तो मालिकों को ही डरा धमका कर   राजनीतिक आका लोग मनमाफिक ख़बरें चलवाते हैं .पिछले एक साल में  ऐसे   सैकड़ों मामले सामने आये हैं जिसमें विज्ञापनदाताओं की मर्जी से हटकर  खबर चलाने वाले पत्रकारों के मालिकों के विज्ञापन रोककर  और दबाव बनाकर पत्रकारों की नौकरियाँ ली गयी हैं . हालांकि आम तौर पर बात उस मुकाम तक नहीं पंहुचती . मालिक लोग ऐसे  ही पत्रकारों   से काम लेते हैं जो पत्रकारिता के मानदंडों के बारे में बहुत चिंतित नहीं रहते हैं , और  पापी पेट के वास्ते कुछ भी करने को तैयार हो  जाते हैं .लेकिन कई बार ऐसे पत्रकार भी होते हैं जो  सच्चाई सामने लाने के लिए समझौते नहीं करते . ऐसा ही एक मामला गौरी लंकेश का है . कर्नाटक की राजधानी बेंगलूरू से गौरी लंकेश अखबार    छापती थीं. बीजेपी के  खिलाफ खूब ख़बरें  लिखती थीं  एक दिन शाम को कुछ बदमाशों ने उनको घर के सामने ही गोली मार दी और उनको हमेशा के लिए चुप कर दिया .   

पिछले तीस पैंतीस साल में देश की राजनीति में एक अजीब विकास हुआ  है . जिताऊ उम्मीदवार के नाम पर हर  इलाके का माफिया, गुंडा, मवाली  राजनेता बन  गया है . कर्नाटक में  बेल्लारी के रेड्डी ब्रदर्स का केस पूरी दुनिया में जाना  जाता  है . आज भी खनिज माफिया की ज़रायम की दुनिया में रेड्डी परिवार की दहशत है . कोर्ट के आदेश से वे जिला बदर कर दिए गए हैं ,अपने जिले में घुस नहीं सकते लेकिन वहां की सभी राजनीतिक पार्टियां उनको साथ लेने के लिए प्रयास करती रहती  हैं .  कर्नाटक के विधान सभा चुनावों में उन्होंने बीजेपी का दामन पकड़ लिया था .  हालांकि बाकी पार्टियां भी उनको साथ लेने की कोशिश कर रही थीं लेकिन बीजेपी ने उनको साथ लेने  में सफलता  पाई थी . अभी लोकसभा के उपचुनाव  में भी उन्होंने तडीपार होने के बावजूद धन बल से बीजेपी उमीदवार का साथ दिया .
जब से माफिया  का कब्जा राजनीतिक प्रक्रिया पर हुआ है तब से पत्रकारों की   सुरक्षा पर तरह तरह के सवाल खड़े हो रहे हैं . इस सबको दुरुस्त करने का ज़िम्मा जनता  का ही हैं .  अगर बदमाशों को वोट न देकर राजनीति से ही  बाहर कर दें तो पत्रकारों की सुरक्षा भी रहेगी और देश के नागरिक भी सुरक्षित महसूस करेंगें .

नक़ली विवादों नहीं ,अवाम के मुद्दों पर चुनाव होना चाहिए



शेष नारायण सिंह

आर एस एस ने राम मंदिर के नाम पर देश जी सियासत को टाप गियर में डाल दिया है . अभी पिछले महीने पत्रकार , हेमंत शर्मा की दो किताबों के विमोचन के अवसर पर आर एस एस के प्रमुख मोहन भागवत , बीजेपी के प्रमुख अमित शाह और केंद्र सरकार के उप प्रमुख राजनाथ सिंह एक ही मंच पर मौजूद थे . जिन किताबों का विमोचन  हुआ ,वे भी आर एस एस और अन्य हिंदुत्व  संगठनों के मुद्दों के लिहाज़ से दिलचस्प किताबें थीं . उस अवसर पर अपने भाषण में आर एस एस के प्रमुख ने कहा कि अगर ज़रूरत पड़ी तो अयोध्या में राम मंदिर बनाने के लिए महाभारत भी किया जा सकता है. इस बात को अखबारों ने प्रमुखता से रिपोर्ट किया लेकिन माना यह जा रहा था कि मौजूदा सरकार राम मंदिर के निर्माण को चुनावी मुद्दा नहीं बनायेगी . सत्ताधारी पार्टी की ओर से पिछले पांच वर्षों से दावा किया जा रहा था कि सरकार ने विकास का लक्ष्य और भ्रष्टाचार  के खात्मे का वायदा करके चुनाव लड़ा था . उसी के परफार्मेंस के आधार पर वोट माँगा जाएगा . ज्यादातर बीजेपी नेता कह रहे  थे कि इस राज में कोई भ्रष्टाचार नहीं हुआ है. लेकिन सचाई कुछ और है  और वह यह कि  भ्रष्टाचार ख़त्म नहीं हुआ  है. भ्रष्टाचार की जांच करने वाली दो प्रमुख एजेंसियों , सी बी आई और  ई डी के आला अफसरों के ऊपर आर्थिक भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप सी बी आई के  बहुत बड़े अधिकारियों की तरफ से ही लगाए गए हैं . सी बी आई के दो सबसे बड़े अफसर भ्रष्टाचार के आरोपों के बाद बाहर बैठा दिए गए हैं.  आरोप इतने गंभीर हैं कि अब्जंच सुप्रीम कोर्ट की नज़र में है.  रिज़र्व बैंक के  बड़े अफसरों ने भी सरकार के अलग अलग स्तरों पर आर्थिक अनियमितता के आरोप लगाए हैं . बैंकों में भ्रष्टाचार की कहानी पूरी दुनिया में चर्चा का विषय बनी हुयी  है . लाखों करोड़ रूपये हजम कर जाने वाले आर्थिक अपराधियों को सरकारी संरक्षण की ख़बरें भी सत्ता के गलियारों में  सुनी जा रही  हैं. सुप्रीम कोर्ट ने राफेल जहाज़ के सौदे पर सरकार से कठिन सवाल पूछ कर सरकार के  भ्रष्टाचार मुक्त होने के दावे को पंचर कर दिया है .  स्थिति यह बन गयी है कि भ्रष्टाचार मुक्त होने की बात तो अब सरकार के लिए सही विशेषण नहीं है. जहां हर सेंसिटिव महकमे के अफसर भ्रष्टाचार की जांच की ज़द में हों वहां भ्रष्टाचार विहीन सरकार का नारा एक कामेडी तो हो सकता है , चुनाव जीतने का नारा किसी भी हाल में  नहीं बन सकता . बीजेपी के २०१४ के विकास के दावे को भी सरकारी नीतियों की विफलताओं ने  बिलकुल बेदम कर दिया है . केंद्र सरकार ने जब ८ नवम्बर २०१६ को नोटबंदी का ऐलान किया था तो ऐसी तस्वीर खींची गयी थी कि उसके बाद  भ्रष्टाचार ख़त्म हो जाएगा , काला धन ख़त्म हो जाएगा और आतंकवाद ख़त्म हो जाएगा .  आज  सब को मालूम है कि ऐसा कुछ नहीं हुआ . नोट बंदी के बाद आर्थिक गतिविधियों में जो मंदी आयी वह अब तक बनी हुई है . मकान बनाने वाली ज़्यादातर कम्पनियां  डिफाल्टर हो चुकी हैं लेकिन उनका कोई आर्थिक नुक्सान नहीं हुआ है. उन्होंने मध्यवर्ग के जिन मकान के खरीदारों से मकान देने के लिए पैसा लिया था उनका नुक्सान हुआ है . सुप्रीम कोर्ट किसी न किसी तरीके से  फ़्लैट खरीदारों को मकान दिलवाने की कोशिश कर रहा है . ज़ाहिर है इससे मध्य वर्ग में बहुत नाराज़गी  है . चुनावी वायदों में नौजवानों को हर साल दो करोड़ नौकरियाँ देने का वायदा किया गया था , उसका कहीं कोई अता पता नहीं है . सरकारी तौर पर  नौकरियों की परिभाषा बदल कर बीजेपी के नेता लोग काम चला रहे हैं . बेरोज़गार नौजवानों में भारी नाराज़गी है .  खेती  किसानी की हालत भी खस्ता है. २०१४ के चुनाव प्रचार के दौरान बीजेपी ने वायदा किया था कि  किसानों की आमदनी दुगुनी कर दी जायेगी . वह कहीं नहीं हुई . बल्कि गौरक्षा के नाम पर एक नया माहौल बना दिया गया . खेती के अलावा सभी किसानों  के यहाँ एकाध गाय भैंस रहती थी. उसके बछड़ों को किसान  बेच लेता था , उससे थोड़ी बहुत आमदनी हो जाती थी . अब बछड़े नहीं बेचे जा सकते . बछड़ों या बैलों का अब खेती में कोई उपयोग नहीं होता . बैलों का काम अब ट्रैक्टर से होता है . ज़ाहिर है कि ऐसे जानवरों को चारा दे पाना किसान के ऊपर  भारी बोझ है . नतीजा  यह है कि ज़्यादातर लोग अपने अनुपयोगी बछड़ों को चुपचाप छोड़ दे रहे  हैं . और वे बछड़े खुली फसल को चर जा रहे हैं . खेती की पैदावार को भारी नुक्सान हो रहा है . कुल मिलाकर गाँवों में किसानों की हालत बहुत खराब है .
इस तरह हम देखते हैं कि बेरोजगारी , खस्ताहाल अर्थव्यवस्था , किसानों की नाराज़गी ,नौजवानों की निराशा और भ्रष्टाचार के माहौल में २०१४ के चुनावी वायदों का ज़िक्र करके तो सत्ताधारी पार्टी का नुक्सान ही होगा .शयद इसीलिये हर चुनाव के पहले की तरह इस बार भी आर एस एस और बीजेपी ने अयोध्या में राम मंदिर को मुद्दा बनाने की ज़बरदस्त कोशिश शुरू कर दी है . इसके लिए बीजेपी और आर एस एस के नेता सुप्रीम कोर्ट  जैसी संवैधानिक संस्था के खिलाफ भी बयान दे  रहे  हैं.  छुटभैया नेता लोग तो मुसलमानों के खिलाफ बयान देते ही रहते थे अब शीर्ष नेतृत्व से भी वही बातें होने लगी हैं . चारों तरफ  माहौल बनाया  जा रहा है कि देश में एक तरफ हिन्दू  हैं तो  दूसरी तरफ मुसलमान . अब तक तो कुछ कट्टर हिंदुत्व प्रवक्ता लोग मुसलमानों के खिलाफ ज़हरीले बयान देकर माहौल को गरमा रहे थे , अब बड़े नेताओं को भी   ऐलानियाँ मुसलिम  विरोधी बयान देते देखा जा सकता है . मुस्लिम विरोध का माहौल ऐसा बन गया  है कि कांग्रेस के नेता  भी  अपने को शिवभक्त और जनेऊधारी हिन्दू साबित करने के लिए एडी चोटी की ताक़त लगा  रहे हैं. पूरे देश में मुस्लिम विरोधी माहौल बनाया जा रहा है जिससे हिन्दुओं के वोटों का ध्रुवीकरण किया जा सके और बहुमतवाद की राजनीति का फायदा लेने के लिए हिन्दुओं को एकमुश्त किया जा सके. अयोध्या विवाद को बहुत ही गर्म कर देने की योजना पर दिन  रात काम  हो रहा है . इस काम में अखबारों की भी भूमिका है लेकिन चुनावी माहौल को हिन्दू-मुस्लिम करने में  न्यूज़ चैनलों की भूमिका सबसे प्रमुख है . बहुत सारे टीवी चैनलों की राजनीतिक बहस में हिन्दू -मुस्लिम  विवाद को मुद्दा बनाया जा रहा है .   इन बहसों में कुछ मौलाना टाइप लोगों को बैठाकर  उनको सारे मुसलमानों का नुमाइंदा बताने की कोशिश होती  है . कई बार यह मौलाना लोग ऐसी बातें बोल जाते हैं जिसके नतीजे से वे खुद भी वाकिफ नहीं होते . उनकी बात को पूरे मुस्लिम समुदाय की बात की तरह पेश करके मुसलमानों को कई बार तो देशद्रोही तक कह दिया जाता है .लेकिन वे मौलाना लोग बार बार  बहस में शामिल होते हैं और गाली तक खाते हैं . एक बार तो एक मौलाना साहब को एक महिला ने टीवी बहस के दौरान पीट भी दिया था.  वे जेल भी गए लेकिन टीवी पर नज़र आने की तलब इतनी ज़बरदस्त है कि बार बार  वहां आते रहते हैं .  
ज़ाहिर है कि अगला लोकसभा चुनाव आम आदमी की समस्याओं और मुसीबतों के खात्मे को मुद्दा बनाकर  लड़ पाने की सत्ताधारी पार्टी की हिम्मत नहीं है . ऐसा लगता है कि इस बार भी मुद्दा हिन्दू-मुस्लिम मतभेद की कोशिश ही होगी . इसकी काट यह है कि अवाम एकजुट रहे और  सियासतदानों के भड़काऊ भाषणों को नज़रंदाज़ करे . उनको मजबूर करे कि वे आम आदमी को सवालों को चुनावी मुद्दा बनाने के लिए मजबूर हों .