शेष नारायण सिंह
भारत में राजनीतिक विवाद और प्रचार की तरकीब में बड़ा बदलाव आया है . पारंपरिक मीडिया तो था ही ,कुछ दिनों से सोशल मीडिया की भूमिका बहुत बढ़ गयी है . इंग्लैण्ड की एक कंपनी ने फेसबुक से आंकड़े निकाल कर संवाद का नया व्याकरण प्रस्तुत किया है और इस विषय पर आजकल देश भर में चर्चा है . अजीब बात यह है कि इस माध्यम का प्रयोग नफरत फैलाने के लिए ज्यादा हो रहा है . मुजफ्फरनगर के २०१३ के दंगों में इस तरकीब का सफलतापूर्वक इस्तेमाल किया गया था. पिछले दिनों नफरत के काम में लगे लोगों ने इंसानों को जिंदा जलाया ,उनका वीडियो बनाया और उसको सोशल मीडिया के ज़रिये पूरी दुनिया में प्रचारित किया . अभी खबर आयी है कि इसी तरह के एक नरपिशाच को हीरो के रूप में पेश करने की कोशिश की गयी और उस कोशिश का पता भी मीडिया के ज़रिये ही बाकी दुनिया को लगा .
नफरत और कट्टरता का आलम यह है कि इस तरह की हरकतों को आबादी का एक बड़ा वर्ग सही ठहरता है . संतोष की बात यह है कि देश में लिबरल राजनीति और चिंतन का दायरा सिकुड़ तो गया है लेकिन ख़त्म बिलकुल नहीं हुआ है . हाँ यह भी सच है कि लिबरल बुद्धिजीवी भी अपनी बात बहुत संभल कर कह रहे हैं . सार्वजनिक जीवन में उदारता के घटते स्थान पर आजकल देश में एक बहस चल रही है. बात मुसलमानों के हवाले से कही जा रही है .नेता तो इन मुद्दों को अपने तरीके से कहते ही रहते हैं. अब देश के गंभीर बुद्धिजीवी भी इस बहस में शामिल हो गए हैं . राष्ट्रवाद , राष्ट्रप्रेम ,देशप्रेम पर चर्चा हो रही है . और मुसलमानों का देश के राजनीतिक और सामजिक जीवन में जो मुकाम है वह जेरे बहस है .इसमें दो राय नहीं कि राजनीति का दखल हर विषय में होता है . स्वाभाविक भी है . नफरत को राजनीति का संचारी भाव बनाने की कोशिश बहुत वर्षों से चल रही थी अब लगता है कि वह मकसद हासिल कर लिया गया है. देखा यह गया है कि जब भी सरकार की कोई नाकामी से पर्दा उठता है तो कोई दुश्मन तलाश लिया जाता है . और सरकारी राष्ट्रवाद उसको हवा देने लगता है . दुश्मन के खिलाफ लोगों को लामबंद करना बहुत आसान होता है. इस तरह का राष्ट्रवाद हर उस व्यक्ति या संगठन को शत्रु के रूप में पेश कर देता है जिसके बारे में शक हो जाय कि वह स्थापित सत्ता को किसी रूप में चुनौती दे सकता है . वह कोई ट्रेड यूनियन , कोई छात्र संगठन ,कोई एन जी ओ ,जनांदोलन या कोई अन्य संगठन हो सकता है.
इसी खांचे में मुसलमानों को सरकारी राष्ट्रवादी जमातों ने फिट कर दिया है . टीवी चैनलों पर होने वाली बहसों में यह बात लगभग रोज़ ही रेखांकित हो रही है . साफ नज़र आ जाता है कि लक्ष्य की पहचान करके चांदमारी की जा रही है जिसके कारण मुसलमान होना और चैन से रहना मुश्किल होता जा रहा है . इस सन्दर्भ में हर्ष मंदर के एक लेख का ज़िक्र करना उपयोगी होगा .लिखते हैं कि एक दलित राजनेता ने मुसलमानों से कहा कि आप मेरी सभा में ज़रूर आइये लेकिन एक ख़ास किस्म की टोपी यह बुर्का पहनकर मत आइये . रामचंद्र गुहा इस बात से असहमत हैं .उनका तर्क है कि कि यह ठीक नहीं है. यह मुसलमानों को इक कोने में धकेल देने की एक कोशिश है ,उनके विकल्प छीन लेने की साज़िश है जबकि मुकुल केशवन कहते हैं कि मुस्लिम महिलाओं को बुर्के का त्याग करने का सुझाव देकर वह नेता उनको प्रगतिशील एजेंडा में शामिल होने का न्योता दे रहा है . यह तीनों ही बुद्धिजीवी विद्वान् लोग हैं ,उनकी मेधा पर सवाल उठाने का कोई मतलब नहीं है लेकिन यह भी बिलकुल सही है कि इनकी बातें पूरा सच नहीं हैं . सच्चाई यह है कि सामजिक स्तर पर मुसलमानों से मिलने जुलने से या उनकी बस्तियों में कुछ समय बिता लेने से मुसलिम मनोदशा और सामाजिक बंदिशों की परतों को समझ पाना थोडा टेढा काम होता है . सच्चाई यह भी है कि राष्ट्रवाद और देशप्रेम को समानार्थी शब्द बताकर मुसलमानों को देशप्रेम का सर्टिफिकेट देने की कोशिश की जा रही है .उसका सन्दर्भ लिए बिना इस बात को समझा नहीं जा सकता .
अखबार में चल रही इस बहस में नई इंट्री ब्राउन विश्वविद्यालया के प्रोफ़ेसर आशुतोष वार्ष्णेय ने ली है . उन्होंने राष्ट्रवाद को समझने के लिए भौगोलिक और धार्मिक या जातीय सीमाओं का ज़िक्र किया है और बात को एक सन्दर्भ में रखने की कोशिश की है . लेकिन यह विषय बहुत ही पेचीदा है और इसी से मुसलमानों की अस्मिता का सवाल आज नहीं तो कल बड़े पैमाने पार जुड़ने वाला है . इसलिए इसको बहुत ही गंभीरता से लेने की ज़रूरत है . हमको मालूम है कि जब राष्ट्र और मानवता के किसी मुद्दे को बहुत ही सावधानी से समझने की ज़रूरत पड़ती है तो एक इन्सान ऐसा है जिसकी बातें खरा सोना होती हैं . इस बात की पड़ताल करना ज़रूरी होगा कि राष्टवाद, देशप्रेम और मानवता के बारे में महात्मा गांधी क्या कहते हैं .'मेरे सपनों का भारत ' में महात्मा गांधी ने लिखा है
' मेरे लिए देशप्रेम और मानव-प्रेम में कोई भेद नहीं है; दोनों एक ही हैं। मैं देशप्रेमी हूँ, क्योंकि मैं मानव-प्रेमी हूँ। देशप्रेम की जीवन-नीति किसी कुल या कबीले के अधिपति की जीवन-नीति से भिन्न नहीं है। और यदि कोई देशप्रेमी उतना ही उग्र मानव-प्रेमी नहीं है, तो कहना चाहिए कि उसके देशप्रेम में उतनी न्यूनता है.जिस तरह देशप्रेम का धर्म हमें आज यह सिखाता है कि व्यक्ति को परिवार के लिए, परिवार को ग्राम के लिए, ग्राम को जनपद के लिए और जनपद को प्रदेश के लिए मरना सीखना चाहिए, उसी तरह किसी देश को स्वतंत्र इसलिए होना चाहिए कि वह आवश्यकता होने पर संसार के कल्याण के लिए अपना बलिदान दे सके। इसलिए राष्ट्रवाद की मेरी कल्पना यह है कि मेरा देश इसलिए स्वाधीन हो कि प्रयोजन उपस्थित होने पर सारी ही देश मानव-जाति की प्राणरक्षा के लिए स्वेच्छापूर्वक मृत्यु का आलिंगन करे। उसमें जातिद्वेष के लिए कोई स्थान नहीं है। मेरी कामना है कि हमारा राष्ट्रप्रेम ऐसा ही हो।
हमारा राष्ट्रवाद दूसरे देशों के लिए संकट का कारण नहीं हो सकता क्योंकि जिस तरह हम किसी को अपना शोषण नहीं करने देंगे, उसी तरह हम भी किसी का शोषण नहीं करेंगे। स्वराज्य के द्वारा हम सारी मानव-जाति की सेवा करेंगे।'
हमारा राष्ट्रवाद दूसरे देशों के लिए संकट का कारण नहीं हो सकता क्योंकि जिस तरह हम किसी को अपना शोषण नहीं करने देंगे, उसी तरह हम भी किसी का शोषण नहीं करेंगे। स्वराज्य के द्वारा हम सारी मानव-जाति की सेवा करेंगे।'
महात्मा गांधी की बात की राष्ट्रवाद की अवधारणा उसको संकीर्णता से बहुत दूर ले जाती है और सही मायनों में यही राष्ट्रवाद की सही तस्वीर है. राष्ट्रवाद के उनके विचारों में कहीं भी धर्म या जाति को कोई भी स्थान नहीं दिया गया है .
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