शेष नारायण सिंह
कर्णाटक की राजनीति लिंगायत धर्म को अल्पसंख्यक दर्ज़ा देने के मुद्दे पर केन्द्रित हो गयी है . लिंगायत लोग पहले कांग्रेस के समर्थक हुआ करते थे लेकिन जब राजीव गांधी ने १९९० में कर्नाटक के तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरेन्द्र पाटिल को अपमानित करके हटा दिया ,तो लिंगायतों में कांग्रेस के प्रति घोर नाराज़गी पैदा हो गयी . वीरेन्द्र पाटिल कर्नाटक के बहुत ही आदरणीय नेता थे और लिंगायत समुदाय से सम्बंधित थे. १९५७ में पहली बार एम एल ए बने थे और रामकृष्ण हेगड़े की साथ कर्नाटक के उस दौर के सबसे बड़े नेता, एस निजलिंगप्पा के प्रिय पात्र थे. जनता पार्टी राज में मुख्यमंत्री भी बने थे .चिकमगलूर लोकसभा के १९७८ के विख्यात उपचुनाव में जब इंदिरा गांधी जीत गईं तो तो जनता पार्टी ने उनको अपमानित किया . नाराज़ वीरेन्द्र पाटिल ने कुछ समय बाद इंदिरा कांग्रेस की सदस्यता ले ली . १९८९ में जब राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस केंद्र में चुनाव हार गई थी, तो वीरेन्द्र पाटिल के नेतृत्व में कांग्रेस को कर्नाटक विधानसभा चुनाव में ज़बरदस्त जीत मिली थी. २२४ सीटों में से कांग्रेस को १७८ सीट मिली थी. वे मुख्यमंत्री और शराब माफिया के दखल को राज्य की राजनीति में कंट्रोल करने में कामयाब रहे थे लेकिन न्यस्त स्वार्थों ने एक दंगा करवा कर और राजीव गांधी का कान भर कर उनको मुख्यमंत्री पद से हटवा दिया . उसके बाद वे बहुत दुखी इंसान थे. इस बीच बीजेपी ने लिंगायतों में काम शुरू कर दिया और लिंगायत पूरी तरह से बीजेपी के साथ हो गए और जब १९९४ में विधान सभा चुनाव हुए तो कांग्रेस मुख्य विपक्षी पार्टी भी नहीं बन सकी .
लिंगायतों के आन्दोलन को समर्थन देकर सिद्दारमैया ने कांग्रेस के उसी वोट बैंक को फिर से कांग्रेस के पक्ष में करने की कोशिश की है और जानकार बताते हैं कि पिछले साल जून से पूरे राज्य में ज़बरदस्त तरीके से चल रहे आन्दोलन के बारे में बीजेपी और आर एस एस गाफिल रह गए हैं और ऐन चुनाव के वक़्त लिंगायतों की बहुत पुरानी मांग के साथ खड़े होकर और उसको राजनीतिक और प्रशासनिक समर्थन देकर कर्णाटक के मुख्यमंत्री ने राज्य की राजनीति को ज़ोरदार तरीके से प्रभावित किया है .
एक अल्पसंख्यक और अलग धर्म के रूप में मान्यता के लिए लिंगायत समुदाय के लोग बहुत वर्षों से प्रयास कर रहे हैं . पिछले दो वर्षों में यह आन्दोलन का रूप ले चुका है और एक भावनात्मक मुद्दा बन चुका है . पिछले साल कर्नाटक के बीदर,गुलबर्गा,और कलबुर्गी में अलग धर्म की मांग करते हुए बड़ी रैलियाँ की गयी थीं. महाराष्ट्र के लातूर में भी लिंगायतों को बड़ी सभा हुई थी . उनकी मांग थी कि बारहवीं शताब्दी के समाज सुधारक और दार्शनिक बासवन्ना के आनुयायियों को एक अलग धर्म के रूप में मान्यता दी जाए. उनका तर्क है कि बासवन्ना के बाद के महान संत, गुरु नानक देव के अनुयायी एक अलग धर्म के रूप में मान्यता पा चुके हैं ,उसके पहले गौतम बुद्ध और महावीर जैन के अनुयायी भी अलग धर्म में आते हैं इसलिए लिंगायतों को भी वैसी ही मान्यता दी जानी चाहिए . वे अपने को वैदिक धर्म से बिकुल अलग बताते हैं और अपने को हिन्दू धर्म का अनुयाई मानने को बिलकुल तैयार नहीं हैं .
लिंगायत सम्प्रदाय को अलग धर्म के रूप में मान्यता दिलवाने के आन्दोलन के कई आयाम हैं . कई बार कोशिश की जाती है कि लिंगायतों को वीरशैव सम्प्रदाय से जोड़कर हिन्दू धर्म के शैव मत में शामिल कर लिया जाए लेकिन लिंगायत नेताओं का कहना है कि वीरशैव वास्तव में हिन्दू धर्म का ही हिस्सा हैं . वे पंचपीठ के अनुयाई हैं ,पांच आचार्यों की बात मानते हैं , स्वर्ग नरक की अवाधारणा में विश्वास करते हैं लेकिन लिंगायत ऐसा नहीं मानते हैं . वे वर्णाश्रम व्यवस्था के विरोधी हैं,मंदिर नहीं जानते , किसी देवी देवता की पूजा नहीं करते , अपने शरीर को ही मन्दिर मानते हैं और जाति की ब्राहमण व्यवस्था का विरोध करते हैं . हिन्दू धर्म के नेताओं की कोशिश हमेशा से रही है कि लिंगायतों को शैव मत की एक शाखा के रूप में ही मान्यता दी जाए .इसीलिये वीरशैव और लिंगायत को एक दूसरे का समानार्थक शब्द भी बताया जाता है .
इस मान्यता को लिंगायत नेता गलत बताते हैं . उनका कहना है कि लिंगायत बासवन्ना के वचन को मानने वालों का धर्म है जबकि वीरशैव सम्प्रदाय का मूल पंचार्यों के विचार में है. जिनके आदि पुरुष रेणुकाचार्य हैं .इनका मुख्य ग्रन्थ सिद्धान्त शिखामणि है जो मूल रूप से संस्कृत में है , वह वेदों और उपनिषदों के हवाले से अपनी बात कहता है.इसके बरक्स बासवान्ना के अनुयायी पंचार्यों की मान्यताओं को निंदा करते हैं और आरोप लगाते हैं कि यह सब लिंगायतों की मांग को विवाद में लाने के लिए किया जा रहा है . लिंगायतों का दावा है कि वीरशैव पूरी तरह से बासवन्ना की बात नहीं मानते हैं. वे वैदिक ग्रंथों में विश्वास करते हैं, शिव की मूर्तियों की पूजा करते हैं और धार्मिक मठों में विश्वास करते हैं जबकि लिंगायत अपने गुरु के अलावा किसी भी सत्ता को स्वीकार नहीं करते.
लिंगायतों का आन्दोलन नया है लेकिन विवाद बहुत ही पुराना है . ब्रिटिश काल में हुई १८७१ और १८८१ की जनगणना में लिंगायतों को शूद्र के रूप में रिकार्ड किया गया है . उस समय के लिंगायतों ने इसका बुरा माना था और अपने को ब्राह्मण का दर्ज़ा देने की मांग की थी . १९२६ में बाम्बे हाई कोर्ट ने आदेश दिया कि वीरशैव शूद्र नहीं हैं . उन दिनों वीरशैव और लिंगायत को एक ही मानने की बात लगभग स्वीकार कर ली गयी थी.लेकिन लगभग इसी समय में लिंगायतों के नेता इस बात पार जोर देने लगे कि वे एक अलग धर्म के अनुयाई हैं जो हिन्दू धर्म से बिलकुल अलग है. १९०४ में एक प्रस्ताव पास किया गया था कि लिंगायत और वीरशैव हिन्दू हैं लेकिन १९४० आते आते बात इसके एकदम उलट हो गयी . १९४० में वीरशैव महासभा ने कहना शुरू कर दिया कि लिंगायत धर्म अलग है और वह हिन्दू धर्म से अलग है . सन २००० आते आते लिंगायतों को अलग धर्म के रूप में सरकारी मान्यता देने की बात ने जोर पकड़ना शुरू कर दिया था और अब वह एक आन्दोलन का रूप ले चुका है . कहते हैं कि बी एस येदुरप्पा को उनके राजनीतिक शिखर तक पंहुचाने में में लिंगायतों के इस आन्दोलन की बड़ी भूमिका है .लिंगायतों की मांग है कि उनको गैर हिन्दू धर्म घोषित किया जाए और जनगणना में उनको हिन्दू धर्म से अलग मानकर रिकार्ड किया जाए . उनका दावा है कि हिन्दू धर्म में वर्णाश्रम व्यवस्था के कारण भेदभाव को महत्व दिया जाता है जबकि लिंगायत जातपांत के भेद को नहीं मानते .
इतिहास के गलियारों से गुज़रते हुए २०१७ आते आते यह मांग एक आन्दोलन के रूप में स्थापित हो गयी . बी एस येदुरप्पा लिंगायतों के सबसे बड़े नेता थे और वह भी इस मांग का समर्थन कर रहे थे .बीजेपी से अलग होने के बाद उनका भी आर एस एस की लाइन से कोई लेना देना नहीं था हालांकि आर एस एस की हमेशा से कोशिश रही है कि लिंगायतों को हिन्दू धर्म से अलग न होने दिया जाए. इस बीच लिंगायत सम्प्रदाय को अलग धर्म बनवाने की कवायद में कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्दरमैया जी जान से जुट गए . उन्होंने सभी शिक्षा संस्थाओं को आदेश दिया कि वे अपने यहाँ बासवन्ना की फोटो अवश्य लगाएं . उन्होंने लिंगायत धर्म की संत अक्का महादेवी ने नाम पर महिला विश्वविद्यालय का नाम रख दिया है. अक्का महादेवी को लिंगायतों में वही मुकाम हासिल है जो वैष्णवों में मीराबाई को है .
दिसंबर २०१७ में कर्णाटक सरकार ने नागमोहन दास की अध्यक्षता में एक कमेटी बना दी जिसने अभी कुछ दिन पहले सिफारिश कर दिया कि लिंगायत समुदाय को अलग धर्म के रूप में मान्यता दे दी जाए मुख्यमंत्री सिद्दरमैया ने तुरंत ही केंद्र सरकार को चिट्ठी लिख दिया कि लिंगायत समुदाय को अल्पसंख्यक मान लिया जाए . कांग्रेस की इस चाल के सामने बीजेपी अपने को असहाय मान रही है क्योंकि कर्नाटक विधान सभा के चुनाव जीतने की बीजेपी की सारी रणनीति लिंगायतों को अपना वोट मानकर चलने की थी. इसी प्रयास में अध्यक्ष अमित शाह ने येदुरप्पा को दुबारा पार्टी में शामिल किया था और मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया था . आज येदुरप्पा भारी दुविधा में हैं . लिंगायत समुदाय को अलग धर्म की सरकारी मान्यता वाली बाज़ी सिद्दरमैया ने अपने नाम कर ली है . इसके अलावा भी वे पिछड़ी जातियों, दलितों और मुसलमानों में पिछले पांच साल से चुनाव को ध्यान में रख कर काम कर रहे हैं .
अब बीजेपी ने अपनी रणनीति में बदलाव किया है . पार्टी के नेता अब टीपू सुलतान पर ध्यान दे रहे हैं जिसने अपने शासनकाल में लिंगायतों पर बहुत अत्याचार किया था . अब वे सिद्दरमैया पर आरोप लगा रहे हैं कि वे और राहुल गांधी हिन्दू धर्म को बांट रहे हैं जबकि बीजेपी वाले वृहत हिन्दू समाज को एक करने की कोशिश कर रहे हैं . अभी चुनाव अभियान तो एक शकल ले रूप ले रहा है . यह देखना दिलचस्प होगा कि अगले पांच हफ्ते में कर्णाटक का चुनावी ऊँट किस करवट बैठेगा.
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