शेष नारायण सिंह
नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद महाराष्ट्र और हरियाणा की जिन दो विधान सभाओं के चुनाव हुए हैं , वहां प्रधानमंत्री की पार्टी, बीजेपी की भूमिका हमेशा से ही मामूली रही हैं . लेकिन इस बार दोनों ही विधान सभाओं में बीजेपी सबसे मज़बूत पार्टी है और दोनों ही राज्यों में बीजेपी की सरकारें हैं . अब लगने लगा है कि में सत्ताधारी पार्टी का तमगा तो अब लगभग मुकम्मल तरीके से बीजेपी को ही मिलने वाला है . विधानसभा चुनावों का दूसरा मुख्य सबक यह है कि जहां कांग्रेस की सरकारें थीं वहां अब कांग्रेस बुरी तरह से हार चुकी है और तीसरे मुकाम पर पंहुंच चुकी है . जिन तीन अन्य विधानसभाओं के चुनाव होने हैं ,वहां भी कांग्रेस की हालत खराब है . दिल्ली में वह बहुत ही कमज़ोर तीसरी पार्टी है , जम्मू-कश्मीर में पिछले कई वर्षों से एक ऐसे मुख्यमंत्री को समर्थन देती रही है जिसकी विश्वसनीयता पूरी तरह से समाप्त हो चुकी है और झारखण्ड में भी ऐसे नेताओं के सहारे राजनेति चल रही है जिनकी राज्य और समाज में कोई इज्ज़त नहीं है . ऐसी हालत में लगता है कि आज़ादी के बाद से अब तक सबसे ज़्यादा समय तक सत्ता में रही पार्टी और जब सत्ता में नहीं रही तो सबसे मज़बूत विपक्षी पार्टी का रुतबा रखने वाली कांग्रेस और धीरे धीरे मुख्य विपक्षी पार्टी के रोल से भी बाहर हो जायेगी . भारत की मौजूदा राजनीति और भावी संकेतों का कोई भी जानकार बता देगा की संसदीय लोकतंत्र में मज़बूत विपक्ष की भूमिका भी सरकार से कम नहीं होता है . देश की राजनीति में बीजेपी वही मुकाम हासिल करने की कोशिश कर रही है जो कभी कांग्रेस के लिए आरक्षित हुआ करता था. और अभी फिलहाल ऐसा नहीं लग रहा है कि कोई नरेंद्र मोदी की पार्टी को चुनौती देकर पार पाने की स्थिति में है .
ज़ाहिर है देश में विपक्ष की राजनीति का जो स्पेस है वह भी कांग्रेस को उपलब्ध होता नज़रनहीं आता. कांग्रेस में एक अजीब जड़ता की राजनीति हावी हो रही है .कांग्रेस पार्टी केमहानायकों महात्मा गांधी और सरदार पटेल की विरासत को बीजेपी के नेता और प्रधानमंत्रीनरेंद्र मोदी लगभग अपना चुके हैं . अब तो यह भी लगने लगा है कि सत्ताधारी पार्टी , बीजेपी ,जवाहरलाल नेहरू की भी अच्छी बातों को राष्ट्र की धरोहर बताकर नेहरू की विरासत से भीकांग्रेस को बेदखल कर देगी . वैसे भी राहुल गांधी की कांग्रेस में जवाहरलाल नेहरू कोसम्मान देने की परम्परा ख़त्म होती नज़र आ रही है . कांग्रेस पार्टी ने नेहरू की १२५वीं जयन्ती मनाने के लिए जो कमेटी बनाई है उसको नेहरू की विचारधारा का विरोध करने वालोंसे भर दिया है और नेहरू के वास्तविक समर्थकों और नेहरू की विचारधारा के जानकारों, मणिशंकर अय्यर और दिग्विजय सिंह को उसमें शामिल ही नहीं किया गया है . बहरहाल मुद्दायह है कि कांग्रेस को विपक्षी पार्टी के रूप में सामान मिलना बंद होने वाला है . ऐसी स्थिति मेंमुख्य विपक्षी पार्टी के रूप में राजनीतिक स्पेस घेरने के लिए नए नए गठबंधन और गठजोड़हो रहे हैं .इस पृष्ठभूमि में दिल्ली में उन पुराने नेताओं की बैठक हुयी जो १९८९ में राजीवगांधी को चुनौती देकर इकठ्ठा हुए थे . और अपने आपको जनता दल के नाम से लामबंदकिया था. इस बैठक में पूर्वप्रधानमंत्री देवेगौडा, मुलायम सिंह यादव,लालू यादव, शरद यादव ,कमल मोरारका, नीतीश कुमार , ओम प्रकाश चौटाला के पौत्रआदि शामिल हुए . कोशिश एकता की थी लेकिन अभी फिलहाल उन मुद्दों पर चर्चा की गयी जिनके आधार पर संयुक्त संघर्ष चलाया जा सके. कुल मिलाकर कोशिश यही है कि विपक्ष में रहते हुए देश की राजनीति में गैर कांग्रेसी ,गैर बीजेपी विकल्प की तलाश की जाय और लिए ताथाकथित समाजवादी ताक़तों को एकजुट किया जाए. इस जनता परिवार के नेताओं को लगता है कि समाजवादी राजनीति के राष्ट्र की मुख्य धारा में सशक्त हस्तक्षेप का समय आ गया है .हर आइडिया का समय होता है , समय के पहले कोई भी आइडिया परवान नहीं चढती . भारत की राजनीति में कांग्रेस का उदय भी एक आइडिया ही था . महात्मा गांधी ने १९२० में कांग्रेस को जन संगठन बनाने में अहम भूमिका निभाई . उसके पहले कांग्रेस का काम अंग्रेजों के उदारवाद के एजेंट के रूप में काम करना भर था .बाद में कांग्रेस ने आज़ादी की लड़ाई में देश का नेतृत्व किया. महात्मा गांधी खुद चाहते थे कि आजादी मिलने के बाद कांग्रेस को चुनावी राजनीति से अलग करके जनान्दोलन चलाने वाले संगठन के रूप में ही रखा जाए . चुनाव में शामिल होने के इच्छुक राजनेता अपनी अपनी पार्टियां बनाकर चुनाव लड़ें लेकिन कांग्रेस के उस वक़्त के बड़े नेताओं ने ऐसा नहीं होने दिया .उन्होंने कांग्रेस को जिंदा रखा और आज़ादी के बाद के कई वर्षों तक राज किया. बाद में जब डॉ राम मनोहर लोहिया ने गैर कांग्रेस वाद की राजनीति के प्रयोग शुरू किये तो कांग्रेस को बार बार सत्ता से बेदखल होना पड़ा. १९८९ में गैर कांग्रेसवाद की भी पोल खुल गयी जब बाबरी मस्जिद के विध्वंस के लिए चले आंदोलन में कांग्रेस और बीजेपी साथ साथ खड़े नज़र आये. १९९२ में अशोक सिंहल,कल्याण सिंह और पी वी नरसिम्हाराव के संयुक्त प्रयास से बाबरी मस्जिद ढहाई गयी लेकिन उसके पहले ही बीजेपी और कांग्रेस का वर्गचरित्र सामने आ गया था. पूर्व प्रधान मंत्री चन्द्र शेखर ने लोक सभा के अपने ७ नवंबर १९९० के भाषण में इस बात का विधिवत पर्दाफ़ाश कर दिया था. उस भाषण में चन्द्रशेखर जी ने कहा कि धर्म निरपेक्षता मानव संवेदना की पहली परख है . जिसमें मानव संवेदना नहीं है उसमें धर्मनिरपेक्षता नहीं हो सकती.इसी भाषण में चन्द्र शेखर जी ने बीजेपी की राजनीति को आड़े हाथों लिया था . उन्होंने कहा कि मैं आडवाणी जी से ग्यारह महीनों से एक सवाल पूछना चाहता हूँ कि बाबरी मसजिद के बारे में सुझाव देने के लिए एक समिति बनायी गयी, उस समिति से भारत के गृह मंत्री और उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री को हटा दिया जाता है . बताते चलें कि उस वक़्त गृह मंत्री मुफ्ती मुहम्मद सईद थे और उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री मुलायम सिंह यादव थे. चन्द्र शेखर जी ने आरोप लगाया कि इन लोगों को इस लिए हटाया गया क्योंकि विश्व हिन्दू परिषद् के कुछ नेता उनकी सूरत नहीं देखना चाहते.क्या इस तरह से देश को चलाना है . उन्होंने सरकार सहित बीजेपी -आर एस एस की राजनीति को भी घेरे में ले लिया और बुलंद आवाज़ में पूछा कि क्यों हटाये गए मुलायम सिंह , क्यों हटाये गए मुफ्ती मुहम्मद सईद ,उस दिन किसने समझौता किया था ? "
इसी भाषण के बाद से बीजेपी ,कांग्रेस या कांग्रेस से अलग होकर आये लोगों की अपने आपको आम आदमी का पक्षधर बताने की हिम्मत नहीं पडी .बाद में जब १९९६ में गैर कांग्रेस गैर बीजेपी सरकार की बात चली तो एच डी देवे गौड़ा को प्रधान मंत्री बनाने वाली पार्टियों के गठबंधन को तीसरा मोर्चा नाम दे दिया गया था.लेकिन कोई ऐसी राजनीतिक शक्ति नहीं बनी थी जिसे तीसरे मोर्चे के रूप में पहचाना जा सके. लेकिन यह आइडिया भी कोई आकार नहीं ले पा रहा था. बदलते राजनीतिक परिदृश्य में माहौल बदल रहा है. करीब दो साल पहले स्व मधु लिमये के करीबी सहयोगी रह चुके राजनीतिक चिन्तक और लोहिया की राजनीति के मर्मज्ञ ,मस्तराम कपूर के प्रयास से दिल्ली में गैर कांग्रेस गैर बीजेपी राजनेताओं और जन आंदोलन के कुछ बड़े नेताओं का जमावड़ा हुआ था जिसमें समाजवादी राजनीति की लोहिया की समझ को बुनियाद बनाकर एक कार्यक्रम पेश किया गया था. इस सभा की अध्यक्षता लोहिया की राजनीति के सबसे प्रमुख उत्तराधिकारी मुलायम सिंह यादव ने किया था,.
इस बैठक में ही तीसरे मोर्चे का एजेंडा भी पेश किया गया था. योजना यह थी कि समाजवादी राजनीति की बुनियादी बातों के नाम पर एकजुटता की अपील की जायेगी . अपील की भी गयी . विदेशी पूंजी का विरोध, बिजली ,पानी, ईंधन और ज़रूरी खाद्य पदार्थों के निजीकरण का विरोध, खेती की ज़मीन के अधिग्रहण का विरोध ,अनिवार्य वस्तुओं की कीमतों के निर्धारण पर सामाजिक नियंत्रण ,कम से कम और अधिक से अधिक आमदनी में अनुपात का निर्धारण आदि शामिल हैं . राजनीतिक सुधार के कार्यक्रम भी एजेंडे में शामिल किये गए थे . मुख्य सतर्कता आयुक्त को लोकपाल की शक्तियां देकर भ्रष्टाचार नियंत्रण में सक्षम बनाना,साम्प्रदायिक दंगों और अल्पसंख्यकों के ऊपर होने वाले अपराधों के निपटारे के लिए विशेष अदालतों का गठन ,सरकारी फिजूलखर्ची पर पाबंदी , विधायक और सांसद निधि का खात्मा,दल बदल विरोधी कानून में परिवर्तन जिस से असहमति के आधिकार की रक्षा की जा सके,ग्राम सभाओं के ज़रिये सविधान के ७३वे और ७४वे संशोधन के रास्ते पंचायती राज को मज़बूत करना ,सरकारी काम में भारतीय भाषाओं के प्रयोग जैसे अहम मुद्दे शामिल हैं .इसके अलावा चुनाव प्रणाली में सुधार ,शिक्षा और संस्कृति संबंधी कार्यक्रम और राष्ट्रीय एकता और अखण्डता को मज़बूत करने वाले कार्यक्रम शामिल किये गए थे. .
सम्मलेन की आयोजकों को उम्मीद थी कि तीसरे मोर्चे को एक शक्ल देने की ऐतिहासिक ज़रूरत को यह सम्मलेन एक दिशा अवश्य देगा . सम्मलेन में कम्युनिस्ट पार्टी के सबसे बड़े नेता ए बी बर्धन ने साफ़ कहा कि वे गैर कांग्रेस गैर बीजेपी विकल्प की तैयारी के लिए मुलायम सिंह यादव को नेता मानने को तैयार भी हैं लेकिन कुछ नहीं हुआ. बात आगे नहीं बढ़ी . यह चुनाव के पहले की बात थी और अगर सब लोग एक ही गए होते तो शायद आज की राजनीतिक परिस्थिति बिलकुल अलग होती . लेकिन अब बीजेपी के अलावा सभी पार्टियां चुनाव हार चुकी हैं . एक बार फिर से नए सिरे से गैर कांग्रेसी राजनीतिक विपक्षे को बनाने की कोशिश तेज़ हो गयी है . देखना यह होगा कि क्या विपक्षी एकता कोई स्वरुप लेती है या पिछले पचास साल से चल रही विपक्षी एकता जैसी ही कोई घटना होकर नहीं रह जाती .
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