शेष नारायण सिंह
२०१४ भारत के राजनीतिक इतिहास में बहुत बड़े परिवर्तन का वर्ष माना जाएगा. इस एक साल में सब कुछ बदल गया हुई. कभी कभी तो यह बदलाव बिकुल डरावना लगने लगता है .साल की शुरुआत में देश में कांग्रेस का राज था .विपक्ष और मीडिया ने कांग्रेस को एक भ्रष्ट सरकार के रूप में पेंट कर रखा था. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की छवि एक हताश व्यक्ति की बन गयी थी जो कांग्रेस अध्यक्ष के बेटे के सामने मजबूर थे. मुख्य विपक्षी पार्टी बीजेपी ने सत्ता की दावेदारी का आभियान चला रखा था. गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में पेश करके बीजेपी ने देश के राजनीतिक माहौल को बहुत गरमा दिया था. राहुल गांधी को जनवरी २०१३ में जयपुर में कांग्रेस पार्टी का उपाध्यक्ष बना दिया गया था और उनसे भी देश की राजनीति को बड़ी उम्मीदें थीं . माहौल ऐसा बन रहा था कि राहुल गांधी अपनी पार्टी के उन सीनियर लोगों को सक्रिय कर देगें जो कांग्रेस की राजनीति की समझ रखते होंगें और नरेंद्र मोदी के प्रचार अभियान की चुनौती को स्वीकार करेगें. लेकिन उन्होने पार्टी के सारे महत्वपूर्ण काम ऐसे लोगों को थमा दिया जो उनकी और उनके करीबी लोगों की गणेश परिक्रमा किया करते थे. जवाहर लाल नेहरू के १२५वी जयंती के दौर में ऐसे लोगों को इंचार्ज बना दिया गया जिनको नेहरू की बिकुल समझ नहीं थी. दिल्ली में रहकर राजनीतिक तिकड़म करने वालों के हाथ में कांग्रेस का हर महत्वपूर्ण विभाग संभलवा दिया गया था .
जब जनवरी २०१३ में राहुल गांधी ने कांग्रेस का उपाध्यक्ष बनने के बाद भाषण दिया था तो उनसे बहुत उम्मीदें बंधीं थी . उम्मीदों से भरा बाषण दिया था राहुल गांधी ने . उन्होंने अपने पिता स्व राजीव गांधी के उस भाषण से बात को शुरू किया जो स्व राजीव गांधी ने १९८५ में दिया था . राजीव गांधी ने कहा था कि केन्द्र से जो कुछ आम आदमी के लिए भेजा जाता है उसका केवल १५ प्रतिशत ही पंहुचता है .उन्होंने दावा किया कि अब आम आदमी को जितना भेजना है उसका ९९ प्रतिशत सही व्यक्ति तक पंहुचाया जायेगा. इसके लिए उन्होंने वर्तमान सूचना क्रान्ति का धन्यवाद किया . अपने भाषण में राहुल गांधी ने कांग्रेस की सफलताओं का ज़िक्र किया और हरित क्रान्ति से लेकर शिक्षा के अधिकार तक को अपनी पार्टी की सरकार की उपलब्धि बताया ..उन्होंने कहा कि सरकार और राज काज का जो मौजूदा सिस्टम है वह ज़रूरी डिलीवरी नहीं कर पा रहा है .. सत्ता के बहुत सारे केन्द्र बने हुए हैं .बड़े पदों पर जो लोग बैठे हैं उन्हें समझ नहीं है और जिनको समझ और अक्ल है वे लोग बड़े पदों पर पंहुच नहीं पाते ऐसा सिस्टम बन गया है कि बुद्दिमान व्यक्ति महत्वपूर्ण मुकाम तक पंहुच ही नहीं पाता.आम आदमी की आवाज़ सुनने वाला कहीं कोई नहीं है .उन्होंने कहा कि अभी ज्ञान की इज्ज़त नहीं होती बल्कि पद की इज्ज़त होती है . इस व्यवस्था को बदलना पडेगा. ज्ञान पूरे देश में जहां भी होगा उसे आगे लाना पडेगा. उन्होंने कहा कि यह दुर्भाग्य है कि कांग्रेस में नियम कानून नहीं चलते . इसे बदलना होगा , नियम क़ानून के हिसाब से कांग्रेस को चलाना पडेगा .. उन्होंने इस बात पर दुःख व्यक्त किया कि हर जगह मीडियाक्रिटी समझदार लोगों को दबाने में सफल हो जाती है .. इनीशिएटिव को मार दिया जाता है . सत्ता में बैठे लोग मीडियाक्रिटी को ही आगे करते हैं क्योंकि उस से उनको सुरक्षा मिलती है . काबिल लोगों की तारीफ़ करने का फैशन ही नहीं है .भ्रष्ट लोग भ्रष्टाचार हटाने की बात करते हैं , औरतों की रोज ही बेइज्ज़त करने वाले महिलाओं के अधिकारों की बात करते हैं .उन्होंने कहा कि इस तरह के पाखण्ड को भारत अनंत काल तक बर्दाश्त नहीं करेगा.
राहुल गांधी के जयपुर के इस भाषण से बहुत उम्मीदें बंधीं थीं लेकिन बाद में उन्होंने जिस तरह से काम किया उस से साफ़ लग गया था की वे एक लिखा हुआ भाषण दे रहे थे . पूरी २०१३ में उन्होने जितने भी काम किये उनमे से एक भी ऐसा नहीं था जो उनके जयपुर वाली भावना को कहीं से भी रेखांकित करता . आस पास चापलूसों की फौज बैठा ली और कांग्रेस में भी उस तरह के लोगों को आगे किया जिनकी नई दिल्ली के बाहर कोई हैसियत नहीं थी. उधर सितम्बर आते आते बीजेपी के तत्कालीन अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने लाल कृष्ण आडवानी और उनके गुट दिल्ली में सक्रिय बड़े नेताओं के विरोध की परवाह नहीं की और नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया . नरेंद्र मोदी ने बहुत ही बड़े अभियान की शुरुआत कर दी और राहुल गांधी को बहुत बाद में पता चला कि अब पहल उनके हाथ से निकल चुकी थी. नरेंद्र मोदी ने गुजरात २००२ , साम्प्रदायिकता आदि के बैगेज को साथ लेकर अपने अभियान की शुरुआत की .. राहुल गांधी उनके सामने बहुत छोटे नज़र आने लगे और २०१४ के शुरू के हफ्तों में ही समझ में आने लगा था की मोदी को चुनौती दे पाना राहुल गांधी के बस की बात नहीं है . कई चरणों में चुनाव हुए और १६ मई को जब नतीजे आये तो देश की राजनीति में तीस साल बाद स्पष्ट बहुमत की सरकार बनने का रास्ता साफ़ हो चुका था. नरेंद्र मोदी देश के प्रधान मंत्री बन चुके थे .
नरेंद्र मोदी ने पहले दिन से ही अपनी पार्टी और अपने मुख्य संगठन आर एस एस के एक वफादार कार्यकर्ता की तरह काम शुरू कर दिया . शिक्षा के क्षेत्र में सबसे पहला अभियान शुरू हुआ. बत्रा नाम के एक व्यक्ति के तथाकथित वैज्ञानिक ज्ञान को मुख्य धारा में लाने की कोशिश शुरू हो गयी . इतिहास को फिर से लिखने की आर एस एस वालों की पुरानी योजना पर काम शुरू हो गया . आर एस एस की प्रार्थना में ही हिंदु राष्ट्र की स्थापना का संकल्प है . उसके लिए हर स्टार पर चर्चा शुरू हो चुकी है . आर एस एस के प्रमुख मोहन भागवत ने खुद आशा जता दी है की नौजवानों की पीढी के नौजवान रहते रहते हिंदु राष्ट्र की स्थापना हो जायेगी . आर एस एस के कुछ कार्यकर्ता कई संगठन बनाकर मुसलमानों और ईसाइयों को हिन्दू बनाने के काम में लग गए हैं . सरकार और बीजेपी के नेताओं से इस बारे में बात की जाए तो साफ़ बता दिया जाता है कि जो संगतःन इस तरह के काम कर रहे है ,उनका बीजेपी से कोई सीधा संपर्क नहीं है . लेकिन सरकार की तरफ से इस तरह के काम को रोक भी नहीं जा रहा है .
जवाहरलाल नेहरू की विरासत को गलत बताकर उसको तबाह करने की योजना पर कई स्तर पर काम हो रहा है . कोई किसी को बताने वाला नहीं है कि इस देश के निर्माण में नेहरू का सबसे बड़ा योगदान है और अगर उसको नकारा गया तो इतिहास को नकारना माना जाएगा . . उनके जीवनकाल में और उनके बाद उनको बेकार साबित करने की बार बार कोशिश होती रही है लेकिन उनकी दूरदर्शिता के आलोचकों के नाम का उल्लेख करना भी उनको महत्व देना होगा क्योंकि वे लोग जवाहरलाल नेहरू के साथ अपने नाम को जोड़कर अपने को महान साबित करने की कोशिश करते रहते हैं .
कश्मीर के मसले पर भारत में एक खास विचारधारा के लोग पानी पीकर भारत की आज़ादी के महान नायक को कोसते रहे हैं . उस विचारधारा वालों का नाम लेकर मैं उन लोगों को महत्त्व तो नहीं दे सकता लेकिन यह बताना ज़रूरी है कि जवाहरलाल नेहरू की निंदा करने वाले इन राजनेताओं के पूर्वज आज़ादी की लड़ाई में भारत की जनता के साथ नहीं खड़े थे और इनका एक भी नेता १९२० से १९४७ के बीच भारत की आज़ादी की लड़ाई के लिए जेल नहीं गया था .कश्मीर के मामले में १९४७ में जो सफलता मिली थी वह भारत की कूटनीतिक और राजनीतिक सफलता की एक ज़ोरदार मिसाल है .
कश्मीर के अलावा भी नेहरू ने हर क्षेत्र में सफलता दर्ज की थी. आर्थिक विकास औद्योगीकरण, शिक्षा , मानवाधिकार , संस्थाओं की स्थापना , मुराद यह कि निर्माण के हर मुद्दे पर नेहरू ने सफलता पाई थी. लेकिन उनके वंशजों ने नेहरू के सम्मान की रक्षा के लिए वह कोशिश नहीं की जो उनको करनी चाहिए थी. और दूसरी तरफ नेहरू की विरासत को तबाह करने वालों की फौज खड़ी है . लगता है २०१४ को एक ऐसे साल के रूप में भी याद किया जाएगा जब नेहरू की विरासत नकारने की सरकारी कोशिश शुरू की गयी थी.
दर असल इस देश की आज़ादी और उसके बाद के इतिहास में मुसलमानों की भौत बड़ी भूमिका रही है . महात्मा गांधी के १९२० के आन्दोलन के बाद हिन्दू-मुसलमान में जो एकता दिखी थे यूसके बाद से अंगेजों को लगने लगा था कि बहुत दिन तक भारत को गुलाम नहीं बनाए रखा जा सकता . उसके बाद से ही अंग्रेजों ने १९२० के दशक में ऐसे बहुत सारे संगठनों की स्थापना को प्रोत्साहन दिया था जिसके बाद से दोनों ही समुदायों में मतभेद पैदा किया जा सके. उन संगठनों ने हमेशा ही हिन्दू मुसलमान के बीच मतभेद पैदा करने की कोशिश की लेकिन उन्हें कोई ख़ास सफलता नहीं मिली . लेकिन लगता है कि २०१४ में उन लोगों की सफलता की शुरुआत हो चुकी है . हम जानते हैं कि अगर अपने देश का सेकुलर स्वरुप बर्बाद किया गया तो देश और समाज की तरक्की में बहुत बड़ी बाधा आयेगी . लेकिन अजीब बात है कि मौजूदा हुक्मरान उन प्रवृत्तियों से या तो बेखबर हैं और या उनसे आँखें मूंदे हुए हैं . जो लोग भारत और भारत के संविधान से मुहब्बत करते है उनके लिए भारी परिक्षा की घड़ी है . आने वाला समय बहुत बड़े बदलाव की तरफ जाएगा . उम्मीद की जानी चाहिए की भारत की एकता और अखण्डता के दुश्मन किसी भी हालत में सफल न हों .